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तरवदिन्दु.
४१७ सिद्धांतवादीनो मत एवो छे के अनादि मिथ्यादृष्टिजीबछे ते उपशम समकित पाम्या विना प्रथमयीज क्षयोपशम समकित पामेछे. अन्य तो यथावृत्तिआदि करण त्रणना क्रम वडे अंतरकरणमा उपशम समकित पामेछे. अने आ उपशम समकिती त्रण पुंज करतो नथी. पश्चात् उपशम समकितथी arat अवश्य मिध्यात्वने पामे छे. कल्पभाष्ये पण एम कां छे. कार्मग्रंथिक तो आ प्रमाणे मानेछे. सर्व अनादिमिथ्याहष्टि, प्रथम सम्यक्त्व लाभकालमां यथाप्रवृत्तादिकरण त्रिपूर्वक अन्तरकरण करेछे त्यां उपशम समकित पामेछे. अने उपशम समकिती त्रण पुंज करेछेज अने ते हेतुथी उपशम समकित थी यो क्षयोपशमसमकिती, अने तेथी मिश्र, वा मिथ्यादृष्टि थाय छे. ( विशेषावश्यक पत्र १६४ ) वेदकनो क्षयोपशम समकितमां अन्तर्भाव थायछे
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४१८ वेदक समकितम, समकितमोहनीयनो चरम पुद्गल ग्रास फक्त उदयरूप प्रवर्तेछे अने त्यां एक समयनी स्थितिछे, पश्चात् क्षायिक समकित पामे. (वि.)
४१९ संपूर्ण दशमा पूर्वथी आरंभी चउदमा पूर्व पर्यंत निश्वयथी सम्यक् श्रुत होय. (वि.) संपूर्ण दशपूर्वन्यूनथी ते आवश्यक श्रुत पर्यंतमां सम्यक् श्रुतनी भजना. (वि.)