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________________ .. (३८) तस्वबिन्दु १२८ मतिज्ञान- आंतरू जघन्यथी अंतर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट अर्ध पुद्गल परावर्तन काल मार्छ होय. ए प्रमाणे श्रुतज्ञान अवधिज्ञान अने 'मनःपर्यव ज्ञाननुं पण आंतरू जाणवू. केवलज्ञानमां आंतरू नथी. हवे मति अज्ञान अने श्रुतअज्ञान- आंतरू जघन्यथी अंतमुहूर्त अने उत्कृष्ट छासठ सागरोपम झाझेरु होय. १२९ एकला योगे प्रदेशबंध प्रकृतिबंध नीपजे.तेथी कर्मवर्गणादलनो संचय थाय. तथा योगने लेश्या एकठां मळे त्यारे प्रकृतिने प्रदेशबंध नीपजे तथा ध्यान अने कषाय बे मळे त्यारे स्थिति बंध अने रसबंध नीपजे. तथा ज्यां कषाय अने ध्यान आवे त्यां तेवारे चारे भेळा थाय. १३० अढीद्वीपमाथी सकलकर्म खपावी जेटला एक समयमां सिद्धि वरे तेटला जीव सूक्ष्मनिगोदमांयी व्यवहारराशिमां आवे. एक समये एक बेत्रण उत्कृष्टे अढी द्वीपमाही १०८ एकसो आठ सिद्धिवरे तेटला सूक्ष्मनिगोदमांथी नीकळी व्यवहारराशिपणो पामे. गाथा. १३१ काले सुपत्तदाणं, सम्मत्त विसुहि बोहिलामंच अंते समाहि मरणं, अभव्वजीवा न पावंति १
SR No.023422
Book TitleTattvabindu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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