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________________ (१८) तस्वबिन्दु ४३० मतिज्ञानीछे ते श्रुतज्ञानिथकी सदा अनन्तगुण अधिकछे. मतिज्ञानी श्रुतज्ञानिनःसकाशात् सदैवानंतगुणाधिकः श्रुतज्ञानी वितरस्मान्नित्य मनन्तरणहीन एव प्रामोति ४३१ श्रुतनिश्रित मतिज्ञानना अठावीश अने त्रणसोने छत्रीशभेद थायछे. अश्रुतनिनिश्रितना औत्पातिकी बुद्धि वगेरे चार भेदछे. मतिअनक्षरछे अने श्रुतज्ञान अक्षररूपछे द्रव्यातर अपेक्षाए (वि ) साक्षर अने अनक्षरनो भेदछे. (वि) ४३२ द्रव्याक्षरना अभावथी मतिज्ञानमूकछे. अने श्रुतज्ञान मुखरछे अर्थात् द्रव्याक्षर सद्भाववडे स्वपरमत्यायकपणाथी मूगुं नथी. अवधि, मनःपर्यव, अने केवलज्ञान पण मगांछे. (वि) ४३३ करवक्त्र संयोगथी भोजनक्रियाविषय मतिज्ञान थायछे. शीर्ष धुणाववानी चेष्टाथी निवृति प्रवृति विषयमति ज्ञान ' थायछे, हवे समजवायूँ के शब्द वा अक्षरथी श्रुतज्ञान उत्पन्न थायछे. माटे ते परमबोधकछे तेम करवकत्र चेष्टा तथा शिरो. धुनन चेष्टा पण परप्रबोधकछे. तेथी श्रुतज्ञाननी पेठे मतिज्ञान पण परषोधक केमन गणाय? अने ज्यारे परमबोधक गणाय ...तो बेमां शो भेद रह्यो ?
SR No.023422
Book TitleTattvabindu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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