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१६ श्रीमद् बुद्धिसागरजी ग्रन्थमाला ग्रन्थांक १० 90000000000000000000000000000000000
योगनिष्ठ मुनिराज श्री बुद्धिसागरजी कृत.*
श्री तत्त्वबिन्दुः .
अमदावादना प्रसिद्ध शेठ. मणिभाइ दलपतभाइ. तथा शेठ जगाभाइ दलपतभाइ बी, ए,
तथा सरस्वतिबनना धन व्ययथी.
छपाची प्रसिद्ध करनार, श्रीअध्यात्मज्ञानप्रसारकममम.
श्री" लक्ष्मी" प्रिन्टिंग प्रेस-अमदावाद.
वीर सं. २४३६
सने १९१०
किम्मत ०-४-0
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तुन्यबिन्दु ग्रन्थः
किंचिल्लेख्योद्देश.
आर्यावर्तमां आजथी २४३६ वर्ष उपर चोवीशमा तीर्थंकर श्री वर्धमानमभु ( महावीरप्रभु) विचरता हता. तत्समयमा अनेक भव्यजीवो सर्वज्ञ प्रभुनां वचनो सांभळी कृतार्थ थता हता. हालमां
श्रीवीरमभुना वचनोनो समावेश मोटा भागे पिस्तालीश आगममां तथा पूर्वाचार्यो रचित ग्रंथोमां था यछे. श्रीवीरप्रभुना समयमां पदार्थोनुं स्वरूप जेतुं उपदेशातुं हतुं तेतुं स्वरूप हाल पण तेमना सिद्धान्तो वांचतां समजायछे. हालमां विद्यमान जिनागमोने वांचतां वस्तुतुं यथार्थ भान थायडे. सिद्धांतोनुं मनन, स्मरण करतां ज्ञानावरणीय कर्मनो क्षयोपशम थाय छे. प्रभुनी वाणीनुं अगाध स्वरूपछे जेम जेम वांचीए छीए. मनन करीए छीए, तेम तेम तेमांथी कंइक नवुं स्वरूप समजायचे. जिनागमोतुं वाचन करतां कोइ कोइ विषय संबंधी नोटबुक करी सर्व विषय संग्रही तेनो आ विचार बिंदुग्रंथ बनाव्योछे, सिद्धांतमां कलां तत्वाना स्वरूपनी आगळ आ ग्रंथबिंदु समानछे माटे तत्त्वबिंदु एवं सार्थक नाम आयुंडे.
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आ तवबिंदु कोइ कोइ स्थळे जे जे विषयो लख्याछे, तेमां ग्रंथोनी साक्षीओ आपवामां आवीछे, सम्मतितर्क, विशेषावश्यक
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तत्वार्थ सूत्रवृत्ति, पनवणासूत्र, भगवतीसूत्र, विचारबिंदु, प्रश्नोत्तर सार्धशतक, प्रश्नचिंतामणि वगेरे ग्रंथोनी साक्षी आपवामां आवीछे.
अमदावादना प्रसिद्ध श्रावकश्राता शा. छोटालाल लक्ष्मीचंदने आ ग्रन्थना विषयो वांची संभळाव्याछे. तेथी ते आनंद पाम्याछे.
आ लखेला विषयासंबंधी कोइने कंइ कहेवानुं होय तो रुबरु आ पत्रथी पुछी खुलासो करवो.
आ ग्रन्थमां प्राय: छद्मस्थदृष्टिथी कोइस्थळे आगमविरूद्ध 'लखायुं होयतो ते पंडितो सुधारशो. वाअमने सिद्धांतसाक्षीपूर्वक जणाववामां आवशेतो बीजी आवृत्तिमां शुद्धि करवामां आवशे.
आ विषयो लखतां अमदावादमां झवेरीवाडा. आंबलीपोळना उपाश्रयमां विशेषावश्यक वंचातु हतुं. आठहजार श्लोकपूर्ण थया. तेथी तेमांथी केटलाक विषयो विशेषतः लख्याछे ते पुनः पुनः मनन करवा योग्यछे.
संवत १९६५ नुं चोमासुं अमदावादमां कर्युछे त्यां विशेषावश्यक वांचवामां आवतुं हतुं. त्यारे व्याख्यानमां श्रोताओमां नगरशेठ. मोहनलाल लल्लुभाइ तथा प्रसिद्धश्रोता शा. छोटालाल लखमीचंद तथा शा. हीराचंद ककलभाइ तथा शा. त्रिकमभाइ आलमचंदद तथा शा. हीराचंद सजाणजी तथा शा. बालाभाइ ककलभाइ, वगेरे हता. साध्वीओमां श्रवण करनार तरीके मुख्य साध्वीश्री शिवश्रीजी तथा साध्वीजी श्रीसुरश्रीजी तथा श्रीहरख
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श्रीजी वगेरे तथा श्राविकाओमां शेठाणी.गंगाबेन,तथा चंचळबेन तथा शेठ. लालभाइ दलपतभाइनी पुत्री माणेकबेन तथा शेठाणी. गंगावेननी दीकरीनीपुत्री सरस्वतिबेन वगेरे हतां श्रोतानीमंडली सुज्ञ होवाथी विशेषावश्यक वांचतां सर्वने आनंद थतो हतो. अने ते समये . उपयोगी जे विषयो जणाया हता. ते लखी लीधा हता. विशेषावश्यक काशी छपायछे तेथी विशेषतः अनुक्रमे सर्व विषयोनो उतारोकों नथी.कोइ उपयोगी विषयोने ध्यानमा आवतां अत्र दाखल कर्याछे. तेमां जे कंइ जिनाज्ञा विरुद्ध होय तो सज्जनो सुधारशो. ग्रंथनी शुद्धि करशो. प्रसंग हशे तो तत्त्वबिंदुनो द्वितीयभाग प्रसंगे लखाशे तो छपाववामां आवशे.
आ ग्रन्थ तथा अन्य ग्रन्थो छपाववामां अमदावादना श्रावक वर्गमा अग्रगण्य प्रसिद्ध शेठ दलपतभाइ भगुभाइना पुत्र शेठ मणिभाइ दलपतभाइ, तथा शेठ जगाभाइ दलपतभाइ बी. ए. ए धनथी सारी रीते स्हाय करीछे, माटे ज्ञानक्षेत्रनी उन्नति अर्थ धन व्यय करवायी तेमने धन्यवाद घटेछे. ज्ञानना रसिया श्रावक गृहस्थो धन वगेरेथी जिनशासनी उन्नति करी प्रतिदिन लक्षादि धन्यवादोने पात्र थाओ. तेमना आत्मानी उन्नति थाओ.
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
मुकाम. अमदावाद झवेरी वाडो.
आंबली पोळनो उपाश्रय. सं. १९६६ मागसर शुदी ५ शुक्रवार.
लि. मुनि. बुद्धिसागर.
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योमनिष्ठ मुनि बुद्धिसागरजी कृत ग्रन्थोनी यादी.
अने ते मळवानां ठेकाणां
પુસ્તકનું નામ,
મળવાનું ઠેકાણું ૧ જે ધર્મ અને ખ્રિસ્તિ ધી એ કેન્ડલી સેસાઇટીસુંબઈ.
ધર્મને મુકાબલે છે જે 'ર-૩ શ્રી રવિસાગરજી વડોદરા મામાની પળ શા કેશવલાલ
અને શોકવિનાશક લાલચંદને ત્યા, ૪ પદવ્ય વિચારો પાદરા. શા. મેહનલાલભાઇ હીમચંદ ૫ વચનામૃત છે કે અધ્યાત્મશાંતિ-શા. રતનચંદ લાધાજી કાવીઠા બેરસદ પાસે,
ચિંતામણિ છે અનેય બુદ્ધિસાગર સમાજ, ૮ કન્યાવિકય નિષેધ, ૮ પૂજા સંગ્રહ
સાણંદ ૧૦ બુદ્ધિપ્રકાશ ગાયન સંગ્રહ -શામણિલાલ વાડીલાલ સાણંદ, ૧૧ બુદ્ધિપ્રકાશ ગાયન સંગ્રહ અમદાવાદ સંભવ જિનમંડલ,
ભાગ બીજે, ૧૨ સમાધિશતક-શેઠ, જગાભાઈ દલપતભાઈ મુ. અમદાવાદ ૧૩ તત્વવિચાર
જ્ઞાન પ્રસારક મંડલ. મુબાઈ ઝવેરી બજાર ૧૫ આત્મ પ્રકાશ શા. વીરચંદ કૃષ્ણા. મુ માણસા
પુના-વૈતાલપે. ૧૬ ભજન સંગ્રહ ભાગ પહેલો ૧૭ ભજન સંગ્રહ ભાગ બીજે.) અમદાવાદ, ૧૮ ભજન સંગ્રહ ભાગ ત્રીજે. ૧૮ ભજન સંગ્રહ ભાગ ચેાથે, જન બોડીગ નાગોરી રાહ ૨૦ અધ્યાત્મજ્ઞાન વ્યાખ્યાનમાળ)
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૨૧ આત્મપ્રદીપ ૨૨ અધ્યાત્મગીતા, .. ૨૩ આત્મસ્વરૂપ ! અમદાવાદ જનતાંબર એડીગ ૨૪ અનુભવ પચ્ચીશી, ૨૫ પરમાત્મ દર્શન,
નાગરીશરાહ, ૨૬ પરમાત્મ જ્યોતિ, ર૭ ગુરૂધ, ૨૮ પ્રાચીન ન્યાય ગ્રંથ ઉદ્ધાર ઝવેરી ભેગીલાલ તારાચંદ,
સંસ્કૃત સ્યાદ્વાદ મુક્તાવલી. અમદાવાદ શીવાડાનીપાળ, ૨૯ તૂર્વબિંદુ (યાને સંક્ષિપ્ત જૈન બેડીંગ - સિદ્ધાંત રતન,
નાગોધશાહ અમદાવાદ૩૦ ચેતનશક્તિ ગ્રન્થ-(ભજન સંગ્રહ ત્રીજા ભાગમાં) ૩૧ વર્તમાનકાલ સુધા-(ભ, ત્રીજા ભાગમાં) ૩ર પરમબ્રહ્મ નિરાકરણ- ભજન સં. ૪ ચયામાં) ૩૩ ગધ્યાત્મ વચનામૃત અન્ય (ભજન સંગ્રહ ભાગ ચાપ)
નહીં છપાવેલા ગ્રંથોની યાદી. ૩૪ તત્વ પરીક્ષા વિચાર ૩ય ધ્યાન વિચાર ૩૬ સુખસાગર ૩૭ ગુરૂમાહાભ્ય. ૩૮ શ્રીમંત સરકાર ગાયકવાડ સયાજીરાવની આગળ આપેલું ભાષણ ८ पत्र सदुपदेश.
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योगनिष्ठमुनिबुद्धिसागरेण. ॥ तत्त्वबिन्दुग्रन्थः प्रारभ्यते ॥
प्रणिपत्य परात्मानं, धर्मदेवं गुरुंगिरं ॥
शास्त्रोदधेः समुद्धृत्य, तत्त्वबिन्दु विरच्यते ॥१॥ • १. पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय ए चार प्रत्येकनां
स्थानक ३५० जाणवां.
३५० ने पांचवर्णे गुणवा. जे सरदाळो आवे तेने बेगंधयी . . गणवो. फेर पांचरसथी गुणाकार करवो. फेर आठ स्पर्शयी ... . गुणाकार करवो. अने फेर पांच संस्थानथी गणवा. ते सर्व
गणतां सातलाख योनि थाय. प्रत्येक वनस्पतिना ५०० स्थानक. साधारण वनस्पतिकायनां ७०० स्यानक. द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय स्थानक १०० प्रत्येकनां जाणवां.
देवता, नारकी, तिर्यचपंचेंद्रिय प्रत्येकनांस्थानक २०० जाणवां. __मनुष्य योनि चउदलाखनां उत्पत्ति स्थानक ७०० जाणवां. २ जेनो वर्ण, गंध, रस, अने स्पर्श एक होय तेनी एक योनि जाणवी.
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तरवबिन्दुः
३ जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष, धर्म, अधर्म, हेय, ज्ञेय, उपादेय, निश्चय, व्यवहार, उत्सर्ग, - अपवाद, आश्रव, परिश्रव, अतिचार, अनाचार, अतिक्रम, व्यतिक्रम, इत्यादि, सांभळ्याविना शास्त्ररहस्य समजाय नहि.
४ सुस्थान, सुग्राम, सुजाति, सुभ्रात, सुतात, सुमाता, सुकुल, .. सुबल, सुखी, सुपुत्र, सुपात्र, सुदान, सुमान, सुरूप, सुविधा, सुदेव, सुगुरू, सुधर्म, सुदेशादिनीयोगवाइ, पुण्यविना प्राप्त थती नथी.
५ सुमति, शीलवंत, संतोषी, सत्संगी, स्वजनसाचाबोला, सत्पुरुष, सुलक्षणा, सुलज्जावंत, गंभीर, गुणवंत, गुणज्ञ, एवा गुणवंत पुरुषनी संगति करतां धर्म पामी शकाय.
६ चोर, छलग्राही, अधर्मी, अधम, अविनेय, अधिकबोलो, अनाचारी, अन्यायी, अघोर, अधुरा, कुलक्षणा, कुबोला, कुपात्र, कुशील, खुशामती, कुलखंपण, तुच्छमतिवाळा जीवोनी संगति करवी नहि.
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तवबिन्दुः
(^)
७ सद्गुरुना उपदेशथी, तथा अभ्यासयी, तथा वैराग्यंथी जीव धर्मरत्न पामी शके.
८ सूत्राभ्यास, अर्थाभ्यास, वस्तुअभ्यास तथा अनुभवाभ्यास ए चार प्रकारनो अभ्यास करतां धर्मवस्तुनी प्राप्ति थाय.
९ हिंसाथी पाप थायछे, षट्कायने हणवाना परिणामथी वैर अने पाप ए वे प्राप्त थाय छे। अने ते पाप उदयमां आवे त्यारे अशाता, आकुलता, उद्वेगता, अस्थिरता उत्पन्न थायछे.
१० दर्शनमोहनीय क्षयोपशमथी धर्म थाय छे, तथा चारित्रमोहनीयना उदयथी पुण्य पाप थाय छे, अविरतिनो उदय मंद थाय तथा क्षयोपशम थाय त्यारे विरतिनो उदय थाय. अने विरतिनो उदय थाय त्यारे षट्काय जीव उपर दयाना परिणाम उपजे. तेथी पुण्य थाय, अने अविरतिना तीव्र उदये पाप नीपजे,
मां एटलुं विशेष के चारित्र मोहनीयनो उदय मंद होय त्यारे पुण्य, अने चारित्र मोहनीय उदय तीव्र होय त्यारे पाप नीपजे. अने दर्शनमोहनीयना क्षयोपशमथी धर्म होय. तथा तेना क्षायिक भावथी धर्म होय.
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(0) . तत्त्वबिन्दुः । ११ ज्यां मिथ्याबनी पुष्टि न थाय. अने स्याद्वादमार्ग विरूद्ध भा
षण थाय नहीं. अने आत्मस्वरूप उपादेयरूपे प्ररूपवामां आवे. अने शुभक्रियानो आदर बतावे अने शुभक्रियाना फलनी वांछा न करावे, तिरस्कार बतावे, तेम अशुभक्रियानो तिरस्कार बतावे, अशुभक्रियानां फल दुर्गति आदि बतावे, इत्यादि आगमोक्तमरूपणाने देशना समजवी, पुण्यक्रिया सेववी पण तेना फलनी वांछा न करवी. तेनुं रहस्य एम समजवु के पुण्य क्रिया शुभ व्यापारे शुभयोगथी नहि आदरे तो मार्ग विरूद्धता थाय, परंपराए पण वीतराग मार्गे जोडाय नहि, अने जो पुण्यना फलनी वांछा करे.तो निदानरूप मिथ्यास प्रणमे, माटे पुण्य फल वांछा रहित शुभ क्रिया करवी.
१२ जीवने थतो खेद निवारवा अर्थे पूर्वबंधकर्म संभारीए ते आ
प्रमाणे-जेवां जीवे कर्म बांध्यांछे तेवां उदये आवेछे, ते मध्ये केटलांक कर्म प्रदेशे वेदीने खेरवेछे, केटलांक निकाचित कर्म बांध्याछे ते विपाके जीव वेदीने खेरवेछे, पण ज्ञानी आत्मा कर्म भोगवतां उदय निष्फल करे. आलोवे, निंदे, पश्चाताप करे. त्यारे अल्पबंध थाय, अने बहुनिर्जरा थाय, माटे जानी जीव समभावे कर्म वेदी उदय निष्फल करेछे. उपयोगे मात्मस्वरूप विचारे त्यारे अल्पकर्म बंध थाय.
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तस्वविन्दुः
(५)
:
१३-उववाइ सूत्रमा चार प्रकारनी धर्मकथा कहीछे.. .. १ आक्षेपिनी. २ विक्षेपिनी. ३ निर्वेदिनी. ४ संवेदिनी. ? तत्त्वमार्गमां जोडावे ते आक्षेपिनी. २ मिथ्यात्वमार्गथी निवर्तावे ते विक्षेपिनी. ३ मोक्षाभिलाष उपजावे ते निर्वेदिनी. ४ वैराग्यभाव उपजावे ते संवेदिनी धर्मकथा जाणवी.
१४-केवलीप्रभुने क्षायिक नवलब्धि ते नवनिधि जाणवी, तथा पं.
चेन्द्रिय अने चार कषाय निवर्ताववाथी नव निधि मुनिराजने जाणवी.
१५-चक्षु इन्द्रियनो विकार नष्ट थतां हृदयज्ञान चक्षु निर्मल याय,
श्रोतेंद्रियनो विकार मटे त्यारे जिनवचन श्रवणनीति प्रतीतिरूप थाय, जिव्हां इन्द्रियविकार नष्ट थतां आत्मिक अनुभवरस स्वाद पामे. नाशिकानो विकार मटतां आत्मगुणनी सुवासना पामे, स्पर्शन्द्रियनो विकार न थतांआत्मपदेशना स्वभावरूप स्पर्शन थाय, क्रोध नष्ट थतां समता प्रगटे, मान नष्ट थतां मार्दधगुण प्रगटे, माया जतां आर्जवगुग प्रगटे, लोभ जतां संतोष गुण प्रगटे.
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तत्वबिन्दुः
१६ - मिध्यात्वना चार प्रकारछे. १ प्रदेशमिथ्यात्व २ परिणाम मिथ्यात्व ३ प्ररूपणामिध्यात्व ४ प्रवर्तन मिथ्यात्व तेमांथी व्यवहार समकित पामे त्यारे १ प्ररूपणामिध्यात्व अने प्रव र्तन मिथ्यात्व टळे. ग्रंथिभेद थाय, उपशम तथा क्षयोपशम समकित पामे त्यारे परिणाममिथ्यात्व टळे, तेमज क्षायिक समकित पामे त्यारे प्रदेश मिथ्यात्व टळे.
१७ - चार प्रकारनी देशना जाणवी. १ धर्मदेशना २ गतिदेशना ३ बंध देशना ४ मोक्षदेशना.
१८ - धर्मना चार प्रकार का छे. १ आचारधर्म २ दयाधर्म ३ क्रियाधर्म ४ वस्तुधर्म.
१ आचारधर्म आदरतां जोवनो अनाचार टळे, तथा तेथी लौकिक यश, प्रतिष्ठा पामे, अन्य तीर्थवाळा पण जैनधर्मनी प्रशंसा करे. जैनधर्मना आचारनी अनुमोदना करे.
२ दया धर्मथी हिंसाकर्म टळे. जीवनी सद्गति थाय. शुभकर्म उपार्जन करे, अने तेथी परंपराए मुक्तिपद प्राप्त करी
शकाय..
३ क्रियाधर्म जे जिनपूजा-वंदन, सद्गुरुवैयावृत्य, पैषध, प्रतिक्रमण आदि करतां कर्ममल नष्ट थाय, सुगति पमाय, प रंपराए मुक्तिमार्गयां जोडाय.
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'तत्वबिन्दुः ४ चोथो वस्तुधर्म. वस्तुस्वरूपे वस्तुधर्म पामतां स्वरूपाचरण
स्थिरता तथा समकित पामे, परमात्मस्वरूप थाय. ___ए चार भेदमांथी एक पण दुहवाय नहिं तेम प्रवर्ववं. जे भव्य क्रियाविधि आचरतो स्वस्वरूपोपयोगमा वर्ते ते शिघ्र कर्म नष्ट करी परमात्मपद पामे.
१९-कर्म विधाछे. अकर्मनी वर्गगा ते द्रव्यम. पांच प्रकारना . शरीरते नोकर्म जाणवां, अने रागद्वेषते भावकर्म आत्माश्रित
छे. तेमां द्रव्यकर्म अने नोकर्म पौद्गलिकछे. तथा शाता अने अशाता ते द्रव्यकर्माश्रितछे तथा हर्षोल्लास ते भावकर्माश्रितछे.
२०-पंच परमेष्टीतुं स्मरण करवाथी ओदयिककर्मनु निवारग थाय,
अरिहंतादिकनुं द्रव्यथी शरण करतो जोव पापनो उदय निफल करे. तथा विपाकवेदन पण अल्प थाय, तथा अपा अप्पंमिरओ-आत्मा आत्मानुं शरण करे अर्थात् स्वस्वरूपमा परिणमेतो सर्वकर्म क्षय करे. एम आत्मसरण अने निमित्तशरणनो भेद जाणवो. अरिहंतनुं नाम स्मरतां, ध्यातां, रागद्वेष । नष्ट थाय, सिद्धपद स्मरता, ध्यातां, आत्मा अरूपिभावने पामे. तथा आचार्यपद गणतां, स्मरतां, विचारतां, ध्याता, पंचाचार प्रवर्तन सुलभ थाय, अने भवांतरे आचार्य गणधरादिक पद पामे. तथा उपाध्यायपदनु स्मरण करतां तथा ध्यातां शास्त्रार्थ तथा सूत्राभ्यासनी सुलभता थाय, भवांतरे अध्यापन शक्ति
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तस्वविन्दुः
प्रगटे. साधुपदनुं स्मरण तथा ध्यान करतां मुक्तिमार्गनुं साधन याय. गजसुकुमालनी पेठे तुरत मुक्तिपद पामे, दर्शनपद आराधतो समकित निर्मल करे, तथा चारित्रपद आराधतो पअधा चारित्र पामे, तथा तपःपद आराधतां इच्छा निरोध थाय, ए नवपदनो संक्षेपथी भावार्थ समजवो.
जवा.
२१-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पामीने बांध्यां कर्म उदये आवे.जेवा
रसे आवे तेवा प्रदेशे तथा विपाके भोगवे. भोगवतां जेवां वेदे तेवां नवां बीजां बंधाय, वेदतां समभावे वेदे तो निर्जरा थाय, रागद्वेषभावे वेदे तो नवां कर्म बंधाय, तथा रागद्वेषभावे वेदीने पश्चात् पश्चाताप करे तो कर्मबंधना रसघात करे. तथा स्थितिघात करे. अने कर्मबंधनी चिकाश टळे. अने ते कर्म उदयकाल पामीने सुखे खरी जाय, अने कर्म वेदतां मन, थाय तो चीकणां कर्म बांधे ते उदयकाळे दुःखे भोगवे, अने कर्म निर्जरे पण वेदतां नवां कर्म बंधाय.
२२-क्रियाए कर्म अने उपयोगे धर्म अने परिणामे बंध जाणवो.
२३-धनबलथी दान देवाय, मनोबलथी शील पाली शकाय, तनु- , : बलयो तप थाय, सम्यग्ज्ञानबलथी भावद्धि थाय, सद्गुरू
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तत्वबिन्दुः
(3)
देशना श्रमण करबी, सुदेवनी सेवना करबी, सुधर्मनी आराधना करवी.
२४ - क्रोधमान वे द्वेषनां अंगछे, माया अने लोभ वे रागांगछे. ना. कषायमां स्त्रीवेद, पुरुषवेद, अने नपुंसकवेद, ए त्रण बेद तथा हास्य तथा रति वे एम पंच रागनां अंगछे, तेमज अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, ए चार द्वेषनां अंग जाणवां रागद्वेष तेज मोड जाणवो.
२५- आत्मस्वभावे परिणमतां सम्यक्त्व गुण प्रगटे ॥
२६ - पांच इंन्द्रियना विषयरूप ते द्रव्यमन जाणवुं. व्यक्ताव्यक्त विकल्परूप भावमन जाणवुं. अपेक्षाए आ व्याख्याछे.
२७ शुद्धज्ञान उपयोगे जीव भावनिर्जरा करे, अने वैराग्यभाव उदासिनता द्रव्यनिर्जरा करे.
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तत्त्वबिन्दुः,
२८ पुदगलेच्छाथी अज्ञाननी पुष्टि थायछे, अने मूर्छाथी मिथ्या
त्वनी पुष्टि थायछे.
२९ आठ कर्म मध्ये मोहनीय कर्मनी अहावीश प्रकृतिछे, तेमांत्रण ___... प्रकृति सम्यक्त्व मोहनीयनी जाणवी, चारित्र मोहनीयनी प'... चीश प्रकृतिछे ते मध्ये तेर प्रकृति रागना घरनी अने बार प्र. कृति द्वेषना घरनी जाणवी.
३० योगत्रिके उपायों कर्म ते तप संयमादि शुभ क्रिया व्यापारे . प्रवर्ततां टळेछे, तथा शुद्ध उपयोगे आत्मस्वरूपमा परिणमतांस
ताए कर्मछे ते मटावे. तथा मिथ्यात्वथी बांध्यां कर्म समकितथी टळे, अविरतिनां बांध्यां कर्म विरतिथी टळे. कषायनां बांध्यां कर्म उपशमादि समता गुणथी टळे, प्रमादथी बांध्यां कर्म अममाददशाए टळे, इन्द्रियविषयनां बांध्यां कर्म ते तपश्चर्याथी टळे.
३१ सर्व संयोगोनो वियोग थशे. चेतन चेती ले. परमां इष्टबुद्धि
दुःखनुं मूळछे
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तत्वविन्दुः
३२ आत्मस्वभावमा रम! दुनीयादारीमां मुंझाइश नहीं. नीवन प्रति
दिन वह्या करेछे. ज्यां प्रीति त्यां भीति रहीछे. स्वात्ममा भीति धर.
३३ तारु इष्ट तारा हाथमांछे, भूलीश तो भमीश.
३४ सदगुरु आज्ञा सदा क्षणे क्षणे स्मरी स्वभावमां रमण कर. ,
३५ परस्वभावमा रमतां कोशंटाना जेवी अवस्था थशे.
३६ धननी केफ मदिरा समानछे. निरूपाधिमां सुख अने उपाधिमां
दुःखज छे.
३७ बाह्यनी मोटाइ अन्तरनी मोटाइने रोकेछे.
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(99)
तस्वचिदुः
३८ आत्मस्वभावे जाम्बा तेज जाग्याज जाणवा.
३९ जेटलो बाह्य वस्तुमां आनंद तेटलुंज पाछळथी दुःख.
४० चेतन हवे प्रमाद त्याग ? त्याग ? त्याग.
४१ मनुष्योना परिचयमां साधुओने अल्प आवकुं तेज हितकरछे.
४२ आत्मा तारी भूल तनेज नडशे.
४३ चेती ले, मायामां शुं म्हाली रह्योछे.
४४ सदेव सद्गुरू अने सदूधर्मनी श्रद्धा परम हितकारकछे.
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तत्वबिन्दुः
namamiwwww
४५ स्वतंत्रजीवन आत्मस्वभावमा रमवाथीज जाणवू.
४६ पारकी आशा सदा निराशा. आत्मसम्मुखताज करवा योग्यछे.
४७ कोइ जीव पाप बहु करे अने कर्मअल्पबांधे, अने कोइ जीव पाप
अल्प करे अने कर्म बहु बांचे. कोइने पाप बहु अने कर्म पण बहु, कोइने पाप अने कर्म एके नहीं ए चौभंगी जाणवी.
— ४८ शुद्ध उपयोगे धर्म. क्रियाए कम, मिथ्यात्वमोहे भर्म, सम्यग्
दृष्टि धर्माधिकारीछे. संकल्प विकल्पमा आत्मा परिणमेतो कर्म बंध करे. अने आत्मा निर्विकल्पभावे परिणमेतो धर्म प्रगटावी शके.
४९ चेतना बे प्रकारनीछे. १ ज्ञानचेतना बीजी अज्ञानचेतना.
अज्ञानचेतनाना बे भेदछे, एककर्मचेतना बीजी कर्मफलचेतना. रागद्वेषपणे परिणमे ते कर्मचेतना जाणवी. अने अश्यमा आव्यां कर्मने वेदे ते कर्मफल चेतना जाणवी. ज्ञानचेतनामां भेद नथी. ज्ञानचेतना प्रगटतां कर्मचेतना अने कर्मफल टळे. समकित पाम्या बाद ज्ञानचेतना होय, मिथ्यात्वीने अज्ञान चेतनाज झेय. ।
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( १४ )
तत्वबिन्दुः
५० भूतकालनां पाप प्रतिक्रमणथी टळे. वर्तमानकालीन पापकर्म सामायकथी टळे अने अनागतनां पापछे ते प्रत्याख्यानथी टळे.
५१ कर्मचेतना सजीवने होय. कर्मफल चेतना एकेन्द्रियादि प्रमुख ने होय. सम्यग्दृष्टिने ज्ञानचेतना होय.
५२ जीव त्रण प्रकारनाछे. १ एक भवाभिनंदी ते मिध्यादृष्टिजीव जाणवा. बीजा पुगलानंदी ते सम्यग्दृष्टिजीव जाणवाः सम्यदृष्टि जीवने शुभ कर्म पुद्गल उदय आवतां रति वेदाय पण संसारमां आनंद करी जाणे नहीं, माटे सम्यग्दृष्टि जीवने पुलानंदी कवाय केवल आत्मामांज आनंद माने अने स्वस्वभावमाज सुख माने ते मुनिराज आत्मानंदी जाणवा.
५३. शुभ उपयोगे सुगति होय. अशुभ उपयोगे कुगति होय, तथा अशुद्ध उपयोगे संसार तथा शुद्ध उपयोगे मुक्ति होय.
५४ पुण्य पाप ते योग आश्रयीछे, अने धर्म अधर्म ते उपयोग आश्रयीछे,
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तत्वबिन्दुः
५५ शरीर संबंधी बल अने अंतरंग आत्मपराक्रमते वीर्य जाणवू.
अंतरंग आत्मानु पराक्रम ते उदयानुसारी जाणवू.
५६ मुनि, योगसंवर आराधतां औदयिक कर्म निवारेछे. अने उप-,
योगसंवर आराधतां सर्व कर्म नष्ट करेछे.
५७ पिस्तालीश लाख योजननो सीमंत नामनो नरकावासछे. मनु
ष्यक्षेत्र पिस्तालीश लाख योजननोछे. हुडुक विमान पिस्तालीश लाख योजन प्रमाणछे. सिद्धशिला पिस्तालीश लाख योजन प्रमाणछे.
५८ सातमी नरकनो अप्रतिष्ठान पाथडो, तथा सर्वार्थसिद्धविमान, - तथा जंबुद्वीप, ए त्रण पदार्थ लाख योजन प्रमाणछे.
५९ इरियावहियाना अहार लाख चोवीस हजार एकसोने वीश . भेदछे ते नीचे मुजब जाणवा. पांचसोत्रेसठ जीवना भेदछे तेने
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(48)
तत्वबिन्दुः
अभिहिया आदि दशपदे गुणवा. तेने राग अने द्वेषे गुणवा. तेने मनः वचन अने कायाना योगथी त्रणगुणा करवा. - पुनः कर कraj अने अनुमोदनुं एम त्रणे गुणीए पुनः अतीत अनागत अने वर्तमान एत्रणभेदे गुणी पुनः अरिहंतादिक छए गुणीए तो १८२४१२० भेद थाय.
६० धर्मक्षमा चतुर्थगुण स्थानकथी प्रगटेछे. क्षमा ऋण प्रकारनीछे. १ धर्मक्षमा २ उपकारक्षमा ३ अपकारक्षमा.
६१ उत्पातिकी बुद्धि, वैनयिकी बुद्धि, त्रीजीकार्मणकीबुद्धि, चोथी पारिणामिकी बुद्धि जाणवी.
६२ प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग, प्रतिक्रमण, ए त्रण आवश्यक उपर प्रीति जाणवी. चतुर्विंशतिस्तव, सामायक, अने गुरुवंदन ए त्रण आवश्यकपर भक्ति जाणवी.
६३ मतिज्ञान अने श्रुतज्ञान पश्चात् अवधिज्ञान तथा मनः पर्यवज्ञान .. थयाविना केवलज्ञान उपजे. मतिज्ञान, श्रुतज्ञान अने अवधिज्ञान पश्चात् मनःपर्यायज्ञान थया विना पण केवलज्ञान होय. मति
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तस्वबिन्दुः
(10) अने श्रुतज्ञान थया पादं अवधिज्ञान थया विना पण मनापर्यवज्ञान पामी केवलज्ञान पामे. मतिज्ञान. श्रुत अवधि अने मनः पर्यव ए चार ज्ञान पामीने पण केवलज्ञान थाय.
६४ देव पंच प्रकारनाडे. १ द्रव्यदेव, २ नरदेव, ३ धर्मदेव ४ दे
वाधिदेव ५ भावदेव.
देवायुष्य बांध्यु ते द्रव्यदेव. चक्रवर्ति ते नरदेव जाणवा. मुनिराज धर्मदेव जाणवा. तीर्थकर ते देवाधिदेव जामवा. देवपणे उत्पन्न थएलते भावदेव जाणवा.
६५ देवनी स्त्रीयो देवतांना करतां बत्रीश घणीछे. मनुष्य स्त्रीयो पु
रूप करतां सत्तावीश गणीछे.
६६ जिनकल्पी ते भवमा मुक्ति जाय नहीं, एवं श्री कल्पभाष्य तथा
प्रवचनसारोद्धारतिमांछे..
६७ वीर्याचारना छत्रीश अतिचार निशीथभाष्य तथा चुणीमां कसावे.
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(10)
तत्वविन्दुः ६८. गारकी वेदनाथी एक गाउ उंचा उछळे एवं जीवाभिगममा
कमुळे.
६९ ग्रहस्थावासमा रहेला तीर्थकरने साधु नमस्कार करे नहि.
७० प्रथम मुणगणे चारगतिनुं आयुष्य बांधे. चोथे गुणठाणे देव
तथा मनुष्यगतिनुं आयुष्य बांधे, पांचमे छठे तथा सातमे गुणगणे देवायुष्य बांधे.
७१ चारगतिमा क्षायिकसमकित सद्भावछे.
पर सा मुण्ठामेथी चोथे आवे. पांचमे आवे छठे आवे तथा
सातमे पण आवे.
* अगवहारराशियाधी व्यवहारसशिमा आवी पाछो अध्या
हार राशिमा जाय तो तेने उत्कृष्ट अढी पुदल परावर्तनकाल
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तस्वबिन्दुः ' व्यवहार राशिमा आवतां लागे. बादरनिगोदमांजे जे वखते आवे ते वखते सित्तर कोडाकोडी सागरोपम अने बाकीनो सूक्ष्मनिगोदमा गाळे.
७४ जीवथी छूटी पडेली आठकर्मनी वर्गणा छूटी रहे तो जघन्यथी
अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट असंख्यात काल जाणवो. आठे वर्गणाओ पोतानुं वर्गणास्वरूप छोडी अन्यरूपे पण परिणमे.
७५ समकित ते जीवनी सत्ताए द्रव्यतत्वरूपेछ. तेथी पडे तोपण
मिथ्यात्वपर्याय द्रव्यगुणरूपे एकत्वपणे न परिणमी शके. अमे न प्रणमी शके तेथी ७० सित्तर कोडाकोडी सागरोपममी स्थिति बंधाती नयी, तेटला माटे मिथ्यात्वते पर्यायल्प परिणमेछे. अने त्यारे एक कोडाकोडी सागरोपमनी ओछी स्थितिबंधाथछे, ते भाव पोताना क्षयोपशमथी उपजे. ज्ञानी कहे ते सत्य.
७६ १ नामथी नवतत्व २ गुणथी नवतत्व ३ लक्षणथी नवतत्त्व अने . चोथु स्वरूप परिणामरूप नवतत्व जाणवां. जीवानीवादिक ___ नामयी नवतत्व जाणवां. चेतना गुणते जीवनो जाणवो. तथा
वर्णादि गणमय पंच अजीवद्रव्य जाणवा, तथा पूर्वगति इ.
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(३०)
तस्वविन्दुः न्द्रियमुख्न आपे ते पुण्यनो गुण जाणवो. तथा अधोगति संक्लेशरूपते पापनो गुण जाणवो, शुभाशुभकर्म आगमन गुण आश्रवमो जाणवो. शुभाशुभ निरोध शुद्धोपयोगगुण, संवर तत्वनो जाणवो, शुभाशुभकर्मनो आत्मप्रदेश साथे बंध ते बंधतत्वनो गुण जाणघो. आत्मप्रदेशथी कर्मपुद्गलोनू खरते निर्जरानो गुण जाणवो. कर्मथी मुकावं ते मोक्षतत्वनो गुण जाणवो. जीव ते जीवत्वपणे परिणमे. अजीव ते जीवने आहारादिहेतुपणे परिणमेछे. पुण्य ते जीवने इंद्रियसुखनी शाता . रुपे परिणमेछे, एम नवतत्व स्वबुद्धिथी विचारीएतो एक जी. वने परिणमेछे. एम नवतत्व चार प्रकारे जाणवा.
७ मिथ्यात्वी जीवने आश्रवबंधपर्वक निर्जरा होय. सम्वगडष्ट्रि ..... जीवने संवरपूर्वक द्रव्यभाव निर्जरा होयछे. ज्ञानशक्ति तथा
वैराग्यबलथी समकितीने द्रव्यभाव निर्जरा थायछे, रागद्वेष परिणमननु घटाडवू. ते भावनिर्जरा, अने द्रव्यनिर्जराते कर्मवर्गणानुं पटाड. जे उदये आवे ते निर्जरे तेवां कर्म पाछ बंधाय नहि. बंधअल्पने निर्नरा घणी समकितीने थायछे. मिथ्यात्वी निर्जरा करे पण पाछो बंधायछे.
७८ आत्माना असंख्यात प्रदेशछे. एकेक प्रदेशे अनंतिशक्ति छे,
तथा एकेक प्रदेशे अनंतज्ञान छे. तथा एकेक प्रदेशे अनंता पर्याय द्रव्यगुण पर्याय स्थापन स्याद्वादमाथी जाणवू.
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तत्वबिन्दुः
७९, सम्यग्दर्शनथी द्रव्यशक्ति प्रगटे., सम्यगज्ञान गुणथी प्रकाश
थाय. सम्यक्चारित्रे परिणाम स्थिरता वृद्धि पामे.
८० सम्यक्त्व पाम्यावाद शुद्धोपयोग होय, मिथ्याष्टिने अशुद्धो
पयोग होय. तेमां पण मिथ्याष्टिने शुभक्रिया होय पण शुभउपयोग नहीं, शुभोपयोगतो शुद्धना घरनोछे. ते अनिच्छा ए होय- तथा मिथ्यात्वीने शुभक्रियारूप शुभोपयोग होय, पण निदान अभिलाष सहित होय. ते माटे अशुभरूप कसा. अने सम्यग्दृष्टिने शुद्धोपयोगना घरनो जे शुभोपयोग ते अनिदानरूपे कह्यो, ते माटे सम्यग्दृष्टिने शुद्ध उपयोग ते शुभ मिश्रिव होय ते माटे तरतमभेदे चतुर्थगुणस्थानकथी आरंभी बारमा गुणगणा पर्यंत मिश्र उपयोग होय. तेरमा गुणठाणाथी शुद्धोपयोग पूर्णपदे होय, मिथ्यात्वीने अशुद्धोपयोग होय.
८१ अनुभव प्रत्यक्ष आत्मस्वरूप विचारतां ध्यान करतां मन वि.
श्राम पामेछे. रसास्वाद सुख उपजेते, ते वात अनुभव प्रत्यक्ष छे, यथा शर्करा आस्वादनथी. सहस्र शर्करानो अनुभव प्रत्यक्ष थायछे, तेम जीवद्रव्य पण पोतानी सम्यग्दृष्टिथी अनुभव प्रत्यक्ष थाय छे. छउमथ्याणं दंसणं पुढं नाणं इति मूत्रे उक्तं छद्मस्थ प्रथम देखे पश्चात् जाणे. दर्शनतो सामान्याव बोधछे, झात्काररूप भासे. अल्पकाल रही पश्चात् ज्ञानमाहि भळे, ज्ञानतो . विशेषावबोधरूपछे, ते घणो काल रहे. ए रीते
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तस्याबिन्दु
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सम्यग्दृष्टि आत्मस्वरूप देखे. पण साक्षात् अरूपी असंख्य प्रदेशरूपमय आत्मानेतो केवलदर्शनथी देखे. सम्यग्दृष्टिने प्रतीते अनुमाने, अनुभव स्वरुपे देखे. जिनवचन प्रतीतिए गव्य स्वरूप दीढुं. अनुमाने चेतना लक्षण गुणे प्रत्यक्ष आत्मा देख्यो कहेवाय. एम आत्मस्वरूपने सम्यग्दृष्टि देखे. तत्वं ज्ञानिगम्यम्.
८२ त्रण योग साधुने रत्नत्रयीरूपे परिणमेछे, ते बतावेछे. मनो
योगतो दर्शनश्रद्वानरूपे परिणमेछ. ते वस्तुना निर्धारथी च. लतो नथी, वचनयोगते ज्ञान भणवू तथा यथार्थ उपदेश
देवो इत्यादिथकी ज्ञानरूपे परिणमेछे. काययोगते षट्कायनी । दयारूपे प्रवर्तछे. जयंचरे जयंचिठे इत्यादिरूप जाणवो,
८३ सम्यगदर्शनथी जन्मभय टळे छे. सम्यग्ज्ञानथी जरा दुःख - टळेछे, सम्पचारित्रथी मरणभय टळेछ, , .
८४ प्रण प्रकारनी देशना जग मकारनां कर्म टाळेछ. ययार्थ देश· · नाथी जीवाजीवादिकनुं स्वरूप धार्या प्रणम्या यकी वस्तु
तरखनो प्रकाश थायछे. तेथी भावकमरोग टळेछ. तथा विधि बाद देशनायी महावत देशविरतिरूप आचरण सुभोपयोगे
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तत्वबिन्दुः
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आचरतो छतो द्रव्यकर्मरोग टाळे. तथा त्रीजी चरित्रानुवाद देशनाथी शरीर संबंधी कामभोग विषय तथा कषायथी निवर्ते, जेम जंबू खामी प्रमुख मुनिराजोना चरित्र श्रवणथी वैराग्यगुण प्रगटे अने तेथी नोकर्मनो रोग मिटे.
८५ धर्मश्रवण तथा धर्मसूत्राभ्यास उद्यमनीरूचि सम्वत् दर्शनगुणनी प्राप्ति करावे. तथा तत्वातस्त्वगवेषणाबुद्धिथी सम्यग्ज्ञानगुणनी प्राप्ति थाय, तथा पंचेंद्रियना विषय तथा चार कषाय तथा पंच प्रमादनो जे त्याग तेथी चारित्रगुण प्रगटेछे. तथा आत्मस्वरूपमां लीनता तथा एक स्थिरता तथा ध्यानथी वीर्यगुण प्रगटेछे. एम चारगुण हेतु धारवा. हवे एनां शरीरमां स्थानक कहेछे. दर्शन चक्षु मध्ये. ज्ञानते हृदयमां, तथा चारित्रते चरणे, तथा वीर्यगुण उत्साहविषे होय, एम चार गुणनां स्थानक समजवां
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८६ स्वरूपहिंसा, अनुबंध हिंसा, द्रव्यहिंसा, भावहिंसा, तथा योगहिंसा, आदिहिंसाना घणा भेदछे स्वरूपहिंसाते साधुने नदी उतरतां होयछे. जिनाज्ञाथी त्यां दोष नथी. नदी उतरतां अयतनाना सद्भावथी इरियाबहिया आलोवे, तथा सम्यग्दृष्टिने देवपूजा गुरुवन्दना तथा आहार होरावतां इत्यादि कार्ये स्वरूप हिंसा जाणवी. पण तेथी अल्पबंध अने घणी निर्जरा थायछे माठे स्वरूप हिंसा
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(७)
तस्वविन्दुः
जाणवी. तथा वळी रागद्वेषे प्रणमीने जे कोइ मंद बुद्धि पाणी ' छकायना जीवने हणे. अने तेवी हिंसाना तरतम अध्यवसाये महाकर्मबंध फरे, तेथी अशुभविपाक उदयमां आवे ए अनुबंध हिंसा जाणवी. वळी एना भेद मध्ये द्रव्यहिंसाआवे तेनो किं चित् अर्थ लखेछे. द्रव्यहिंसा अनुपयोगे होय, भावहिंसा परिणामे होय, बाह्यहिंसा तथा योगहिंसा एटली स्वरूप
हिंसायां भळे तथा परिणामहिंसाते भावहिंसामा भळे, इत्या· · दिक समजी लेवु. ८७ १ इच्छायोग,२शास्त्रयोग ३सामर्थ्ययोग. एत्रण योग जाणवा.
४८ क्रोध रजपुतने घणो होय, मानक्षत्रीने घणो होय. माया ते
वेश्या तथा वणिक्ने घणी होय, भयते कायरने घणो होय.
८९ नाम जिननुं स्थानक जिव्हा इंद्रियमांछे, स्थापना जिननुं
स्थानक चक्षु इंद्रियमांछे, द्रव्यजिनस्थानक मनोयोगमांछे,मनोयोगे श्रद्धानछे माटे. भावजिननुं स्थानक हृदयमां होय,
९० आहारसंज्ञाए जीव अनादिकालथी खातो रहेछ. भय सं
. ज्ञाथी चतुर्गतिमां कंपतो रहेछे. मैथुनसंज्ञाथी पंचेंद्रियना ___विषयोनी अभिलाषा करेछे, परिग्रहसंज्ञाथी पुगलवस्तु
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तत्वबिन्दुः
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एकठी करेछे. ए चार संज्ञामांथी प्रथम संज्ञा वेदनीय कर्मना घरनीछे. अने बाकीनी त्रण संज्ञा मोहनीयकर्मना घरनीछे.!
९१ लेश्या योग प्रत्ययीछे अने योगते नामकर्ममध्येछे. माटे लेश्या नामकर्ममां आवी तत्त्वकेवली जाणे.
९२ चक्रवर्तिनं, चउद रत्नमांथी चक्र, असि, छत्र, अनेदंड ए चार रत्न आयुधशालामां उपजे, तथा मणिरत्न कांगणीरत्न अने चर्मरन निधिशिरगृहे नीपजे. तथा वळी पुरोहितरत्र, वार्धकीरत्न, सेनापतिरत्न, गाथापतिरत्न, ए चार रन पोताना नगरमां उपजे. स्त्रीरत्न राजकुले नीपजे. तथा गजरत्र अने अश्वररन ए वे रत्न वैताढ्य पर्वत उपर उत्पन्न थाय, हवे नवनिधाननी उत्पत्ति कहे छे. गंगानदीना कांठे नवनिधाननी नवपेटी प्रगटे, बायोजननी ते पेटी लांबी अने वे योजननी पहोळी, अर्धयोजननी उंची जाणवी, ते योजन आत्मामांगुल प्रमाण जाणवा, ए नवनिधि मंजुषाना आकारेछे. वैदुर्यमणिरत्नमय कमाडछे. सर्पिका नामनुं प्रथम तेमां स्कंधावार नगर निवेश इत्यादि. पामिक नामे बीजुं निधानछे त्यां बीजनी सर्व संपत्तिछे. पांगल नामे त्रीजुं निधान तेमां नरनारी हयगयनां आभरण जाणवां. चोथुं महापद्म तेमां चौद जातिनां रत्नछे, पांचमुं मल्लिनामे
मां विविधवत्रछे छठु कालनामछे तेमां त्रिकालज्ञाननां पुस्तकछे. सातमुं महाकाल तेमां सुवर्ण रूपुं मणिलोह सर्व
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( ३६ )
araबिन्दु:
द्रव्य अखूटछे. आठ माणवक तेमां सर्व युद्धनीतिछे. नवपुं शंखनामेतेषां चतुर्विध काव्य तथा तुर्यना अंग नाटक विधिनो संगीत ग्रंथछे. एकेकनिधाने एक हजार देवता अधिठायकछे ते व्यंतरिक देवता जाणवा. तेनुं आयुष्य एक पल्योपमनुं जाणवुं.
९३ चौदविद्या मोटीछे. १ नभोगामिनी २ परशरीरप्रवेशिनी ३ • रूपपरावर्तिनी ४ स्तंभनी ५ मोहिनी ६ स्वर्णसिद्धि ७ रज
सिद्ध ८ रससिद्ध ९ बंधथोभिनी १० शत्रुपराजयिनी ११ वशकरणी १२ भूतादिदमनी १३ सर्वसंपत्करी १४ शिवपद प्राप्तिकारिका.
९४ अनादिमिथ्यात्वी जीवने त्रीजुंगुणठाणं चढतां न आवे ते सो प्रथमगुणठाणाथी ग्रंथी भेद करी उपशम समकित पामी चोथे आवे. तथा सादि मिथ्यात्वी समकित पामीने पडयो होय ते पाछो क्षयोपशम समकित पामे से त्रीने गुणठाणे आवे तेने पडतां पण आवे.
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९५ कर्मनी प्रकृति सत्ताए १४८ एकशो अडतालीश मिथ्यात्व गुणगणाथी मांडी अग्यारमा गुणठाणा सुधी होय. पण बीजे
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तत्वबिन्दुः
श्री गुणठाणे जिननाम कर्मविना १४७ एकसो सुडतालीश प्रकृति होय. तेनुं कारण बतावेछे. चौथगुणठाणे क्षयोपशम समकित छे. ते समकितवाळो जिननामकर्म बांध ते बांधीने पाछो पडे समकित वमे तो ते पहेले गुणठाणे आवे पण बीजे तथा बीजे गुणठाणे नावे ते माटे मिध्यात्वगुणठाणे सत्ताए १४८ प्रकृति होय, अने शास्वादन समकित तो उपशमभाव आश्रयीछे. अने उपशम समकित छतां जिमनामकर्म न बांधे. चोथे गुणठाणे ज्यां सुधी उपशम समकित होय त्यां सुधी जिननाम कर्म न बांधे. स्तोककालछे माटे. क्षयोपशम तथा क्षायिक समकित छते जिननामकर्म बांधे. क्षयोपशम समकितथी पडतो जिननामकर्म बंधवाळो प्रथमगुणठाणे आवे पण बीजे श्रीजे गुणठाणे नावे तथा उपशमसमकिती पडे तो बीजे आवे. उपशमभावे जिननामकर्मनो बंध नथी माटे. बीजे त्रीने गुणठाणे सत्ताए १४७ एकशतसुडतालीश मकृति होय.
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९६ सात प्रकृति मध्ये प्रथम चारित्रमोहनीयनी चार प्रकृति तथा मिथ्यात्व तथा मिश्र ए छ प्रकृति वाघण समानछे. एक सम्यक्त्वमोहिनी कूतरी समानछे. ए सात प्रकृति सत्तामधी क्षय करे त्यारे क्षायिक समकित होय, अने ए सात प्रकृति उपशमभावे त्यारे उपशम समकित होय. मिथ्यात्वादि त्रण प्रकृति अने अनंतानुबंधी चोकडी ए सात प्रकृतिमांहिधी जे जे प्रकृतिमां दळीयां उदये आवे ते खपावे अने बाकी रह्यां तेनो उपशम करे तेने क्षयोपशमसमकित कहे छे. क्षयोपशम समकित वाळाने मिध्यात्वनो प्रदेश उदय होयछे पण विपा
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( २८ )
तबिन्दुः
कोदय नथी. उपशमसमाकतवाळाने प्रदेशोदय तथा विपाकोदय नथी.
९७ अनंतपरमाणु स्कंधतु प्रतिबिंब पडी शके.
९८ गुणग्राही साह्यकारी विनयी सेवाकारी गंभीर एवा शिष्य तथा श्रावको दुर्लभछे. गुणग्राहीतुं स्वरूप बतावेछे. गुरू पासे सूत्रसिद्धांत श्रवण करी घणी प्रशंसा करे. कीर्ति करे पण गुरूना कोइक औदयिकभावना अवगुण देखी निंदा करे नहि. खेद तथा अप्रीति धारण करे नहीं. जो खेद धारण करे तो भक्ति तथा विनयगुणथी भ्रष्टथवाय शिष्य तथा श्रावकछे ते गुरूना गुणगवेषी होय ते कहे छे. गुरूमांहि एक उपकारनो गुण होय ते देखे पण विनय चूके नहीं. अवगुण दृष्टिमां लावे नहीं, तथा साह्यकारी एटले गुरूराजने अन्न पानादिक तथा वखपात्र आपवानी घणी चाहना होय तथा आपे. पोते गुरुनी साहाय्य करे. तेमां पोतानी फरजछे एम समजे. नमन अने वचने करी गुरूनुं वैयावच्च करे. तथा गुरूने शाता उपजावे. एवा श्रावक तथा शिष्य पंचमकाळे मळवा घणा दुर्लभ छे.
९९ शाता अशाता आत्माश्रितछे. अने शातावेदनीयजन्मसुख 'अने अशातावेदनीयजन्य दुःख ते पुद्गलाश्रितछे.
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तत्त्वविन्दुः
१०० जिन वचन कारण कार्य सहितछे, तथा निमित्त उपादान स.
हितछे, तथा द्रव्य भाव सहितछे. तथा व्यवहार निश्चयसहितछे.
१०१ बावीस परिसह मध्ये बे परिसह शीत अने वीश परिसह उष्ण
छे. स्त्री परिसह अने सत्कार परिसह शीतछे. अने बाकीना उष्णछे.
१०२ उदय अने सत्ता एवे पुद्गलाश्रितछे, बंध अने उदीरणा एथे
आत्माश्रित अपेक्षाये होय,
१०३ आठ वर्गणामांथी सर्व करतां औदारिकवर्गणामां दलीक अल्प
जाणवा. तेथी वैक्रियवर्गणामां अनंतगुणां तेथी आहारकरगंणामां अनंतघणां अने तेथी श्वासोश्वास वर्गणामां अमन्तघणां अने तेथी मनोवर्गणानां पुद्गल अनंतघणां जाणवां तेथी अनंतघणां कार्मण वर्गणामां पुद्गल जाणवां.
१०४ समये समये जीव कर्मवर्गणानुं ग्रहण करेछे. ते कर्मवर्गणा
आठकर्मपणे वहेंचीने आपे. ते मध्ये कोइने थोडी आये अने
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तश्वबिन्दुः । कोइने घणी आपे. सर्वथी अल्पकर्मदल वर्गणा आयुष्यकर्मने आपे. तेथी नाम गोत्रकर्मने विशेषाधिक आपेछे. तेथी ज्ञाना. वरणीय तथा दर्शनावरणीय तथा अंतराय ए प्रण कर्मने विशेषाधिक आपे तेथी मोहनीयने कर्मदलवर्गणा अधिक आपे, तेथी वेदनीयने कर्मदलवर्गणा अधिक आपे. एम सर्व प्रकारे जोता वेदनीयकर्मने कर्मवर्गणादलीक अधिक आपेछे,
१०५ शास्त्रमा चउदगुण वक्ताना अने चउदगुण श्रोताना जाणवा.
१ शोलबोलना जाण पंडित, २ शास्त्रार्थ विस्तारी जाणे. ३ वाणीमां मीठाश होय, ४ प्रसंग अवसर जाण होय, ५ सत्य वचन बोले, ६श्रवण करनारने संदेह थतो छेदे, ७ बहुशास्त्रवेत्ता गीतार्थ उपयोगी होय. ८ अर्थ विस्तारी संवरी जाणे, ९ व्याकरण रहीत कठीन भाषा अपशब्द न बोले. १० वाणीथी सभाने रीजवे. अग्यारमे तथा बारमे बोले प्रश्नार्थ. तेरमे बोले अहंकार रहीत, १४ धर्मवंत तथा संतोषवंत होय. चउद गुण श्रोताना होय. १ भक्तिवंत, २ मिष्टभाषी, ३ गवरहीत, ४ श्रवणरूचि, ५ अचंचल एटले एकाग्रचित्तथी श्रवण करे अने धारे. ६ जेवू सांभळ्यु होय तेवु कहे, ७ प्रश्ननो जाण होय. ८ सांभळेला शास्त्रोतुं रहस्य जाणे. ९ धर्मकार्य आलसु होय नहि. १० धर्म श्रवण करतां निद्रा न आवे. ११ बुद्धिवंत होय. १२ दातारगुण होय. १३ जेनी पासे धर्मकथा
सांभळे तेना पाछळ घणागुण बोले, १४ निंदा रहीत होय .. तथा मिथ्यावाद करनार होय नहि... ... ..
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तरवबिन्दु:
१०६ वर्ण रस अने स्पर्श ए परमाणुपुद्गलना गुण जाणवा.
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१०७ योग, कषाय, ध्यान, अने लेश्या ए चार एकठा मले त्यारे परभवनुं आयुष्य जीव बांचे.
१०८ दरेक द्रव्यना द्रव्य क्षेत्र काल भाव अने गुण ए पंचभेद गणतां षड्द्रव्यना त्रीश भेद जाणवा.
१०९ १ महावेदना अने अल्प निर्जरा नारकीने होय, २ महावेदना अने महा निर्जरा साधुने होय, गजसुकुमालवत्-३ अल्पवेदना अने अल्प निर्जरा : देवताने होय, ४ महानिर्जरा अने अल्प वेदना शैलेशीकरणकारकने होय, ए चोभंगी जाणवी.
११० साधु स्वाध्याय करेछे. तथा शुभयोगे व्रतादिकनी शुभक्रिया करेछे. तथा शुद्धोपयोगे शुद्धस्वभावे अप्पाणं भाषेमणे विहरइ एम आत्मध्यान करेछे.
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तस्यबिन्दुः १११ जिनवाणी श्रवण करतां दर्शनावरणीयकर्मनो क्षयोपशम थाय
तथा ज्ञानावरणीय कर्मना क्षयोपशमे वाणी कानमांहि समज्यामा आवे, त्यारवाद वाणी ते दर्शनमोहनीय कर्मना क्षयोपशमथी यथार्थ आत्मस्वरूप ज्ञानमां आवे. तथा जिनवाणी ध्यानमाहि आवे, ते केम तो ते कहेछे के-धर्मातराय कर्मनो क्षयोपशम थाय त्यारे एकाग्रतारूप ध्यानमां सिद्धि वरे,
११२ बकुश, कुशील, पुलाक, निग्रंथ, स्नातक ए पंच प्रकामना नि
ग्रंथ जाणवा. हाल बकुश अने कुशील एम बे निग्रंथछे.
११३ सम्यग्दृष्टिजीव मिथ्यावना उदये समकित वमीने पाछो मिथ्या
वगुणठाणे जाय तोपण आयुष्य वर्जीने सातकर्मनी पल्योपमना असंख्यातमे भागे उणी एक कोडोकोडी सागरोपमनी स्थितिनो बंध उत्कृष्ट करे. तथा मुनिपणो पामीने पडे अने पाछो मिथ्यात्वे जाय तोपण आयुष्य वर्जी सातकर्म स्थिति बंध सागरे उणी एक कोडाकोडी सागरोपमनो उत्कृष्ट करे. तथा उपशमश्रेणिथी पडीने मिथ्यात्वे जाय तोपण आयुवर्जीने सातकर्मनी उत्कृष्ट स्थिति बांधे तो नवहजार सागरोपमे उणी एककोडाकोडी सागरोपमनो उत्कृष्टस्थिति बंध करे.. ,
११४ विभंगज्ञानते अवधिदर्शनना पेटामांछे.
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तस्वबिन्दुः
११५ जीव त्रण प्रकारमाछे. १ भव्य, २ अभव्य. ३भव्यामन्य तेका
भव्यजीव त्रण प्रकारनाछे. १ आसमभव्य. २ मध्यमभव्य. ३ दुर्भव्य.
तेमा आसन्नभव्यते सौभाग्यवंत स्त्रीनी पेठे जाणवो. जेम सौभाग्यवंती स्त्री परणीने षट्मासमां गर्भ धारण करी पुषरूप फल पामे. तेम केटलाक जीव मोक्षरूप फल अल्पकालमा मात्र फरे. केटलाकजीव मध्यम भव्यछे. जेम कोई प्ररणेली स्त्री वर्षे पण नजीक पुत्र प्रसवे. तेम मध्यमभव्य पण थोडा भेवमा सिद्धि वरे. मेघकुमारनी पेठे, जेम परणेली स्त्रीने बहु घर्षे पुत्र - प्राप्ति थाय तेम गोशालानी पेठे केटलाक जीव अमंत पडवा. इनी पेरे घणाकाले सिद्धि वरशे. जेम वंध्यास्त्री घणाकाले पण
गर्भ धारण करे नहीं, तेम अभव्यजीव पण व्यवहारथी चारि प्रक्रिया आदरे. नवमात्रैवेयक सुधी जाय पण सिद्धि वरे नहीं. श्रीजा भव्याभव्य जीव छे ते भव्य सरखा पण व्यवहाररात्रिमा उंचा आवे नहीं. बालविधवा स्त्रीनी पेठे जेम बालविधवाज पुत्र थवानी शक्तिछे षण भारना अभावे पुत्रमाप्ति थाप नहीं तेम भव्याभन्यमां जाणवू.
११६ भवाभिनंदी ते मिथ्यादृष्टि जीव जाणघा. बीजा पुद्गलानंदी ते . , चोथा पांचमा गुणगणाना जीव जाणवा. आत्मानंदि ते अनि । - जाणवा.
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तत्वबिन्दुः
११७ जीव चार प्रकारना कह्याछे. प्रथम सघनरात्रि समान ते भवा.
भिनंदी मिथ्यात्व गुणस्थानकवतों जीव जाणवा. जेमा जरा मात्र प्रकाश नथी. वीजा मार्गाभिमुखी मार्गानुसारी जीव ते अघनरात्रि समान जाणवा. त्रीमा, चोथा गुणठाणाथी ते बारमा गुणठाणा पर्येतना जीव ते सघनदिन समान जाणवा. चाथा अघनदिन समान ते केवलि भगवान् जाणवा.
११८ चार प्रकारमा सामायक जाणवां. १ श्रुतसामायक, २ समकित .. सामायक, ३ देशविरति सामायक, ४ सर्वविरति सामायक. ..तेमां श्रुतसामायकनो लाभ भव्यमिथ्यात्वीने होय अभव्यने
पण द्रव्ययी श्रुतनो लाभ थाय. तथा समकित सामायक ते सम्यग्दृष्टि जीवने होय. पंचम गुणठोणे देशविरति सामायक नो लाभ होय.सर्व विरति सामायकनो लाभ छठे गुणठाणे होय.
११९ दशमनी क्षपकश्रेणि चोथागुणठाणाथी होय. अने चारित्रनी । ..., क्षपकणि आठमागुणठाणाथी आरंभी होय.
१२० कार्मण शरीर ते नामकर्मनी प्रकृति जाणवी. नामकर्मनी वर्गणा 1. रूपे कार्मण शरीर जाणवू. बाकी बीजा सातकर्मनी वर्गणा ते
एमां जाणवी. एम तेमनो आधाराधेय भावछे. जेम दाणानी गांउडीमां दाणा ते आधेयरूपछे अने गांठडी ते आधाररूपछे.
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सस्वबिन्दुः
(१५) तेम सातकर्मनी वर्गणा ते आधेयछे. अने कार्मण शरीर जारछे. वीजा कर्मनी वर्गणा भिन्न कवी रीते जागी तोते कहेछे. जेम केवलीभगवंतने ज्ञानादिक चारकर्मनी वर्गगा मूलथी गइ तोपणकार्मण शरीरछे. तेथी अनुमाने जणाय के के अन्य कर्मनी वर्गणा भिन्नछे अने कार्मण शरीर भिन्नछे. सत्य केवली भगवंत जाणे. ...
१२१ कषायपणे ज्यारे आत्मा परिणमे त्यारे स्थितिबंध अने रसबंध
करे अने ज्यारे केवलयोगपरिणमने आत्मा परिणमे त्यारे प्रदेश बंध अने प्रकृतिबंध होय.
१२२ उद्वेगता ते अज्ञान मिथ्यात्वना घरथी नीपजे. अशाता ते वेद
नीय कर्मना उदयथो नीपजे. अविरतिना घरनी आकुलता चारित्रमोहनीयकर्मना उदयथी नीपजेछे.
१२३ त्रण प्रकारे पुद्गल परिणमेछे. १ विश्रसा. २ प्रयोगसा ३
मिश्रसा. तेमां प्रथम विश्रसा ते कोइ निमित्त पामी तदाकार थाय जेम इन्द्रधनुष्य तथा वादळां विगेरे तथा बीजा प्रयोगसा ते जीव व्यापार उद्यमथी बनावेल घट, पट, गृह, विगेरे जाणषा, त्रीजा मिश्रसाते किंचित् प्रयोग तथा किंचित् स्वभा
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(३५)
तस्वबिन्दुः पषी जाणवा. जेम बद्धः पटो जीर्णः बांघेलो पट जूनो, तेमां बांधकुं ते जीवप्रयोगणी अने पट्टनुं जूनुं थर्बु स्वभावथी छे.
१२४ पंचास्तिकायसमयसार नामना दिगंबरीय ग्रंथमां पुद्गलना
छभेद बताव्या छे, १ बादर. २ बादर बादर. ३ बादरसूक्ष्म ४ सूक्ष्मवादर ५ सूक्ष्म ६ सूक्ष्मसूक्ष्म ए छ प्रकारना पुद्गल संसारमा व्यापी रह्याछे.
१२५ ज्ञानावरणीयकर्मनो बंध दशमा गुणठाणा सुधी होय. दर्शना
वरणीयकर्मनो बंध दशमा गुणठाणा सुधी होय, वेदनीय कमेनो बंध तेरमा गुणठाणा सुधी होय, मोहनीयकर्मनो बंध नक्मा गुणठाणा सुधी होय, आयुष्य कर्मनो बंध सातमा गु-. णमणा मुधी होय, नामकर्मनो बंध दशमा गुणठाणा सुधी होय, गोत्रकर्मनो बंध दशमा गुणठाणा सुधी होय. अंतराय कर्मनो बंध दशमा गुगठाणा सुधी होय. ज्ञानादरणीय तथा दर्शनावरणीय तथा अंतरायकर्म ए त्रग कर्मनो उदय बारमा गुणठाणा सुधी होय. वेदनीय कर्मनो उदय चउदमा गुणठाणा सुधी होय, मोहनीयकर्मनो उदय दशमा गुणठाणा सुधी. होय, आयुष्यकर्मनो उदय चउदमा गुणठाणा सुधी होय. नामकर्मनो उदय चउदमा गुगठाणा सुधी होय, गोत्रकर्मनो उदय "उदमा गुणठाणा सुधी होय. अंतरायकर्मनो उदय बारमा गुणधमा सुधी होय, ज्ञानावरणीय तथा दर्शनावरणीय तथा
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( ३७ )
अंतरायकर्मनी उदीरणा बारमा गुणठाणा सुधी होय. वेदनीय कर्मनी उदीरणा छठा गुणठाणा सुधी होय, मोहनीयकर्मनी उदीरणा दशमा गुणठाणा सुधी होय, अंतरायकर्मनी उदीरणा बारमा गुणठाणा सुधी होय, आयुष्यकर्मनी उदीरणा छठा गुणठाणा सुधी होय, नामकर्म तथा गोत्रकर्मनी उदीरणा तेरमा गुणठाणा सुधी होय. मोहनीयकर्मनी सत्ता अगीयारमा गुणठाणा सुधी होय. आयुष्यनी सत्ता चउदमा गुणठाणा सुधी होय. नामकर्म तथा गोत्रकर्मनी सत्ता चउदमा गुण
सुधी होय. अंतराय कर्मनी सत्ता बारमा गुणठाणा सुधी होय. ज्ञानावरणीय तथा दर्शनावरणीय कर्मनी सत्ता बारमा गुणठाणा सुधी होय, वेदनीयकर्मनी सत्ता चउदमा गुणठाणा सुधी होय.
१२६ विभंग ज्ञानतो काल जघन्यथो एक समय अने उत्कृष्ट एकत्रीश .. सागरोपम अधिक जाणवो.
१२७ समकित शुद्ध पामे उपयोग शुद्ध समरे उपयोग समरे जीव
समरे. अने जीव समरे योग समरे अने योग समरे परिणाम समरे अने परिणाम समरे अध्यवसाय समयी जाणवा.
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.. (३८)
तस्वबिन्दु १२८ मतिज्ञान- आंतरू जघन्यथी अंतर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट अर्ध पुद्गल
परावर्तन काल मार्छ होय. ए प्रमाणे श्रुतज्ञान अवधिज्ञान अने 'मनःपर्यव ज्ञाननुं पण आंतरू जाणवू. केवलज्ञानमां आंतरू नथी. हवे मति अज्ञान अने श्रुतअज्ञान- आंतरू जघन्यथी अंतमुहूर्त अने उत्कृष्ट छासठ सागरोपम झाझेरु होय.
१२९ एकला योगे प्रदेशबंध प्रकृतिबंध नीपजे.तेथी कर्मवर्गणादलनो
संचय थाय. तथा योगने लेश्या एकठां मळे त्यारे प्रकृतिने प्रदेशबंध नीपजे तथा ध्यान अने कषाय बे मळे त्यारे स्थिति बंध अने रसबंध नीपजे. तथा ज्यां कषाय अने ध्यान आवे त्यां तेवारे चारे भेळा थाय.
१३० अढीद्वीपमाथी सकलकर्म खपावी जेटला एक समयमां सिद्धि
वरे तेटला जीव सूक्ष्मनिगोदमांयी व्यवहारराशिमां आवे. एक समये एक बेत्रण उत्कृष्टे अढी द्वीपमाही १०८ एकसो आठ सिद्धिवरे तेटला सूक्ष्मनिगोदमांथी नीकळी व्यवहारराशिपणो पामे.
गाथा.
१३१
काले सुपत्तदाणं, सम्मत्त विसुहि बोहिलामंच अंते समाहि मरणं, अभव्वजीवा न पावंति १
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___ तस्वबिन्दुः . . (१९) . भावार्थ-काले सुपात्र दान देवू. सम्यक्त्व विशुद्धि, अने बोधिवीजनी प्राप्ति, अने अन्त्यसमाधिमरण, अभन्यजीवो पामी शकता नथी.
१३२ व्यवहारराशिया जे बादरनिगोदमां अनंताछे. ते फरी कर्मनी
बाहुल्यताए सूक्ष्मनिगोदगोलकमां जाय त्यां रही वळी पाछा कंदादिकसाधारण वनस्पतिमां आवे एम संबंधे सूक्ष्मनिगोदना बादरनिगोदमाआवे. वळी बादरना सूक्ष्ममां जाय, एमबेस्थानके
आवागमन करतांजीव त्यां उत्कृष्ट रहेतो अढीपुद्गलपरावर्त पर्यंत ;:. रहे. पश्चात् पृथिव्यादिक स्थानक स्पर्शतो उंचो आवी मनुष्य .. थाय, व्यवहारराशियो भव्यजीव सामग्री पामी सिद्धिवरे तथा
घली एम कांछे के कंदमूलसाधारणमाथी जीव सूक्ष्मगोलकमा जायतो अने उत्कृष्ट काल रहे तो असंख्यात काल पर्यंत सूक्ष्मनिगोदगोलकमांहि रहे त्यांथी नीकळी वादरनिगोद कंदमूलमां उत्कृष्ट सित्तर कोडाकोडी सागरोपमपर्यंत ज्यारे ज्यारे सूक्ष्मनिगोदमांथी आवे त्यारे रहे एम संबंध छे. उत्कृष्ट अढीपदल परावर्तपर्यंत व्यवहारराशियो जीव निगोदमां रहे.
१३३
गाथा.
चत्तारियवारा, चउदस पुव्वी करेइ आहार संसारमि वसंतो, एगभवे दुनिवारा .
१ .
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• तस्वबियुः
.. चतुर्दशपूर्वी संसारमा वसतां चार वार आहारक शरीर करे
3. अने एक भवमा बे वार करे.
१३४ केवलज्ञानावरणीय, केवलदर्शनावरणीय, पंचनिद्रा, बारकषाय, .. अने मिथ्यात्व ए वीश प्रकृति सर्वघाती जाणवी.
१३५ ज्ञानावरणीय चार. चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन अने अवधिदर्शन .. ए त्रण दर्शन तथा संज्वलनना चार कषाय अने नव नोक. पाय तथा पंच अंतराय. समकितमोहनीय अने मिश्रमोहनीय ... ए सत्तावीश प्रकृति देशघातीनीछे.
१३६ भावना पश्च प्रकारछे क्षायिकभाव उपशमभाव क्षयोपशमभाव
उदयिकभाव पारिणामिकभाव. तेमा प्रथम उपशमभावमां सम्यक्त्व अने चारित्रछे, क्षायिक भावमा ज्ञान दर्शन चारित्र तथा दान, लाभ, भोग उपभोग वीर्य अने सम्यक्त्व ए नव छे. तथा क्षयोपशमभावमा चार ज्ञान, त्रण अज्ञान, त्रण दर्शन पंचदानलब्धि तथा सम्यक्त्व, चारित्र अने संयमासंयम ए अढार भेद जाणवा
औदयिकभावमां चारगति, चारकषाय, त्रणलिंग, छ लेश्या . अज्ञान, मिथ्यात्व, असिद्धता, अने असंयम एम एकवीश भेद
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तत्वबिन्दुः जाणवा. तथा पांचमा पारिणामिकभावमा जीवत्व, अमन्यतः तथा भव्यत्व एम त्रण भेद जाणवा. एम पंचभावना ओपन भेद जाणवा.
१३७ मिश्रनी उत्कृष्ट स्थिति अंतर्मुहूर्तछे. भवमां उपशमसमकित पांच
वार आवे. अने क्षयोपशम असंख्यातवार आवे.
१३८ सम्यक्त्व पाम्या पछी बे पल्योपमथी ते नवपल्योपममां देश
विरति श्रावक थाय.
१३९ क्षयोपशम समकित अने उपशमनो विशेष कहेछ. उपशम स.
मकिती मिथ्यात्वने प्रदेशेकरी वेदतो नथी केमके जे उपशांत कर्मछे, तेने त्यांथी काढतो नथी. उदयमा लावतो नगी. परप्रकृतिमा परिणमावतो नथी, अने तेनुं उद्वर्तन पण करतो नथी. क्षयोपशम समकित कलुषजल जेवूछे, उपशम समकित । प्रशांतजल सरखंछे. अने क्षायिकसमकित निर्मलादनल समान छे.
१४. पोते मिथ्यात्वदृष्टिमान् छतां बीजाने बोधे सेनुं नाम दीपक
... सम्यक्त्व जाणवू. ......
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तस्वबिन्दुः
।
२११ मसिमानना २८ अठावीश भेद अने प्रणसेवालीश भेद पणछे.
१४२ उपशमश्रेणिवाळो अने क्षपकश्रेणिवाळो ज्यारे लोभना अणु
ओने वेदतो होय त्यारे ते सूक्ष्मसंपरायचारित्री कहेवायछे.
१४३ भवसिद्धपणुं जीवोने स्वभावथी होयछे.
१४४ नरगति, पंचेंद्रियजाति, बस, भव्य, संज्ञी, यथाख्यात, क्षायिक,
सम्यक्त्व, अनाहार, केवलज्ञान, अने केवलदर्शननी मार्गणाए मोक्षछे.
१४५ छपस्थने प्रथम दर्शनोपयोग अने पश्चात् ज्ञानोपयोग अने
केवलशानीओने प्रथम समये ज्ञानोपयोग अने द्वितीय समये दर्शनोपयोग होयछे.
१४६ अधर्मी, अधर्मानुगत, अधर्मेष्ट अधर्म बोलनार, अधर्मयी उप
जीविका चलावनार, अधर्मना जोनार अधर्मफल उपार्जन
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तत्वविन्दः
करनार, अधर्मशील आचरणवाल, अने ने सदाकाल पाप करता रहेछे. तेओ मता सारा. कारण के एका पापी जीवो सूताथका प्राणीयोने दुख पीडा आपी शकता नथी.
१४७ जे जीवो सदाकाल धर्म करे छे. सर्व जीवोनी दया पाळे छे.
सर्व जीवोने धर्मनो उपदेश आपे छे. ते जीवो जायता सारा जाणवा.
१४८ सप्तभंगीमांनो प्रथमभंग प्रण प्रकारे छे. द्वितीयभंग त्रम प्रकारे
छे. तृतीयभंग तथा चतुर्थभंग दश प्रकारे छे. पंचमना एकत्रो त्रीश. छठाना एकशो त्रीश अने सातमाना पण एकशो त्रीश जाणवा. सर्व मळी ४१६ भेद थया. सम्मतितकमां.
१४९ वे प्रकारना नय छे १ अर्थनय. २ शब्दनय. प्रथम अर्थनयना
त्रण भेद. संग्रह, व्यवहार, रुजुसूत्र. शब्दनयना प्रणः मेव. शब्द, समभिरुढ, एवंभूत. एवं सम्मतितर्कवृत्तौ द्वितीयकांड.
१५० पर्यायना बे भेद छे. अर्थपर्याय अने व्यंजनपोय.अर्यपायने
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(
४)
तत्वबिन्दु;
कहेनारा संग्रहादि त्रण नय छे, अने व्यंजनपर्यायना शब्द, समभिरूड, एवंभूत ए त्रण भेद छे.
१५१ सप्त भंगीनो प्रथमभंग संग्रहनयमां छे. अने विशेषग्रहण कर
नार व्यवहारनयमां नास्तिरूप द्वितीय भंगनो अन्तर्भाव छ.. स्जुसूत्रमा त्रीजा अवक्तव्य भंगनो अन्तर्भाव छे. सम्मतितर्काभिमाययी अवक्तव्य त्रीजो भंग छे. रूजुसूत्रनो एक समय विषय छे. एक समयमां कोई शब्द कहेवातो नथी. कारण के एक शन्दनुं उच्चारण करतां असंख्याता समय थाय छे. तेथी रुजुसूत्रनयनी अपेक्षाए तृतीयभंग अवक्तव्य छे. चोथी भंगीस्यात् अस्ति नास्तिनो संग्रहनय तथा व्यवहारनयमां समावेश थाय छे. चोथी भंगीमां अस्ति संग्रहनो विषय छे. अने नास्ति, व्यवहारनो विषय छे. स्यात् अस्ति च अवक्तव्यरूप पंचमभंगीनो संग्रहनय तथा रूजु सूत्रनयमां अन्तर्भाव छे. कारण के अस्ति संग्रहनयनो विषय छे. अने अवक्तव्य रुजु सूत्रनो विषय छे. छठी स्यात् नास्तिच अवक्तव्य भंगीनो व्यवहार तथा रुजुसूत्र नयमां अन्तर्भाव छे. कारण के नास्त्यंश, न्यवहारनो विषय छे. अने अवक्तव्य, रुजु सूत्र नयनो विषय छे. स्यात् अस्तिनास्तिच युगपत् अवक्तव्यरूप सप्तम भंगनो संग्रह, व्यवहार, रुजु मूत्रमा अन्तर्भाव छे. आ प्रकारे सप्तभंगी अर्थनय जे संग्रह, व्यवहार, रुजु सूत्रथी भिन्न नथी. अर्थात् ते सप्तभंगी अर्थनय स्वरूप छे. इति सम्मति तर्क द्वितीय कांड इत्तौ ४६ मा पाने.
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तत्वविन्दुः
(५५)
१५२ आ सप्त भंगीमा १ स्यात्अस्ति २ स्यात्नास्ति ३ स्यादव
क्तव्य ए त्रण अविकल्परूप छे. कारण के एत्रण भंगी सामान्यद्रव्पने ग्रहण करे छे. सामोन्यद्रव्यविषयकज्ञानमां विक ल्प होतो नथी. आ त्रण भंगीथी संग्रह, व्यवहार अने रूजु सूत्रनयनो अनुक्रमे अभेद छे. अने तेथी संग्रह, व्यवहार, मुजुमूत्र ए त्रणनय पण निर्विकल्प कहेवाय छे. अने आगळनी ४ स्यात्अस्तिनास्ति. ५ स्यात् अस्ति च अवक्तव्य. ६ स्यात् नास्ति च अवक्तव्य. ७ स्यात्अस्ति नास्ति च युगपत् अरक्तव्य ए चार भंगी सविकल्पक छे.
शंका-छेल्लो चार भंगो सविकल्पक छे तो तेनो निर्विकल्पकरूप
संग्रह, व्यवहार, रूजु सूत्रमा केम अन्तर्भाव कर्यो.
समाधान-यद्यपि संग्रहादिक, पर्यायसत्ताने बोधन करे छे तो
पण पर्याय समुदाय एटले सम्पूर्ण अवयवनी सत्ताथी मूल द्रव्यनी सत्ता भिन्न नथी. जेम कोइ कहे के मारी पासे सो रूपैया छे. बोजो कहे के तमारो पासे पांच वीशी रूपैया छे. तो पांच वीशीनी पांच सत्ताथी सो रूपैयानी मूल एक सचा भिन्न नथी. जो भिन्न मानीए तो पांच सत्ताने मूकीने मूल एक सत्ता ठरवी जोइए. पण ते ठरती नथी. तेम अत्र पण अवयव समुदायनी सत्ताथी मूल सत्तार्नु स्वरूप कयंचित् भिन्न कहेवातुं नथी. तथा जणातुं नथी. अवयव समुदायनी
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(4)
तत्वविन्दुः
सता ते कथंचित मूल द्रव्य सत्ताथी अभिन्न छ तेनी अपेक्षाए सविकल्पक चारभंगीनो अन्तर्भाव, निर्विकल्पक संग्रहादि अग नवमां थाय छे. आपात सम्मतितर्क द्वितीय काण्ड पाना . ४७ माए छे.
१५३ साल मंगी केम थाय छे ? आठमी थती नथी तेनुं शुं कारण
छे? आठमी भंगीनी कल्पनानो अभाव छे माटे. ते बताये छे. प्रथम अने बीजो भंगी मेळवीने आठमी भंगी बनावशो तो स्यात् अस्तिनास्तिरूप चतुर्थभंगीमां तेनो अन्तर्भाव थवाथी अष्टमभंगी बनशे नही. पहेली अने त्रीजी भंगी मेळवीने जो भाठमी भंगी सिद्ध करशो तोते नहि सिद्ध थतां तेनो पांचमी भंगीमां अन्तर्भाव थशे. जो बीजी अने त्रीजी भंगी मेळवीने आठमी भंगी करवा धारशो तो ते नहीं बने अने तेनो षष्ठी भंगीमां अन्तर्भाव थशे. जो पहेली, बीजी अने त्रीजी भंगीने मेळवीने अष्टम भंगी करवा धारशो तो ते नहीं बने अने तेनो सातमी भंगीमां अन्तर्भाव थशे. तथा प्रथमादि त्रण भंगीनी साथे चोथी आदि भंगीयो जोडीने आठमी भंगी करवाथी पुनरुक्त दोष प्राप्त थाय छे. यथा स्योत् अस्तिअस्ति नास्ति एम पहेली अने चोथी भंगी मेळवीने आठमी करवाथी पुनरूक्ति दोष प्राप्त थयो. कारण के चोथी भंगीमां अस्ति छे. तो तेनी साये प्रथम भंगी जोडवानी जरूर नथी. माटे ए सप्तभंगी उपर अष्टमभंगी सिद्ध थती नथी.
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तत्वविन्दुः,
१५४ सप्तभंगीमां आधनी त्रण सकलादेशी होवाची निर्षिकालकके.
कारण के विकल्परूप अवयवने आधनी अणभंगी बाण करती नथी. बाकीनी चार विकलादेशी होवाथी सविकल्पक कहेवाय छे.
१५५ अर्थनय जे संग्रह, व्यवहार,अने रुजु सूत्रमा सप्तभंगी प्रथम कही.
हवे शब्दनय जे शब्द, समभिरूढ अने एवंभूतनय छे तेमां स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति ए बे भंगी घटे छे. शब्द तथा समभिरूढ ए बे नयमां स्यात् अस्ति पहेली भंगी घटे छे. कारण के स्यात् अस्ति प्रथम भंगीनो मूल एक द्रव्य विषय छे. तथा शब्द अने समभिरूढनय पण संज्ञा, क्रियानो भेद छतां पण अभिन्न अर्थने प्रतिपादन करे छे एवंभूतनयमां बीजी भंगी घटे छे.
१५६ अर्थने आश्रीने वक्ताना हृदयमा रहेलो संग्रह, व्यवहार, रुघु
सूत्रनय कथित अभिप्राय तेने अर्थनय कहेछे. वस्तुसंबंधयी ज्ञान थायछे माटे तेने अर्थनय कहेछे. अर्थनयमांअर्थनी प्रधानताछे. तेमां शब्द- उच्चारण थायछे. पण शब्दनी गौणताळे.
१५७ श्रोताना हृदयमां शब्दश्रवणथी शब्द,समभिरूड,अने एवंभूतमय .
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(e)
तत्वबिन्दुः कथित अभिप्राय थायछे. तेने शब्दनय कहेछे. शब्दनयमां :: शब्दनयनी मुख्यताछे. अने अर्थनी गौणताछे. शब्दनयनी
* उत्पत्तिमा मुख्यताए निमिसता नथी.
१५८ शब्द अने समभिरुढ ए बे नय सविकल्पकछे. अने एवंभूत
निर्विकल्पकछे. अपेक्षाए इति सम्मतितर्क द्वितीयकांडे पत्र ४७.
१५९ अर्थनयमा आधनी त्रणभंगी निर्विकल्प अने द्रव्याथिकनय
स्वरूप बतावीछे. अने आगळनी चार पर्यायार्थिकनय स्वरूप बतादीछे. शब्दनयमां सविकल्पक शब्द अने समभिरूढनयछे तेनो अन्तर्भाव प्रथमभंगीमां थायछे. तेथी अभेदपणाथी प्रथम भंगी पण सविकल्पक थइ. अने पहेलां अर्थनयमा निर्विकल्पक कही हती. तेनुं शुं कारण. उत्तर. अर्थनयनी अपेक्षाए
आयभंगी निर्विकल्पकछे. अने शब्दनयमां शब्द अने . . समभिरूढनयनी अपेक्षाए सविकल्पकछे.
१६० शब्दनयमां त्रीजी भंगी घटती नथी. श्रोत्रेन्द्रियजन्यज्ञानरूप . शन्दनयछे. अने शब्दनयछे ते शब्दना श्रवणथी अर्थने स्वी
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कारेछे. शब्दना अश्रवणयी शब्दनय अर्थने अंगीकार करतो नयी. अने अवक्तव्य तो शब्दाभाव विषयछे.
१६१ प्रत्यक्ष अने परोक्ष एबे भेद प्रमाणना छे. अविसंवादि
ज्ञानने परोक्षज्ञान कहे छे. विवादास्पद न होय तेने अविसंवादि कहेछे. जेमां आ ज्ञान सत्य छे के असत्यछे एवो विवाद न उठे ते अविसंवादि कहेवायछे. अने जे ज्ञानमा स्पष्ट विषय नथी भासतो ते अविशद कहेवाय छे. दृष्टांत तरीके अनुमानथी गृहमाण अग्नि पर्वतमा स्पष्ट नथी देखातो माटे पर्वतोवन्हिमान् ए ज्ञान अविशद कहेवायछे. इमौ दौ चन्द्रौ ए ज्ञानछे ते विसंवादिछे अने अविसंवादिछे. चंद्रनिष्ट द्वित्व संख्यामा भ्रांतिथी विसंवादिछे अने चंद्रज्ञानथी अविसं. बादीछे. द्वौचन्द्रौ आ बे प्रकारना ज्ञानमा अविसंवादिज्ञान
प्रमाणछे अने संवादिज्ञान अप्रमाणछे.
१५९ मति, भुत, परोक्षपमाणछे. अवधि, मनापर्यव, अने केवलज्ञान. : मत्सत ममाण के.
१६३. मुख्यव्यवहारथी मति, परोक्षप्रमाण कहेवायचे. अने लौकिक ... व्यवहारथी चक्षुरादिजन्यमतिज्ञान विशदछे माटे तेने
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तत्वबिन्दु;
xxmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmar
प्रत्यक्ष कहेछे.
१६४ प्रमाण अने प्रमेय एबेना सामान्य अने विशेष एबे भेद थायछे.
१६५ द्रव्यास्तिकनयथी दर्शनोपयोगनुं ग्रहण थायछे. दर्शनना बे
भेदछे. एक छाद्मस्थिक अने बीजुं केवलदर्शन क्षायिकछे सेमा छाद्मस्थिकना चक्षु, अचक्षु अने अवधि ए त्रण भेदछे.
१६६ पर्यायास्तिकनयथी सामान्याकार त्यागि अने विशेषाकार
ग्राहि ज्ञान ग्रहायछे. ज्ञानना बे भेदछे, एक छाद्मस्थिक अने बीजुं क्षायिक केवलज्ञान छे. तेमां छाद्मस्थिक ज्ञानना मति, श्रुत, अवधि, अने मनःपर्याय ए चार भेद छे. चक्षुदर्शन, अच. क्षुदर्शन, अवधिदर्शन अने केवलदर्शन ए चार द्रव्यार्थिफनय विषयछे माटे द्रव्यरूपछे. अने पंचज्ञानछे ते पर्यायार्थिकनय विषय होवाथी पर्यायरूपछे. दर्शन अने ज्ञान एबे साथे रहेछे.
१६७ आत्मा, ज्ञानथी विशेषाकारछे अने दर्शनथी आत्मा, सामा
न्याकारछे. सामान्य वस्तु विशेषाकारथी विकल नथी. अने
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तत्वविन्दुः
(1)
1. विशेषाकारछे ते सामान्याकारथी भिन्न नथी. जेम अनुक्रमे .... यथा शिवकादि विकल मृत्तिकावत् मृत्तिका विकल शिवकादिवत्।
१६८ सामान्य विशेषात्मक वस्तुने ग्रहण करनार प्रमाण पण दर्शन . अने ज्ञानरूप छे. छद्मस्थावस्थामां कोई वखत ज्ञानोपयोगनी
मुख्यता रहेछे त्यारे दर्शननी गौणता थाय छे. अने कोइ व. खत दर्शनोपयोगनी मुख्यता होयछे. त्यारे ज्ञानोपयोगनी गौणता होय छे.
१६९ सम्मतिकारना मत प्रमाणे साविकमा . . केवलदर्शन युगपत् वर्ते
पिलाने अने
09s -
१७. मतिज्ञानोपयोगे वर्ततां श्रुतज्ञानोपयोग कभी भी भ्रुतज्ञानो
पयोगेवर्ततां मति, अवधि, अने मनःपर्यव नथी. अने अवधि ... ज्ञानोपयोगे वर्ततां मति, श्रुत, अने मनःपर्यवनो उपयोग नथी. .
अने मनःपर्यवज्ञानोपयोगे. वर्ततां मति, श्रुत, अवधिज्ञाननो उपयोग नथी. तेम चक्षु अने अचक्षु दर्शननो उपयोग वर्तता मतिज्ञानोपयोग नथी. अने मतिज्ञानोपयोगे वर्ततां चक्षु, अ. चक्षुदर्शननो उपयोग नथी. अवधिदर्शननो उपयोग वर्ततां अवधिज्ञानोपयोग नथी. अवधिज्ञानोपयोग वर्ततां अवधिदनिनो उपयोग नथी.. ................ .
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(५०)
तत्वबिन्दुः
१७१ भुत अमे मनः पर्यवमां दर्शनोपयोग नयी. वाक्यार्थविशेष विषयं श्रुतज्ञानं, मनोद्रव्यविशेषालंचनं च मनःपर्यायज्ञानं एतद् द्वयमपि अदर्शनस्वभावं,
१७१ श्रीसिद्धसेनदिवाकरमुरिए युगवत् केवलज्ञान अने केवलदर्श ननुं स्वरूप नीचे मुजब गाथाथी प्रतिपादन कर्य छे. गाथा. सम्मतितर्क संताम्म केवले दंसणं, णाणस्स संभवो णथि; केवलणाणम्मिय दंसणस, तम्हा सहिणाई ॥१॥
क्रमथी केवलज्ञान अने केवलदर्शननो उत्पात मानतां केवलद र्शनसमये, केवलज्ञाननो संभव नथी, अने केवलज्ञानसमये केवलदर्शन संभव नथी. माटे केवलज्ञान अने केवलदर्शन संनिधाने एटले समानकालिक मानवां जोइए.
१७३ अस्पष्टे अर्थरूपे चक्षुषा य उदेति प्रत्ययः सचक्षुदर्शनं ज्ञानमंत्र सत् इन्द्रियाणामविषये च परमाण्वादावर्थे मनसा ज्ञानमेव सत् अचक्षुदर्शनम्.
१७४ उत्पाद, व्यय, अने धौव्ययुक्त द्रव्य कहेवामछे. वर्तमान,
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. तस्वविन्दुः ,
भूत अने भविष्य भेदथी उत्पादना कण मेद पायछे. तेमन: व्ययना पण त्रिकालना भेदथी प्रण भेद वायछे, अने ध्रौव्यना पण त्रिकालना भेदथी त्रण भेद थायछे, एम सर्व मळी नव भेद यया.
१७५ सम्मतितर्कना द्वितीयकाण्डमा उत्पाद, बप, ध्रौव्यना नवमे
दन विशेषतः विवेचन कयुछे..
१७६ धर्मध्याननां चार लक्षण छे. १ आजारूचि २ निसर्गरूचि
३ बरूचि ४ अवगाढरूचि.. ... .. १ हेय, ज्ञेय, उपादेय, उत्सर्ग, अपवाद, निश्चय, व्यवहार
इत्यादिक आजाओनी रुचि तेने आज्ञारूचि कहे.. .. २ गुरूउपदेश विना स्वभावयी तत्त्वनी प्रत्येक बुदनी पेठे
रूचि ते निसर्गरूचि जाणवी. ३ सूत्रसिद्धांत श्रवण करवानी रूचि ते सूत्ररूचि जाणवी. ४ दृष्टिवादप्रमुखनयनिक्षेपप्रमाणादिकथी विस्तारपणे जाणवानी रूचिने अवगाढरूचि कहेछ.
१७७ धर्मध्याननां चार आलम्बन कहेते. १ पाचना २ पृच्छना ... ३. परावर्तना ४ अनुपेक्षा.
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(५४)
तस्वबिन्दुः १५८ धर्मध्याननी चार अनुमेक्षा कहेछे. १ एकानुमेक्षा २ अनित्या5. नुपेक्षा. ३ अशरणानुपेक्षा ४ संसारानुप्रेक्षा.
१ सत्र प्रथमायां एकोऽहं, द्रव्यगुणपर्याय स्वरुपोऽहं, इत्यादि
पोलोचनाने एकानुमेक्षा कहेछे. २ संसारमा सर्वभाव अनित्यछे इत्यादि पर्यालोचनाने अ
नित्यानुमेक्षा कहेछे. . ३ संसारमा कोइनु कोइ शरण नयी ते अशरणानुमेक्षा.
४ संसारस्वरूप विचार ते संसारानुमेक्षा जाणवी.
१७९ शुक्लध्यानना बे भेदछे-१ एकशुक्ल २ परमशुक्लध्यान.
प्रथम शुक्लना बे भेदछे-१ पृथक्त्ववितर्कसमविचार २ एक त्ववितर्कअपविचार. . परमशुक्लथ्यानना बे भेदछे-सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति, २ उच्छिप्रक्रिया अनुवृत्ति.
१८. केवलिस मुद्घात-चउद राजलोक त्रसनाडी व्यापे तेम के
वलो आत्माना प्रदेश विस्तारी प्रथम समयमा दंडाकार करेअने बीना समयमा त्रसनाडी बाहिर कपाटवत् आत्मप्रदेशोने
विस्तारे ते कपाट कहेवं. त्रीजे समये मन्थाननी पेठे प्रसनाडी ... बाहिर आत्मप्रदेश विस्तारे ते प्रतरमन्थान, जाणवा-वाया
समये सर्व लोकाकाशने आत्मपदेशी पूरे ते प्रतर पूर्ण जा.
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तत्वविन्दुः
(५५) णयो, एवं दंड-१ कपाट २ प्रतरमन्थान ३ लोक पूर्ण एम चार समय.पर्यंत क्रियाकरे-पांचमे समये लोक पूर्ण संवरेछठे समये प्रतरमन्थान संवरे, सातमे समये कपाट संवरे, आठमे समये दण्ड संवरे, आयुकर्म समान नाम, गोत्र, वेदनीय करीने पश्चात् केवलिसमुद्घात क्रियाछेडे आपणा शरीरप्रमाण प्रदेशना विस्तार राखे.
१८५-योगीश्वरने ध्यान, तपश्चर्याथी आठ प्रकारनी ऋद्धि प्राप्त थाय
छे १ बुद्धिरुद्धि-२ क्रियारुद्धि, ३ विक्रियारुद्धि ४ तपोऋदि ५ वलऋद्धि ६ औषधऋद्धि ७ रसऋद्धि ८ क्षेत्रऋद्धि
प्रथम बुद्धिऋद्धि-बुद्धि कहेतां ज्ञान जाणवू-तेना अष्टादन भेद जाणवा.
१केवल-२ अवधि. ३ मनः पर्यव. ४ बीजबुद्धि. ५ कोष्ठबुदि ६ पादानुबुद्धि. ७ संमिनीतबुद्धि ८ दुरास्वादमबुद्धि ९ स्पर्शबुदि १० दर्शनबुद्धि ११ घाणबुद्धि १२ श्रवण
समर्थताबुद्धि १३ दशपूर्वबुद्धि १४ चतुर्दशपूर्वबुदि १५ • अष्टांगमहानिमितबुद्धि १६ प्रज्ञाश्रवण बुद्धि १७ प्रत्येकबुद्धि
१८ वादित्वबुद्धि
केवल ज्ञान अने अवधिनुं स्वरूप स्पष्टछे. मनापर्यव पण स्पष्टछे. सुक्षेत्र समारेलामां कालानुयोगे ज्यारे दृष्टि थाय
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तत्वबिन्तुः त्यारे क्षेत्रकार बीज वावे ते अनेकघणुं नीपजे, तेम इन्द्रिय मनोविकार दमीने उपशमजलधाराथी सिच्यु हृदयक्षेत्र अने सिंचक सहजानन्द आत्मा जेनाछे एवा साधुने एकपद तथा एक अक्षरने निर्मलपरिणामथी अनेक प्रकारे जाणे ते बीजबुद्धिनुं माहात्म्य छे.
कोठारी अनेक प्रकारना अन्नना संग्रह करे-जेजे जातना कण मांगवामां आवे तेते जातना पाछा आपे तेम मुनिराज आपना गुरुपासेथी अनेक प्रकारना शास्त्रानो अभ्यास करे तेनो अर्थ पुच्छवामा आवे त्यारे शब्दार्थ भिन्न भिन्न कहे ते कोष्टबुद्धि जाणवी.
६ छठी पादानुसारिणी बुद्धि त्रण प्रकारेछे. १ प्रतिसारि, १ . अनुसारि, ३ उभयसारि. लक्षण तथा बीजाक्षर रहीत सु.
णीने विवेकज्ञाने जाणे के आ सूत्रथी, आ पदधी, आ उपदे
शथी आवो बीजाक्षर जोइए. एम जाणे तेने प्रतिसारि बुद्धि .: “जाणवी. तथा बीजाक्षर पद अनुसारि बुद्धि ते, जे प्रथमपाद, ... श्लोक, गाथा, आलाको, सूत्रनोछे अथवा नथी. ते सूत्र अमे .. पोताना शानबले एम जाणे के आ सूत्रे आ पद जोइए. आ .हीन अनुक्रम सूत्रनोछे एम जाणे ते पद अनुसारि बुद्धि जा. ..वी. ३ सूत्र सिद्धान्तना अभिप्राय आगला नथी. अमे को
इक अनुक्रमयी पाछला नथी. त्या अनुक्रम जाणे, अभिमाय
जाणे. आगलो पाछलो उणो अभिप्राय रहस्य जाणे. एक ५ पदधी सर्च ग्रन्थ जाणे तेने उभयसारिपद लब्धि कहेछे. ए • प्रण भेद सहित पादानुसारिणि लम्धि जाणवी...
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तत्त्वबिन्दुः ७. संभिन्न श्रोतबुद्धि बार योजन लंबायमान विस्तार अने नव योजन पहोल्छं सैन्य त्यांथी चक्रवर्तिना सैन्यनो शब्द,इस्ति,घोग मनुष्य, गाडां, स्थ, प्रमुख तेनो शब्द सर्व जाणे. राइ,सरसव हाथीना उपरथी खरेतो तेनो सूक्ष्मशब्द पण सांभळे, उत्कृष्ट कर्णेन्द्रियनु बल तपोधनने होय तेथी एक कालमा सर्व शन्द सांभळे. तेने संभिन्नश्रोतलब्धि कहेछे.
८ आठमी दुरास्वादलब्धि लक्षण कहेछे. मुनिवर्य संयमबलो.
त्पन्न रसनेन्द्रियक्षयोपशमभावबलथी, भोगविकार रहीत ' " एवा नव योजन अधिकक्षेत्रे अनेक रस विकार भिन्न भिन्न
जाणे, स्वाद जाणे. परिमल जाणे, स्पर्शरसरूप देखे.स्पर्शरस गंध रूप शब्दना भाव निरागपणे जाणे,तेने दुरास्वादनबुद्धि लब्धि कहेछे.
९ स्पर्शलब्धि १० स्वादलब्धि ११ घाणस्वादलब्धि १२ शब्द .. स्वादलब्धि १३ दशपूर्वधरणलब्धि, १४ चतुर्दशपूर्वधरण
समर्थलब्धि ए षड्लब्धि जेम उपजे तेम प्रकार बसावेछे जिनशासन भक्तिकारक देवांगना, गुरूसाधु भक्तचउद पूर्वनी अधिष्ठाता, आपणा गुरूनी परीक्षा करे. रोहिणी प्रमुख विद्यादेवी पञ्चशत, भक्तिथी निर्मलभाव प्रकाशती आगे रहीने नमस्कार करीने अनेक प्रकारे गुणस्तुति करे, प्रार्थना करे. दयाभण्डार, निर्ग्रन्थ, निरीहभावथी क्लेश घणो सहेछे, ते कहे के हे मुनीश्वर तुमारी आज्ञा इच्छुछु, जे कार्य कहेशो ते अमो करीशुं. इत्यादि अनेक वचन. विद्या देवी बोले, तोपण मुनीवर आत्मस्वभावमां लीन रहे. सांसारिकमुखनी वान्ग
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(५४)
तस्वबिन्दुः - करे नहीं. ते गुणथी विद्याप्रवाद दशमुंपूर्व निर्विघ्नपणे भणे,
रोहिणी, प्रज्ञप्ति, वज्रशृंखला, प्रमुख देवांगना भक्ति करे पण मुनीश्वर महिमा प्रताप संपदा वांछे नहीं, चतुर्दशपूर्वधारीयाय.
१५ अष्टांग महा निमित्तलब्धि-१ अन्तरिक्ष, २ भौमं, ३ अंग,
४ स्वर, ५ व्यञ्जन, ६ लक्षण, ७ भिन्न, ८ स्वम. १ अन्तरिक्ष-निमित्त ते सूर्य, चंद्र, ग्रह, नक्षत्र. तेना उदय काल विचारे अने अस्तकाल लक्षण चिन्ह देखीने शुभाशुभ फलविकार जाणे, हानि वृद्धि जाणे, जय पराजय जाणे. पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण दिशामां अभ्रपटल देखी लाभालाभ जाणे, भविष्य हानि वृद्धि शुभाशुभ जाणे. २ भौमनिमित्तज्ञान-विरक्तस्वभावितापस, उद्यान, वाडी,
पर्वत, नदी, सरोवर प्रमुख प्रपंच त्यांना भावलक्षण विघारीने पश्चात् शुभाशुभ विचारे अने भूमिस्थितरत्न सुवर्णादि जाणे. बाह्यनिमित्त ज्ञानथी भीमनिमित्त स्वरूप जाणवू. ३ अंगनिमित्तज्ञान-तिर्यंच मनुष्य प्रमुखना अंगदर्शनथी शु.
भाशुभ ज्ञान थाय तेने अंगनिमित्तज्ञान कहेछे.. ४ स्वरनिमित्तज्ञान-मनुष्य अने तिर्यंचना शुभाशुभवाणीस्व
रथी जे ज्ञान थाय तेने स्वरनिमित्तज्ञान कहेछे. ५ व्यञ्जननिमित्तज्ञान, शरीरना अङ्ग्रे तिल, मसा, व्रण, लां. छन देखीने शुभाशुभनुं ज्ञान थायछे तेने व्यजननिमित्त
कहे छे.
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तरवबिन्दु:
( ५९ )
६ लक्षणनिमित्तज्ञान - स्वस्तिक आदि शरीरपर पडेलां लक्ष• णथी शुभाशुभज्ञान थायछे तेने लक्षण निमित्त कहेछे.
७ छिन्ननिमित्तज्ञान-वस्त्र, शस्त्र, शयनासन, फाडेलो, तोडेलो देखी शुभाशुभ विचारखं तेने छिन्न निमित्त कहे छे.
८ स्वमथी जे ज्ञान थाय तेने स्वम निमित्त कछे.
१६ प्रज्ञाश्रवणबुद्धि - अतिसूक्ष्मजीवादितत्त्वनो विचार गहन जाणी शके. श्रुतज्ञानावरणीयकर्मना क्षयोपशमथी असाधारण अनुपम परमार्थज्ञाता होय. तेना चार भेदछे. उत्पातकी, परिणामकी, विनयकी, कार्मणकी.
१७ प्रत्येक बुद्धिलब्धि - गुरूना उपदेश विना परभावथी मन पार्छु वाळीने संयम ग्रहण करे, तेने प्रत्येकबुद्धिलब्धि कहेछे.
१८ बादलब्धि - इन्द्रादिक देवता जो साधुनी साथे वाद करेतो मां साधु जीते एवा साधुने वादलब्धि कहेवाय छे.
बीजी क्रियारू कहे बे.
क्रियारुद्धिना बे भेदछे. १ चारणक्रिया, २ आकाशगामिनी क्रिया, प्रथम चारणक्रियाना अनेक भेदले.
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(१०)
तरवबिन्दुः
१ जल उपर चाले पण अप्काय जीवनी विराधना न उपजे. लब्धिमहिमाथी सचित्तनो विरोध न थाय ते योगी जल चारण जाणवा. जेम भूमिपर चाले तेम जलपर चाले.
२ बीजो जंघाचारणसाधु जाणवो. ते भूमिथी चार आंगुल
अधर चाले, वायुनी पेठे आंख मींचीने उघाडीए एटलामांतो हजारयोजन जाय ए बीजो भेद जाणवो.
३ संतुचारण तपोधन-कोलीया मांकडीना तंतु उपर चाले पण ते तंतु तुटे नहि तेम नमे पण नहि. एम तंतुपर चालतो प्रसस्थावर जीवने विराधे नहि.
४ पुष्पचारणयोगि-पुष्पना उपर चाले पण त्रस थावरजीवने
दुहवे नहि.
५ पत्रचारण योगी-पानपर चाले पण कोइ जीवने दुहवे नहीं.
६ बीजचारण साधु-बाजरी जव प्रमुख अनेक कण उपर चाले
पण विराधना थाय नहि.
७ श्रेणि चारण संयमी-जमणी अने डाबी बाजुनी दिशाए पं.
खीनी पेठे चाले. .
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.. तत्त्वबिन्दुः ।।
८ आग्निचारण साधु-अग्निज्वाला स्पर्शीने चाले पण संयम विराधे नहि.
हवे आकाशगामि क्रियानो बीजो भेद कहेछ-चारण पगासने बेठो होय तो तेज आसने आकाशमां चाले. काउसम्ग आसने होय तो तेज आसने चाले.
त्रीजी वैक्रिय रूचि कहे.
वैक्रियरूद्धिना अनेक भेदछे. १ अणिमा, २ महिमा, ३ लघिमा, ४ गरिमा, ५ प्राप्ति, ६ प्राकाम्य, ७ इशत्व, ८ वशित्व,९ अप्रतिघात, १० अन्तर्धान, ११ कामरूप. ए एकादश लब्धि साधुने तपथी उत्पन्न थाय.
१ अणिमा-कमलनालना आकाशमां समाय ए, सूक्ष्मशरीर
जेनाथी थाय तेने अणिमा कहेछे.
२ महिमा-जेथी चक्रवर्तिनी संपदा निपजावे.
३ लघिमा-चायुनी पेठे जेथी हलकुं शरीर करे. ४ गरिमा-वज्रयी पण जेथी भारे शरीर करे.
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( ( १२ )
तस्वबिन्दु:
-५ प्राप्तिरूद्धि - भूमिपर बेठोथको मेरुपर्वतनी चूलिका तथा चंद्र अनं सूर्यने अंगुलीवडे स्पर्शे.
६ प्राकाम्यरूद्धि - भूमि पेठे जलपर चाले. पाणिमां बुडे तेम भूमिपर पण बुडे.
७ इशत्व - तीर्थ करनी संपा समवसरण प्रमुख ठकुराइ बनावी शके.
८ वशत्व - सर्व जीवने व्हालो लागे.
९ अप्रतिघात रूद्धि - पर्वतमा पेसी बीजी तरफ नीकळे.
१० अन्तर्धान- अदृश्य थइ जाय.
११ कामरूप लब्धि - मनभावतां समकाले नाना प्रकारनां रूप करे.
चोथी तपोरुद्ध क.
तपोरूद्धिना सात भेदछे - उग्रतप, दीप्ततप, तप्ततप, महातप, घोरतप, घोर पराक्रमतप, घोरब्रह्मचर्यगुणतप
१ उग्रतप स्वरूपम् - तेना वे भेदछे. १ उग्रोग्रतप, बीजो अवस्थितोग्र तप. प्रथम उग्रतप ते एक उपवास पारणे करीने अ
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तत्वबिन्दुः
((**)
बे उपवास करे पश्चात् पारणुं करीने त्रण उपवास करें. पश्चात् पारणं करे पश्चात् चार उपवास करे. एम चढतां उपवास करे. अनुक्रमे जावजीव लगे तप करे.
त्रण गुप्तिथी धीरवीर संग्रामशुर निराशपणे जीववानी तृष्णा बिना तप करे ते उग्रोग्रतपोधन जाणवो.
बीजो अवस्थितो तपस्वी ते दीक्षानो प्रथम उपवास उच्चरीने विधिपूर्वक पार करे. पछे पोतानी लीलाए एकांतर उपवासे पारणुं करे. तथा बे उपवासे पारशुं करे. एम तपनुं पारणं करतां अंतराय आवे विधिथी निर्दोष भिक्षा न पामे तो एकान्तर उपवास करेछे तेम जावजीव लगे बे उपवासे पारणं करे. बे उपवासे पार करतां पण आहार न पामे तो आनन्दसन्तोषथी त्रण उपवासे पारं करे. ए रीते आयुष्यलगे निर्वाहे.
२ दीप - अनेक उपवासथी शरीर दुर्बल करे. पण त्रण प्रकाrai बल अधिक होय. शरीर सुगन्धि होय. कमलसदृश परिमल महके - दिनदिन शरीरनी कान्ति दीपे.
३ तप्ततपः- तप्त लोहपर पडेल जलबिंदु तत्काल विलय पामे. तेम साधुने अल्पाहार जल लेतां सूत्र पुरीषादिक न होय. परसेवो थाय नाहि. तथा तप्ततपोधनने अणिमादि लब्धि होय. अक्षीण लब्धि होय. सर्वोषधीरूद्धि होय. आहार जल अमृतमय होय. देवता करतां अनंतगुणबल होय. आशीविषदृष्टिरूद्धि होय.
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तश्वबिन्दुः
४ महातपोलब्धि-सर्वविद्यासमुद्र अवगाहे. मतिज्ञानना त्रणसे
छत्रीश भेद जाणे. समस्त श्रुत जाणे. अवधिज्ञानथी त्रसनाडी मध्यस्थित पुण्य पापरूपि पुद्गलने जाणे-देखे. मनःपर्यव ज्ञानथी सूक्ष्मभाव मनना जाणे.
५ घोर तपोलब्धि-अनेक प्रकारना प्रारब्धरोगोने समभावथी
सहे. शरीरनी ममता करे नहीं. मोहने मारे. तपश्चर्या न छोडे. मौनावलंबी होय. उग्रअभिग्रह धारण करे.
६ घोरपराक्रमतपोलब्धि-त्रणयोगदमीने असमानपराक्रमी होय.
जगत्त्रयीने भयभ्रांत करवा समर्थ होय. एवा साधु क्रोधी पृथ्वी उलटी करवा समर्थ थाय. तेमना क्रोधथी समुद्रनां पाणी सूके, महाशक्तिवाळा होय.
७ घोरगुण ब्रह्मचारि अथवा नामांतरे अघोरगुण ब्रह्मचारि, त्रण जगत्ना भय दूर करे. त्रण जगत्मा शान्ति उपजावे. निरतिचारपणे शीयल पाले, भूत, प्रेत, शाकिणी, डाकिनी, मारि, कामण, मोहन, विकार, सर्व तेमना प्रतापथी नाश पामे; महा तपस्विना प्रतापथी दुर्भिक्ष, वैरभाव, वगेरे नाश पामेछे. ज्या ज्यां घोरब्रह्मचारि तापस रहे. त्यांना लोकोने क्लेश करवानी बुद्धि उपजती नथी. मरणांत उपद्रव उपने नहीं. कोई बन्धन पामे नहि. रोगंथी कोइ पीडाय नहीं.
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तत्त्वबिन्दुः ... ' हवे पांचमी बलऋद्धिस्वरूप कहें
बलऋद्धिना त्रण भेदछे. मनोबलसाधु, वचनबलसाधु, का. यबलसाधु, रागद्वेषविलय पाम्याछे जेना ते मनोबली साधु जाणवो.
... श्रुतज्ञानावरणीय कर्मनो क्षयोपशमभाव जेनेछ; अन्तर्मुहर्तमां द्वादशांगी भणवानी शक्ति होय. स्पष्ट प्रगटाक्षरथी द्वादशांगी भणे भणतां श्रम न उपजे. ते वागबलि साधु जाणवो.
३ कायवली साधु एक मास काउसग्ग ध्याने उभो रहे. तथा
चार मास काउसग्ग ध्याने उभी रहे. वर्ष पर्यंत उभो रहे. वीर्यातराय कर्मनो क्षयोपशमभाव साधुने प्रगटे, तेने कायबली साधु कहीए. ते जो बलविकार करे तो पोतानी चली आंगुलीथी त्रण लोक उद्धरे.
ग्छी औषधऋदि कहेले. औषधऋद्धिना आठ भेद जाणवा. १ आमस्पर्श, २ श्लेष्मस्पर्श, १ जलस्पर्श, ४ मलस्पर्श, ५ विट्स्पर्श, ६ सर्वावयवस्पर्श, ७ आशीविष, ८ दृष्टिविष.
0.
१ आमस्पर्श-साधुना हाथ पगना स्पर्शथी सर्व रोग नाश पामे. .. अयना साधु ज्यां बेसे त्यांनी धुळना स्पर्शथी सर्व रोगजाय.
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तत्वविन्दुः
तथा तेमना शरीर स्पर्श करनार वायुना लागवाथी भरकी विगेरे सर्व रोग जाय.
२ श्लेष्मस्पर्श-श्लेष्म, थुक, विगेरेथी अनेक रोगनो नाश थाप.
३ जलौषधी लब्धि-मस्वेदथी शरीरे धळ लागीछे. ते धूळ जेने
लागे तेना सर्व रोग मटे.
४ मलौषधी लब्धि-कर्णमेल, दांतमेल, नासीकामेल, चक्षुमेल, जिव्हामेल, ज्यां लागे त्यांना सर्व रोग जाय.
५ विडौषधी लब्धि-विट् , उनार, शुक्र, मूत्र, साधुशरीर मेल दुःसाध्य रोगने पण क्षय करे.
६ सर्वावयवौषधी लब्धि-सर्व अंगोपांग शरीरनां ज्यां लागे
त्यांना अनेक रोग नाश करे.
७ आशीविष लब्धि-विष सहित आहार कोई साधुने दे तो ते
आहार अमृतमय होय, तथा विषयी मूर्छा पामेला जीवो साधुनां वचन सांभळी तत्काल निर्विष होय.
८ दृष्टिविषलब्धि-साधुनी दृष्टि ज्यां प्रसरे त्यां वेद तथा विषयी पीडया जीवो निर्विष होय, तथा दृष्टिविषलब्धिनाधणी साधु कोयी देखतो अन्नपाणी सर्व विष होय. अने दयापरिणा
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२)
तवबिन्दुः
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पाणीने देखे तो सविष आहारपाणी निर्विषपणे परिणमे विष महा विष देव पण दृष्टिविष लब्धिधारक साधुनुं तेज सही शके नहीं.
हवे सातमी रसऋद्धिनुं स्वरूप कहे .
रसऋद्धिना छ भेद कछे - १ आस्यविषालब्धि, २ दृष्टिविपालब्धि, ३ क्षीराश्रवीलब्धि, ४ मध्वाश्रवीलब्धि, ५ सर्पिराश्रवी लब्धि, ६ अमृतश्राविलब्धि.
१ आस्यविषा लब्धि - प्रकृष्ट तपोबली साधु कोपथी बोले के तुं मरी जा एम बोलतांज जेम विष खाधेल मृत्यु पामे तेम साधुना कोपथी मृत्यु पामे.
२ दृष्टिविषालब्धि- तपोबलि साधु क्रोधदृष्टिथी जेने देखे ते जी तत्काल जेम विषवायुथी त्रुक्ष पडे तेम मरी जाय.
३ क्षीरावी लब्धि - खो आहार साधुने कोई आपे पण साधुना हस्तमां क्षीररस समान आहार थाय. कोइ शरीरे क्षीण दुर्बल होय तेने साधु पुष्टिकर वचन कहे तो क्षीणता दुर्बलपशुं नाश पामे.
४ मधुत्र विणी लब्धि- कटुक कषायलो नीरस आहार साधुने दीघो होय. ज्यारे ते आहार साधु हाथमा ले त्यारे मधु
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सस्वविन्दु
. समान सरस अने पुष्टिदायक होय. दुःखे पीडाता लोकने .. साधुनां वचन मधुनी पेठे मीठां लागे. आत, आपदा, रोग,
बन्धन सर्व नाश पामे.
, ५ सपिराश्रय लोब्ध-लुखो अन्नपाणी साधुने पुष्टिकारक अने
सुरस होय. घृत मधुर पुष्टकारि आहार होय. सर्प पीडित प्राणीने नीरोगी करे. साधुनां वचन मीठां प्यारां व्हालां लागे.
"६ अमृतश्राविणी लब्धि-अमृत समान आहार साधुने वचने
थाय. विषमय आहार अमृतमय थाय. ..
आठमी देवऋधिन स्वरूप कहे.
क्षेत्रऋद्धिना बे भेदछ. १ अक्षीण महानसी लब्धि, २ बीजी भक्षीण महालय लब्धि.
१ अक्षीण महानसी लब्धि-लाभांतराय कर्मना क्षयोपशमे साधु
भीक्षार्थ भमतो कोइना घेर आवे त्यां आहार अल्पछे. अ
ल्पमाथी पण भक्तिथी साधुने वहोरावे. पश्चात् अल्प आहार ..रहे. तेना घरे चक्रवर्ति सैन्य आवे. ते सर्वने अल्प आहार...मांयी अन्न काढी.जमाडे. पण खूटे नहीं, अने आहारनो रस
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तस्यबिन्दुः
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कटुक, आम्ल, तिक्त, मधुर, विगेरे स्वादवाळो खातां लागे. ते अक्षीण महानसी लब्धिनो प्रताप जाणतो.
२ बीजी अक्षीण महालय - महालय कहेतां भोजनशाला - चार हाथनोविस्तार रसोइनोज्यांजमण माटेहोयछे त्यांपुण्योदयधी साधु भिक्षार्थी आवे. त्यारे भोजनशालामां सरस आहार देखाय साधुना महिमाथी सुवर्णनां, रूपानां, विगेरे सरस आहार पूर्ण भोजन देखाय चक्रवर्ति सैन्य जमे तो पण आहार खूटे नहीं. तिर्यच पण आहारथी तृप्त होय. एवं ते ऋद्धिवाळा साधुनुं सामर्थ्यछे तथा तेवो साधु जगत्त्रयीने पण क्षोभ पाडे. इति क्षेत्रऋद्धिवर्णनम्.
•
प्रथम बुद्धिना भेद अढार तथा वीजी क्रियाऋद्धिना नव भेद. त्रीजी विक्रियाऋद्विना ११ एकादश भेद. चोथी तपोऋद्विना सात भेद. पांचमी बलऋद्धिना त्रण भेद छठी औषधऋद्विना आठ भेद. सातमी रसऋद्धिना छ भेद. अने आठमी क्षेत्रऋद्विना वे भेद एम सर्व मळी अठ ऋद्धिना चोसठ भेद थाय छे.
•
१८२ स्याद्वाद दर्शनमां सम्मतितर्फे समवाय संबंधनुं खण्डन कर्युछे, द्वितीयकांण्ड सम्मतितर्क प. - ४६६
गाथा.
कालो सहाव णिय, पुव्वकयं पुरिस कारणेगंता मिच्छत्तं ते चेव, समास होंति सम्मतं
॥१॥
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सत्त्वविन्नुः १८३ अंग. दुष्टत्वे तदात्मकांगिनोऽपि दुष्टत्वापत्तेः सम्मतिद्वितीय .. कांड पत्र ५००...
सम्मतितर्क द्वितीयकाण्ड, पत्र ५०० जह जह बहुस्सु, समन्य सिस गण संपरिवुडोय अविणिच्छिय समए, तह तह सितपडिणी ॥१॥
१८४ आय त्रण नरकमांत्रण सम्यक्त्व पमायछे-तेमां क्षायिक पार.. भविकछे-उपशम अने क्षयोपशम तभविकछ.
मनुष्य गतिमा त्रण समकित हायछे. वैमानिकमा त्रण प्रकारनु समकितछे. बाकोना देवाने बेछे, असंख्यात वर्षीयुक तिर्यंच पंचेन्द्रियने त्रण समकित मनुष्यवल्छे, बाकीना संख्याता वर्ष आयुष्यवाळाने बे समकितछे.
___ श्लोक- तत्वार्थ सूत्र वृत्तिसाकारः प्रत्ययः सर्वो, विमुक्तः संशयादिना साकारार्थपारेच्छेदात्, प्रमाणं तन्मनीषिणां ॥१॥
१८५ मति, अवधि, अने वे.वल साकार अने अनाकार बे भेदे छे
अने श्रुत तथा मनः पर्यव, साकारज़ छे.. . .
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तस्मबिन्दुःः १८६ चार समयनी विग्रह गतिमां बीजो अने त्रीजो समय अणा-: . हारी होयछे, ओजाहार, लोमाहार अने कवलाहार,पूर्वोक्त बे
समयमां नथी कार्मण वर्गणाना आहार तो एबे समयमां पण होय छे.
१८७ रुजुगति एक समयनी होय छे अने तेमा आहार छे,
१८८ केवली समुद्घातमां वीजा, चौथा अने पांचमा समयमा जीव
अणाहारी छे, पहेला समयमां केवली समुद्घातकाले औदारिक, बीजामां औदारिक मिश्र, त्रीजामां कार्मण, चोथामां कार्मण योय, पांचमामां कार्मण योग, छठामांतथा सातमामां मिश्र, अने' आठमामां औदारियोग.
१८९ तेरमा गुणगणे सत्य भाषायोग, तथा असत्याअमृषाभाषा
योग, अने सत्यमनोयोग तथा असत्यामुषामनायोगे होय. तथा औदारिक, औदारिक मिश्र अने कार्मण सर्व मळी सात योग होय. .
१९० कोइक आचार्य शरीर कांतिने तैजसनु कार्य गणे छे.
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तत्वविन्दु
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१९१ कार्मण शरीरथी कार्मण वर्गणा भिन्न छे. कथंचित् अभिन्नपण छे .
१९२ तेजस शरीरने काइ आचार्य अनादि मानता नथी.तेमनी मतमा
तेजोलब्धियी तेजस शरीर उत्पन्न थाय छे, अने ते कहेछे केक्रोधावेशे तेजोलब्धिथी-उष्णतेजः शरीर अने दया परिणामथी शोततेजः शरीर उत्पन्न थइ अनुक्रमे घात अने उपकार
'
करे छे.
१९३ मनुष्य अने तिर्यच आहार पर्याप्ति एक समयमां पूरी करे अने
बाकीनी पर्याप्ति अन्तर्मुहूर्तमां करे.देवता अने नारकी आहार पयाप्ति अन्तर्मुहूर्तमांकरे.अनेबाकीनी पर्याप्तिया एकसमयमांमां करे.
१९४ एकपरमाणुनुमतिबिंब पडतुंनथी.अनंताणुक स्कंधर्नुमतिबिंबपडे,
१९५ औदारिक शरीर असंख्यातां अने औदारिक शरीर धारण
करनारा जीव अनंत. कारण के साधारण वनस्पतिमां अनंत जीवनुं एक शरीरछे.
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तस्वबियुः Алладаннямхххххххххх ххххххххххх. १९६ वैक्रिय शरीर असंख्याता, तेजस अनंता, कार्मण शरीर अनंता,
आहारक संख्यातां जाणवां.
१९७ कार्मण शरीरनो बंध आठमा गुणठाणा सुधी होयछे.
१९८ विग्रहगतिमां सातकर्मनो अव्यक्त बंध थायछे.
१९९ विग्रहगतिमा भोग प्रदेशोदयथी होय.
२०० विग्रहगतिमा मनोव्यापाराभावछे.
२०१ तेरमे गुणगणेशाता अने अशातानो प्रदेशोदय तथा विपाकोदय
लोहीखंडवाडानी पेठे होय.
२०२ आहारकलब्धियी आहारक शरीर करे त्यारे छ पर्याप्ति अन्त, मुहर्तमां करे.
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(७१)
तस्वबिन्दुः २०३ आहारक शरीरमा उपभोगनो संभवछे.
२०४ आहारक शरीर आहारकमिश्र छठा गुणगणे होय. आहारक
शरीर सातमा गुणगणे होय.
२०५ छठा सातमा गुणठाणे शंकामोहनीय होय. ..
२०६ चौदपूर्वधारी आहारक शरीरने पूछवा मोकले त्या वली ने . होय तो अन्यत्र जवा आहारक बंधन करे.
२०७ सर्व चउद पूर्वधारीओने कंई आहारक लब्धि उत्पन थाय
एवो नियम नथी.
२०८ मिनाक्षर चतुर्दश पूर्वधरने श्रुतकेवली कहेछे तेने संशय . होय नहीं.
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तत्वविन्दुः .. i nninganna nannnnnnnnnnnn
(७५) mannannnnnnnnnnnnnno
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२०९ सिमाक्षर अने अभिन्नाक्षर बेले आहारकलब्धि उत्पन्न वाय.
तेमां अमिताक्षर चतुर्दश पूर्वधर आहारकलब्धि फोरवे. भिन्नाक्षर चतुर्दशपूर्वी, लब्धि फोरवे नहि. भिन्नाक्षर चउद पूर्वधारी अप्रमत्त होय. अभिन्नाक्षरवाळो प्रमत्त होय.
२१० चउद पूर्वधारी कषाय कुशील होय.
___ २११ ज्या आत्माना प्रदेशो समुदायीभूत थइने रहे तेने मर्मस्थान कहेछे,
... ... ... .. तत्वा
... तत्त्वार्थ अ. प्र. १६ सूत्र. . २१२ मस्तकमा आत्माना बहु प्रदेशोछे. अने मस्तकमां वेदना पण
घ्रमी , मर्मस्थानोमा आयु भेदछे. भेद एदले छेद, ज्यां 'आत्माना प्रदेश घणा होय त्या आयुनां दलियां विशेष होय छे.
११३ तेणग्यनवसएहिं. समइकतेहिंवद्धमाणा
पज्जूसवण चउथ्थी, कालग सूरिहितो उविआ.
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( ७६ )
दु:
२१४ तीर्थकरना जन्म समये असंख्य चंद्र सूर्य आवे. एवं त्रिषष्ठशलाका पुरुषचरित्रमा, शांतिनाथ चरित्रमां तथा आवश्यक चूर्णिमांछे.
२१५ जं द्वीपति, छठा अंगनुं उपांग जाणवुं एम ठाणांगत्तिना चोथा ठाणेछे.
"
२१६ तीर्थकरने समुद्घात होय, निषेध नथी. एम आवश्यक चूर्णिमाछे.
९१७ गृहस्थावासमा तीर्थकर ने साधु नमस्कार करे नहीं. तेनो पाठ गृहवासस्थाः साधूनां नमस्कारानही अविरतत्वात्.
साधुने नमस्कार निषेध्यो पण श्रावकने निषेध्यो नथी.
२१८ मिथ्यात्वीने अवधिदर्शन पण होय एवं भगवती सूत्रेछे. चोथा कर्मग्रंथनी २१ एकवोसमी गाथामा निषेध पणळे. पनवणा टीकामा ने मत छे.
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तत्त्वविन्दुः २१९ जिनकल्पी ते भवम् मुक्ति पामे नहीं. एम श्रीकल्पभाष्यमा - तथा सारोद्धार रत्तिमांछे.
२२० नारकी जीव वेदनाथी एक गाउ उंचा उछ पम जीवाभि
गम सिद्धांतमां काछे...
२२१ सर्व वक्ताओ काययोगवडे शब्दद्रव्योने ग्रहण करेछे. वचन: योगथी शब्दद्रव्य, निसर्जन करेछे. तनुयोग विशेष मनोयोगः २.अने वचनयोग छे. काययोगवडे मनोद्रव्यतुं ग्रहण थायछे. काय योगवडे वक्ता शब्दद्रव्यनुं ग्रहण करेछे. अने, जे जे संरंभयो मूकछे ते वाचिकयोग जाणवो. तेमज मनोदव्यनुं ग्रहण तो काययोगथीछे पण जेवडे मनोद्रव्यने चिंतामा व्यापारयुक्त करेछे ते मानसिकयोग जाणवो. एम तनुयोग एकछे पण पूर्वोक्त उपाधिना भेदथी त्रण प्रकारे विभक्तछेपाटलाज भेद मात्रथी मानसिक अने वाचिक योगने भिन्न ठराव्या तो भोगापानने पण चतुर्थयोग तरीके केम स्थापन कर्यो
नहीं. समाधान जेम स्वाध्याय, परबोध, निश्चय वगेरे ... वाचिकयोगर्नु फल मित्र देखाय छे तथा धर्मध्यानादिक मननुं
फल भित्र देखायछे ते प्रमाणे पाणापानतुं भिन्न फल देखावं. नथी. तेथी तेने भिन्न कर्यो नथी.
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तत्वबिन्दुः
२२२ प्रथम समये ग्रहित भाषाद्रव्य ने द्वितीय समयमा मूकेछे. पण
तेज प्रथम समयमा मूकाती नथी,द्वितीय समय मृहीत भाषा द्रव्यने तृतीय समयमां वक्ता मूकेछे. वच्चे एक समयनुं अंतर पडेछे. द्वितीय समयमां; प्रथम समयमां गृहित भाषाद्रव्य, मुंचन तथा ग्रहण थायछे. एम प्रथम अने चरम समय मूकीने मध्यना समयमा भाषाद्रव्यनुं ग्रहण अने मुंचन थायछे. चरम समयमा फक्त मुंचनज थाय छे. ग्रहण स्वतंत्रछे अने निसर्जनछे ते ग्रहण विना यतुं नथी माटे परतंत्रछे.
२२३ वागद्रव्य ग्रहण तथा ग्रहण करेलानो निसर्ग तथा भाषा ए .. त्रण पण जघन्यथी एक समयमां थायछे. ए प्रत्येक त्रणनो - उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्तनो जाणवो.
२२४ एक समयमां बहु क्रियाओ थइ शके.छे.
औदारिक, वैक्रिय, आहारक, त्रग कायाधी वागद्रव्य प्राण जाणवू. तथा ते गथी वागद्रव्यतुं निसर्जन जाणवू.
२२५ महा प्रयत्नवालाने वाकद्रव्य ग्रहण निसर्जनमा अन्तर्मुह थाय
छे, अल्प प्रयत्नवाळाने अन्तर्मुहूर्ततुं प्रमाण नथी.
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तस्वबिन्दुः
(७९) २२६ माषणाभिप्राय सामग्री परिणामे वक्ता वागद्रव्यने रहेछे, मुके
छे, नान्यथा, भाषाद्रव्य मूक्या छतां चउदराजलोकमां व्याप्त थाय छे. चार समयमां कोई संबंधी भाषावडे चउद रोजलोक व्याप्त थायछे. मंद. प्रयत्नवाळो पुरुष अखंडित सकल भाषाद्रव्योने मूके छे, अन्य निरोगी तीव्र प्रयत्नवालो वक्ता आदान निसर्गवडे भाषाव्यने खंडखंड करी मूकेले. तेथी तोत्र प्रयत्नवाळो वक्ता चउद राजलोकमां भाषाद्रव्य व्याप्त करेछे. मंद प्रयत्नवाळा वक्ताथी नीकलां अखंड भाषाद्रव्य संख्या
ता योजन जइ शब्दपरिणामनो त्याग करेछे. अने जे महा ..प्रयत्न वक्ताछे ते तो प्रथम भिन्न खंड करी भाषाद्रव्यने
काटेछे. ते अनन्त गुण वर्धमान षदिशामा लोकांत व्याप्त थायछे.
२२७ केवली समुद्घात क्रमनी पेठे चार समयवडे चउद राज
लोक भाषाद्रव्यवडे व्याप्त थायछे. वेटलाक भाषाद्रव्यवडे प्रण समयमा लोक पूर्णता मानेछे. सनाडीनी बहार विदिशाथी भाषक, भाषाद्रव्यने मूके तो चतुर्दश राजलोक पूरणमा पंचसमय लागे. त्रस नाडीनी बहार दिशामां स्थितवक्ता भापाद्रव्य मूके तो चार समयमां लोक पूर्णता थाय.
२२८ अचित्त महा पुद्गल स्कंध होय अने ते केवल विश्रसा परि- णाम वालो होय छे. तेने चउद राम लोकनी व्याप्तिमां चार
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(60)
तस्वबिन्दुः
Аллаххххххх
: समय लागे छे. अचित्त महास्कंध अन्यपुद्रलोने स्वात्म - . स्वरूप करतो नथी पण ते पोताना पुद्रलो बडे लोक पूरणता
करे;छे, तेमां पराघात पण नथी जो अचित्त महास्कंधमा पराघात होय तो ते पण त्रण समयमां लोक पूर्णता करे पण तेम नथी.
२२९ इहा. अपोह. विमर्ष. मार्गणा; गवेषण, संज्ञा. स्मृति. मति.
बुद्धि. प्रज्ञा. इत्यादि आभिनिवाधिक ज्ञानना पर्याय वाची । शब्द छे.
२३० अन्वयि व्यतिरेक पदार्थोनी पर्या लोचनाने इहा कहे थे.
अपोहने ( अपाय ) निश्चय कहे छे. अपायनी पूर्वे अने इहानी उत्तरे प्रायः शिरकंड्रयनादि पुरुष धर्म घटे छे. इतिसंप्रत्ययने विमर्ष कहेछे. अन्वयधर्मान्वेषणने मार्गणा कहे छे. व्यतिरेक धर्मालोचनने गवेषणा कहे छे, अवग्रहोत्तर कालभावी मति विशेपने संज्ञा कहे छे. पूर्वानुभूतार्थ आलंबनमत्ययने स्मृति कहे छे. मननकरj ते मति कथंचित् अर्थ परिछेदकमां पण सूक्ष्म धर्मालोचना रूप बुद्धि जाणवी. विशिष्ठ क्षयोपशम जन्ययथावस्थित धर्मालोचनरूप प्रज्ञा जाणवी.
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AAMA
.. तस्वाबन्दुः २३१ द्रव्यथी, मतिज्ञानी, आदेशथी सर्व द्रव्य जाणे छे. आदेश
एटले ज्ञातव्य.वस्तु प्रकार. ते बे प्रकारे छे. १ सामान्य प्रकार. २ विशेष प्रकार. त्यां ओघादेश सामान्य प्रकारथी. सर्व धमास्तिकायादि जाणे छे. असंख्य प्रदेशात्मक लोकव्यापक. अमूर्त, गति सहाय गुणवान् धर्मास्तिकाय छे. एम केटला पर्याय विशिष्ट द्रव्योने सामान्यतः मतिज्ञानी जाणे छे. पण सर्व विशेष तथा सर्व पर्यायोंने मतिज्ञानी जाणतो नथी. सर्व विशेष सर्व भेदोन संपूर्ण भासन तो केवलज्ञानमां थाय छे.
२३२ क्षेत्र थकी सामान्य प्रकारे मतिज्ञानी केटलाक पर्याय विशिष्ट
लोकालोकने जाणे छे.
२३३ कालथकी वर्तमान, भूत अनेभविष्यने मतिज्ञानी सामान्यतःजाणेछे
२३४ भावथी मतिज्ञानी. सर्व आदयिक आदि भावोनो अनंतमो भाग
जाणे छे.
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(४२)
तस्यविन्दुः २३५ क्षेत्र, काल, बे सामान्यथी द्रव्यमांज समाय छे. केवल भेदवडे
ते रूढ छे. माटे पृथक् ग्रहण कयु छे. एम जाणवू.
२३६ एकेन्द्रियमा मतिज्ञान नथी. मतिज्ञाननो तेमां पूर्वप्रतिपन्न वा
प्रतिपद्यमानक भेद नथी.
२३७ मनःपर्याय ज्ञानियो सर्वे पूर्वप्रतिपन्न होय छे. पण प्रतिपद्यमानक
नथी. सम्यक्त्व सहचरित प्राप्त मतिज्ञानने पश्चात् अप्रमत्तसं. यतावस्थामां मनापर्यव ज्ञाननी उत्पत्ति छे माटे. सम्यक्त्व सहचरित चारित्र लाभमांतोमनःपर्यव ज्ञान उत्पन्न यतुं नथी.
२३८ अपोह-अपाय कहेवाय छे. ते मतिज्ञाननो तृतीय भेद छे. अ
पाय निश्चय कहेवाय छे. धृतिने धारणा कहे छे. मति प्रज्ञा शब्दवडे सर्वे मतिज्ञान कहेवाय छे.
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तत्त्वबिन्दुः
() २३९ ईहा-विमर्षण, मार्गण-गवेषण. संज्ञा लक्षण सर्व ईहा जाणवी
ए सर्वनो ईहामां अन्तर्भाव थाय छे.
२४० सर्व वस्तुओना अभिलाप वाचक शब्दो के जे वचन रूपताने
पाम्या छे ते वचन पर्याय जाणवा.
२४१ वाचकशब्दांना अभिधेयात्मभूत सर्व अर्थ पर्याय जाणमा.
२४२ मतिज्ञानना मति, प्रज्ञान, ग्रहा, ईहादि सर्व वाचक ध्वनिरूप
वचन पर्याय जाणवा.
२४३ मतिज्ञानरूप अभिधेय भेदो सर्व अर्थपर्याय जाणना.
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( ८४ )
तबिन्दु ::
२४४ अवग्रहादि एकेक शब्दयी मतिज्ञानना सर्व प्रकारनुं ग्रहण थाय - छे. सर्वनुं ग्रहण करे ते अवग्रह. एम व्युत्पत्तिथी मतिज्ञानना ईहा, अपाय, धारणारूप भेदोनुं ग्रहण थयुं, चेहालक्षणरूप
मां मतिज्ञाना सर्व भेदो समाय छे. अवगमनरूप अपायमां सर्व भेदोनो अन्तःपात थाय छे. धरणलक्षण धारणाथी सर्व भेदोनुं ग्रहण थाय छे. अपेक्षाए आ व्याख्या समजवी.
२४५ अवग्रहादि लक्षणनो अर्थ विशेष मात्र अंगीकार करी अवग्रहादि शब्दो भिन्न वर्त छे.
२४६ चतुर्गतिमां मतिज्ञान पूर्वप्रतिपन्न नियमथी होयछे प्रतिपद्य - मानकनी भजना विवक्षितकाले कदापि होयछे. प्रतिपद्यमानक नथी होता.
२४७ आभिनिबोधिक प्रतिपत्ति प्रथम समयमां प्रतिपद्यमानक कहेवायछे, अने द्वितीयादि समयोमां पूर्वप्रतिपन्न ए प्रमाणे आ बेनो विशेषछे.
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Reaबिन्दुः
(<4-)
२४८ एकेन्द्रियमां पूर्वप्रतिपन्न अने प्रतिपद्यमानक उभयनो अभावछे. कर्मग्रथना मत प्रमाणे लब्धि पर्याप्त बादर पृथ्वी, अप, वनस्पति, अकरणपर्याप्त अवस्थामां पूर्वप्रतिपन्न होय, ते समये सास्वादन समकितनी अस्तिताछे माटे.
२४९ विकलेन्द्रिय, उभयना मत प्रमाणे करण अपर्याप्ता, सास्वादनने पूर्वभवथी अंगीकार करीने आवे ते अपेक्षाए पूर्वप्रतिपन्न होय. पण प्रतिपद्यमान न होय.
२५० पंचेन्द्रियजीव तो सामान्यतः नियमथी पूर्वप्रतिपन्न होय. प्रतिपद्यमानकनी तो भजना जाणवी.
२५१ कायद्वारमां पृथिवी, अप, तेज, वायु, वनस्पतिमां उभयाभाव जाणवो. सकायम पंचेन्द्रियनी पेठे जाणवुं.
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(८६)
तस्यबिन्दुः
२५२ मन वचन अने कायाना समुदाये त्रणयोगमां पंचेन्द्रियनी पेठे जाणवु, मनरहित कायवाणीयोगियोने ता विकलेन्द्रियनी पेठे जाण. केवलकाययोगीओ तो एकेन्द्रियनी पेठे जाणवा.
२५३ त्रण प्रकारना वेदमां पंचेन्द्रियनी पेठे भावना करवी.
२५४ अनंतानुबंधी चार प्रकारना कषायमां सास्वादन अंगीकार करी पूर्वप्रतिपन्न लाभेछे पण प्रतिवद्यमानक नहि. बाकीना बार कषायमां पंचेन्द्रियनी पेठे भावना करवी.
२५५ भावलेश्या अंगीकार करी कृष्णादिक त्रणमां पूर्वप्रतिपन्न होय पण प्रतिपद्यमानक नहि. प्रशस्त त्रणलेश्यामां पंचेन्द्रियनी पेठे जाणवुं.
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तस्यबिन्दुः
(८७ )
२५६ व्यवहारनये मिध्यादृष्टि अज्ञानी छे, ते सम्यक्त्व ज्ञाननो प्रतिपद्यमानक होयछे. पण सम्यक्त्व ज्ञान सहित नहि. निश्चयनय कछे के सम्यग्दृष्टि ज्ञानी, सम्यक्त्व अने ज्ञानने अंगीकार करेछे. पण मिथ्यादृष्टि. अज्ञानी अंगीकार करता नथी.
२५७ व्यवहारनयथी मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यवज्ञानी, आभिनिबोधिकना पूर्वप्रतिपन्न होयछे. पण प्रतिपद्यमानक नथी. केबलीने तो उभयाभाव होयछे. कारण के तेमने क्षायोपशमिकज्ञानातीतपणुंछे.
•
२५८ मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान अने विभंगज्ञानवाळा तो प्रतिपद्यमान कदाचित् होयछे पण पूर्वप्रतिपन्न नथी. निश्चयनयमतथी मतिश्रुत अवधिज्ञानियो पूर्वप्रतिपन्न नियमथी होयछे प्रतिपद्यमानकनी पण भजना जाणवी. मनः पर्यवज्ञानी तो पूर्वप्रतिपन्न होयछे पण प्रतिपद्यमानक नथी. पूर्व सम्यक्त्वलाभ कालमां प्रतिपन्न यतिज्ञानिने पश्चात् यति अवस्थामां मनःपर्यायज्ञाननो सद्भाव होयछे. मत्यादि अज्ञानवाळाओने उभयाभावज होयछे. ज्ञानिने ज्ञाननी प्रतिपत्ति निश्चयथीछे माटे.
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(e)
तस्वबिन्दुः २५९ चक्षु, अचक्षु, अने अवधिदर्शन,ए त्रणमा लब्धि अंगीकार करी
पूर्वप्रतिपन नियमथी होयछे. प्रतिपद्यमानकनी भजना जाणवी. तेना उपयोगने आश्रितो पूर्वप्रतिपन्न होय पण प्रतिपद्यमानक नथी. मतिज्ञानने लब्धिपणुंछे. दर्शनोपयोगमा तेनो निषेधछे माटे केवलदर्शनमां उभयाभावछे.
२६० संयतद्वारमा संयतादिक आभिनिबोधिकना पूर्वपतिपन्न नियमतः
होयछे. प्रतिपद्यमानक पण भजनाथी जाणवा. कोइ अत्यंत विशुद्धिथी सम्यक्त्व, चारित्र युगपत् अंगीकार करेछे ते अवस्थामां ते संयत, मतिनो मतिपद्यमानक होयछे.
२६१ पंचज्ञान, साकार उपयोगवाला जाणवां. चार दर्शनमा अना
कार उपयोगछे. साकार उपयोगमा पूर्वप्रतिपन्न नियमीछे. प्रतिपद्यमानक तो भजनाथी. अनाकार उपयोगमां तो पूर्वप्रतिपन्नज होयछे. पण प्रतिपद्यमानक नथी. कारणके अनाकार उपयोगमा लब्धिनी उत्पत्तिनो प्रतिषेध कर्पोछे माटे,
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तस्वबिन्दुः २६१ आहारक तो साकारोपयोगवंतनी पेठे जाणवा. अनाहारक तो.
अपांतरालगतिमां पूर्वप्रतिपन्न संभवेछे..पण प्रतिपद्यमानक तो होता नथी. .. .....,
२६३ भाषालब्धिक कोई भाषमाण वा अभाषमाण, मतिज्ञानने पामे
छे. वा पूर्वप्रतिपन्न होयछे. भाषालब्धियुतमनुष्यादि जातिनी अपेक्षाए पूर्वप्रतिपन्न नियमथी पमायछे. प्रतिपद्यमानक पण भजनाथी जाणवो.
२६४ परीताः प्रत्येक शरीरियो वा अल्प भववाला जीवो एबे पण :
पूर्व प्रतिपन्न नियमथी पमायछे. प्रतिपद्यमान तो भजनाथी. ... अपरीता-साधारण शरीरवाळा उपार्धपुद्गल परावर्तथी उपर : छे संसार ते जेने एवा जीवो मिथ्यादृष्टिपणाथी ते बेमा उभ..याभावछे. ......... . ........ ." षट्पर्याप्तिथी पर्याप्ति, परितवत् जाणवा. अपर्याप्ता तो पूर्व पति
" पन्नज होयछे. सूक्ष्मद्वारमा सूक्ष्म उभयविकल होयछे. बांदर तो .. पर्याप्तनी पेठे जाणवा.
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Karnaana
तस्वविन्दु २१५. दीर्घकालिकोपदेशवडे संजिनुं ग्रहण जाणवू. तेनी भाषना बा
दरनी पेठे करवी. असंज्ञितो अपर्याप्तनी पेठे जाणवा. भवसिद्धि, संज्ञीनी पेठे जाणवा. अभवसिद्धिक तो उभय शून्य जाणवा. चरमभव जेनेछे एवा जीवो तो भव्यनी पेठे अने अपरमते अभव्यवत् जाणवा. कोइ पण विविक्षित समयमा प्रतिपद्यमानक मतिज्ञानीनी प्राप्ति पक्षमां जघन्यथी एकलाभे. अने उत्कृष्टथी तो सर्व लोकमां क्षेत्र
पल्यौपमनो असंख्यातमो भाग लाभे. पूर्वप्रतिपन्नमां तो जघन्य . अने उतकृष्टथी क्षेत्र पल्यापम असंख्येय भाग प्रदेश राशिम"माण मतिज्ञानियो लाभे.
२६६ नाना जीवोनी अपेक्षाए सर्वमतिज्ञानियो लोकना असंख्यात
भागने पामे. . . मतिज्ञाननो बे प्रकारे काल चितववा योग्यछे. उपयोगयी अने
लन्धिथी, एकजीवने मतिज्ञाननो उपयोग जघन्य अने उत्कृष्टथी अन्तर्मुहूर्तमान होयछे. ते थकी उपरतो अन्य उपयोगमा गमन होयछे. सर्वलोकवर्तिमति ज्ञानियोनोआज उपयोगकाल जाणवो. आ अन्तर्मुहूर्त केवल बृहत्तर जाणवू. लब्धिनी अपेक्षाए. मतिज्ञाननों काल, अवाप्त सम्यक्त्व जेनेछे एवा. एक जीवने जघन्यथी अन्तर्मुहूर्त जाणवो. अने उत्कृष्टथी एक जीवनी अपेक्षाए सातिरेक छासठसागरोपमनो काल जाणवो. मतिज्ञानावरण भयोपशमरूपा लब्धि जाणवी.
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वयविन्दुः
(
२६७ मतिज्ञानियो जीवन अनंतमा भागे वर्तेछे, अभिविमोनिक ( मविज्ञानियों) सर्वलोकमां असंख्याता छे.
२६८ सर्वयी स्तोक, मनःपर्यव ज्ञानियो जाणवा अवधिज्ञानी असंख्यातगुणा जाणवा. मतिज्ञानी अने श्रुतज्ञानी वे स्वस्थानमां तुल्यछे. केवलज्ञानी अनंतगुणाळे.
२६९ मतिज्ञानावरण कर्मनी उदीरणा थएछते अने अनुदीर्ण उपांत छ मतिज्ञान उत्पन्न थाय छे. १ क्षयोपशमभावे मतिज्ञानके, पण अन्यशेष औदयिक आदि भावे नथी. सर्वथी थोडा मतिज्ञाबि मनुष्यो. तेथी नारक असंख्यातगुणा, तेथी तिर्यच, तेथी देवो.
२७० दीर्घ संसार जेनेछे ते कृष्णपाक्षिक कहेवा यछे. बहु पापमा उदयथी कृष्णपाक्षिक गणायछे.
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(4)
तरवबिन्दु:
२७१ सम्यग्दृष्टिना संशयादि पण ज्ञान स्वरूपछे.
२७२ एक परमाणुमा अस्तिधर्म अने नास्तिधर्मनी अपेक्षाए संपूर्ण जगत् समायछे. नैश्वयिक अर्थावग्रहना काल एक समयनोछे. हा अने अपायनो काल अन्तमुहूर्त मात्र छे. संख्यात अने असंख्यातकाल, धारणानोछे,
२७३ अविच्युति, स्मृति, वासनाना भेदथो धारणा त्रणप्रकारनीछे. तेमां अविच्युतिरूप तथा स्मरणरूप धारणा वे छेतेमां प्रत्येकनो काल अन्तर्मुहूर्त जाणवो, अने जे अर्थ ज्ञानावरणक्षयोपशमरूप अने स्मृतिनी बीजभूत वासनारूप धारणाछे ते संख्यातांवर्षना आयुष्यवाळाने संख्यातकालनी जाणवी तथा असंख्यात वर्ष आयुष्यवाळ (पल्योपमादि आयुष्यवाळाआने ) वासनारूप धारणानो असंख्यात काल जाणवो.
२७४ व्यंजनावग्रहनो असंख्यात समयनो कालछे.
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- व्यवहारिक अर्थावग्रहनो अन्तार्मुहूर्त काल जाणवो...
स्पृष्ट (स्पर्शेला) मात्र शब्द द्रव्योने श्रोतेन्द्रिय ग्रहण करेछे.
घ्रांणेन्द्रिय गंधनां पुद्गलोने ग्रहण करेछे. रसनेन्द्रिय रसना पुदगलोने ग्रहण करेछे. स्पर्शेन्द्रिय स्पर्शनां पुद्गलोने ग्रहण करेछे. चक्षु अने मन अमाप्यकारीछे.
२७५ भात्मागुल, उत्सेधांगुल अने प्रमाणांगुल. ए प्रण कारना
अंगुलछे.
२७६ आत्मांगुलथी इन्द्रियो विषय परिमाग जाणवू. स्पर्शेन्द्रियर्नु
मान उत्सेधांगुलथी जाणवू. बाकीनी इन्द्रियोनुं मान आत्मागुलथी जाणवू.
२७७ मेघगर्जितादि शब्दोने श्रोतेन्द्रिय उत्कृष्टतः बार योजनयी , ग्रहण करेछे. प्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, स्पर्शनेन्द्रिय आ त्रग इन्द्रियो अनुक्रमे
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राजविदुः
उत्कृष्टतः नव योजनथी आवेला गंध, उस अने स्पर्शने ग्रहण करे छे, चक्षुरिन्द्रियनो लक्ष योजननो विषय छे. चक्षु इन्द्रियमां पदार्थ भावीने पड़ता नथी.
स्पर्शेन्द्रिय, रसेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, अने श्रीतेन्द्रिय जघन्ययी अंगुलना असंख्यातमा भागथी आवेला स्पर्श, रस, गंध, शब्द - लोने ग्रहण करेछे. चक्षु जघन्यथी अंगुलना संख्यातमा भागम रहेला पदार्थने विषयभूत करेछे.
२७८ मननुं क्षेत्र की विषय प्रमाण नथी.
२७९ संज्ञाक्षर अने व्यंजनाक्षर एवे भावश्रुत कारण होवाथी द्रव्य श्रुतछे, लब्ध्यक्षर ते भावश्रुत जाणवुं.
२८० अर्थावग्रह, इहा, अपाय अने धारणा, प्रत्येकने पांच इन्द्रियो अने छठ्ठा मनथी गुणतां चोवीस भेद थाय अने मां औत्पातिकी आदि चार बुद्धिना भेद उमेरी कोइ मतिज्ञाऩना अठावीस भेद माने छे. पण ते शास्त्र सम्मत नयी, "व्यंजनाचग्रहना चार भेद अने अर्थावग्रहादिना चोवीस भेद मळी मतिज्ञानना २८ अठावीश भेद शास्त्रकारे गण्या छे. अने औल्याविकी आदि चार मकारनी बुद्धि भिन्न ममीले
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२०६ Qतनिधितना अगवीस भेद, अने औत्पादिकी आदि अश्रुत... निश्रित मतिमा भेद जाणवा.
२४२ चन पर्याय पण अनन्तछे अने अर्थपर्याय पण अनन्त . एफ विशेषावश्यकमां कथ्युंछे. .
२८३ मतिज्ञानलब्धि काल, जघन्यथी समकितवंतने अन्तर्मुहूर्तकाल
जाणवो. तेथकी पर मिथ्यात्वमां गमन अने विकल्पे केवलशाननी प्राप्ति. मतिनो लब्धि काल उत्कृष्टतः छासठ सागरोपम अधिक जाणवो. ते वतावे. कोइ साधु मति आदिज्ञान सहित होय. अने पूर्व कोटि वर्ष पर्यंत चारित्र पाली चार अनुत्तर विमानमां जाय, त्यां तेत्रीस सागरोपमनुं आयुष्य भोगवी पुन: अप्रतिपाति मतिज्ञानसहित मनुष्यभवमा आवी देशोन पूर्वकोटि प्रव्रज्या पाली पुनः चार अनुत्तर विमानमा जाय, पुन: अप्रतिपाति मति आदि ज्ञान सहित मनुष्यंगतिमा आवी, पूर्व कोटी वर्ष दीक्षा पाळी सिद्धि पामे. एवं चार अनुत्तर विमानमां गएलाने छासठ सागरोपम अधिक देशोन प्रग पूर्व कोटि वर्ष थाय. अथवा अच्युत देवलोकमां बापीस सागरोपमनी स्थितिए त्रण वार उत्पम या अनेदेशीन पूर्व
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तत्वविन्दु
कोटि वर्षना चार मनुष्यभव आंतरे पामी मुक्ति पामे. ते अपे। क्षाए छासठ सागरोपम अधिक देशोन चार पूर्वकोटि वर्ष थाय.
२८४ पांचसो त्रेसठ जीवना भेदछे तेमाथी ४२३ चारसो त्रेवीस
भेदमां मतिज्ञान होयछे. मनुष्यना २०२ भेद. देवताना १९८ एकशो अठाणु भेद. नारकीना तेर भेद. तियेचना दश भेद. सर्व मळी चारसोने वीस भेदमा मतिज्ञान पमाय.
२८५ सप्तम नरकमांथी नीकलेल जीवो तियेचां उत्पन्न थायछे. . मनुष्यमां उत्पन्न थता नथी.
२८६ देवता अने नारकीओ समकितवंत, मनुष्यगतिमान आवेछे.
२८७, जीवना पांचसो बेसठ भेदमाथी २०३ बसे त्रण भेदमां उप
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तथ्यविन्दु.
( 30 )
शम समकित पर्याप्तावस्थामांहि पमाय. विशेष के पांच अनुतर विमानमां जाय तो तेने अपर्याप्तावस्थामां उपशम समकित होय, अने पर्याप्तावस्थामां तो पांच अनुत्तर विमानमां क्षयोपशम समकित वा क्षायिक समकित होय. नव लोकांतिक देवताने उपशम समकित न होय.
२८८ जीवना पांचसो त्रेसठमांथी १६८ एकसो अडसठ भेदमां : क्षायिक समकित होय. १२ बार देवलोक, नव लोकांतिक, नव नवग्रैवेयक, पांच अनुत्तर विमान, ए पांत्रीसना पर्याप्त अने अपर्याप्त भेद गणतां सित्तेर भेद थाय. त्रीजी नरक सुधीना पर्याप्ता अने अपर्याप्ता गणतां छ भेद. पन्नर कर्मभूमि
नेत्री अकर्मभूमिना पिस्तालीश भेद ते पर्याप्ता अने अपर्याप्ता गणतां नेतुं भेद थाय. अने तिर्यच गर्भज पंचेन्द्रियना पर्याप्ता अने अपर्याप्ता ए बे भेद गणतां सर्व मळी एकसो अडसठ भेद थाय.
२८९ पांचसो त्रेसठ जीवना भेदछे तेमांथी चारसो वीस भेद क्षयोपशम समतिमां जाणवा
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(१८)
तस्वधिन्दु. २९० क्षायिक वेदक समकित गर्भज-मनुष्यना पर्याप्ताना पन्नरभे..: दमां पामीए-छप्रकृतिनो क्षायिकभावे क्षय करे, अने समकि..: तमोहनीयना चरमदलिक एक समये वेदीने क्षायिक पामे
तेने क्षायिकवेदक समाकित कहेछे-नरकगति, तिर्यंचगति अने देवतानीगति ए त्रणगतिमां परभवन आवलं क्षायिक समकित होय.
२९१ सास्वादन सम्यक्त्व-मनुष्यना बसेनेबेभेद गर्भज पर्याप्ता अने
अपर्याप्ता-देवताना एकशोसित्तेर भेदमा पर्याप्ता अने अपप्तिावस्थामां पामीए. नवलोकांतिक अने पांच अनुत्तरविमानना देवोमां सास्वादन समकित न पामीए. नरकगतिमां सात पर्याप्त भेदमां पामीए. तिर्यंचगतिमा एकवीश भेदमा समकित पामीए. पांचतिथंच पंचेन्द्रियगर्भजना पर्याप्ता अने अपर्याप्ता मळीने दशभेद-समुर्छिम तिर्यंच पञ्चेन्द्रियना पांच भेदमां अने त्रणविकलेन्द्रिय ए आठमां अपर्याप्तावस्थामां पा. मीए, तथा पृथ्वी, अप् , वनस्पतिनी अपर्याप्तावस्थामा त्रण भेद. सर्व मळी चारसे भेद थाय.
२९१ यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान
अने समाधि-एवं योगनां आठ अंग छे सम्यग्दृष्टि जीवने आ आठ अंग, सम्यग् पणे परिणमे छे.
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तस्वबिन्दु. २९३ चतुर्दशगुणस्थानकमाथी-प्रथम चोथा, पांचमा, छता, सातमा,
अने तेरमा गुणस्थानके सदाकाल जीव लाभे. अन्यशेष गुण स्थानकमां भजना जाणवी.
२९४ पांचसोत्रेसठ भेदमांथी मिश्रगुणस्थानकमा एकसोअठाणु भेद
पामिये. नारकीना पर्याप्ताना सात भेद, तिर्यंचगर्भजना पांच
भेद. मनुष्यना एकसोने एक पर्याप्ताना भेद, अने पंचाशी भेद ... देवताना पर्याप्तावस्था संबंधीना जाणवा. .
। सबधाना जाणवा. .
. .
२९५ अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, अवर्धमान, प्रतिपाती, अम
तिपाती ए छ प्रकार- अवधिज्ञानछे. विशेषावश्यक.
२९६ उपयोगथी अवधिज्ञान अन्तर्मुहर्त, अने लब्धिथी अवधिज्ञान
छासठ सागरोपम अधिकछे. बेवार विजयादि विमानमा
उत्पन्न थाय तेने, उपलब्धिथी अवधिनो जघन्य काल एक ... समयछे, ..
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तत्वविन्दु. २९७ मनापर्यवज्ञाननो उत्कृष्ट काल, देशोन पूर्वकोटि वर्षनोछे. मनः
पर्यवज्ञानी मनोद्रव्यना चिन्तानुगुण अनंतरूपादि पर्यायने जाणे. देखे. भावमनतो ज्ञानरूपछे अने ज्ञानतो अमूर्तछे तेथी भावमनने मनःपर्यवज्ञानी देखे नहि. द्रव्यमन' स्थितभावोने मनःपर्यवज्ञानी देखे. पण चिन्तनीय बाह्यघटादि वस्तुओने देखे नहि. (विशेषावश्यक.)
२९८ मनोद्रव्यने देखीने पश्चात् अनुमानथी बाह्यपदार्थो जणायछे.
द्रव्य मनवडे अवभासित बाह्यांचंतनीय घटादिकने अनुमानवडे जाणे. अत्रतो मनोद्रव्यने मनःपर्यवज्ञानी साक्षात् जाणे.
२९९ मनापर्यवज्ञानीछे ते मति अने श्रुतसहित होय तो तेने चक्षु
अने अचक्षु एम वे दर्शन होयछे. अने जे मनःपर्यवज्ञानी मतिश्रुत अने अवधि सहित होय तेने चक्षु अचक्षु अने अवधि दर्शन, ए त्रण दर्शन होयछे.
३०० अन्य केटलाकनो एवो मत छे के जे अवधिज्ञान युक्त. मनः
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( १०१ )
2.
:
तरथबिन्दु. पर्यवज्ञानी होयछे ते मनःपर्यायज्ञानथी जाणेछे अने अवधिज्ञानवडे देखेछे. अने जे अवधिज्ञान रहित मनः पर्यवज्ञानीछे ते मनःपर्याय ज्ञानवडे जाणेछे, पण अवधि दर्शनना अभावथी देखतो नथी. प्रज्ञापना सूत्रमां त्रिशमा पदमां साकारोपयोग विशेषरूप देख कंछे. साकारोपयोग विशेषतावडे मनःप ज्ञानी देखे एम स्पष्ट कछे.
३०१ कोइ एम कले के उत्सूत्र भाषकने अनन्त संसार होय पण तेनो नियम नथी. जमालि निन्हवादिकने तेम जणातुं नभी उत्सूत्रभाषकने पण परिणामविशेषे संख्यात, असंख्यात अने अनन्त एम त्रिविध संसार संभवेछे. ( वि. विं..)
३०२ उत्सूत्र भाषणादिकनुं प्रायश्चित्त अभवमांज होय एवो नियम नथी. दीक्षा ते भवान्तर सर्व पापनुं प्रायश्चित्तछे. यतः सव्वाविहु पव्वज्जा पायछित्तं भवंतर कडाणं - इत्यादि हरिभद्र वचनानुसारे जाणj. (वि.वि.)
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(१०२ )
तत्वबिन्दु.
३०३ बादरनिगोद जीवने व्यवहारीका छे. योगशास्त्र तौ. (वि.विं)
३०४ अनभिग्रहि मिध्यात्वछे ते अभिग्रहिक मिथ्यात्व समान भारे नथी. आदिधार्मिकने अनभिग्रहिक मिथ्यात्व गुणकारी छे. ( वि. बिं. )
३०५ मार्गानुसारिने अन्यदेवाद्यर्चन गुणकारी न होय एम कोइ कहे ते योग्य नथी. कारण के उत्तरभूमिकामां तेनो निषेधछे पण पूर्व भूमिकाए तो आशय विशेषे श्रावकने जिनाचानी पेठे गुणकारी संभवेछे. (वि.बि)
३०६ कोई कछे के मार्गानुसारिपणुं पण अजाणतां जैन धर्माचरणेज होय पण अन्यधर्माचरणे न होय, एवो एकान्त (निश्चय) न धारवो. कारण के श्री हरिभद्रसूरिए योगबिन्दुमां योगपातंजल रचनार पतंजलि प्रमुखने मार्गानुसारिपणुं कांछे. पतंजलि प्रमुख मित्रादि दृष्टि कही छे. माटे अपक्षपातीने परसमय क्रियाए पण मार्गानुसारिवणुं ढळे नहीं, तेमां पण निश्चयभाव जैननोजछे, (वि.वि.)
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तत्वबिन्दु.
(6)
३०७ मार्गानुसारीने व्याज्ञा.एक भवान्तरे भावाज्ञा होय एम.जे. ___ कहेछे ते मिथ्याछे, कारणके द्रव्यस्तव जेम भावस्तवथी बहु
आंतरे होयछे, प्रस्थकन्यायवत् नैगमनयमतानुमारे तेम द्रव्याज्ञा पण भावाज्ञाथी बहु अंतरे संभवे. (वि. विं.)
३०८ अन्य दर्शनमध्ये शुभभावज न होय तो शुभवचन न होय एम
कहेवाय नहीं. कारणके मार्गानुसारीने मिथ्यात्वमंदताए शुभभाव पण होय. (वि. विं.)
३०९ लौकिक मिथ्यात्वी लोकोत्तर मिथ्यात्व भारे एवो निश्च
यनथी, कारणके भिन्नग्रंथिक मिथ्यादृष्टिने पण कोटाकोटीथी अधिक बंधन नथी. ए परिणामे लोकोत्तर मियादृष्टि हेतुओ जणायछे. (वि. वि.)
३१० मध्यस्थने स्वपरदृष्टिने बीजे ज्ञाने दर्शनग्रह टळेछ. यतः आय
इह मनाक पुंसस्तद्रागाद्दर्शनग्रहो भवति न भवत्यसौद्वितीये चिंतायोमात् कदाचिदपि षोडशके. ते माटे साधारणप्रणे : लोक लोकोत्तर गुणप्रशंसा घटेछे. उक्तंच साधारणगुणमशंसा
प्रण
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३११ मिथ्याष्टिना दयादि गुणनी अनुमोदनामा पार्थस्थादिनी पेठे
दाप नथी.
३१२ मिथ्याष्टिने सकामनिर्जरा होय तो सम्यग्दृष्टिथी शो विशेष:
एम कोइ कहेछे तेणे मिथ्याष्टिने शुक्ल लेश्याना सद्भावे केवलीथी शो विशेष एवो षण संदेह धरवो.
३१३ सम्यग्दृष्टिज क्रियावादी शुक्ल पाक्षिक होय पण मिथ्यादृष्टि
नहीं एम कोइ कहेछे ते मिथ्याछे.
३१४ मोक्षाशययी निर्जरा ते मार्गानुसारिने अंशयी सकाम निर्जरा
जाणवी.
३१५ हीन मिथ्याष्टिना गुणने उच्च गुणस्थान वीं सम्यग्दृष्टि, केम
प्रशंसा करे ? एम कोइ शंका करेछे ते योग्य नथी. कारण के
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Manv
तस्वविन्दुः
(१०५) ' एमजो होय तो तीर्थकरे कोइना गुण प्रशंसवा न जोइए, कारण के तीर्थकरथी सर्व जीवो होनछे.
श्रावक प्रज्ञप्ति.
३१६ जावणं, अयंजीवे, एयइ, वेयइ, चलइ, फंदइ,तावणं अठविहबन्ध
एवा, सत्तविहबन्धएवा,छन्विहबंध एवा, एगविहबंधएवा,इत्यादि ज्यां सुधी जीव कंपेछे,चालेछे, धडकेछे,त्यां सुधी ओठ प्रका. रनो कर्मबन्ध करेछे, सात प्रकारनो, छ प्रकारनो वा एकविध कर्म बंध करेछे. समये समये आ प्रमाणे कर्मबंध करेछे.
३१७ अनादि मिथ्यात्ववाळाने सैद्धांतिकना मत प्रमाणे प्रथम क्षयो
पशमसम्यक्त्व अने कार्मग्रन्थिक मत प्रमाणे प्रथम उपशम सम्यक्त्व थायछे.
३१८ अनादि मिथ्यात्वनो क्षय कर्योछे एवो जीनो, चढतां बीजा
गुणस्थानके जाय नहीं. चोये, पांचमे, छठे, अने सातमे गुण
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तत्वविता
स्थानके जाय. उपशम, क्षयोपशम, अने क्षायिक ए प्रण निश्चय समकितछे.
३१९ तीर्थकर नामकर्म, क्षयोपशम समकिती वा, क्षायिक समकिती
जीव, बांधछे. उपशम समकितनो काल अल्पछे माटे तीर्थंकर नामकर्म बंधातुं नथी. तीर्थकर नामकर्म बांधेलंछे एवो क्षयोपशम समकितवाळो जीव पडीने प्रथम गुणस्थानकमां आवे अने त्यां अन्तर्मुहूर्तथी अधिक रहेतो तीर्थकर नामकर्मनां दलिक
उवेली नाखे अने अंतर्मुहूर्तमा समकित पार्छ पामे तो तीर्थकर ...नामकर्मनां दलिक उवेले नहीं..
३२० अभव्यने दीपक समकित होय.
३२१ आयुष्यनो पूर्वमां बंध करीने क्षायिक समकित पामेलो जीव चार भव करेछे, अथवा त्रण भव करेछे. चार भव करे तो बीजो भव युगलिकनो थाय अने त्रीजो भव देवता वा नारकीनो करे, अने चोथो भव मनुष्यनो करे. क्षायिक समकितनी पहेला असंख्याता वर्षनो आयुष्यनो बंध करे तो मरीने युगलिक थाय. ते विना नहि. संख्यात वर्षनो आयुष्य बंध कर्या पछी कोइ जीव क्षायिक समकित पामे नहीं.
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तत्त्वबिन्दुः
३२२ क्षायिक समकिनी प्राप्ति मनुष्यगतिमांछे,
( १०७ )
३२३ आयुष्यबंध कर्या विना क्षायिक समकित पामे तो जीव तद्भव मुक्ति पामेछे.
३२४ छप्पन्न अन्तरद्वीपना युगलीकमां क्षायिकसम किती जीव मरीने जाय नहीं. अन्तरद्वीपना युगलिकमां उपशम, क्षयोपशम, अने सास्वादन ए त्रण समकित होय अने ते सिवायना युगलिकमां चार समकित होय.
३२५ भुवनव्यति, व्यंतर अने ज्योतिषोमां उपशम, क्षयोपशम, अने शास्वादन, एत्रणसमकित होय, अने वैमानिकमां चार समकित होय.
३१६ त्रीजी नरक सुधी चारे समकित होय. अने तेथी उपर क्षायिक विना ऋण समकित होय.
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(106)
सस्वबिन्छः ३२७ तिर्यचनी गतिमा थलचरने मूकीने बाकीला गर्भज पंचेन्द्रियमां
उपशम, क्षयोपशम, अने सास्वादन ए त्रण समकित होय गर्भज थलचरमां क्षायिक समकित. उपशम,क्षयोपशम, अने सास्वादन ए चार समकित होय. मनुष्यमांथी जीव थलचरमां क्षायिक समकित जीव लेइ जायचे.
३२८ समुच्छिम पंवेन्द्रिय तिर्यंच अने विकलेन्द्रियमा अपर्याप्त अव. स्थामा एक सातादन समकित होय. .
३२९ मनुष्यगतिमां पांचे समकित होयछे.
३३० कोइ मतिज्ञानी समकित जीव समकितवमीने अन्तर्मुहूर्त मिथ्या
त्वमा जाय अने पुनः समकित सहित मतिज्ञान पामे तो मतिज्ञाननो जघन्य अन्तर्मुहूर्त विरहकाल पडे. अने आशातना दोष बहुलजीवने समकितथी पडतां देशोन अर्धपुद्गल परावनिकाल अंतर(विरह)उत्कृष्टथीपडे,देशोन अर्ध पुद्गलकाल वीत्याबाद पुनः समकित अने मतिज्ञान पामे. एक जीवनुंआ प्रमाणे
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AAAANA
नाबिन्दः ... जपन्न. अने उत्कृष्ट अंतर कमु. श्रुतज्ञाननो पण तेटलो काल
जाणवो. नाना जीवोनी अपेक्षाए तो त्रणभुवन मतिज्ञान शून्य होतुं नथी तेथी विरहकाल नथी.
३३१ सिद्धिपदवरवामां उत्कृष्ट विरहकाल पड़े तो छ मासनो विरह ....काल पडे.. .
३३२ मतिज्ञान आखाभवचक्रमा उत्कृष्ट असंख्यातवार आवे. अने
जघन्यथी एकवार, बे वार. श्रुतज्ञान, पण तेम समजबु.
३३३ उपशम समकित, संपूर्ण भवचक्रमा उत्कृष्टः पांचवार आवे
अने सास्वादन पण तेटलीवार आवे.
३३४. क्षयोपशम समकित, आखा भवचक्रमां असंख्यातवार आवे.
क्षायिक अने वेदक आखा भवचक्रमा एकवार आवे.
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. .
तस्वबिन्दुः ३३५ मतिज्ञान अने श्रुतज्ञान बे परोक्षछे. अपविज्ञान,मनःपर्यवज्ञान,
'अने केवलज्ञान प्रत्यक्षछे.
३३६ अवधिज्ञान जघन्यक्षेत्र अंगुलना असंख्यातमा भागनुंछे.
अने अवधिज्ञानी उत्कृष्टः अलोकमां पण लोक प्रमाण असंख्येय खंडने देखी शके. अलोकमां रूपी पदार्थ नथी पण आतो फक्त परमावधिज्ञाननी शक्ति बतावीछे.
३३७ परमावधि अने मनः पर्यवज्ञानमा विपुलमति-ए थे अवश्य
केतलज्ञान पामीने मुक्ति जाय छेते बे पुनःसंसारमा परिभ्रमण करता नथी.
३३८ चक्षुदर्शननो जघन्य अन्तर्मुहूर्तकाल अने उत्कृष्टतः असंख्यात
काल जाणवो. अचसुदर्शननो उत्कृष्ट अनंतकोल जाणवो. व्यवहारराशि जीवनी अपेक्षाए अचक्षुदर्शननो जघन्यकाल अन्तमुंहत जाणवो. व्यवहारराशिमां अचक्षुदर्शननो उत्कृष्ट अनन्त कालछे.
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तस्वविन्दुः
३३९ दघि बेरात्री गयेव बोद अभक्ष्यछे. योगशास्त्रे.
३४० द्विदलधान्य कठोल प्रमुखनी साथे काचुं दूध, काचुं दधि अने
काची छासनो संयोग थाय तो सूक्ष्म जीवोनी उत्पत्ति थायछे माटे योगशास्त्रमा तेनो निषेध करेलोछे. विवाहचूलिकामां पण तेनो निषेध कर्योछे. तत्पाठ. विदलेकतिविहे पन्नत्ते तं जहा अन्नदलं कठदलं चइजविदलं दुविहंजिनागमे आगनोरसजोगेण
उपज्जंतीइ जंतवो. '. मग, मठ, अडद प्रमुख विदल जाणवू. उकालो छाशमा उ
काळेला दूधमा उकाळेला दधिमां विदल नांखवाथी दोष नथी. विदल जम्या बाद काचुं गोरस वापरतुं होय तो मुख अने पात्र बे धोवे अथवा अन्यपात्रमा गोरसादिक भक्षण करे.
३४१ बादरनिगोदमा जघन्यथी अंतर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट सित्तेर कोडा
कोडी सागरोपमनो काल, एकजीव आश्रयी जाणवो.
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तत्वबिन्दुः
३४२ बादर अने सूक्ष्मनिगोदमा एम बन्नेमां जीव जाय अने आवे
तेनो उत्कृष्ट काल अढी पुद्गल परावर्तननो जाणवो. ३४३ द्रव्य क्षेत्र काल अने भावथी पुद्गल परावर्तन चार प्रकारेछे.
तेमां एकेक सूक्ष्म अने बादरभेदथी बे प्रकारेछे. सर्व मळी आठभेद थाय.
३४४ गर्भज मनुष्यदेहमां एकेन्द्रियथी ते पंचेन्द्रिय पर्यंत जीव
उत्पन्न थाय.
३४५ जातिस्मरण ज्ञानछे ते मतिज्ञान धारणानो भेदछे, जातिस्मरण वडे एक बे त्रण यावत् नवभव देखे. यदुक्तं आचारांगसूत्रवृत्तौ
गाथा. पुब्वभवा सो पिच्छइ, इकंदोतिनिजावनवगंवा; उवरितस्स अविसर्ज, सभाव जाइसरणस्स ॥१॥ १४६ गर्भमा रहेलो जीव गर्भमांज मरीने चतुर्गतिमां जाय.
३४७ पगथी नीकळेल जीव नरगतिमा जाय. साथलथो नीकळेलो
जीव तिर्यंचमां जाय. छातीमांथी नीकळेलो जीव मनुष्यगतिमां
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तत्त्वबिन्दु.
( ११३ )
जाय. अने मस्तकथी नीकळेलो जीव देवगतिमां जाय. सर्वागथी नीकळेलो जीव मुक्तिमां जाय. तथा चोक्तं ठाणांगे प्रथम स्थाने
उरेणं शिरेणं सव्वंगेहिं - पाएहिं निज्जायमाणे निरयगामीभवति, उरुहिं निजायमाणे तिरियगामीभवति २ उरेण निजायमाणे मणुयगामी भवति ३ शिरेण निजायमाणे देवगामीभवति ४ सव्वंगेहिं निजायमाणे सिद्धिगति पज्जवसाणे पन्नत्ता.
३४८ आत्माना आठ रुचकप्रदेश स्थिर होवाथी तेने कर्म लागतां नथी. अवशेष प्रदेशोचलछे तेथी तेने कर्म लागेछे. उष्णजल जेम वासणमां उंचुनीचुं फर्या करेछे, तेम आठ रुचक प्रदेश विनाना बाकीना आत्मप्रदेशो शरीरमां उंचानीचा फरेछे.
-३४९ मोति वगेरे सर्व रत्नो उत्पत्ति स्थानमां सचित्त होयछे, अने उत्पत्ति स्थान भ्रष्ट थया पछी अचित्त थाय छे. तथा हीरप्रश्नमां मोतिर्विधेलां तथा अविधेलां अचित्त का छे तेनो पृथ्वीकायमा समावेश जाणवो.
३५० तेरमा अने चौदमा गुणठाणावाला केवलीने भवस्थ केवली कछे, अने भवथी मूकायला केवलीने अभवस्थ केवली कहेछे.
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- ( ११४ )
Satara.
३५१ श्रीजामां, बारमामां, तथा तेरमामां, एत्रण गुणस्थानकर्मा जीव मरे नहि.
३५२ चक्षुदर्शननो जघन्यतः विरहकाल अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्टतः अन्ततकाल जाणवो. निगोदनी अपेक्षातः
३५३ परमावधिज्ञान, द्रव्यथी परमाणुने साक्षात् देखे. अगुरुलघु पर्यायने देखे. तेमज गुरुलघु पर्यायने पण देखे. परमावधिनो समस्त पुद्गलास्तिकाय विषयछे. क्षेत्रथी परमावधिज्ञान असंख्यात लोकमात्र खंड देखे. कालथी असंख्यात उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी देखे. भावथी परमावधिज्ञान एक आश्री असं ख्यात, संख्यात पर्याय देखे. सामान्यथी वर्ण, गंध रस स्पर्श वाळा चार पर्यायने एक द्रव्यमां जघन्यथी देखे. क्षेत्र अने कालथी रूपिद्रव्यगतछे. वस्तुतः क्षेत्र अने काल अरूपीछे. माटे क्षेत्रकालमा अवधिज्ञाननो विषय नथी. रूपिष्वव धेः. अवधिज्ञाननो विषय रूपद्रव्योमांछे. अनंतद्रव्य समुदाय भेगो करी तो अनंत पर्यायने अवधि ज्ञानी देखे.
३५४ अष्टादशलिपीने संज्ञाक्षर कहेछे. अकारककारादिकने व्यब्ज
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तस्यबिन्दु
(114)
नाक्षर कहेछे. संज्ञाक्षर अने व्यञ्जनाक्षरने द्रव्यश्रुत कहे छे. लब्ध्यक्षर भावश्रुतछे. श्रुतज्ञाननी अनंति प्रकृतियोछे.
३५५ अकारादि एक अक्षरना स्त्रपर्याय अनन्तछे, अने परपर्याय पण अनन्तानन्तगुणछे.
३५६ द्रव्यास्तिक नयापेक्षया सर्वज्ञान अक्षरछे. अने पर्यास्तिकनयापेक्षया अनक्षरछे. रूढिथी श्रुतज्ञान अक्षररूप कहेवायछे.
३५७ संज्ञाक्षर अने व्यंजनाक्षर वर्णविज्ञानरूप अक्षरनो लाभ, संझिजीवोने होयछे, अक्षरलाभने परोपदेश जन्यत्वछे माटे पूर्वोक्त वे अने लब्ध्यक्षर ए त्रण संज्ञीने होयछे. लब्ध्यक्षर तो इंद्रियादिनिमित्त, क्षयोपशमछे तेथी असंझिने होय तेमां विरोध जणातो नथी.
३५८ भावदेव, धर्मदेव, देवाधिदेव, द्रव्य देव अने नरदेव आ पांच प्रकारना देव जाणषा.
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तत्वविदु
ओघनियुक्ति पाठः
संपाइमरयरेणु, पमज्जणा वयंति मुहपत्तिं; नासं मुहंच बंध, तीए वसदिं पमज्जंतो ॥ १ ॥ सुखवत्रिका वसति प्रमार्जन माटे बांधवी. ते संबंधी पाठछे.
( 114 )
३५९.
vinne
३६० भव्य करतां अभव्यना प्रतिबोधेला घणा मुक्ति जाय. केम ते बतावेछे. अभव्य जीव तो अनादि अनंतमा भांगेछे. अभव्यने कदी मोक्ष नयी. माटे चारित्र उदय आवे ने भव्यने प्रतिबोध आपी बोध माडे. तेथी घणा जीव प्रतिबोधे अने ते मुक्ति जाय. भव्यने तो मोक्षमां गया पछी उपदेश देवो नयी. तेथी अभव्यना प्रतिबोध्या घणा जाणवा. ए अधिकार नयचक्रमांछे.
३६१ संसारमां जीवो करतां अजीव अनन्तगुण अधिक जाणवा.
३६२ एक भवथी अन्य भवमां जतां वचमां जीवने कार्मणकामयोग : होय ए अधिकार पत्रवणामांछे,
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३६३ बाटे वहेतां ( एक भवयी अन्यमतिमा मतां बयां ) जीने.
तेजस अने कार्मण बे शरीर होय.
३६४ वाटे वहेतां ( एक भवथी अन्य गतिमां जतां वनमा) संसारि
जीवने मिथ्यात्व, सास्वादन, अविरति एत्रण गुणठाणाहोय.
३६५ वाटे वहेतां संसारि जीवने एक आयुष्य प्राण होय. ए अषि
कारनयचक्रमांछे.
३६६ पल्योपमना असंख्यातमा भागे जेटला समय आवे तेटला
वायुनां एक समये वैक्रिय शरीर होय. वायुवैक्रिय शरीर करे तो एक अन्तर्मुहूर्त रहे.
३६७ पांच इन्द्रियमांथी चक्षु अने कान बेकामी. घ्राण, जिव्हा,
काया, ए त्रण भोगी ए अधिकार भगवतीना सातमा शतक जीजा उद्देशापांडे,
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तत्वविन्द ३६८ सर्व जीवोमां कामी जीव थोडा.
३६९ पुरुषवेदनो पुरुषवेद रहेतो उत्कृष्ट नवसें सागर सुधी रहे.
३७० स्त्रीवेदनो स्त्रीवेद रहेतो उत्कृष्ट एकशो दश पल्योपम अने के
पूर्व कोडी रहे.
.
३७१ विग्रहगतिमा एक समय, बे समय, त्रण समय पर्यंत जीव
अनाहारी होय. आठ समयनी केवली समुद्घातमां ३-४-५ त्रीजो चोथो अने पांचमो ए त्रण समय जीव, अनाहारि. त्रीजुं शैलेशीकरण समये अनाहारि जीव जाणवो.
३७२ विग्रहगतिमा आयुष्य विना सातकर्मनो बंधछे. ऋजुगतिमा
पण सातनो बंधछे.
३७३ जीव समकित सहित छही नरक पर्यंत जाय,
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तस्वबिन्दु.
( ११९ )
३७४ तंडुलमत्स्य गर्भजछे, अन्तर्मुहुर्तनुं आयुष्यछे. आयुष्य ७७ सतोतेर लवनुंछे. अगीयार लव गर्भमां रहे. अने गर्भथी बहिर नीकळ्या पछी ६६ छासठ लव आयु भोगवे. मरीने सातमी नरकमां जाय.
३७५ अविरतिमां सात तत्त्व होय.
३७६ सर्व तीर्थकरोनो जन्म मध्यरात्रीमां सर्व क्षेत्रमां थायछे.
३७७ केवलीने सातयोग होय. केवली समुद्घात करे तेने सातयोग, अने केवल समुद्घात न करे तेने पांचयोग होय.
३७८ केवली समुद्घातवेळा औदारिक, औदारिक मिश्र, अने कार्मग एत्रणयोग होय.
३७९ त्रण गुप्ति उत्सर्ग मार्गछे, अने पंचसमिति अपवाद मार्गछे, अष्टमवचन मातानुं आराधन करतां मुक्ति थाय.
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( १२० )
तबिन्दु .
३८० ज्ञान, दर्शन अने चारित्र एज मुख्यतः मोक्षमार्ग छे, ज्ञानदर्शनचारित्राणिः मोक्षमार्गः तत्त्वार्थ सूत्रवचनात्
३८१ पुण्य प्रकृतिनो एक ठाणायेो रस पडे नहि, योगथी प्रदेशबंध अने प्रकृति बन्ध पडे, अने कषायथी रस बन्ध, अने स्थितिबन्ध पडे.
३८२ निश्चयमतथी सर्व वादर वस्तु गुरुलघुछे. बादर वस्तु सर्व गुरुलघु पर्यायविशिष्ठछे. अने सूक्ष्म तो अगुरु लघुछे. अगुरुलघु वस्तु संबंधी पर्यायो पण अगुरु लघु कहेवायछे.
इहनिश्चयमतेन बादरं वस्तु सर्वमपि गुरुलघु ।। सूक्ष्मंत्व गुरुलघु तत्राऽगुरुलघुसंबंधिनः पर्यायाअपि अगुरुलघुवः समये अभिधीयन्ते (वि)
३८३ जे एक जाणेछे ते सर्व जाणेछे. जे सर्व जाणेछे ते एक जाणे छे. एक वस्तु पण सर्व स्वपरपर्यायावडे जाणनार लोकालोक गत सर्व वस्तुने सर्व स्वपर पर्यायोवडे युक्त जागेछे, सर्व
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तत्वबिन्दुः
।
)
वस्तुना परिज्ञान विना एक वस्तुनुं ज्ञान थतुं नथी. जे सर्व वस्तुने सर्व पर्यायोपेत जाणेछे. ते एक पण वस्तुने सर्व पर्यायोपेत जाणेछे. सर्व वस्तुने सर्व पर्यायोपेत जाणनार एक परमाणु वा एक अकारादि अक्षरने पण सर्व स्वगरपर्यायोपेत जाणेछे. ( विशेषावश्यक) जे एगं जाणइ से सबं जाणइ, जे सव्वं जाणइ, से एगं जाणइ ॥१॥
३८४ सर्व द्रव्यना अनंतपर्यायो पण यति संबंधी कहेवायचे. स्व.
कार्यनिष्पादकछे ए हेतुथी. ज्ञान, दर्शनः अने चारित्रगोचर सर्व वस्तुना सर्व पर्यायोछे. सर्व पर्यायो, सम्यग् दर्शनथी श्रद्धा करवा योग्य थायछे माटे सर्व द्रव्यपर्यायो दर्शनना पर्याय कहेवायछे. सर्व द्रव्यपर्यायो ज्ञानवडे जणायछे माटे ते ज्ञानना :पर्यायो जाणवा. आहार वस्त्र पात्रादि उपकरण
औषध शिष्य पुस्तक आदि ग्रहणरूप बहु, चारित्रनापर्यायोछे. पढमंमि सव्वजीवा, बीए चरियमेव सव्वदव्वाइं॥ सेसा महब्बया खलु, तदेवदेसेण दव्वाणं ॥१॥ प्रथमव्रतमा सर्व जीवो, द्वितीय अने चरमवतमां सर्व द्रव्य. शेषमहाव्रत द्रव्यो तदेकदेशनुं ग्रहण करेछे. व्रतो चारित्र रूपछे. तेथी तेमां सर्व द्रव्य पर्यायन ग्रहण थयु. ज्ञान दर्शन विना चारित्रनो अभावछे यतिना ज्ञान दर्शन चरित्र पर्याय
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( १२ )
तस्वबिन्दुः
छे. तेथी यतिमां अपेक्षाए सर्व जगत्ना पर्यायो समायछे. तेथी सर्व जगत् यतिमांछे, ज्ञानादिकना पर्यायनी अपेक्षाए एम सिद्ध ठरेछे. ( विशेषावश्यक )
३८५ सर्व वस्तुओ नैगम, संग्रह, व्यवहाररूप अविशुद्धनयनी अपेक्षार अक्षर [ ध्रुव ] छे. तेमज सर्व वस्तुओ ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ अने एवंभूतनयनी अपेक्षाए क्षर [उत्पाद व्ययरूप अनित्य ] छे. द्रव्यास्तिकनयनी अपेक्षाए सर्व वस्तुओ अक्षर छे, अने पर्यायार्थिकनयनी अपेक्षाए सर्व वस्तुओ क्षर [उत्पाद व्ययरूपछे. [ विशेषावश्यक ]
३८६ अभिधान शक्तिरूप सर्व अभिलाप्य प्रज्ञापनीय पदार्थो छे ते अकारादिक अक्षरना स्वपर्याय जाणवा, पण अनभिलाप्य न जाणवा=अकारना ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत भेद सानुनासिक, निरनुनासिक, उदात्त, अनुदात्त अने स्वरित ए अढार भेद आदि अनंत Faraa जाणवा. अकारअक्षरवाच्यविष्णुप्रमुख अन्य अनंत पदार्थ अस्तित्व संबंधवडे स्वपर्याय जाणवा. इकारादि वाच्य लक्ष्मी आदि पर्यायो अनंतछे ते अकारना परपर्यायछे, नास्तित्व संबंधथी. तेमज इकारना हस्त्रादिक वाच्य अनंत स्त्रपर्याय जाणवा. अने अकारादिकना अनंत स्वपयर्याय ते इकारना परपर्याय नास्तित्व संबंधथी जाणवा. एम सर्वत्र भावना करवी ( विशेषावश्यक. )
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सस्वबिन्दुः
(१५) ३८७ अतीव मुग्धवाल, गोवाल, गौ, वगेरे पण संज्ञाक्षर अने व्यं
जनाक्षरना अभावे पण शब्दादिवर्णोच्चारण करेछते श्रवणथी सन्मुख देखवु इत्यादि प्रवृत्ति निवृत्तिं करतां जणायछे. गौ पण शबला, बहुलादि शब्दोथी बोलवतां दोडी आवेछे. अने निवृत्त थती पण देखायछे. गवादिने परोपदेश नथी. संज्ञाक्षर अने व्यंजनाक्षरमां, परोपदेश निमित्तभूत होयछे. तादृश संज्ञाक्षर, अने व्यंजनाक्षर ज्ञानना अभावे पण गौ आदि संज्ञिजीवो लब्ध्यक्षरथी प्रवृत्ति करेछे. ते प्रमाणे असंज्ञिमां पण लब्ध्यक्षर इच्छवायोग्यछे ( विशेषावश्यक.)
३८८ आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, अने परिग्रहसंज्ञा, आचा
रसंज्ञानो समावेश लब्ध्यक्षरमां थायछे. (वि.)
९३८ नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समाभिरुढ अने एवं
भूत, ए सातनयो अने तेना भेदोनुं गुरूगमथी यथार्थज्ञान करवू जोइए. तेमज चारनिक्षेप अने सप्तभंगीनुं गुरूगमथी यथार्थ स्वरूप धारवु जोइए. सातनय, चार निक्षेप अने सप्त भंगीथी वस्तुनुं स्वरूप समजतां सम्यगदर्शननी प्राप्ति थायछे.
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(१२ )
तस्वबिन्दु; ३९० दशमगुणस्थानकमां लोभनो उदयछे. अगीयारमा गुणस्थानकमां . लोभनो उदय नथी. त्यारे अगियारमागुणस्थानकथी जीव
केम पडेछे? प्रत्युत्तरमां समजवा के-अगीयारमागुणस्थान. कनी स्थिति अन्तर्मुहर्तनीछे, अने अगियारमाथी बारमा गुणस्थानकमां जवातुं नथी. तेथी स्थितिना स्वभावथी अन्त मुहूर्त त्यां रही पाछो पडेछे.
३९१ उपशम श्रेणिवाळाने उपशम समकित होय अथवा क्षायिक
समकित होय.
३९२ क्षयकश्रेणिमां क्षायिक समकित होय. क्षपकश्रेणिमां ८, ९,
१० आठमा नवमा अने दशमा गुणस्थानकमां क्षयोपशम चारित्र होय, अने बारमामां क्षायिकचारित्र होय.
३९३ पहेला, बीना अने त्रीजागुणठाणामां. क्षयोयपशम, औदयिक
अने पारिणामिक ए त्रण भाव होय.
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सत्त्वविन्दुः
(१२५)
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३९४ चोथाथी ते अगियारमा गुणस्थानक सुधी प्रत्येक गुणस्थान
कमां पांच भाव पमाय.
३९५ बारमा गुणस्थानकमां उपशम विना चार भाव होय. क्षायो
पशमिक इन्द्रियो, मतिज्ञान वगेरे औदयिकीगवि, पारिणामिक जीवत्व-क्षायिकभावे सम्यक्त्व अने चारित्र.
३९६ तेरमा गुणस्थानकमां क्षायिक केवलज्ञानादि नव लब्धि.
औदयिकीगति अने पारिणामिक जीवत्व. अने चौदमा गुणस्थानकमां पण त्रण भाव छे.
३९७ प्रथम गुणस्थानकमां पारिणामिक भावना त्रण भेद छे. जीव
त्व, भव्यत्व अने अभव्यत्व.
३९८ बीजा गुणस्थानकथी ते बारमा गुणस्थानक पर्यंत अभव्यत्व
वर्जीने भव्यत्व अने जीवत्व एबे भेद होय. तेरमा अने चौदमा गुणस्थानकमां जीवत्व, पारिणामिकभावे होय. .
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(128)
तत्वचिदुः
३९९ ज्ञानावरणीय कर्ममां चार भाव, दर्शनावरणीयमां चार भाव, वेदनीय कर्ममां त्रण भाव, मोहनीयमां पंच भाव, आयुष्यमां aण भाव, नामकर्ममां त्रण भाव, गोत्रकर्ममां त्रण भाव अने अन्तराय कर्ममां चार भाव छे.
४०० औपशमिकभाव सादि सपर्यवसित (सादि सांतछे ) क्षायिकभाव सादि अपर्यवसित ( सादि अनंत ) छे. क्षायोपशमिक भाव अनादि सपर्यवसित (अनादि सांत) छे. अने अभव्यनी अपेक्षाए अनादि अनंतछे. औदयिकभाव अभव्यनी अपेक्षाए अनादि अनंतछे, अने भव्यनी अपेक्षाए अनादि सांतछे. अभव्यत्व अने जीवत्व अनादि अनन्तछे, अने भव्यत्व अनादि सांतछे पारिणामिकमां.
४०१
९ १० ११/१२/१३/१० | संख्या
मि सामि अ दे प्र अ अपू नि सू उ क्षी स अ गुणस्थानक नाम
क्षयोपशम भेदाः
औदयिक भावभेदाः
● आपश मिकभावभेदाः
९) क्षायिक भावभेदा:
१ पारिणामिक भावभेदाः
३४ ३३/३० २७ २८ २२ २० १९ १३ १२ सोनिया तिकभेदाः
४
cher
111% 15 | = | im 1 21
६ ७
1°1 | -
| ँ । । ५ ।
| २१२० १९ १९ १७ १
१० १० १२ १२ १३ १४ १४ १३ १३ १३ १२ १२
52 |
Ciciais
१० १० ४ ३ ३ ३
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________________
तस्वबिन्दुः
(१७)
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४०२ उपशम श्रेणिमा आठमा गुणस्थानकमां क्षयोपशम चारित्र होय.
४०३ १ बंधोनाम-कर्मपुद्गलानां जीवविशेषैः सह वन्यस्पिडबद्
अन्योऽन्याऽनुगमः
४०४ २ संक्रमः प्रकृति स्थित्यनुभागपदेशाना मन्यरूपतया स्थि
ताना मन्यकर्म स्वरूपेण व्यवस्थापन ३ उद्वर्तना-स्थित्यनुभागयो बृहत्करणं ४ अपवर्तना-तयोरेव ह्रस्वी करणम् ५ उदीरणा-कर्म पुद्गलाना मकालप्राप्ताना मुदयावलिकायां
प्रवेशन मुदीरणा, ६ उपशमना-कर्मपुद्गलाना मुदयोदीरणानिधत्ति निकाच
ना करणाऽयोग्यत्वेन व्यवस्थापन मुपशमना ॥ ७ निधतिः-उद्वर्तनाऽपवर्तनावशेष करणाऽयोग्यत्वेन व्य
वस्थापनम्. ८ निकाचना-समस्त करणाऽयोग्यत्वेन व्यवस्थापनम् ॥
उक्त स्वरूपबंधादिनिबंधनभूताश्च जीववीर्यविशेषाबन्धनादिनीत्युच्यन्ते तथा व्युत्पत्तिभावा तथाहि
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तश्व बिन्दु:
१ बध्यते अष्टप्रकारं कर्म येन तद्बंधनं ।
२ संक्रम्यतेऽन्य प्रकृत्यादिरूपतया व्यवस्थाप्यते येन तत् संक्रमणम् ।
३ उद्वर्त्यते प्राबल्येन प्रकृतिस्थित्यादि यया जीववीर्यविशेष परिणत्या सा उद्वर्तना
४ अपवर्त्यते ह्रस्वीक्रियते स्थित्यादि यया सा अपवर्तना
( १२८ )
५ अनुदयं प्राप्तं सत्कर्मलिक मुदीर्यते उदयावलिकायां प्रवेश्यते यया सा उदीरणा
६ उपशम्यते उदय उदीरणानिधतिनिकाचनाकरणायोग्यत्वेन व्यवस्थाप्यते कर्मयया सा उपशमना ।
७ निधीयते उद्वर्तनाऽपवर्तनावर्जकरणाऽयोग्यत्वेन व्यव स्थाप्यते यया सा निघत्तिः
८ निकाच्यते अवश्यवेद्यतया निबध्यते यया सा निकाचना
योगस्वरूप
०५ वीर्यांतराय कर्मना देशक्षयथी तथा सर्वक्षयथी वीर्य लब्धि उत्पन्न थाय छे. देशक्षयथी छद्मस्थने अने सर्वक्षयथी केवलीने लेश्या आश्रयी वीर्यना वे भेद छे. सलेशीवीर्य अने अलेशीवीर्य. सशीवीर्यना वे भेदछे. १ अभिसंधिज २ अनभिसंधिज.
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तत्वबिन्दु १ बुद्धिपूर्वक धावनवल्गनादि क्रियामा जेने जोडीए ते अ
भिसंधिज वीर्यछे.. २ मुक्त आहारनुं धातुमलत्वादि आपादनकारण इत्यादि ___ अनभिसंधिज वीर्य जाणवू. ए बन्ने प्रकारचं वीर्य यथासंभव सूक्ष्म बादर परिस्पंदरूपक्रियासहित योग पण तेनुज नाम. एवां एकाधिक नामयोग, वीर्य, थाम, उत्साह, पराक्रम, चेष्टा, शक्ति, सामर्थ्य, ए योगना पर्यायवाची नामछे.
४०६ योगनु १ परिणामादि हेतुपणुं. २ योगना भेद. ३ जीव पदे
शोमां विषमावस्थान कारण. १ प्रथम जोव, योगसंशितवीर्यविशेषे औदारिक शरीर प्रायोग्य
पुद्गलोने ग्रहण करेछे. ग्रहण करीने औदारिक रूपे परिणमावेछे. तेमज प्राणापान, भाषा, मनोयोग्य पुद्गल स्कंधोने पण ग्रहीने प्राणापानादिरूपे परिणमावेछे. परि
णमाविने पश्चात् तेनी स्वाभाविक शक्ति विशेष प्रसिद्धि - अर्थ तेज पुद्गल स्कंधोनुं अवलंबन करेछे. यथा दृष्टांत
कोइ मन्द शक्तिवालो नगरमा परिभ्रमगार्थे यष्टिकार्नु अ. वलंबन करेछे. तेना आलंबनथी शक्ति उत्पन्न थता ते पुद्गल स्कंधोनुं विसर्जन करे छे. ते माटे परिणाम, आ. लंबन, अने ग्रहण- साधन, वीर्यजछे.
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बिन्दु
(19)
२ मन, बचन अने कायाना अवष्टंभयी उत्पन्नतावडे तेनां त्रण नाम पडछे. १ मनोयोग. २ वचनयोग, अने काययोग. ३ जीव प्रदेशोमां वीर्यना न्यूनाधिकपणाना बे हेतुओछे. १ कार्याभ्यास. कार्यनी २ पासे जीवप्रदेशोनो शृंखलावयवनी पेठे अन्योऽन्य प्रवेश. जे आत्म प्रदेशोने घटादिकार्य पासे होय तेमां विशेष चेष्टा अने दूर होय तेमां अल्प चेष्टा वा अनुभव सिद्ध छे.
•
४०७ अविभाग, वर्गणा, स्पर्धक, अन्तरस्थान, अनंतरोपनिधा, प1. स्परोपनिधा, वृद्धि, समय, अल्पबहुत्वमरूपणा दरेकने मरूषणाशब्द जोडवो. आ अधिकार अवबोधवा योग्यछे,
४०८ - पुद्गल द्रव्योने परस्पर संबंध स्नेहथी थायछे, तेथी स्नेह प्ररूपणा शास्त्रमां करीछे. तेना ऋण प्रकार छे. स्नेहमत्ययस्पर्धक प्ररूपणा. २ नाम प्रत्ययस्पर्धक प्ररूपणा. ३ प्रयोगप्रत्ययस्पर्धक प्ररूपणा.
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तूपणाम
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तत्वविन्दु. १ स्नेहमत्यय स्नेहनिमित्तस्पर्धकनी प्ररूपणाने स्नेहमयों
स्पर्धक प्ररूपणा जाणवी. २ शरीरबंधननामकर्मोदयथी परस्पर बंधाएल शरीर पुद्ग
लोनो स्नेह अंगीकार करीने स्पर्धक प्ररूपणाते नामपयय
स्पर्धक प्ररूपणा.... ३ प्रकृष्ट योगकारणथी जे ग्रहण करेला पुद्गलो, तेना स्नेहने लेइ स्पर्धकनी प्ररूपणाते प्रयोग प्रत्यय स्पर्धक प्ररूपणा जाणवी. केवलयोग प्रत्ययथी बंधाता कर्मपरमाणुओमां योगस्थाननी वृद्धिथी स्पर्धकरूपे जे रस इद्धि पामे छे ते प्रयोग प्रत्ययस्पर्धक.
४०९ अनुभाग बंधमां चौद अनुयोग द्वार जाणवा योग्य छे. ते आ
प्रमाणे-१ अविभाग प्ररूपणा, २ वर्गणा प्ररूपणा, ३ अ. न्तरं प्ररूपणा, ४ स्थान प्ररूपणा, ५ कंडक मरूंपणा, ६ षट्
स्थान प्ररूपणा, ७ अधस्तनस्थान प्ररूपणा, ८ वृद्धि प्ररूपणा, ९ समय प्ररूपणा १० यवमध्य प्ररूपणा, ११ ओजो युग्म
प्ररूपणा, १२ पर्यवस्थान प्ररूपणा, १३ अल्प बहुत्व प्ररूपणा, .. १४ स्पर्धक प्ररूपणा. (३) त्रीजी आ छे..
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तत्त्वविन्दु. ४१० देव, नारक, गर्भजतिर्यच, तथा मनुष्योने दीर्घकालिकीसंज्ञा
होय छे. (वि)
४११ हेतुवादोपदेशिकी संज्ञामां पण भूतकाल अने भविष्यनुं अनु
क्रमे स्मरण चितवन छे. पण लांबा काल, नथी. विकलेंद्रिय अने समुच्छिम पंचेंद्रियने हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा छे. (वि.) विकलेन्द्रिय जीवो, हेतुवादोपदेशिकी संज्ञाथी इष्टमां प्रवृत्ति करे छे अने अने अनिष्टथी पाछा फरे छे.
४१२ सम्यग्दृष्टिजीवने, दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा होय छे. ज्ञान
वरणीय क्षयोपशमभावथी जे ज्ञान थाय छे तेमां दृष्टिवा दोपदेशिकी संज्ञा होय छे. आ संज्ञा पामीने सम्यग्दृष्टि संज्ञी कहेवाय छे, अने बाकीना जीवो असंज्ञी कहेवाय छे, चोथा गुणस्थानकथी ते बारमा गुणस्थानक पर्यंत क्षयोपशम ज्ञानमा दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा छे क्षायिक केवलज्ञानीने संज्ञा होती नथी. कारण के तेमना ज्ञानमां, सर्ववस्तुनो भास थाय छे तेथी भूतकाल स्मरण, भविष्यकाल विचाररूप संज्ञानो अभाव होय छे. क्षयोपशम ज्ञानमां तेवी संज्ञानो संभव छे. ते संज्ञानो नाश थतां ते संज्ञाना अभावे केवली असंज्ञी कहेवाय छे. (वि.)
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तत्वबिन्दु.
(122)
४१३ एकेन्द्रियमां आहारादि दश संज्ञा छे, किन्तु ते विशिष्ठ संज्ञाना • अभावे असंज्ञी कहेवाय छे. कोडीथी कोइ धनवान् कहेवातो नथी. सामान्य रूपथी कोइ रूपवान कहेवातो नथी तेवी रीते मोहनीय आदि जन्य अविशिष्टसंज्ञाथी एकेन्दिय संझी गणाता नथी. (वि.)
४१४ ज्ञानाद्वैतनयवादि मत प्रमाणे सर्वज्ञेय वस्तु" ज्ञानरूप ठरवाथो केवलज्ञानना स्वपर्याय सिद्ध ठरेछे, पण वस्तुतः जोतां केवलज्ञानना स्वपर्याय अने परपर्याय अनंत सिद्ध ठरेछे, (वि.)
४१५ सर्व जीवोने अक्षरनो अनंतमो भाग उघाडोछे ते श्रुतज्ञानमां जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेदथी संभवेछे. सर्वथी जघन्य निगोदिया जीवने, सर्वथी उत्कृष्ट संपूर्ण श्रुतज्ञानिने, निगोद अने संपूर्ण श्रुतधारकनी मध्यनो भाग, मध्यम भेदमां गणवो. (वि)
४१६ दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा करतां दीर्घकालीकी संज्ञा अविशुद्ध छे. दीर्घकालीक करतां हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा अविशुद्ध छे. (वि.)
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(१०)
तरवदिन्दु.
४१७ सिद्धांतवादीनो मत एवो छे के अनादि मिथ्यादृष्टिजीबछे ते उपशम समकित पाम्या विना प्रथमयीज क्षयोपशम समकित पामेछे. अन्य तो यथावृत्तिआदि करण त्रणना क्रम वडे अंतरकरणमा उपशम समकित पामेछे. अने आ उपशम समकिती त्रण पुंज करतो नथी. पश्चात् उपशम समकितथी arat अवश्य मिध्यात्वने पामे छे. कल्पभाष्ये पण एम कां छे. कार्मग्रंथिक तो आ प्रमाणे मानेछे. सर्व अनादिमिथ्याहष्टि, प्रथम सम्यक्त्व लाभकालमां यथाप्रवृत्तादिकरण त्रिपूर्वक अन्तरकरण करेछे त्यां उपशम समकित पामेछे. अने उपशम समकिती त्रण पुंज करेछेज अने ते हेतुथी उपशम समकित थी यो क्षयोपशमसमकिती, अने तेथी मिश्र, वा मिथ्यादृष्टि थाय छे. ( विशेषावश्यक पत्र १६४ ) वेदकनो क्षयोपशम समकितमां अन्तर्भाव थायछे
+
४१८ वेदक समकितम, समकितमोहनीयनो चरम पुद्गल ग्रास फक्त उदयरूप प्रवर्तेछे अने त्यां एक समयनी स्थितिछे, पश्चात् क्षायिक समकित पामे. (वि.)
४१९ संपूर्ण दशमा पूर्वथी आरंभी चउदमा पूर्व पर्यंत निश्वयथी सम्यक् श्रुत होय. (वि.) संपूर्ण दशपूर्वन्यूनथी ते आवश्यक श्रुत पर्यंतमां सम्यक् श्रुतनी भजना. (वि.)
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rammamrammam
तबिन्दु ४२०. सपकित मोहनीयनां दलिक-छे ते अति स्वच्छ बननी पेठे
यथावस्थित वत्वरूचि अध्यवसायरूप सम्यक्त्वने आच्छादन करतां नथी. तेथी ते पण उपचारथी सम्यक्त्व कहेवायछे. समकित मोहनियनां दलिक छतां, क्षायिक समकित थतुं नथी (वि)
४२१, अप्रमत्त चारित्रियाने सातमा गुणठाणे मनः पर्यवज्ञान उत्पन्न
थायछे. (वि)
४२२ सम्यग्दृष्टि परिगृहित भारतादि पण समकितीने सम्यकपणे
परिणमेछे. अने मिथ्यादृष्टि परिग्रहित आचारांगादि पण मिथ्यादृष्टिने मिथ्यात्वपणे परिणमेछे. (वि)
४२३ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, आश्रीने श्रुतज्ञानछे ते आदि अने ..अनादिछे, सांतछे, अने अनंतछे. (वि)
४२ विध्यावादि परभावमा परिणम ते अविरतिसंयम कहेकायछे.
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(92)
संस्वविदुः
४२५ बीजा गुणस्थानकमां मिथ्यात्वना उदयनो अभावछे. अने अनंतानुबंधी उदयधी कलुषित तत्वश्रद्धान रसनुं आस्बा - दन छे. (वि)
४२६
गाथा.
पण्णवणिज्जा भावा, अनंत भागोउ अणभिलप्पाणं पण्णवणिज्जाणं पुण, अनंतभागो सुयनिबो (वि) १
अनभिलाप्यना अनंतमा भागे प्रज्ञापनीय भावोछे. ( अभिलाप्य भावोछे ) प्रज्ञापनीयनो अनंतमो भाग श्रुतनिबद्धछे. (बि)
४२७ जं चोहसपुव्वधरा, छठाण गया परोप्परं होंति ॥ तेणउ अनंतभागो, पण्णवणिज्जाण जं सुत्तं ||१|| चतुर्दश पूर्वधारियो परस्पर षट्स्थान पतितछे. हीनाधिकवडे १ अनंतभागहीन २ असंख्यात भागहीन ३ संख्यातभागहीन ४ संख्यातगुणहीन ५ असंख्यातगुणहीन ६ अनंतगुगहीन १ अनंतभागवृद्धि २ असंख्यात भागवृद्धि ३ संख्यातभागवृद्धि ४ संख्यातगुणअधिक ५ असंख्यातगुणअधिक ६ अनंतगुण अधिक = (वि)
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तर बिन्दु :
(१३७)
४२८ सर्व चतुर्दश पूर्वधरो अक्षरलाभथी तुल्यछे. उन अने अधिक तो मतिना विशेषोवडेछे. क्षयोपशमना वैचित्र्यपणाथी मति शब्दथी श्रुतमति अत्र विवक्षितछे.
मतिशब्देन इह श्रुतमति विवक्षिता नत्वानिनिबोधिकमतिः ततश्चयैश्वयैश्चतुर्दश पूर्वविदोहीनाधिका स्तानपि च मतिविशेषान् श्रुतज्ञानाभ्यंतरे जानीहि ..
गाथा.
अस्करलाभेण समा, उणहिया हुंति मइविसेसेहिं; तेविय मइविसेसे, सुयनाणभ्भंतरेजाण ॥ १ ॥
गाथा.
४२९ जे अख्खराणुसारेण, मइविसेसा तयं सुयं सव्वं ॥ जे नण सुय निरखरका, शुद्धं चिय तं मन्नाणं ॥ १९ ॥
जे अक्षरानुसारथी श्रुतग्रंथने अनुसरी मतिविशेषो उत्पन्न थायछे ते सर्व श्रुतज्ञानछे. जे यथोक्त श्रुतनिरपेक्षछे, स्वयं उत्प्रेक्षित वस्तुतत्त्वरूपमति विशेष उत्पन्न थायछे, ते शुद्ध मतिज्ञानछे.
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(१८)
तस्वबिन्दु ४३० मतिज्ञानीछे ते श्रुतज्ञानिथकी सदा अनन्तगुण अधिकछे.
मतिज्ञानी श्रुतज्ञानिनःसकाशात् सदैवानंतगुणाधिकः श्रुतज्ञानी वितरस्मान्नित्य मनन्तरणहीन एव प्रामोति
४३१ श्रुतनिश्रित मतिज्ञानना अठावीश अने त्रणसोने छत्रीशभेद
थायछे. अश्रुतनिनिश्रितना औत्पातिकी बुद्धि वगेरे चार भेदछे. मतिअनक्षरछे अने श्रुतज्ञान अक्षररूपछे द्रव्यातर अपेक्षाए (वि ) साक्षर अने अनक्षरनो भेदछे. (वि)
४३२ द्रव्याक्षरना अभावथी मतिज्ञानमूकछे. अने श्रुतज्ञान मुखरछे
अर्थात् द्रव्याक्षर सद्भाववडे स्वपरमत्यायकपणाथी मूगुं नथी. अवधि, मनःपर्यव, अने केवलज्ञान पण मगांछे. (वि)
४३३ करवक्त्र संयोगथी भोजनक्रियाविषय मतिज्ञान थायछे.
शीर्ष धुणाववानी चेष्टाथी निवृति प्रवृति विषयमति ज्ञान ' थायछे, हवे समजवायूँ के शब्द वा अक्षरथी श्रुतज्ञान उत्पन्न थायछे. माटे ते परमबोधकछे तेम करवकत्र चेष्टा तथा शिरो. धुनन चेष्टा पण परप्रबोधकछे. तेथी श्रुतज्ञाननी पेठे मतिज्ञान
पण परषोधक केमन गणाय? अने ज्यारे परमबोधक गणाय ...तो बेमां शो भेद रह्यो ?
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deafeng :
(928) प्रत्युत्तर - द्रव्यभुतछे ते तो असाधारण कारण छे, माटे द्रव्य परमबोधक थाय. पण करादि चेष्टा छे ते तो मतिश्रुत उभयनुं कारण छे. माटे ते साधारण कारणछे, करादि चेष्टा तो मति ज्ञाननुं असाधारण कारण नथी, श्रुतज्ञान हेतुपणाथी. करवक्त्र संयोगादि चेष्टा देखे छते केवल अवग्रहादि मतिवन उत्पन्न थतुं नथी. किंतु आ खावाने इच्छेछे इत्यादि श्रुतानुसारि विकल्पात्मक श्रुतज्ञान पण उत्पन्न थाय छे. माटे असाधारण कारणना अभावथी करादि चेष्टाछे ते परमार्थतः मतिज्ञाननुं कारण नथी, माटे मतिज्ञानमां अन्तर्भूत थती नथी. अने ते प्रमाणे थए छते मतिज्ञान, परमबोधक गणातुं नथी. अने द्रव्यश्रुत छेते भावतनुं असाधारण कारण छे माटे पर प्रबोधक छे.
करादि चेष्टा जो के मतिज्ञाननुं कारणछे तोपण यथोक्त विशिष्ट परमबोधछे तेमां ते संभवती नथी. माटे विशिष्टपर प्रबोधकपणाना अभावथी करादि चेष्टाओपर प्रबोधक नथी. अत एव करादि चेष्टा द्वारा मतिज्ञान परमबोधक थतुं नथी (वि. पत्र. ५९ )
४३४ औत्पातिकी आदि बुद्धि चतुष्टयमां अवग्रह, इहा, अपाय अने धारणा, विद्यमानछे. तो पण परोपदेशादिनी अपेक्षा विना ते छे माटे ते चारनो श्रुतनिश्रितमां अन्तःपात यतो नथी. (वि. पत्र. ६० )
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( १४० )
तरच विन्दुः
४३५ श्रुतज्ञान - श्रुतअज्ञान, अवधिज्ञान, विभंगज्ञान, मनः पर्यवज्ञान अने केवलज्ञान ए छ साकार पश्यत्ताना भेद जाणवा. चक्षु, अवधि अने केवलदर्शनना भेदथी त्रण प्रकारे अनाकार पश्यता छे. पांच ज्ञान अने त्रण अज्ञान मेळवतां आठ प्रकारे साकार उपयोगछे, चक्षु, अचक्षु, अवधि अने केवलदर्शनना भेदथी चार प्रकारे अनाकार उपयोगछे (वि. पत्र. १७४ )
४३६ सर्व तीर्थकर अवधिज्ञान तुल्य न होय कारण के जे जीव ज्यांथी आवे तेमने ते स्थान संबंधी ज्ञान तथा वर्धमान ज्ञान होय.
४३७ लोकांतिक देव एकावतारी तथा आठ भव पण करे. म. चिंतामणि पत्र ९.
४३८ पांच आरे क्षायिक समकित पामे. म. चिं. प. १४ इक्षायिकं विच्छिन्नं इत्थमक्षराणि कुत्रापिन दृष्टानिततः माप्यते
४३९ एक भवमां उपशम श्रेणि वे वार करे ते क्षपकश्रेणि ते भवमां न पामे. कर्म ग्रंथ अभिमाय सिद्धांतमते एक भवमां एकज पामे. म. चिं. पू. २९.
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तवविन्दुः
( १४१ )
४४० लोक प्रकाशमां चनुदर्शननी स्थिति एक हजार सागरो
पमनी कही.
४४१ धर्मः पारदः मंगलं सुवर्ण, उत्कृष्टं, ताम्र अहिंसा कथिर संयम - अगस्त्यवृक्षः तपः कृष्णधतूर. देवावि-पीतपलाश.
"
( से )
४४२ वासी विदलमां बेरेन्द्री जीव लालरूप होय. पा. ८ प्र. ६००
४४३ सुकु लसण अचित्त दवामां साधुने कल्पे. पा. ७ प्रश्न. ५८.
४४४ चरक परिव्राजकादि मिध्यादृष्टिमां सकाम तथा अकाम निजरा बने होय. पाने ९५.
४४५ मिध्यादृष्टि तथा सम्यग्दृष्टि जेनो अर्ध पुद्गल परावर्तन काल बाकी होय ते शुकलपक्षीया जाणवा. ते बने क्रियावादी होय."
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बत्तविन्दु
४४६ मन्तहत शेष आयु रहे त्यारे केवली, केवली समुद्घात करे.
४४७ सात प्रकारे आयुष्य तुटे. * . १ राग स्नेहमय अध्यवसायथी, २ दंडादि निमित्तयी, ३ पणा आहारथी, ४ नयन वेदनादियी, ५ गादि पराघातथी, ६ सादि दंप्रथी, ७ चासोश्वास रोका गयी.
४४८ पञ्चख्खाण करावनार गुरु वोसिरे अने करनार वोसिरामि कहे.
४४९ मनःपर्यव ज्ञाननो उंचो अने नीचो विषय अढारसे योगननो छे. माटे मनःपर्यव ज्ञानि, नारकी देवलोकमा रहेलाना मनोभाव जाणी शके नहि.
४५० तमस्काय अपकायरूपछे.
.
४५१ प्रण कारणे तारा खसे वैक्रिय करतां मैथुन करता, स्था.
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सबिन्दुः
( 184 )
नान्तर अथवा महर्धिक देवताने वैक्रिय करतां मार्ग देवा
तारा चलायमान थाय.
Annua
महादृष्टि. जे देशम
नहि, अथवा याय.
४५२ त्रण कारणे अल्पदृष्टि अने त्रण कारणे उदक योनिया घणा जीव उत्पन्न थाय देव नाग भूत यक्ष पूजाय नहि, अथवा पूजाय तो दृष्टि परावर्त करे. प्रचण्ड वायु, वादलने विखरे अथवा न बिखेरे तो.
४५३
योगस्य लक्षणं. आदारिकादि देहसंयोग संभवाः आत्मवीर्यपरिणाम विशेषाः कथिता स्त्रिधा ॥
४५४ उपांग स्थविरकृत होयछे. तीर्थकर विद्यमान छतां तथा अविद्यमान छतां पण होय.
४५५ त्रिफलाजल मासुकछे. निशीथभाष्ये हार म. ७
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(१४)
तत्वबिन्दुः mmmmmmmmmmmmmmmmmmwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwin .४५६ एकवीश प्रकारना जलनो काळ उष्णजल प्रमाणे.
एकविंशतिपानीयानां प्रासुकभवनानन्तरं पुनः कियता कालेन सचित्तता भवति; तथा तेषांसर्वेषां सांप्रतंप्रवृत्तिः कथनास्तीति अत्र नष्णोदकस्य यथावर्षादौ प्रहरत्रयादिकः कालः प्रोक्तोऽस्ति तथा प्रासुकोदकधावनादीना मपीति बोध्यं तेषांप्रवृत्तिस्तु यथासंभवविद्यते ॥
४५७ गृहस्थनी सुइ चकु वगेरे हाथमां न आपतां साधुए भूमि
- उपर मूकी आपां...
४५८ निर्विकृति प्रमुखेषु एकान्ते आर्दशाक भक्षण निषेधो ज्ञातो
नास्ति. निवीयाता प्रमुखोमा एकान्त लीलाशाकनो भक्षण . . निषेध जाण्यो नथी
४५९ उपधानमध्ये आर्दशाक भक्षण रीति स्ति. उपधानमा लीला
शाकनी मक्षण रीति नथी...
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तत्वबिन्दु. ४६० एक समयमां चार तीर्थकर उत्कृष्टा मोक्षे जाय.
४६१ सपेद सिंधव अचित्तछे. पत्र ११ प्र. ९५
४६२ लीलोतरी त्यागीने तेजदीननो केरीपाक कल्पे.
४६३ गृहस्थनी रजाथी साधु पोताना हाथे पाणी बहोरी शके.
आचांरांगनी पृष्ठ १२५.
१६४ देवनिद्राविचार-लो.
प्रदेशोदय स्त्वेषां, स्यात्तथाप्यन्यथाकथं दर्शनावरणीयस्य, सतोप्यनुदयोभवेत् ॥
४६५ सम्यग्दृष्टि देवो उत्कृष्टतः एक समयमां संख्याता चवे. गर्भज
मनुष्योमा उत्पत्ति होवाने लीधे.
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(१६)
तत्वविन्दु.
४६६ वे नेत्र, बे कर्ण, मुख, नासिका. ललाट, तालु, शिर, नाभि,
हृदय, इत्यादि ध्यान करवानां स्थानछे.
४६७ ज्ञानावरणीयमां प्रज्ञापरिसह अने अज्ञान बे, दर्शनावरणीयमा
समकित परिसह, अन्तराय कर्ममां अलाभ परिसह. चारित्र मोहनीयमां पाक्रोश, अरति, स्त्री, निषद्या, याश्चा, अचेल, सत्कार, ए सात परिसह. वेदनीय कर्ममां क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, डंश, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श, मल, ए एकादश परिसहछे, नवमा गुणस्थानक पर्यंत सर्व परिसहो होयछे. दशमा, अग्यार अने बारमा ए त्रग गुणस्थानकमा प्रज्ञा, अज्ञान, अलाभ, क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, डंश, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श, मल, ए चउद परिसह होयछे. तेरमा अने चउदमा गुणस्थानकमां वेदनीय जन्य एकादश परिसह होय.
४६८ एक जीवने एक भवमा उत्कृष्टतः ओगणीश वा विंश परि
सह होयछे.
४६९ क्षुधा, तृषा, स्त्री, सम्यक्त्व, अरति, ए पंच मनथी होय.
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तवबिन्दु.
( १४७ )
याचना, आक्रोश, सत्कार, अलाभ, प्रज्ञा, अज्ञान, ए छ वचनथी होय. अने वाकीना शीत, उष्ण, दंश, चर्या, शय्या, अचेल, मल, रोग, नैषेधिकी, वध, तृणस्पर्श, ए एकादश कायाथी होय.
४७० दर्शन उपयोगरूप ओघसंज्ञा अने ज्ञानोपयोग रूपा लोकसंज्ञा एम स्थानांग टीकाकारनो अभिप्रायछे. ओघ संज्ञा अव्यक्त उपयोगरुप अने स्वच्छंद घटित विकल्परूप लोक संज्ञा, एम आचारांग वृत्तिमांछे, मतिज्ञानावरणीय कर्म क्षयोपशमथी शब्दार्थ गोचर सामान्य अवबोध क्रिया ते ओघ संज्ञा अने तेनो विशेषावबोधरूप जे क्रिया ते लोक संज्ञा. इति प्रवचन सारोद्धार वृत्तिमांछे.
४७१ तेजस नामकर्मना उदयथी अने अशाता वेदनीयना उदयथी आहाराभिलाषरूप आहारसंज्ञा थायछे. त्रासरूप भयसंज्ञा. मूर्च्छारूप परिग्रहसंज्ञा स्त्री आदि वेदोदयरूप मैथुनसंज्ञा. एत्रण मोहनीयना उदय होयछे. क्रोधसंज्ञा. गर्वरूप मानसंज्ञा, वक्रतारूप मायासंज्ञा, गृद्धिरूप लोभसंज्ञा, विप्रलापरूप शोकसंज्ञा, मिथ्यादर्शनरूप मोहसंज्ञा. ए छ संज्ञाओ मोहोदयजन्यछे. शातारूप सुखसंज्ञा अने दुःखरूप अशातासंज्ञा ए वे वेदनीय कर्मना उदयथी उत्पन्न थायछे. ज्ञानावरणीय अने मोहनीयना उदयथी चित्तविप्लुतिरूप विचिकित्सारूप संज्ञा जाणवी. स्वच्छंद आदि प्रागुक्त लक्षणरूप ज्ञानावरण क्षयोपशमथी अने मोहना उदयथी लोकसंज्ञा प्रगटेछे. अव्यक्त उपयोग वल्लिबि -
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तत्वविन्दुः
.तानारोहणादि लक्षणरूप ज्ञानावरणीय अल्प क्षयोपशमथी
उठेली ओघसंज्ञा जाणवी. क्षमादि आसेवनरूप मोहनीय क्षयोपशमयी धर्मसंज्ञा प्रगटेछे.
४७२ अर्ध पुद्गल परावर्तनकालमा क्षयोपशम समकित उत्कृतः एक
जीवने असंख्यातवार आवे.
४७३ सास्वादन गुणस्थानकनो जघन्य काल एक समयछे,अने उत्कृष्ट
छ आवलिकानो कालछे.
४७४ नैश्चयिक अर्थावग्रह एक समयनोछे अने व्यवहारिक अर्थावग्र
हनो काल अन्तर्मुहुर्तछे. बहु बहुविध आदि बारभेदनो समास व्यवहारिक अर्थावग्रहमा थायछे. (वि)
४७५ तीर्थकरो विना बाकीना जीवो पण अवधिज्ञानसह माताना
उदरमा उत्पन्न थाय.
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तवमिन्दु .
(189) ४७६ अमूर्तत्व, सर्ववेतृत्व, निरावरणत्व, आदि केवलज्ञानना स्वपर्याय छे अने ज्ञेय सर्व पदार्थोंछे ते केवलज्ञानना परपर्यायछे. (वि)
४७७ सामान्यतः श्रुतज्ञानना स्वपर्याय अने परपर्यायछे ते केवल ज्ञानना पर्यायतुल्य थाय. (वि.)
४७८ उपजतीबेला अन्तर्मुहूर्तमां जीव करे ते पर्याप्त अने ते पर्याप्ति पश्चात् जीवे त्यां सुधी रहे ते प्राण जाणवा. (र)
४७९ पहेला बीजा अने त्रीजा ए ऋण अनंताना स्वामी कोइ नथी. माटे ए ऋण अनंता शून्यछे. चोथा अनंतामां अभव्य जीव आव्या. पांचमा अनंता मध्यभांगे सम्यक्त्व पडवाइ जीव कह्या. तथा पडवाइथी अनंतगुणा अधिक अनंतसिद्ध पांचमा भंगमांछे, छठा अनंतामां कोइ नथी. सातमा अनंतामां पण कोइ नथी. ए. सर्व निगोदिया वनस्पतिकायना जीव आठमे अनंतेछे तेथी अनंतानंतगुणा अधिक पुगल परमाणुआछे. तेथी काल, तेथी सर्व आकाश प्रदेश तेथी केवलज्ञान दर्शनना पर्याय अनुक्रमे अधिक ओठमा अनन्तामां जाणवा. नवमा अनंतामण कोइ नथी. ( रत्न)
४८० केवलीने शुकललेश्यानो उदयछे ते योगद्वारे परिगमे. योगनुं परिणमन आदयिकभावे परिणमे लेश्याए एक समये शाता
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(१५.)
तस्वबिन्दु. वेदनीयनो बंधछे.पण उत्तम पुद्गल ग्रहे.वीजे समये निर्जरे(र)
४८१ काललब्धि, इन्द्रियलब्धि, उपदेशलब्धि,उपशमलब्धि,प्रयोगता
लब्धि ए पांच लब्धि पामे त्यारे जीव स्वआत्मबोध समकित धर्म पामे. (रत्न)
४८२ कोउसग्गना द्रव्य अने भाव ए भेद कह्याछे. द्रव्य काउसग्गना
चार भेद जाणवा. १ शरीरकाउसग्ग २ उपधिकाउसग्ग भात ३ पाणीनो त्याग ४ ते पण काउसग्ग, भावकाउसग्गना त्रण भेदछे. १ कषायकाउसग्ग २ संसारकाउसग्ग ३ कर्मकाउसग्ग. १ चारकषायना त्यागरूप कषायकाउसग्ग २ चारगतिनिवारणरूप संसारकाउसग्ग.अष्टकर्म क्षय करवा कर्म काउसग्ग-(र)
४८३ भावमोक्ष सम्यग्दृष्टिने होय, द्रव्यमोक्ष साधुने होय, गुणमोक्ष
ते केवलीने तेरमा तथा चउदमा गुणस्थानकमां होय.
४८४ जैनदर्शन ते उपयोगे तथा अक्रियभावेछे. जैनदर्शन श्रद्धान '
ते शुद्धोपयोग आत्मभावेछे, अक्रियभावेछे. अने बीजायोगे क्रियाधर्मछे,
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तत्वबिन्दु. ४८५ शुद्धोपयोग अने अशुद्धोपयोगछे. अशुद्धोपयोगना बे भेदछे.
शुभ, २ अशुभ, तेमां शुभोपयोगे वर्ते तो जीव पुण्य बंध करे. अशुभोपयोगे वर्ते तो पापकर्म बन्ध करे. शुद्धोपयोगे वर्ते तो परमात्मपद प्राप्त करे. शुद्धोपयोग निर्विकल्पदशामा होयछे.
४८६ १ द्रव्यआत्मा २ कषायआत्मा ३ योगआत्मा ४ उपयोग
आत्मा ५ ज्ञानात्मा ६ दर्शनात्मा, ७ चारित्रआत्मा ८ वीर्यास्मा, भगवतीमां ए आठ प्रकारना आत्मा कह्याछे.
३८७ शुभोपयोगथी पुण्यछे. अने शुद्धोपयोगथी धर्मछे. एवं पुण्य
अने धर्ममां भेद समजवो.
४८८ सामायक, चतुर्विशतिस्तव, प्रतिक्रमण ए त्रण आवश्यक संवर
तत्त्वमांछे, बाकी त्रण निर्जरा तत्त्वमांछे.
४८९ अस्तित्व,वस्तुत्व,द्रव्यत्व,प्रमेयत्व,प्रदेशत्व, अगुरुलघुत्व ए छ
द्रव्यास्तिकना सामान्य स्वभाव जाणवा.
४९० १ नित्यस्वभाव २ अनित्यस्वभाव ३ एकस्वभाव ४ अनेकत्र
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(५२)
तत्वबिन्दु.
भाव ५ सत्यस्वभाव ६ असत्यस्वभाव ७ वक्तव्यस्वभाव ८ अवक्तव्यस्वभाव ९ भेदस्वभाव १० अभेदस्वभाव ११ परम स्वभाव, ए विशेषस्वभावछे.
४९१ संसारी जीव के.वल कार्मणयोगे वर्त तो सर्व स्थानके अना
हारी होय. औदारिक अथवा वैक्रियनी मिश्रता कार्मण साये मळे तो आहारग्रहण होय.
४९२ जेना वस्त्रमा जु न पडे. ज्यां विचरे त्यां देशनो भंग न थाय.
देशमा चिन्ता न उपजे. पगनो धोवण पीवे तेनो रोग नाश पामे ए चार अतिशयादि युक्त होय ते युग प्रधान जाणवा.
४९३ आहार लेइ परिणमावानुं कारण ते तैजस शरीर जाणवू.
४९४ अष्टदृष्टिनु स्वरूप पुनः पुनः मनन करवू जोइए. अने तेमां
उपशमादि भाव विचारवा. मनन करवा, पांचमी दृष्टिमां समकित पमायछे तेना हेतुओ आत्मामां अनुभववा योग्यछे.
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तवविदुः
( १५३ )
बादशाथी दृष्टिी श्रेणिपर आरोहातुं नथी. दृष्टिओने आत्मामां उतारवी जोइए. दूषणदृष्टि आदि माटे दृष्टिओनो अभ्यास हितावह नथी.
४९५ व्यवहार अने निश्वयथी देव गुरु अने धर्मनुं सूक्ष्मदृष्टिथी स्वरूप अनुभव योग्यछे.
४९६ शुद्धान्तः करणथी सद्गुरुनां वचना हृदयमां परिणमे छे. तदर्थे सवळी दृष्टिनी जरूरछे. अपात्र जीवने तत्त्वज्ञान परिणमतुं नथी. ज्ञानिनां वचनोने ज्ञानी समजेछे.
४९७ सर्व शास्त्रमां अध्यात्मशास्त्र श्रेष्ठता भोगवेछे. अल्पकालमां जे मुक्ति पामवानो होयछे तेनेज अध्यात्मज्ञानप्रति रुचि थाय छे.
४९८ क्रियावादी, अक्रियवादी, ज्ञानवादी, अने विनयवादीना सर्व nature भेद थाय छे.
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(१५)
तत्वबिन्दु
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४९९ बाह्यतपजप प्रतिलेखना पूजा प्रतिक्रमण आदि बाह्यस्थूलधर्मनी
क्रियाओछे. धर्मध्यान, पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत, धारणा, आत्मामां रमणता, आदि आत्मधर्मनी सूक्ष्मक्रियाओछे. स्थूलक्रियाओतो अज्ञानी पण करी शकेछे. पण धर्मनी सूक्ष्म क्रियाओ तो ज्ञानीज करी शकेछ. सूक्ष्मध्यानादिक धर्मनी क्रिया करनार अनंतकर्मने दूर करेछे. बाह्यक्रिया करनार करतां ध्यानादिक अंतर सूक्ष्मक्रिया करनार अनंत गुण विशेष उच्च पदवी धारक जाणवो. ध्यानादिक सूक्ष्म अंतर क्रिया विना मुक्ति थती नथी, माटे जे पुरुषोसूक्ष्म क्रिया करनारने निश्चय वादी अक्रियवादी कही निंदेछे. हेलना करेछे. तेणे तीर्थकरनी निंदा हेलना करी एम जाणवू. स्थूल बाह्यधर्मनी क्रियाओमाथी सूक्ष्मध्यानादिक क्रियामां उतरतां अनुभव प्राप्त थायछे. अने तेथी केवलज्ञान प्राप्त थायछे.
५०० गमे तेवा दुष्ट शत्रुथी जे अनिष्ट हुं नथी. ते अनिष्ट राग
द्वेषधी थायछे.
५०१ परनी निन्दा करनार जे परने दोषो देछे. ते ते दोषो ते पोते
पामेछ. परनी निन्दा करनार- मुख पण देखवालायक नथी.
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तस्वविन्तुः
(१५५) ५०२ अज्ञान कष्ट करवामां तामसी तापसनी पेठे अल्प फळछे.
५०३ जगत्मां ज्ञानिनीज बलिहारीछे.
५०४ दृष्टिरागी, दोपने देखी शकतो नथी.
५०५ शिष्योनी शोभा विनयवृत्तिमांजछे.
५०६ यदि सदगुरु शिष्यने सपना दांत गणवान कहे तो पण शिष्ये
गुरुनी आज्ञा स्वीकारवी. मनमां एम समजवू के तेनुं प्रयोजन गुरु जाणेछे. गुरु तो शिष्योनुं एकान्त हित इच्छेछे. .
५०७ सुनक्षत्र अने सर्वानुभूतिनी पेठे गुरुपर भक्तिराग थवो जोइए.
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(.१५६)
तबिन्दुः
५०८. अशुभ अध्यवसायथी प्रसन्नचंद्र राजर्षिनी पेठे दुर्गति कर्मदलिक
प्राप्त थायछे. अने शुभ अध्यवसायथी प्रसन्नचन्द्रनी पेठे तुर्तज केवलज्ञान थाय छे.
५०९ हे भव्यो ! दुर्लभ जिनवचनमा शंका न करो!!! अनादर न
करो. रुचिथी तेमां आदर करो...
५१० शुभाशुभ परिणामनी तरतमतानुसार न्यूनाधिक कर्मबंध
. थायछे. सांसारिक स्नेह क्षणिक अने दुःखनी परंपरा देनारछे.
५११ एक दीवसमां शुभाशुभ परिणाम, जीवने घणीवार थायछे.
५१२ परिणामनी विचित्रताछे, माटे पापी पण शुभ परिणाम पामी
धर्मी बनेछे.
५१३ पद्ध, निधत्त, निकाचित अन स्पृष्ट एवा अनेकथा कर्मभेदोथी
आत्मा बंधायछे. बद्धकर्म कलुषित जल समानछे अथवा दो
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तत्वबिन्दुः
(५७) राथी बांधेला सोयोना जथ्था समानछे. निधत्तकर्म दृढबंधनथी बांधेलं अने निकाचितकर्म अत्यंत आकर अने स्पृष्टकर्म तो वस्त्रपर लागेली धूळ समान शिथिल अवबोधq.
५१४ ज्ञानिनी बाह्यचेष्टा करतां अन्तर परिणति जोवानी आवश्य
कताछे, आत्माना शुभाशुभ अध्यवसायथीन मुख्यताए शुभाशुभ बंध पडेछे. बाह्यचेष्टा आदि अनुमानथी परीक्षा थाय तेमां एकांत सत्य परखातुं नथी.
५१५ जे एक जीवने द्रव्यभावथी जैन दर्शन पमाडेछ. ते चउद
राजलोक स्थित जीवने अभयदान आपेछे. कारण के जैन धर्मथी मुक्ति पामतां चउदराजमां वसनारा जीवोनी हिंसा कस्तो बंध पडेछे.
५१६ आत्मतत्व ज्ञान अर्पनार सद्गुरुने सर्वस्व समर्पण करवू जोइए.
५१७ अपाय, धृति (धारणा) बे विशेषबोध स्वभावथी ज्ञान मिश्र . छे अने अवग्रह तथा इहाछे ते अर्थ पर्याय विषयत्वथी सा
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(१५)
तस्वविशुः
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मान्यावबोध दर्शनरूपछे. वचन पर्याय ग्राहकपणावडे अपाय
अने धारणा विशेषावबोधरूपछे. ५१८ सम्यक्त्व अने श्रुतनो युगपत् लाभछे तो पण कारण कार्यना
भेदथी भेदछे. शुद्ध तत्त्व अवगमरूप श्रुतमा श्रद्धानांशछे ते सम्यक्त्वछे. एवं सिद्धांतवादी मानेछे. (विशे. प. १६६).
५१९ द्रध्यास्तिकनयना अभिप्रायेद्वादशांग श्रुतछे ते पंचास्तिकायनी
पेठे नित्यपणाथी अनादि अनन्तछे. (वि. प. १६७).
५२० पर्यायास्तिकनयना अभिप्राये द्वादशांगश्रुत अनित्यछे माटे
सादिसांतछे. (वि. प. १६७).
गाथा.
चोदस पुवी मणुओ, देवत्तेतं न संभरइ सव्वं; देसम्म होइ भयणा, सट्ठाण भवेवि भयणाओ.१
कोइ चतुर्दशपूर्वी मरीने देवलोकमां जाय त्यां संपूर्ण पूर्वश्रुतनुं तेने स्मरण थाय नहि. देशश्रुतमां भजना. मनुष्यगतिमां चतुर्दश पूर्वी, मिथ्यात्व गमनथी श्रुतथी पड़े. कोइ न पड़े. चउदशपूर्वीने
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. तस्वविन्दुः
(१५.) minimuminminmann केवलज्ञान थतां चउदपूर्वश्रुतनो नाश थायछे. कोइ ग्लान तथा प्रमाददशाथी पण चतुर्दश पूर्वरूप श्रुतज्ञानथी पडेछे (वि. पत्र १६७)
प्रश्नोत्तर सार्धशतक. ५२२ तीर्थकर भगवान् दीक्षा लेती वखते सिद्धोने नमस्कार करे.
उक्तंच आचारांगसूत्र द्वितीयश्रुतस्कंध षष्ठाध्ययने-ओणं से महावीरे पंचमुठियं लोयं करेत्ता सिद्धाण नमोकारं करेइ ॥
५२३ केवलीने वेदनीयादिशेष चार कर्मछे ते जीर्ण वस्त्र प्राय जाणवां.
५२४ एकावतारी देवोने च्यवनचिन्ह प्रगट थतां नथी.
५२५
ता वेदनीय बघिछ
५२५ अगियारमा, बारमा अने तेरमा गुणस्थानकवर्ति मुनियो, प्र..
कृतिथी शाता वेदनीय बांघेछे. अकषायत्वथी स्थितिना अअभावे बध्यमानज परिशाटन करेछे. अनुभावथी अनुत्तरोप पातिक सुखातिशायीछे, प्रदेशथी स्थूल रुक्ष शुक्लादि बहु प्रदेशविशिष्ट कर्मने बांधेछे.
भावथी अनुत्तराप
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( १६० )
तत्वविदुः
५२६ भवचक्रमां चार बार आहारकशरीर करनार मुनि तद्भवमां सिद्धिगामीछे.
५२७ आचारांगसूत्र वृत्ति तृतीयाध्ययन, प्रथम उद्देशामां स्त्यानधिंत्रिकोंदय थएछते सम्यक्त्व प्राप्ति अने भवसिद्धि कोइनी : थती नथी.
५२८ एक भवमां, एक जीवने, कर्मगतिवैचित्र्यताथी त्रणवेदनो उदय पण संपजेछे निशीथचूर्णि
५२९ कोइ पण निर्भाग्यना संसर्गथी घणा भाग्यवंतोनो पण पुण्योदय हणायछे.
५३० द्रव्यथी परमाणु नित्यछे. पर्यायथी अनित्यछे. भगवती सूत्र १४ शतक - चोथा उद्देशामां कछे के - परमाणु पुग्गलेणं भंते सासर असासए ? गोयमा! सियसासए, सिअअसासए, सेकेण ठेणं भंते एवं बुच्चति ? गोयमा!!! दव्वटयाए सासए, पज्जवठयाए असास, इत्यादि यत्तु केचित् परमाणोर्नित्यत्वेनतत्पर्यवाणां नित्यत्वंमन्यते तदसत्. पंचमांगे स्पष्टतोऽनित्यत्वोक्ते:, केटलाक परमाणुना नित्यपणावडे तेना पर्यायोने पण नित्य
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तत्वविन्दुः
(...). ... मानेछे ते असत्यछे.. भगवतीमा पर्यायास्तिकनी अपेक्षाए
परमाणु अनित्यछे एम स्पष्ट कमुछे.
५३१ कुकडानी शिखा सचित्तछे,अने मयुरनी शिखा मिश्रछे. आ
चारांग वृत्ति द्वितीयश्रुतस्कंध पीठिकामां कहूंछे. सचिता कुकुटस्य, मिश्रा मयुरस्य.
५३२ परमाधार्मिक देवताओ भव्यछे. एम प्रश्नोत्तर सार्धशतकमा
लख्युछे. हीरप्रश्नमां परमाधार्मिक देवताओ भव्यछे एको प्रघोष असत्य कह्योछे. (प्र. सा)
५३. निश्चयनयमतवडे बारमा गुणस्थानकना अंत्य समये केवलो.
त्पत्ति अने चउदमा गुणस्थानफना अंत्य समये सिद्धत्व जा. रणवू. व्यवहारनय मतवडे तो तेना अनंतर समयमा उभव :
पण जाणवां. (प्र. सा)
५२४ सम्यकत्वथी भ्रष्ट थतां जेओनो अनंत काल गयोछे तेभोमा - १०८ एकशो आठ, एक समयमा सिदि वरे. संख्यात काल
पतित अने असंख्यात काल पतितोमा एक समयमा दक्ष,
१८ एकडो आठ, एक समयमा सिद्धि वरे, संख्यात काल
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( १६२ )
तयाबिन्दु:
*
सिद्धि वरे. अप्रतिपतितसम्यक्त्वधारियोमां एक समयमां चार उत्कृष्ट सिद्धि बरे. (प्र. सा.)
X
उक्तंच.
जेसि मणतो कालो, पडिवाओ तेसि होइ अठसयं; अप्प विडिए चउरो, दशगं च सेसाणं ॥१॥
५३५.
गाथा.
अंबत्तणेण जीहाइ, कूचिया दोइ खीर मुदयंमि; हंसो मुत्तण जलं, आवियह पयं तह सुसीसो || १ |
१३६ दीर्घ बैताढयमां- कांचनगिरिमां चित्रविचित्र पर्वतमां यमक समक पर्वतमा तिर्यगूजृंभक देवताओ रहेछे. ते व्यंतर विशेषछे.
५३७ समवायांग वृत्तित: नारकी जे पुद्गलोनो आहार करेछे. तेने अवधिज्ञानवडे पण जाणता नथी. लोमाहारपणाथी चक्षुवडे देखी शकता नथी. असुर, व्यंतर, ज्योतिष्य अने वैमानिक जे
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तत्वबिन्दु:
( १६३ )
सम्यग्दृष्टि देवताओछे. ते विशिष्ट अवधिज्ञानथी आहारना पुद्गलोने जाणेछे. अने चक्षुवडे पण देखेछे, चक्षुनुं पण विशिष्टपपुंछे. मिध्यादृष्टि देवताओ तो जाणता पण नथी अने देखता पण नथी. प्रत्यक्ष अने परोक्षज्ञान, तेओने अस्पष्टछे. संग्रहणी वृत्तिमां तो अनुत्तर देवोज जाणे देखेछे, पण नारक तथा ग्रैवेयक पर्यंतना देवताओ जाणता देखता नथी. एम कधुं छे. प्रज्ञापनावृत्तिमां पण एम अभिप्रायछे तत्त्व तो ज्ञानि गम्यछे. कार्मण शरीर पुद्गलोने अनुत्तर देवो जाणेछे अने देखेछे. पण ग्रैवेयकांतो देवो जाणता नथी. तेमना अवधिमां ते पुद्गलो अगोचरछे: प्रज्ञापनावृत्ति इन्द्रियपद प्रथमोद्देशामां एम जणान्युं छे.
५३८ शुष्कवाद, विवाद, अने धर्मवाद आ त्रण प्रकारना वाद जाणवा. माध्यस्थदृष्टियी आत्महित माटे धर्मवाद थइ शकेछे. साधुओ धर्मवाद कारण छतां करवो. पण शुष्कवाद अने विवाद ए बे करवा नहीं.
५१९ चउदमा गुणस्थानकना चरम समये केवलज्ञानी मुक्ति जतां जे कर्म पुद्गलोने निर्जरेछे. ते परित्यक्त कर्म स्वभाव विशिष्ट परमाणु पुद्गलो सर्व लोकने पण स्पर्शेछे, मज्ञापनासूत्रवृत्ति इन्द्रियपद प्रथम उद्देशामां कांछे,
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((***))
५४० मनुष्य, पोताना छायापुद्गल प्रतिबिंबने आरीसामां देखेछे.
ताकिदुः
५४१ आकाशना अटमध्यरुचक प्रदेशो समभूतला प्रदेशमां मेरुमध्यमां रह्या छे. धर्मास्तिकाय अने अधर्मास्तिकायना आठ मध्य रुचक प्रदेशोछे ते आकाशना आठ रुचक प्रदेशमां सदा रहेले. ते बेनुं लोकाकाश तुल्यपणुंछे माटे पोताना प्रदेशोवडे लोकाकाशना प्रदेशोने व्यापीने अविचलपणावडे सर्वदा रहेवापणाथी. तथा जीवना आठ रुचक प्रदेशो तो स्वशरीरना मध्य भागमा सर्वदा रहेछे, केवलि समुद्घात कालमां मेरु मध्यस्थ आकाशना आठ रुचक प्रदेशोमां आत्माना आठ रुचक प्रदेश रहेछे. अन्यदाखविचला एवेति ते आठ जीवना प्रदेशो जघन्यथी एक आकाश प्रदेशने अवगाहेछे. बेमां, त्रणमां, चारमां, पांचमां, छमां आत्माना रुचकप्रदेशो अवगाहेछे. संकाचविकाश स्वभावपणाथी उत्कर्षथी आठप्रदेशोमां एकेकमां अवगाहनपणाथी अवगाहेछे. पण विशेष के सात प्रदेशमां अवगाहता नथी. ते प्रकारना स्वभावथी. ते आठ जीवना रुचक प्रदेशो कर्मथी लेपायमान थता नथी. सर्वदा निरावरण रहेछे. बाकीना आत्माना प्रदेशो तो कर्मथी लेपायला होयछे, आवर्तमान जलनी पेठे निरंतर उद्वर्तन परिवर्तनपणुं शेष आत्माना प्रदेशोनुंछे. (प्र. सा )
५४२ द्रव्य मन विना भाव मन नथी. असंज्ञीनी पेठे.
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५४३ द्रव्यमान तो भाषमन विना पण होय. भवस्थ केवलियत्... ५४४ सर्व एकेन्द्रियादिक असंज्ञी जीवोने द्रव्यमनना अभावथी भाव
मन पण नथी. ज्यारे तो भावमन शब्दवडे चैतन्य मात्रनी विवक्षा करायछे. त्यारे तो द्रव्यमन विना पण भावमन होय.
५४५ संज्ञिपंचेन्द्रियोवडे मनःपर्याप्ति नामकर्मना उदयथी मनयोग्य
पुद्गलोने ग्रहण करीने मनरूपे परिणमावेलां जे पुद्गलो तेने द्रव्यमन कहेछे. ते मनोद्रव्यने अवलंबी जीव चितवनरूप व्यापार करेछे तेने भावमन कहेछ. . . ............
आह-नंद्यध्ययनचूर्णिकार मणपजतिनामकम्मो दयतो जोगोमणोदब्बे घेत्तुं मणत्तेण परिणामिया दव्वमणो भन्नइ, जीवो पुण मणपरिणामकिरिया वंतो भावमणो किं भणियं होइ, मणदव्वालंबणो जीवस्स मणणवावारो भावमण भन्नइत्ति ॥
५४६ कालसूक्ष्मछे. कालथी पण क्षेत्र सूक्ष्मछे. क्षेत्रथी पण द्रव्य सूक्ष्म
छे. तेथी पण भावरूप पर्याय अति सूक्ष्मतमछे......
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(1 )
तस्पवितुः ५४७ परिकर्म, सम, पूर्वगत, अनुयोग, अने चूलिका आपांचभेद पष्टि
वादनाछे. तेमाथी पूर्वगत नामना द्वितीयभेदमा चतुर्दश पूर्व समाय.
५४८ जातिस्मरण अने अवधिज्ञानना उत्पादनो हालमा निषेध नथी ५४९ अपर्याप्ता सर्वे जीव ओजाहारी जाणवा.
५५० भाषानुं संस्थान वज्राकारे होयछे.
५५१ परमाधामीभोनी करेली वेदना पहेली त्रण नरकोमांछे.
५५२ मुनिराजो उत्कृष्टथी बेहायतुं अन्तर राखी सुवे. अने पात्रा
वीश आंगुल दूर राखी शयन करे.
५५३ मुनियोने श्रीहिपलाल कल्पेठे.
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wwwwwwwwwwwwwaima ५५४, अमनमा समग श्री श्यामाचार्य श्री उमास्वातिवाचकना . शिष्य जाणवासी वीरात् ३७६ वर्षे स्वर्गे गयाछे. नंदीसूत्र
तथा तपागच्छ पट्टावलीमां अधिकारछे.
५५५ अध्यात्मयोगक्रिया चोथागुणस्थानकथी ते चउदमा गुणस्थानक - पर्यंत होय. अध्यास्पसारमा.
५५६ वैक्रियशरीरवालो जीव तथा विग्रहगतिवाळो जीव, अमिमाथी.
जतो दाझे नहि.
५५७ अचक्षुदर्शनमा स्वमदर्शननो अन्तर्भाव थायछे, एम ठाणांगसूत्र
टीकायां कबुछे.
५५८ मिद्रा अवस्था प्रथमना त्रण गुणस्थानकमांछे. स्वमदशा चो
थाथी छठागुणस्थानक पर्यंतछे. जाग्रतदशा सातमाथी ते बारमा सुधीछे. उजागरदनाछे ते तेरमा तथा चौदमागुणस्थानका जाणवी.
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( ४)
तत्वविन्दुः ५५९ पांच प्रकारनाः असराय, हास, रति, अरति, मय, जुगुप्सा, ।
शोक, शोक, काम, मिथ्याल, अज्ञान, निद्रा, अविरति, राग, देष ए अष्टादश दोषरहित तीर्थकरदेव जाणवा. .. ...
५६० १ घणुं भोजन करवाथी, २ अति निद्राथी, ३. अतिजागवायी ।
४ झाडो (विष्टा ) रोकवाथी, ५ पेशाब ( मूत्र) रोकवाथी. ६ मार्गमां घणुं गमन करवाथी, ७ प्रतिकूल भोजन करवाथी, ८ इन्द्रियोना काम अत्यंत विकारथी, रोगोनी उत्पत्ति थायछे.
मूत्रनिरोधथी चक्षुने हानि थायछे. झाडाना निरोधथी जीवि.. तव्यनो नाश थायछे, ... ... ..
५६१ क्षेत्र अने कालनी अपेक्षाए अवधिज्ञानना असंख्यात भेद छ, .: द्रव्य अने भावनी अपेक्षाए अवधिज्ञानना अनन्त भेदछे. क्षेत्र
अने काल, असंख्यछे तेथी अवधिज्ञानना असंख्य भेद घटे
छे. पुद्गल द्रव्य अनंत अने भाव ( पर्याय ) पण पुद्गलद्रव्यना । अनन्तछे माटे अनन्त भेद कह्याछे. (वि)
५६२ देवता अने नारकीओने क्षयोपशमभावे भवमत्ययिक अवधि
ज्ञानछे अने मनुष्य तथा तिर्यचने गुणपत्ययिक अवधिज्ञान होयछे. (विशे)
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तत्वविन्दु. (१९) ५६३ अवधिज्ञानी, कालथी जघन्य आवलिकाना असंख्येय भागयी
आरंभी समयोत्तर वृद्धिवडे उत्कृष्टथी असंख्य उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल जाणे. (वि. पत्र १७८ )
५६४ अवधिज्ञानी ज्यारे ज्यारे उपयोग मूके त्यारे अन्तमुहूर्त पर्यंत,
रहे अने लब्धिनी अपेक्षाए अवधिनो उत्कृष्ट छासठ सागरोंपम काल अधिक जाणवो.
५६५ अवधिज्ञानी क्षेत्र आश्री अने काल विशिष्ट रूपी द्रव्यने जाणे
छे. पण अरूपि एवा क्षेत्र अने कालने अवधिज्ञानी, जाणी
शकतो नथी. कारणके क्षेत्र अने काल अरूपीछे. अवधिज्ञाननो .: तो रूपि 'द्रव्य जाणवानो विषयछे. (वि. पत्र १७९ ) "..
५६६ विग्रहगतिमां आवता भवतुं आयुष्य, उदयमां होयछे. एम
समजायछे.
५६७ बकुश, पुलाक अने प्रतिसेवना कुशील छठा, सातमा गुणठाणा
सुधी होय. कषायकुशील दशमागुणठाणा सुधी होय, निम्रय अगियारमा, बारमागुणस्थानक पर्यंत होय. तेरमा, चौदमा
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सविन्दु.
एणताणामा स्नातक होय, छद्मस्थावस्थामा सीर्षकरने कान कुनील चारित्र होयछे.
उत्तराध्ययन अध्ययन. ३४ ५६८ कृष्णलेश्याना परिणाम-पंचास्रवना सेवनार, मन वचन का
यानी गुप्ति नहि पालनार, षट्कायनो नाश करनार, आरंभ सारंभना तीव्र परिणाम सहित, सर्व जीवोने अमिय, आभव अने परभवतुं अस्तित्व नहि स्वीकारनार, क्रूरपरिणामवान्, इत्यादि अशुभ कृष्णलेश्याना परिणाम जाणवा.
५६९ नीललेश्याना परिणाम-इया करवी. परजीवना अवर्णवाद
बोलवा. अत्यंत कदाग्रह करवो. तपरहित अनाचारता. भाव सहित विषयलंपटता. अष्टमदनुं करबु. शातानुं इच्छq. आरंभ करवो. सर्वनु अहित करवू, इत्यादि
५७० कापोतलेश्या-चाकुं बोलवू, कपट करवं, निजदोष दांकवापर्यु,
मिथ्याष्टित्व, अनार्यत्व, वाणीथी जीवोने दुभववा. मार्मिक बचन बोलवू, चोरी करवी, अन्यनी संपत्ति देखी स्वयं पाप व्यापार करवो कराववो. इत्यादि
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लाविन्दु wwmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmammmmmmmmmwwer ५५ तेजोलेश्याना परिणाम-मानरहितपणुं, मायारहितपणं, इतक
सहितपम क्लियपणुं, भावनीरद्धि, चपलतारपिक इन्द्रियोर्नु दपर्छ, धर्मतत्वग्रंथ स्वाध्यादिकनुं करवु धर्ममा पापकत्पथीभय, मोक्षनी वाञ्छा इत्यादि.
५७२ पालेश्या-रागद्वेषनी उपशमता, इन्द्रियोनेदमकी, शुमध्या
साय, दयादिना परिणाम, त्रणयोगनी शुभमा प्रवृत्ति, अल्पमाषण करवं, जितेन्द्रियव मुक्तिनी वाञ्छा आदि
५७३ शुक्ललेश्याना परिणाम-आर्तरौद्रनो परिहार. धर्मध्यान अने
शुकलध्यानावस्थाप[.रागद्वेषनी उपशमता.त्रणगुतिः अने पंच स्ममितिमा रक्तता. जितेन्द्रियख. स्वस्वरूपमा दृष्टि इत्यादि
५७४ जिनकल्पी उपशमश्रेणि तथा क्षपकश्रेणि मांडे नहीं अने तदा
भवमा मुक्ति जाय नहि.
५७ नामबल) स्थापना मंगल,द्रव्यमंगल,अने भावभंगलमा पार
मकारनां मायके
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(११)
तत्वविन्दुः ५७६ द्रव्यादिकमां नवविध उपचारथी असद्भूत व्यवहार थायछे.
१. द्रव्ये द्रव्योपचार, २ गुणेगुणोपचार ३ पर्यायेपर्यायोपचार. ४ द्रव्येगुणोपचार, ५ द्रव्येपर्यायोपचार, ६ गुणेद्रव्योपचार,
७ पर्यायेद्रव्योपचार ८ गुणेपर्यायोपचार, ९ पर्यायेगुणोपचार. १ द्रव्येद्रव्योपचार-क्षीरनीर न्यायवत्जीव, पुद्गल साथे मळ्योछे
माटे जीवने पुद्गल कहेवू ते जीव द्रव्यमा पुद्गल द्रव्यनो उपचार. २ गुणेगुणोपचार-भावलेश्या ते आत्मानो अरूपी गुणछे तेने .: कृष्णादिक लेश्या कहीए छीए ते कृष्णादि पुद्गलद्रव्यना गुणनो _ आत्मगुणमा उपचारछे माटे गुणगुणोपचार जाणवो. ३ पर्यायेपर्यायोपचार-अश्व हस्ति प्रमुख आत्मद्रव्यना असमान
जातीय द्रव्यपर्याय तेने स्कंध कहेछे. आत्माना पर्याय उपर पुद्गल द्रव्य जे स्कंध तेनो उपचार कहीए छीए ते पर्यायेपर्यायोप
चार जाणवो. ४ द्रव्येगुणोपचार-हुं गौरवर्णछु एम बोलता हुं एटले आत्मद्रव्य
अने गौरपणुं ते पुद्गलनु उज्ज्वलतापणुं, आत्मद्रव्यमांपुद्गलना गौरगुणनो उपचार को माटे द्रव्येगुणोपचार.
५ द्रव्येपर्यायोपचार-हुँ गौरछ एम बोलतां हुं ते आत्मद्रव्य,
अने गौर तो पुद्गल द्रव्यनो सामान्य जातीयपर्याय जाणवो. ६ गुणेद्रव्योपचार-यथा दृष्टान्त आ गौर देखायछे. गौरतारूप
पुद्गलगुण उपरे आत्मद्रव्यनो उपचार ते गुणे द्रव्योपचार. ७ पर्याये द्रव्योपचार-देहपर्यायने आत्मद्रव्य कहे, ते देहरूप,
पुद्गल पर्यायमा आत्मद्रव्यनो उपचार जाणवो.......
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तबिन्दु.
( १७३ )
८ गुणेपर्यायोपचार - मतिज्ञान ते पंचइन्द्रिय अने मनोजन्यछे मारे शरीरज कहीए अत्र मतिज्ञानरूप आत्मगुणमां शरीररूप पुद्गनो उपचार कर्यो.
९ पर्याये गुणोपचारः - शरीर ते मतिज्ञानरूप गुणजछे: अत्र शरीर पर्यायां मतिज्ञानरूप गुणनो उपचार कर्यो जाणवो..
५७७
श्लोक अध्यात्मसार. अतो मार्ग प्रवेशाय, व्रतं मिथ्यादृशामपि ॥ द्रव्यसम्यक्त्वमारोप्य, ददते धीरबुद्धयः ॥ १७ ॥
ते माटे धीरबुद्धिवाळा रत्नत्रयमार्गमा प्रवेशार्थे मिध्यादृष्टिवा - ळाने पण द्रव्यसमकितनो आरोप करीने चारित्र आपेछे.
५७८ आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान अने शुकलध्यान ए ध्यानना चार भेदछे.
५७९ अवधिज्ञानमां क्षेत्राधिकारथी प्रमाणांगुल ग्रहण करायछे. अवविज्ञानना अधिकारथी उत्सेधांगुल प्रमाण जाणवुं एम केटलाक कछे, (वि.प. १८८ ) .
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५८अचविज्ञानी क्षेत्रंथी,, अंगुलना असंख्यातको भाग देख अतीत
अनागत क्षेत्र, क्षेत्र उपचारथी कहेवायछे. (वि)
५६१ अंगुलना असंख्यातको भाग देखतो. छतोः अवधि, कालवी
आवलिकानो असंख्यातमो भाग देख अंगुल संख्येय भाग मात्र देखतो छतो अवधिज्ञानी, आवलिकानो संख्यातमो भाग देखे. क्षेत्रथी अंगुल देखतो छतो कालथी आवलिकान्तभिन्न आवलिकाने देखे. (वि)
५८२ कालथी आवलिकाने देखतो छतो अवधिज्ञानी क्षेत्रथी के मां
गुलथी नव आंगुल देखे. (वि)
५८३ क्षेत्रथी हस्त प्रमाण देखतो छतो अवधिज्ञानी कालथी मुहूती
तर्भिन्न मुहूर्त देखे. (वि)
५८४ कालथी दिवसांतर्भिन्न दिवस देखतो छतो क्षेत्रथी गव्यूत विषय
वाळू अवधिज्ञान जाणवू. (वि)
५८५ योजनक्षेत्र विषयवालु अवधिज्ञान कालथी घे दीवसयीं ते नव
दीवस पर्यंत देखे, (वि)
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4. कालपी पक्षांतभिम पक्ष देखे तो छतो क्षेत्रथकी पचीशयोजनने
अवधिज्ञानी देखें (वि)
५८७ क्षेत्रथी भरतक्षेत्र देखतां छतां कालयकी अधमास अवधिज्ञानी
देखे. जंबुद्वीप विषयमा साधिक मास जाणवो. मनुष्यलोकमां वर्ष रुचकाख्य बाह्यद्वीपविषयमां अवधिज्ञाननो काल बे वर्षयी नववर्षनो जाणवो. अन्यो तो हजार वर्ष कहेछे. क्षेत्रगत अने कालगतरूपि द्रव्यने अवधिज्ञानी देखे. मंचाः क्रोशंति इत्यादि न्यायनी पेठे उपचारथी क्षेत्रकालने जाणेछे देखेछे एम जाणवू नतु साक्षात
गाथा. काले चउण्हवुट्ठी, कालो भइयव्वो खेत्तबुढिए; बुढीए दब्ब पन्जव, भइअव्वा खेत्तकाला ॥ अवधिगोचर काल वृद्धि थए छते क्षेत्रादिनी वृद्धि चारनी रद्धि कालश्री क्षेत्र सूक्ष्मछे. क्षेत्रथी द्रव्यमूक्ष्म. द्रव्यथी भाव सूक्ष्मछे.
५८९ अवधिज्ञानना कालनो समय वृद्धि पामतां क्षेत्रना अभूतपदेशो
वृद्धि पामेछे. क्षेत्रनी वृद्धि थतां भाव (पर्याय ) नी वृद्धि थायछेज.
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(७६)
तत्त्वविन्दु. ५९० कालो भइयन्वो खेत्तबुडीएत्ति अवधिज्ञानतुं क्षेत्र वृद्धि पामतां
कालनी भजना. ( वधे वा न वधे) अन्यथा क्षेत्रनी वृद्धि थतां कालना नियमवडे समयादि वृद्धि थाय त्यारे तो अंगुल मात्र क्षेत्र वृद्धि पामे छते. कालनी- असंख्यात . उत्सर्पिणी
अवसर्पिणियो वृद्धि पामे. अंगुल सेढीमेत्ते नसप्पिणी असंखेज्जत्ति ॥
ते माटे आवलिकावडे वे आंगुलथी नव आंगुल, अवधि कबुंछे ते आदि सर्व विरुद्ध ठरे. माटे क्षेत्र वृद्धि थतां कालवृद्धिनी भजना. द्रव्य अने पर्यायनी वृद्धि थए छते क्षेत्र अने कालनी भजना जाणवी. द्रव्यनी वृद्धि थतां पर्यायनी अवश्य वृद्धि थायछे. प्रतिद्रव्यमा पर्याय अनंतछे तेमांथी जघन्यथी एकद्रव्यना' चार पर्यायलाभ, अवधिज्ञानिने होय. :
* .. गाथा विशेषावश्यकभाष्य. काले पवढमाणे, सव्वे दव्वा पवढंति; खेत्ते कालो भइओ, वढंतिओ दव्वपज्जाया ॥१॥ भयणाए खेत्तकाला, परिवढतेसु दव्वभावेसु दव्वे वढइ भावो, भावे दव्वं तु भयणिज्जं ॥२॥ सुहुमोय होइ कालो, तत्तो सुहुमयरं हवइ खेत्तं; अंगुलसेढीमित्ते, नसप्पिणीउ असंखेज्जा ॥ ३ ॥
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ninin
' तत्त्वबिन्दु.
(10) ५९२ :
गाथा. कालो खित्तं दध्वं, भावोय जहुत्तरं सुहुमभेया ॥ थोवा असंखाणंता, संखाइ जमोहिं विसयम्मि ॥१॥
कालयकी क्षेत्र असंख्यात गुण, क्षेत्रथकी द्रव्य अनन्त गुण, अने द्रव्यथी पर्याय असंख्यातगुण, वा संख्यातगुण एम अवधिज्ञान विषयमां जाणवू.
५९३ तेया भासादव्वाण, अंतरा एथ्थ लभइ पवओ
गुरु लहुआ गुरु लहुयं, तंपिय तेणावतिघाइ ॥१॥
गुरु लहु तेया सन्नं, भासासण्णमगुरुं च पासेजा ..आरंभे जं दिवं, दणं पडइ तं चेव ॥२॥ तैजस द्रव्यासन्न गुरुलघुने अने भाषाद्रव्यासन्न अगुरुलघुने अवधिज्ञानी प्रारंभमां देखे.
५९४ मिथ्यात्व, अविरति, कषाय अने योगथी कर्मनो बन्ध थायछे,
पांच प्रकारनां मिथ्यात्व, बार अव्रत, पच्चीश कषाय, १५ पमर पन्नरयोग ए सत्तावन उत्तरहेतु जाणवा. प्रथम गुणस्थानका : आहारक अने आहारकमिश्रयोग विना १३ तेस्योग-सर्व मळी, पंचावन हेतु प्रथम गुणस्थानकमां.
..
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(१७४)
तस्वविन्दु. ommomammmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm ५९५ द्वितीय साखादन गुणस्थानकमां मूल हेतु प्रण अने उचरोद्ध
पञ्चाश.
६९६ त्रिजा गुणस्थानकमां मूलहेतु त्रण अने उत्तरहेतु तेतालीस
जाणवा. अव्रत बार, कषाय एकविश अने योगदश.
५९७ चोथागुणस्थानकमा मूल हेतु त्रण अने उत्तरभेद छेतालीश. बार
अव्रत, एकविश कषाय, अने तेरयोगः
५९८ पांचमा देशविरति गुणस्थानकमां अगियार अवत, सत्तरकषाय,
अगियारयोग. मूल हेतु त्रणछे.
५९९ छठा प्रमत गुणस्थानकमां मूलहेतु बे, उत्तरहेतु छव्विश, तेर
कषाय, तेरयोग.
६०० अप्रमत्त सातमा गुणस्थानका मूलहेतु वे अने उत्तरहेतु चोविश.
तेरकषाय अने अगियारयोग.
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जलबिन्दु
( m) ६०१ अपूर्वकरण आठमा गुणस्थानका मूलहेतु वे अने उत्तरहेतु - बाविश. योगनवभने कपायतेर.
६०२ नवमा अनिवृत्ति बादर गुणस्थानकमां मूलहेतु बे अने उत्तरहेतु
सोळ तेमां कषाय सात अने योग नव. संज्वलनना चार कषाय त्रण वेद ए सात कषायछे.
६०३ नवमा गुणस्थानकमां पुरुषवेद, स्त्रीवेद अने नपुंसक ए त्रण
वेदनो उदय होपछे. आ संबंधो विशेष मनन करी आत्मलक्ष्य
. राखवो.
६०४ दशमा गुणस्थानकमां मूलहेतु बे अने उत्तरहेतु दश तेमां योग
नव अने एक संज्वलननो लोभ.
६०५ अगियारमा उपशम अने बारमा क्षीणमोह गुणस्थानकमां मूल
हेतु एक. योगना उत्तरभेद नवछे.
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६९६ तेरमासयोगी गुणस्थानकमा मूलहेतु एक अने उत्तरहेतु पांच -
अथवा सात. बे वचनना वे मनना अने, एक औदारिकयोग. एवं पांचयोग जाणवा. समुद्घातनी अपेक्षाए औदारिकमिश्र अने कामण वधे त्यारे सातयोग, चउदमा अयोगी गुणस्था. नकमा एकपण कर्मबंध हेतु नथी.
६०७ औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस, भाषा, श्वासोश्वास, मनो
वर्गणा, अने कार्मणवर्गणा ए आठ प्रकारनी वर्गणाछे.
.
.
..
१०८ द्रव्य क्षेत्र काल अने भावथी वर्गणाना चार प्रकारछे तेनुं
विशेषावश्यक पत्र १९० थी स्पष्ट स्वरूप दर्शाव्युछे.
६०९ तेजस अने भाषाद्रव्यना आंतरामां गुरुलघु पर्याय विशिष्ट
अने अगुरु लघुपर्याय विशिष्ट पुद्गल द्रव्यछे. तैजस आसन्न गुरुलघु द्रव्यछे, अने भाषा आसन्न अगुरुलघु द्रव्यछे.
६१० औदारिक, वैक्रिय, आहारक, अने तैजस द्रव्यो तथा तदाभास
अपर सर्व द्रव्यो, बादर अने गुरुलघु स्वभाववाळांछे.
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deafeng.
( १८१ )
६११ भाषा, श्वासोश्वास, मन, अने कार्मण वर्गणा तथा परमाणु
द्वयणुकादि तथा आकाशादि अगुरुलघुपर्याय विशिष्टके. निश्रय
नयमत ||
t
६१२ जेउंचुं वातिच्छु फेंकतां तेनुं स्वभावथी अध: पतन थाय ते गुरु द्रव्य, जेम इंट आदि जे स्वभावथी ऊर्ध्वगति स्वभाववालुंछे ते लघुद्रव्य, जेम दीपकलिका. अने जेनो ऊर्ध्वगति स्वभाव नथी तेमज अधोगति स्वभाव पण नथी. पण जे स्वभावे तिर्यगतिधर्मकछे ते द्रव्य, गुरुलघु, वायु आदिनी पेठे जाणवुं. जे aratऊर्ध्व अधः अने तिर्यग्गति स्वभावमांथी एकपण स्वभाववाळं नथी. वासर्वत्रजायछे ते गुरु लघु द्रव्य. व्योम, परमाणुआदिछे. इतिव्यावहारिकनयमतं.
६१३ निश्चयनयमत वडे तो एकांते सर्व वस्तुगुरुस्वभावविशिष्ट नथी, भारे एवी इंटपण पर प्रयोगथी उंचीजायछे. कोइवस्तु एकांते लघुपण नथी. अतिलघु बाष्पनुंपण करताडनादिथी अधोगमन जोवामां आवे छे. माटे एकांते कोइवस्तुगुरुवालघुनथी. जेमाटे आलोकमां औदारिक वर्गणादिक, भूभूधरादिक, बादर वस्तु सर्वगुरु लघुछे. शेषभाषादिव्योमादि अगुरुलघुळे इतिनिश्चयनयमतम् .
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(13)
तत्त्वबिन्दु. ६१४ व्यवहारनयवादी कहेछेके हेनिश्चयवादी? एकांत गुरुवा एकांत
लघु सर्वथा द्रव्य नथी एम तुं कहेछे तेयोग्यनथी. कारणके लघुकर्मि जीवोनुं सौधर्मदेवलोकादिकमां गमन कांछे. भारेकमिजीवोनुं सप्तमनरकमां गमन शास्त्रमा कांछे. सर्वसिद्धांतज्ञोएम जाणेछे. प्राय जीवअने पुद्गलो ऊर्ध्वअने अधोगामिछे. उंचाथी नीचा जायछे ते गुरुताविनाकेम घटे. नीचेथी उंचे जायछे ते लघुता विना केम घटे ? माटे गुरु, लघु, गुरुलघु, अगुरु लघु, ए चार प्रकारे वस्तु ने मानवी जोइए:गुरुतानिबंधन अधोगमनछे. अयोगोलादिनुं. लघुतानिबंधन उर्ध्वगमन दीपकलिकादिर्नुछे. गुरुलघुत्वसाध्य तिर्यग्गमन, वायुआदिनुंछे. अगुरुलघुताकारण अवस्थान-स्थिरता, आकाश देवलोकनीछे. इति व्यवहारनयमत.
६१५ निश्चयनयवादी प्रत्युत्तरआपेछे.
अन्नच्चिय गुरुलहुया, अन्नो दव्वाणिविरिय परिणामो; अण्णोगइ परिणामो, नावस्सं गुरुलहु निमित्ता॥१॥ अत्र द्रव्योनी गुरुलघुता भिन्नछे, अन्यवीर्य परिणामले. अने
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तत्वचिन्दु.
( १८३ )
तेओनो गतिपरिणामपण अन्यछे, गुरुलघुनिमित्त अवश्यनथी. शाथीते बतावेछे.
गाथा.
परमलहूण मणूणं, जंगमणम दोवितथ्यको हेऊ ऊद्धं धूमाईणं, थूलयरइणपि किं कज्जं ॥१॥ किंच विमाणाइणं, नाहोगमणं महागुरूणंपि तणुयर देवोदर, खुब किं महासेलं ||२||
जेमाटे, परमलघुपरमाणुओनुं अधोगमन पण थायछे. त्यांअधोगति परिणामनी उत्कटताने त्यजीने अन्य कोइपण हेतुनथी. स्थूलतरबादरत्वथी गुरु द्रव्यधूमादितुं जेऊर्ध्वगमन थाय छे त्यां ऊर्ध्वगतिपरिणामने छोडी अन्यकयुं प्रयोजनछे? तेममाणे उत्क टअधोगतिपरिणामवडे परमाणुगत लघुतानुं लंघन थयुं. ऊर्ध्वगति परिणामवडे धूमादिगतगुरुतानुं लंघन थयुं. गतिपरिणाम वडे गुरुलघुतामां अतिक्रमण उपलक्षणथीजाणं.
स्थिति परिणामनी उत्कटतावडे पण गुरुतानुं अतिक्रमण दर्शावे छे. गुरुताज जो अधोगति निबंधन कहेशोतो खेदनीवातछेके आन-आदि देवलोक वगेरे महागुरु पदार्थोनुं अधोगमन थतुं नथी. उत्कृष्टताथी स्थिति परिणामज गुरुतानुं अतिक्रमण करीने ओनी स्थिरता करेछे.
तनुशरीरी महावीर्यधारी देवतामाटा पर्वतने पणउंचोउछाळेछे. त्यांपणजोगुरुता अधोगतिनुं एकांतकारणहोयतो उंचोपर्वत
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(१४)
तत्वविन्दु. - नजबोजोइए; पण उंचोउछळेछेमाटे एकांते गुरुता अधोगति
कारणनथी. तेमज लघुता एकांत ऊर्ध्वगतिकारणनथी. तेथकी जणावेछे. विरियं गुरुलहुयाणं, जहाहियं गइविवज्जयं कुणइ ॥ तहगइ ठिइ परिणामो, गुरुलहुयाओ बिलंघेइ ॥१॥ यथोक्त न्यायवडे देवादिगत वीर्य गुरुलघु वस्तुओना गमननो विपर्यय करेछे. देवता पर्वतने उंचो उछाळेछे. बाष्प उंची
जती होयछे तोपण करताडनादि वीर्यथी नीची जायछे. ते - माटे एकांते अधोगति निबंधन गुरुता नथी. तेमज ऊर्ध्वगति ... निबंधन लघुता नथी. तो शामाटे अधोगत्यादि सिद्धिअर्थ .: गुरुलघुआदि चतुष्टय मानवा जोइए ? अर्थात् न मानवा जोइए. : माटे आज परिभाषा युक्तिमतीछे. बादरवस्तु गुरुलघुछे. अने
शेष सूक्ष्मवस्तु अने अमूर्त सर्ववस्तु अगुरुलघुछे. इति निश्चयनय . कथनम्.
६१६ मनोवर्गणाने देखतो छतो अवधिज्ञानी क्षेत्रथी लोकना संख्या
तमा भागने देखे. कालथी पल्योपमना संख्यातमा भागने "देखे. कर्मवर्गणा द्रव्यने देखतो छतो अवधिज्ञानी क्षेत्रथी लो
कना संख्यातमा भागोने देखे. अने कालथी पल्योपमना • संख्यात भागोने देखे. (वि)
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तत्वबिन्दु.
६१७ चउदमा राजलोकने अवधिज्ञानी देखतो छतो कालथी स्तोकोन
... पल्योपम देखे. कालवृद्धिना सामर्थ्यथी कर्मद्रव्यने अतिक्रमीने ... तेना उपर ध्रुवादिवर्गणा देखतो क्रमथी परमावधि पामे.(वि)
६१८ जे अवधिज्ञानी तेजस शरीरने देखेछे ते कालथी वे भवथी
ते नवभव देखेछे. (वि)
६१९ परमावधौ समुत्पन्ने सति किलान्त मुंहनावश्येमेव केवलज्ञान
मुत्पद्यते. परमावधिज्ञान उत्पन्न थएछते अन्तर्मुहूर्तमा अवश्य - .. केवलज्ञान उत्पन्न थायछे. (वि)
६२० नारकीओने क्षेत्रथी उत्कृष्ट अवधिज्ञान, योजनप्रमाण होयछे.
जघन्यथी एकगाउ होयछे. योजनप्रमाण, रत्नप्रभा पृथ्वोमा - अने एकगाउ प्रमाण सातमी नरकमां (वि) नरकः पहेली. बीजी त्रीजी. चोथी. पांचमी. छठी. सातमी. ऊ. गा. ४ ३॥ ३ २॥ २ २ १ ज. गा. ३॥ ३ २॥ २ ॥ १ ॥
१२१ सौधर्म अने इशानकल्पना देवताओ अवधिज्ञानवडे नीचुंप्रथम
नरक पर्यंत देखेछे. त्रीमा अने चोथा देवलोकना देवता बीजी नरक सुधी नीचं देखेछे, ब्रह्मलोक अने लांतकलोकना देवता त्रीजी नरक सुधी देखे. सातमा अने आठमा देवलोकना देवता चोथी नरक सुधी देखेछे. नवमा अने दशमा देवलोकना देवता पांचमी नरक सुधी देखे. अगियारमा अने बारमा देवलोकना देवता, विशुद्धतर बहु पर्याय विशिष्ट पांचमी नरकने
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तस्यविन्दु. देखे. नवग्रैवेयकना अधस्त्य मध्यम अवेयक देवताओ छठी नरक सुधी देखे. अने उपरितन अवेयक देवो सातमी नरकने देखे. अनुत्तरविमानवासी देवताओ संभिन्न अने चारे दिशामा पोताना ज्ञानवडे व्याप्त, कन्याचोलक संस्थान एवी लोकनाडीने अवधिज्ञानवडे देखे. वैमानिकनुं अधोक्षेत्र विषयक अवधिज्ञान का. तिच्छे अने उंचं पण गुरुगमथी धारी लेवु (वि)
६२२ द्रव्यथी परभावधिज्ञानी सर्वरूपि द्रव्यने देखे. क्षेत्रथी परमाव
विज्ञानी अलोकमां पण लोकप्रमाण खांडवां देखे. एटलं सामर्थ्य बताव्यु. कालथी अवधि असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणीने देखे. भावथी अवधिज्ञानी; रूपिद्रव्यगत असंख्यात पर्यायने देखे. घउदराजने देखतो छतो अवधिज्ञानी प्रतिपाती अने अलोकनो एक आकाश प्रदेश देखतो अप्रतिपाति अवधि ज्ञानी जाणवो.
६१३ अवधिज्ञानी परमाणु आदि देखे त्यारे अवश्य बादर द्रव्यने ... देखे. अने बादर द्रव्य देखता सूक्ष्मद्रव्य देखे एवो नियम नथी.
१२४ मनःपर्यायज्ञानी मनोद्रव्याणि सूक्ष्माण्यपि पश्यति चिन्तनीयंतु
घटादि स्थूरमपिन पश्यति. मनापर्यवज्ञानी सूक्ष्मपण मनोद्रव्योने नाणेळे. चिन्तनीय घटादि स्थूलछे तोपण तेने देखी शकतो नथी.
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६२५
बिन्दु.
( 149 )
गाथा,
अणुगामिय आही, नेरइयाणं तहेवदेवाणं ॥ अणुगामि अणणुगामी, मीसोय मणुस्स तेरिथ्ये ॥
अनुगामि अवधिज्ञान, नारको अने देवोने होयछे अनुगामी अनुगामी अने मिश्र ए त्रण प्रकारनुं अवधिज्ञानछे ते मनुष्यो अने तिर्योछे, जघन्यथी अवधिज्ञाननो उपयोग एक समयनो जाणवो
गाथा.
६२६ खित्तस्स अवठाणं, तेत्तीसं सागरा कालेणं; दव्वे भिन्नमुहुतो, पज्जवलभेय सत्ता ॥ १ ॥ अनुत्तरदेवो जे क्षेत्रमां जन्म समये रहेछे त्यांज भवक्षय पर्यंत रहेछे तेथी अवधि संबंधि एकत्र क्षेत्रणं तेत्रीस सागरोपम सुधी अवस्थानछे उपयोगयी अवधिज्ञाननुं द्रव्यक्षेत्र आश्री भिन्न मुहूर्त अवस्थानछे भिन्नमुहूर्तमेवावस्थानं नपरतः सामर्थ्या भावात् तत्रैव द्रव्येयेपर्यवा: पर्यायधर्मास्तल्लाभे पर्यायात् पर्यायांतरंच संचरतो अवधेस्तदुपयोगे सप्ताष्टौवा समयानु अवस्थानं न परतः ॥ ते द्रव्यमां जे पर्यायछे तेना लाभमां पर्यायथी पर्यायांतरमां जनार अवधिना उपयोगमां सात, आठ समयपर्यंत अवस्थान होय. ते उपर नहीं. केटलाक तो कहेछे के पर्याय वे प्रकारेछे. गुण अने पर्याय. तत्रसहवर्ति गुणछे. शुक्लादि अने क्रवर्ति पर्यायोछे. नव पुराणादि. तेमां गुणोमां आठ समयपर्यंत, अवधिज्ञानना उपयोगनुं अवस्थानछे. अ पर्याय मां सात समय पर्यंत अवधिज्ञानना उपयोगनुं अवस्थान
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तत्वविन्दुः छे. स्थूलद्रव्यछे तेथी त्यां अन्हुमुहूर्त अवधिज्ञान उपयोगस्थि: तिछे. गुणो तेथी सूक्ष्मछे तेथी तेओमां आठ- समय. अने गुण करतां पण पर्याय सूक्ष्मछे तेथी त्यां सात समय पर्यंत अवधिज्ञानना उपयोगर्नु अवस्थान कपु.
२२७ अवधिज्ञानमां षट्गुणभागनी हानि वृद्धि संभवेछे. तेनुं ध्यान कर.
२२८ अवधिज्ञानमा फड्डक होयछे. एकजीवने संख्यात अने असं
यछे. फड्डक त्रण प्रकारनाछे. अनुगामिक अननुगामिक,अने अनुगामिक अननुगामिक उभयमिश्र ए त्रण फड्डक पण वळीत्रण प्रकारे होयछे. प्रतिपाती, अप्रतिपाती अने प्रतिपाती अप्रतिपाति उभयरूपमिश्र, ते मनुष्य अने तिर्यंचना अवधिज्ञानमां होयछे. देव अने नारकमां नथी. प्राय अनुगामिक अप्रतिपाति फड्डको, तित्र विशुद्धि युक्तपणाथी तीव्र कहेवायछे. अननुगामि प्रतिपाति फड्डको तो अविशुद्धताथी मंद कहेवायछे. मिश्र तो मध्यम कहेवायछे. (वि)
६२९ अपवरक जालकांतरस्थप्रदीपप्रभोपमफड्डकावधि ज्ञान होय
छे. (वि.) अपवरकादिनालकांतरस्थ प्रदीप प्रभा निर्ग मस्थानानीवावधिज्ञानावरणे क्षयोपशमनन्यान्यवधिज्ञान निर्गमस्थानानीहफडकान्युच्यन्ते ॥
1
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६३० नवग्रैवेयकमां अभवी तथा भवी मिथ्या दृष्टि देवता छे तेने
विभंग ज्ञान होयछे.
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तत्वविन्दुः ।
६३१ श्रेणियमा वर्तमान वेदक, अकषायक, एवा केटलाकने अव3 धिज्ञान उत्पन्न थाय छे. जेओने अवधिज्ञान उत्पन्न थयुं नथी १ एवा मति श्रुत चारित्रवाळाओने प्रथम सातमा गुण स्थानकमां मनःपर्यव ज्ञान उत्पन्न याय छे तेवा मनःपर्याय ज्ञानियो पण केटलाक पाछळथी अवधि ज्ञानना अंगीकार करनाराओ थायछे. (वि.)
६३२
उदय खय खउँवसमो, बसम समुथ्था बहुप्पगाराउ एवं परिणामवसा, लकी होति जीवाणं १ उदय, क्षय, क्षयोपशम, उपशमी थएली बहु प्रकारवाली लहियो, परिणामवशे जीवोने उत्पन्न थायछे. (वि.)
६३३ रुजुमति अने विपुलमति अभव्य पुरुष अने स्त्रीने पण होय
नहीं. (वि).
६३४ चक्रवर्ति, वासुदेव, बलदेव, प्रतिवासुदेव, ए भव्य होय छे
अने अर्ध पुद्गल परावर्तनकालमा मुक्ति जायछे..
६३५ सामायक चारित्रमा कर्म बंधमांमूल हेतु बे. छे, अने उत्तर हेतु .. छव्वीशछे. तेर योग अने तेर कषाय ॥ छेदोपस्थापनीयतुं पण
ते प्रमाणे जाणवू. परिहार विशुद्धि चारित्रमा कर्म बंधावाना मूल हेतु बे अने उत्तर हेतु एकवीश. बार कपाय तेमा स्त्री वंद विना आठ नोकषाय, अने चार संज्वलनना तेमज योग:
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(३९०.)
तणधिन्दु.
नव जाणवा. मूक्ष्म संपराय चारित्रमा मूल हेतु वे अवे उत्तर हेतु दश, तेमां एक संज्वलननो लोभ अने नव योम जाणवा. • यथाख्यात चारित्रमा मूळ हेतु कर्म बंधनमां एक छे. अने उत्तर हेतु अगियार....
__ श्लोक. यथा प्रकारा यावन्तः संसारावेशहेतवः तावन्तस्तद्विपर्यासा, निर्वाणावेशहेतवः ॥१॥ जे प्रकारना जे जे संसारना हेतुओछे तेज विपर्यासपणाने पामेला मुक्तिना हेतुओछे. जे जे कर्म बंधना हेतुओछे ते तेज कर्म नाशना हेतुओछे.
६३७ संप्रति निश्चय समकित प्रगटी शकेछे अने तेना हेतुओछे.
६३८ हे त्रिशलानन्दन वीराधिवीर !!! व्यवहार चारित्र स्वीकारी - तमोए तेमा एकांतवास सेव्यो. तेमां निःसंगतानी मुख्यताए
ध्यानमां निमग्नताज मुख्य उद्देश संभवे छे.
६३२ अज्ञानिने सहुथी बुरी एकान्त, ज्ञानयुक्त ध्यानीने सहुथी
शूरी एकान्त.
६५० ध्यानमा विनकारक, भय अने लज्जानो परिहार कर.
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तबिन्दु .
( 141 )
६४१ बहु आलाप अने अयोग्यने उपदेश आपवानी टेव भूल.
६४२ समय अने पात्र विना गुह्य सूक्ष्मतत्व प्रकाशीश नहि. !!!
६४३ जीव जीव प्रति भिन्न भिन्न कर्मछे. क्षयोपशम पण भिन्नछे. अनादि काली मिध्यात्व अने समकित जगत्मांचे.
६४४ संघयण, काल, ज्ञान अने मनोबलनी योग्यताथी ध्यान थइ शकेछे.
६४५ ज्ञाननी अनन्त शक्ति छे. ज्ञानि गुरुनो समागम अति दुर्लभछे. अज्ञानी, ज्ञानिने पारखी शकतो नथी.
६४६ धूळना ढगलामांथी खांडना कणिया शोधी काढवाना करतां आ शरीररुपी पुद्गल ढगलामां व्यापी रहेला आत्माने ध्या• नोपयोगथी शोधी काढवो ते अति दुर्लभ कार्यछे.
६४७ अज्ञानी जीव जे शरीरना उपर ममत्वभाव राखेछे: तेना करोड अंशे पण आत्मा उपर राखतो नथी. ज्ञानी आत्मामांज रमणता करे छे.
६४८ अमति वद्ध विहारथी ज्ञानीने सहज दशानो अनुभव थायछे.
६४९ क्रिया शास्त्रछे अने ज्ञान योद्धो छे.
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तस्त्रबिन्दुः । ५५० हे आत्मन् तुं ज्ञानदर्शन चारित्रमयछे.तुं बाह्य दृश्यपदार्थमां नथी.
चतुर्दश गुण स्थानकमां षड् गुण भागनी हानिद्धि संभवेछे.
६५१ जीवना पांचसो त्रेसठ अने अजीवना पांचसो त्रीस भेद ... थायछे. षड्द्रव्य, नव तत्त्व, सातनय, सप्तभंगी आदि तत्त्व
स्वरूप प्ररूपनार त्रिशला नन्दन सर्वज्ञ श्री वीरप्रमुछे. तेमने त्रिकरणयोगे द्रव्यभावे अनन्तशः वन्दन थाओ.
६५२ योगियोने ध्यानभक्ति प्रतापे धरणेन्द्र अने पद्मावती प्रत्यक्ष
थायछे एवा जेना शासन देवताओछे. ते श्री पार्श्वनाथ भगवान्, आत्मानी अनन्तशक्तिना प्रकाश माटे थागो. सकलविघ्न वृन्दनो क्षय करी परममंगलमां ध्येयरूप निमित्तपणे परिणमो. पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ अने रूपातीत ध्यानथी पार्थप्रभुने भेदाभेदपणे ध्यावतां सूर्य प्रकाश विस्तारनी पेठे पदे पदे अनन्तशक्ति प्रताप विकास थाओ अने अनन्त मंगलधामभूत आत्मा थाओ.
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
.. इतिश्री योगनिष्ठ मुनि महाराजश्री बुद्धिसागरजी ......: विरचित तत्त्वबिन्दु ग्रन्थ समाप्तः
मुकाम. अमदावाद झबेरी वाडो.
आंबली पोळनो उपाश्रय..... सं. १९६६ मागसर शुदी ५ शुक्रवार.
लि. मुनि, बुद्धिसागर. ..'
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