Book Title: Aagam 45 Anuyogdwaar Haaribhadriyaa Vrutti
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
View full book text
________________
आगम
(४५)
“अनुयोगद्वार'- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
.......... मूलं [९०-९३] / गाथा [८...] ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार' मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति::
श्रीअनु
हारि-पूची
प्रत सूत्रांक [९०-९३]]
गाथा ||८..||
॥३९॥
ACANCE
विसु भावेयब, सवण्णुवरसतो व मद्वेग, नान्यथावादिनो जिनाः, 'पदेसट्टयाए सम्बत्योचाई गमववहाराण' मित्यादि, स्तोकवे कारण 'अपदेसट्टयाए' शि अप्रदेशार्थत्वेन नास्य प्रदेशा विद्यन्त इत्यप्रदेश:-परमाणु:, उक्तंच-'परमाणुरप्रदेश'इति तक्रावस्तेन, अणोनिरवयवत्वावित्य.. संग्रहेणद्रपाह--प्रदेशातया सर्वस्तोकानीत्यभिप्राये अपदेशार्थत्वेनेति कारणाभिधानमयुक्त, विरोधात्, स्वभावो हितुर्वदि प्रदेशार्थता कथमप्रदेशाताव्यानुपूर्वी घेता इति, अत्रोकते, भारमीयकप्रदेशव्यतिरिक्तपदेशान्तरप्रतिषेधापेक्षा प्रदेशाधता, न पुनर्निजेकप्रदेशप्रतिषेधापेक्षापि, धम्मिण एवाप्रमझा-1 विचारवययसंगार बलं विस्तरेण 'अवत्तबगदख्वाई पदेसट्टयाए बिसेमाधियाई' अनानुपूर्वदिव्येभ्य इति, अब विनेयासमोहार्थमुवाहरणं-161 बुद्धीए सयमे अवत्तव्यगरचा कया, अणाणुपुबिदबा पुण दिवसयमेचगा, एवं द्रव्यत्वेन विशिष्टविशेषाधिका भवन्ति, पवेसत्तणे पुणा CI अणाणुपुव्यिदव्वा अप्पणो दब्बताए तुला चेव, अपदेसत्तणओ, विसिविसेसाधिता (अवत्तव्यया) दुसयमेता भवंति, आणुपुत्रिदम्बाई अपदेसठ्ठताए अणतगुणाई, तेहिनोवि पदेवताए आणुपुग्विदम्बाई अणंतगुणाई, कथं ?, उच्यते, आणुपुब्बियाणं ठाणबत्तणओ, लेस्चि संखा अर्णतपदे-18 सत्तणओ, उभयार्थता सूत्रसिद्धव ' से त' मित्यादि निगमनद्वयं, से किंत' मित्यादि (९०-६९) इह सामान्यमात्रसंग्रहणशील संग्रहः, शेषं सूत्रासिद्धं यावत् 'तिपदेसिया आणुपुष्वी' त्यावि, इह संग्रहस्य सामान्यमात्रप्रतिपादनपरत्वाचावन्तः केचन त्रिप्रदेशिकास्ते त्रिप्रदेशिकत्वसामान्याव्यतिरेकात् व्यतिरेके च त्रिप्रदोशकत्वानुपपत्ते: सामान्यस्य चैकत्वादेकैव त्रिप्रदेशिकानुपूर्वीति, एवं चतुष्पदेशिकादिष्वपि भावनीय, पुनश्च विशुद्धतरसंमहापेक्षया सर्वासामेवानुपूर्वीत्वसामान्यभेदादेकैवानुपूर्वीति, एवमनानुपूर्धवक्तव्य केष्वपि स्वजात्यभेदतो वाच्य| मेकत्वमिति से त' मित्यादि निगमनं, बहुस्वाभायाहुवचनाभावः 'एताए ण' मित्यादि (९२-७०) पाठसिद्ध, यावत · अस्थिर आणुपुब्बी' त्यादि सप्त भंगा:, व्यक्तिबहुत्वाभावाद्वहुवचनानुपपत्तितः शेषभंगाभाव इति, एवं भंगोपदर्शनायामपि भावनीय। 'से किती
दीप अनुक्रम [१०१
१०४]
~43~

Page Navigation
1 ... 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133