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जिनभाषित
वीर निर्वाण सं. 2531
श्रीपंचबालयति तीर्थंकर जिनमन्दिर शिकोहपुर (गुड़गाँव) हरियाणा
ज्येष्ठ, वि.सं. 2062
जून, 2005
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मुनिश्री क्षमासागर जी
की कविताएँ
पहला कदम
सारे द्वार
खोलकर बाहर निकल आया हूँ, क्या कोई विश्वास करेगा कि यह मेरे भीतर प्रवेश का पहला कदम है।
चुप रह जाता हूँ जब कभी लगता है कि तुमसे पूछूबच्चों की तरह, कि सूरज को रोशनी कौन देता है, कि आकाश में इतना नीलापन कहाँ से आता है, कि सागर में इतना पानी कौन भर जाता है, तब यह सोचकर कि कहीं तुम हँसकर टाल न दो कि मैं बड़ा हो गया हूँ मैं चुप रह जाता हूँ।
दाता
रेत पर पैरों की छाप नदी के किनारे रेत पर पड़ी अपने पैरों की छाप । सोचा लौटकर उठा लाऊँ। मुड़कर देखा, पाया उठा ले गई हवाएँ मेरी छाप अपने आप । अब मन को समझाता हूँ कि हवाएँ सब दुश्मनों की नहीं होती जो मिटाने आती हों हमारी छाप । असल में, अहं की रेत पर बनी हमारी छाप मिट जाती है अपने-आप ।
उसने कुछ नहीं जोड़ा, लोग बताते हैं पहनने का एक जोड़ा भी उसके पास नहीं मिला, जिंदगी भर अपना सब देता रहा, दे-देकर सबको जोड़ता रहा।
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रजि. नं. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC
डाक पंजीयन क्र.-म.प्र./भोपाल/588/2003-05 मासिक
वर्ष 4, अङ्क जिनभाषित
जून 2005
सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जैन
अन्तस्तत्त्व
कार्यालय ए/2, मानसरोवर, शाहपुरा भोपाल-462 039 (म.प्र.) फोन नं. 0755-2424666
सहयोगी सम्पादक पं. मूलचन्द्र लुहाड़िया, (मदनगंज किशनगढ़) पं. रतनलाल बैनाड़ा, आगरा डॉ. शीतलचन्द्र जैन, जयपुर डॉ. श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत प्रो. वृषभ प्रसाद जैन, लखनऊ डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती', बुरहानपुर
शिरोमणि संरक्षक श्री रतनलाल कंवरलाल पाटनी
(आर.के. मार्बल)
किशनगढ़ (राज.) श्री गणेश कुमार राणा, जयपुर
सम्पादकीय
प्रवचन : आत्मानुशासन : आचार्य श्री विद्यासागर जी . कथा : भगवान् ऋषभदेव : मुनि श्री समतासागर जी , लेख • यशस्तिलकचम्पूकार सोमदेव मूलसंघीय नहीं
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: पं. नरेन्द्रप्रकाश जी जैन सिद्धचक्र विधान : प्रयोजन एवं फल
पं. कपूरचन्द्र जी बरैया • कर्मास्रव का हेतु : योग या उपयोग
: प्रो. रतनचन्द्र जैन एक मीठा-धीमा जहर : डॉ. श्रीमती ज्योति जैन . जिज्ञासा-समाधान : पं. रतनलाल बैनाड़ा . पत्र एवं पत्रोत्तर :पं. नीरज जैन एवं
पं. मूलचन्द लुहाड़िया 1. ग्रन्थ समीक्षा
• दिशा बोध देता है शोधसन्दर्भ : शान्तिलाल जैन (जांगड़ा) 28 • ज्ञानकथाएँ
हींग की डिब्बी में केसर • दीपक और तलवार
• थोड़े के लिए बहुत हानि . कविताएँ • मुनिश्री क्षमासागर जी की कविताएँ
आ.पृ. • तीर्थंकर : डॉ. सुरेन्द्रकुमार जैन
आ.पृ. 3 निज में निज के दर्शन कर लो : हरिश्चन्द्र जैन
प्रकाशक सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी,
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1. समाचार
14,31-32
लेखक के विचारों से सम्पादक का सहमत होना आवश्यक नहीं है। जिनभाषित से सम्बन्धित समस्त विवादों के लिए न्याय क्षेत्र भोपाल ही मान्य होगा।
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सम्पादकीय
साधु और गृहस्थ दोनों एक-दूसरे के पूरक ध्यान से देखें, तो आपको पता चलेगा कि गृहस्थादि संस्थाएँ अंधानुगामी-सी हो गई हैं और जब अन्धानुकरण होने लग जाता है, तो विकास रुक जाता है, रूढ़ियाँ पनपने लगती हैं और वे संस्थाएँ बाधित होने लगती हैं। यही कारण है कि हमारा बौद्धिक विकास रुक-सा गया है। गृहस्थों ने अधिकांशरूप में यह साहस करना बंद कर दिया है कि एकांत में जाकर वह अपनी शास्त्र-सम्मत बात को कहे, यह जो आप कर रहे हैं, इससे हमारी परंपरा प्रश्नचिह्नित हो रही है, आपके पद का क्षरण हो रहा है, साधुत्व पर सवाल उठ रहे हैं, धर्म पर सवाल उठ रहे हैं, शरीर नहीं चलता तो सल्लेखना ले लेनी चाहिए, क्योंकि डोली-आश्रित चर्या साधुत्व की चर्या नहीं है। साधु को समाज को दिशा देने का काम जरूर करना है, अत: इस अर्थ में वह समाज का प्रबंधक जरूर है, पर गृहस्थ की तरह नहीं।
साधु की तरह जीवन जीकर ही उसे समाज को दिशा देने का काम करना है, उसके प्रबंधन में भूमिका निभानी है, साधत्व पर सवाल उठवाकर नहीं। आज स्थिति कछ-एक प्रसंगों के कारण ऐसी उभर रही है कि साधु 'कुछ भी' गृहस्थ से कहता है और गृहस्थ 'वह कुछ भी' करने को तैयार ही नहीं होता, बल्कि करने लग जाता है। ऐसे ही कुछ साधु भी गृहस्थ के द्वारा किए जानेवाले अनुरोध पर वैसी अपनी क्रियाएँ करने लग जाता है। कुल मिलाकर दोनों के बीच के रिश्ते ठीक-से नहीं चल पा रहे हैं, यह समाज के लिए बहुत घातक है। ध्यान रखना चाहिए कि हमारी परम्परा है, जिसमें गृहस्थ का सचेतक है साधु और साधु का सचेतक है गृहस्थ; इसलिए दोनों को अपने इस कर्तव्य में सचेत रहने की जरूरत है और यदि दोनों में से किसी ने भी यह काम नहीं किया, तो निश्चय मानिए कि उसने अपने दायित्व का निर्वहन ठीक से नहीं किया। इसीलिए साधु और गृहस्थ दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं समाज में। एक के बिना दूसरे की सम्यक् सत्ता संकट में है, होगी। इतना ही नहीं, समाज-दशा भी चिन्तनीय हो जाएगी। यदि साधु न होगा या वह न सोचेगा, तो सद्गृहस्थता दुर्लभ होगी। और ऐसे ही सद्गृहस्थता साधु के साथ अपना सम्यक् व्यवहार न करेगी, तो साधु भला सत्साधु कैसे रह पाएगा?
और फिर सम्यक समाज का निर्माण आखिर कैसे होगा? इसलिए जरूरत इस बात की है कि हम इन गृहस्थों, साधुसंस्थाओं और इसी क्रम में अपने समाज पर उठनेवाले प्रश्नचिह्नों को उठने से रोकें, तभी हमारा भला होगा। जो जैनों की पहचान मध्यकाल तक थी, हमें उसे वापस लाना होगा। पर यदि बुरा न मानें, तो मैं यह तटस्थ रूप में कह सकता हूँ कि दोनों की ओर से अपने दायित्व का निर्वहन थोड़ा कमतर जरूर हो रहा है, इसलिए शिथिलाचार पनप रहा है। जब हम जागें, तभी हमारा सबेरा, इसी उम्मीद के साथ कि शायद हम जाग जाएँ।
वृषभ प्रसाद जैन
वीर देशना जो विवेकी जन परीक्षा करके निर्दोष देव, शास्त्र, गुरु और चारित्र की उपासना किया करते हैं, वे शीघ्र ही कर्म सांकल को काटकर पवित्र व अविनश्वर मोक्ष को प्राप्त करते हैं। The wise who, through prudent judgement, worship the unblemished Lord, the Scripture, the Spiritual Master (guru) and observe right conduct, cut asunder the chain of karma and attain the holy and imperishable Liberation. जो जन्म, जरा व मरण से रहित होकर देवों के द्वारा वंदित है, वह देव है। He who, having reached beyond birth, age and death, is worshipped by the gods, is the Supreme Lord.
संकलनकर्ता : मुनिश्री अजितसागर जी
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आत्मानुशासन
आचार्य श्री विद्यासागर जी बचना आसान है। केंद्र में हमेशा सुरक्षा रहती है और परिधि में हमेशा घुमाव रहता है।
यह अज्ञानी प्राणी संसार से डरता है, किंतु उससे उसे छुटकारा नहीं मिलता और निरंतर मोक्षसुख को चाहता है, किंतु चाहने-मात्र से मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती। फिर भी भय और काम के वशीभूत हुआ यह जीव व्यर्थ ही संसार के कष्ट पाता है, रहस्य नहीं समझ पाता। जो इस रहस्य को जान लेता है, वह संसार-समुद्र से पार उतर सकता है।
सुख-दुःख दोनों अपनी-अपनी दृष्टि के ऊपर आधारित हैं। संसार में जितने जीव हैं, सभी को दुःख ही होता है-ऐसी बात नहीं है। जेल में देखो, जो कैदी हैं, जिसने अपराध किया है, जो न्यायनीति से विमुख हुआ है, वही
द:ख पाता है। किंत उसी जेल में जेलर भी रहता है. उसे पिता और पुत्र दोनों घूमने जा रहे हैं। पिता को दर्शनशास्त्र | उस प्रकार का कोई दःख नहीं होता। बंधन कैदी के लिए है, का अच्छा अनुभव है। उम्र के हिसाब से भी वृद्ध हैं। अपने | | जेलर के लिए नहीं। जेलर और कैदी दोनों एक ही स्थान पर पुत्र से जाते-जाते रास्ते में चलती चक्की देखकर कहते हैं हैं, किंतु एक सुख का अनुभव कर रहा है और एक दुःख कि यही दशा इस संसार की है। 'चलती चक्की देखकर |
का। इसका अर्थ यह हुआ कि सुख और दुःख का अनुभव दिया कबीरा रोय, दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय' | करने में कारण व्यक्ति की विचार-धारा ही बनती है। मन -संसाररूपी इस चक्की में सुख-दुःख के दो पाटों के बीच | की स्थिति के ऊपर ही निर्धारित है उसका संवेदन। बिना सारा संसार पिसता जा रहा है। यहाँ किसी को सच्चे सुख की उपयोग के वह सुख और दुःख संभव नहीं। प्राप्ति नहीं हो पाती और दुःख का अभाव नहीं हो पाता।
समयसार जी में आचार्य कुंदकुंददेव कहते हैं कि क्योंकि दो पाटों के बीच में धान का दाना साबुत नहीं बच
कर्मों का उदय-मात्र बंध का कारण नहीं है, किंतु अपने पाता।
अंदर विद्यमान रागद्वेष-भाव एवं पर-पदार्थों में ममत्व-बुद्धि यह बात सुनकर बेटा कहता है-पिताजी! जरा इस का होना ही बंध का कारण है। वस्तु मात्र बंध के लिए बात पर ध्यान दें कि 'चलती चक्की देखकर दिया कमाल | कारण नहीं है, बल्कि उस वस्तु के प्रति हमारा जो अध्यवसानठिठोय, जो कीली से लग रहे मार सके नहिं कोय।' यह | | भाव है, वही बंध का कारण है। संसार में रहना तो अपराध कोई नियम नहीं कि संसार के सारे प्राणी दःख का है अनुभव करते हैं या संसार के सारे जीव जन्म-मरण-रूपी | है। इससे बचने का उपाय बतानेवाले संतलोग हैं, जो हमारे पाटों के बीच पिसते ही रहेंगे। जिसने धर्मरूपी कील का | लिए हितकारी मार्ग प्रशस्त करते हैं, संसार का रहस्य समझाने सहारा ले लिया है, जिसका जीवन ही धर्म बन गया है, उसे | का प्रयत्न करते हैं। एक नई दिशा, एक नया बोध देते हैं। संसार में कोई भटका नहीं सकता। इस रहस्य को हर कोई वस्तुतः बात सही है कि जिसने धर्म-रूपी कील का सहारा नहीं जानता। यह घटना कबीर के जीवन की है। उनका बेटा | ले लिया. रत्नत्रय का सहारा ले लिया, तो वह संसार के कमाल था। उसने बात भी कमाल की कही। कहीं भागने | जन्म-मरण से बच गया। की आवश्यकता नहीं है, उसी चक्की में रहिये, लेकिन | संसार में आवागमन करते हए भी जिसने संसार का चक्की के चक्कर में मत आइये। आप चक्कर में आ जाते | आधार ले लिया. उसको भटकाने या अटकानेवाली कोई हैं, इसलिए पिस जाते हैं। कील का सहारा ले लिया जाए तो | शक्ति अब संसार में नहीं है। इतना ही नहीं, दूसरी बात यह
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भी है कि जहाँ कहीं भी धर्मात्मा पुरुष चला जाता है वहाँ । सभी की ओर से सुख-सुविधा का ध्यान रखा जाता था। पहुंचने से पहले ही लोग स्वागत-सत्कार के लिए तत्पर | पहले कमाल की बात आपने सनी, यह बात अब रहते हैं और निवेदन करते हैं कि हमारी सेवा मंजूर करके
| सुकमाल की है। यह सारी-की-सारी व्यवस्था सुकमाल की हम सभी को अनुगृहीत कीजिये। धर्मात्मा भले ही कुछ नहीं
| माँ ने कर रखी थी कि कहीं बेटा घर से विरक्त न हो जाये। चाहता, लेकिन उसके महान् पुण्य के माध्यम से सभी उसकी
एक दिन रत्नकंबल बेचनेवाला आया और जब वह कीमती प्रशंसा करते हैं। जिनके जीवन में धर्म का सहारा नहीं है,
कंबल राजा नहीं खरीद पाया, तो सेठानी ने अर्थात् सुकुमाल खाओ-पिओ मौज उड़ाओ वाली बात जिनके जीवन में है,
की माँ ने उसकी जूतियाँ बनवाकर बहुओं को पहना दी। उन्हें पग-पग पर पीड़ा उठानी पड़ती है और अनंत काल
संयोगवश एक जूती पक्षी उठाकर ले गया और राजा के तक इसी संसार-रूपी-चक्की में पिसना पड़ता है।
महल पर गिरा दी। राजा को जब सारी बात ज्ञात हुई तो वह असंयमी का जीवन हमेशा संक्लेशमय और कष्टदायक सुकमाल को देखने आया कि देखें सचमुच बात क्या है? ही रहता है। जैसे गर्मी के दिनों में आप आराम से छाया में
सेठानी ने राजा के स्वागत में जब दीपक जलाया, तो बैठकर प्रवचन का, धर्म का लाभ ले रहे हैं और यदि छाया
सुकमाल की आँखों में पानी आ गया। जब भोजन परोसा, तो न हो तो क्या स्थिति होगी? सारा सुख छिन जायेगा। ठीक
सुकमाल एक-एक चावल बीनकर खाने लगा, क्योंकि उस ऐसी ही स्थिति संयम के अभाव में, धर्म के अभाव में
दिन साधारण चावल के साथ मिलाकर कमल-पत्र के चावल अज्ञानी प्राणी की होती है। ध्यान रखो, संयोगवश कभी
बनाये गये थे। राजा सब देखकर चकित रह गया और असंयमी-जीव देवगति में भी चला जाता है तो वहाँ पर भी
अचरज करता हुआ लौट गया। कुछ समय बीत जाने के संयम के अभाव में प्राप्त हुए इन्द्रिय-सुखों के छूटते समय
उपरांत एक दिन राज्य में किसी मुनिराज का आगमन हुआ। और अपने से बड़े देवों की विभूति को देखकर संक्लेश
वे मुनिराज और कोई नहीं, सुकमाल के पिता ही थे, जो करता है, जिससे अध:पतन ही हुआ करता है और निंरतर
सुकुमाल के उत्पन्न होते ही विरक्त होकर वन में चले गये दुःख सहना पड़ता है।
थे। सेठानी ने बहुत प्रयास किया कि मुनि इस नगर में न 'विषय-चाह दावानल दह्यो, मरत विलाप करत दुःख | आयें, पर संयोग ऐसा ही हुआ कि एक दिन रात्रि के अंतिम सह्यो।' संसार में जो दुःख मिला है, वह आत्मा के द्वारा प्रहर में सामायिक आदि से निवृत्त होकर महल के समीप किये गए अशभ परिणामों का फल है और सुख मिला है, | उपवन में पधारे उन मनिराज ने वैराग्य-पाठ पढ़ना प्रारंभ वह आत्मा के द्वारा किये गए उज्ज्वल परिणामों का फल है। | किया तो सुकमाल के अंदर ज्ञान की किरण जागृत हो गयी। यह संसार एक झील की भांति है, जो सुखदायक भी है और
रत्नदीप की किरणें तो मात्र बाहरी देश को आलोकित दु:खदायक भी है। नाव में बैठकर यदि झील को पार किया
| करती थीं, किंतु भीतरी देश को प्रकाशित करनेवाली ज्ञान जाए तो आनंद की लहर आने लगती है, किंतु असावधानी
और वैराग्य की किरणें सुकमाल के जीवन में अब जागृत हो करने से, सछिद्र नाव में बैठने से प्राणी झील में डूब भी जाता
गयीं। उन किरणों ने कमाल कर दिया, अज्ञान-अंधकार है। इस बात को आप उदाहरण के माध्यम से समझ लीजिये।
समाप्त हो गया। इसलिए रात्रि के अंतिम प्रहर में ही चुपचाप एक व्यक्ति के जीवन की घटना है, जिसका पालन- | उठता है, पलियाँ सब सोई हुईं थीं। इधर-उधर देखता है पोषण-शिक्षण सब बडी सुख-सुविधा में हो रहा था। आना- | और एक खिडकी के माध्यम से नीचे उतरने की बात सोच जाना, खाना-पीना, सोना, उठना, बैठना सभी अंडरग्राउंड में | लेता है। बिना किसी से कुछ कहे साड़ियों को परस्पर ही होता था। वहाँ पर सारी व्यवस्था वातानुकूलित/एयरकंडीशन | बांधकर खिड़की से नीचे लटका देता है और धीरे-धीरे थी। साथ ही बातानुकूल अर्थात् कहे-अनुरूप भी थी। उसे नीचे उतरना प्रारंभ कर देता है। जिसके पैर आज तक सूर्य और बिजली या दीपक का प्रकाश भी चुभता था, | सीढ़ियों पर नहीं टिके वही रस्सी को संभाले हुए नीचे उतर इसलिए रत्नदीपक के प्रकाश का प्रबंध रहता था। सरसों | रहा है। सबकुछ संभव हो जाता है भइया, बस ज्ञान एवं का दाना भी बिस्तर के नीचे आ जाए तो चुभता था, नींद नहीं | वैराग्य जागृत होना चाहिए। प्रत्येक कार्य संपादित हुआ करते आती थी। भोजन भी सामान्य नहीं था, कमल-पत्रों पर रखे | हैं और होते ही रहते हैं, असंभव कोई चीज नहीं है। हुए चावल का भात बनता था। उनकी माँ थी. पत्नियाँ थीं।
जिसके सुख-वैभव की इतनी पराकाष्ठा थी कि 4 जून 2005 जिनभाषित
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रत्नकंबल चुभता था, आज वही व्यक्ति नंगे पैरों चला जा । विशद्धि 'संयम' का प्रतीक है। वह राजकुमार सुकमाल रहा है। पगतल लहूलुहान हो गए। कंकर-कांटे चुभते जा रहे | अब मुनिदीक्षा धारण कर लेते हैं और मोक्षमार्ग में स्थित हो थे, फिर भी दृष्टि उस तरफ नहीं थी। अविरतरूप से आत्मा | जाते हैं। मोक्षमार्ग तो उपसर्ग और परीषहों से गुजरनेवाला और शरीर के पृथक्-पृथक् अस्तित्व की अनुभूति करने के | मार्ग है। अध्यात्मग्रंथों में आचार्य कुंदकुंददेव और पूज्यपाद लिए कदम बढ़ रहे थे। वह पगडंडी ढूँढ़ता-ढूँढ़ता एकाकी | स्वामी जैसे महान् आचार्यों ने लिखा है कि जो सुख के साथ चला जा रहा है उस ओर, जिस ओर से मांगलिक आवाज | प्राप्त हुआ ज्ञान है, वह दुःख के आने पर पलायमान हो जाता आ रही थी। वहाँ पहुँचकर वीतराग-मुद्रा को धारण करने | है और जो ज्ञान कष्ट/परीषह झेलकर अर्जित किया जाता है, वाले एक मुनि महाराज से साक्षात्कार हो जाता है। वह स्वयं | वह अनुकूल या प्रतिकूल किसी भी वातावरण में स्थायी भी वीतरागता के प्रति अभिमुख हुआ है, काया के प्रति राग | बना रहता है। नहीं रहा, भीतर भी रागात्मक विकल्प नहीं है।
जैसे, पौधे को मजबूत बनाना है, उसका सही विकास जैसे ही उसे ज्ञात हो जाता है कि तीन दिन के उपरांत करना है, तो मात्र खाद-पानी ही पर्याप्त नहीं है, उसे प्रकृति तो इस शरीर का अवसान होनेवाला है, वह सोचता है कि | के सभी तरह के वातावरण की आवश्यकता भी है। ऐसा ही बहुत अच्छा हुआ जो मैं अंत समय में कम-से-कम इस मोक्षमार्ग में आत्म-विकास के लिए आवश्यक है। यदि मोह-निद्रा से उठकर सचेत हो गया और महान पुण्य के | आप सोचते हो कि बीज को छाया में बोने से अच्छी फसल उदय से सच्चे परम वीतराग-धर्म की शरण मिल गयी। अब | होगी, तो ध्यान रखना, बीज अंकुरित हो तो जायेगा, लेकिन मुझे संसार में कुछ नहीं चाहिये। आत्म-कल्याण के लिए | फसल पीली-पीली होगी, दाना ठीक नहीं आयेगा। उसे उस उपादेयभूत वीतरागता को प्राप्त करना है, जो इस संसार | हराभरा होने के लिए सूर्य की तपन भी चाहिये। वह सूर्य की में सर्वश्रेष्ठ और सारभूत है। जिसकी प्राप्ति के लिए स्वर्गों के | प्रखर किरणों को भी सहन कर सकता है। इसी प्रकार इंद्र भी तरसते रहते हैं। जिस निग्रंथ-मुद्रा के माध्यम से | दर्शन, ज्ञान और चारित्र को पुष्ट बनाने के लिए उपसर्ग और केवल-ज्ञान की उत्पत्ति होनेवाली है, अक्षय अनंत ज्ञान की | परीषहों से गुजरने की आवश्यकता पड़ती है। ज्ञान में विकास, उपलब्धि जिस मुनिपद को पाने के बाद होती है, वही मुनि- | ज्ञान में निखार और मजबूती परीषह-जय से युक्त चारित्र के पद उसने पा लिया।
माध्यम से आती है। बंधुओ! शुद्धात्मा की प्राप्ति के लिए हमें रागद्वेष, आज तक कोई जीव ऐसा नहीं हुआ जो उपसर्ग या विषय-कषाय आदि सभी वैभाविक परणतियों से हटना | परीषह को जीते बिना केवलज्ञान प्राप्तकर सिद्ध-परमेष्ठी बना होगा, तभी हम उस निर्विकल्पात्मक ज्ञानीपने को प्राप्त कर | हो। भरत चक्रवर्ती को भी सिद्ध-पद प्राप्त हुआ, भले ही सकेंगे। उस ज्ञानी की महिमा क्या बताऊँ -
अल्पकाल में हुआ, लेकिन मुनिपद को धारण किये बिना, णाणी रागप्पजहो हि सव्व दव्वेसुकम्म मझगदो। | सम्यक् चारित्र के बिना नहीं हुआ। उन्हें भी छठे सातवें णो लिप्पदि कम्म रयेण दु कद्दम मझे जहा कणयं।। | | गुण-स्थान में हजारों बार चढ़ना उतरना पड़ा। यह आवश्यक अण्णाणी पुण रत्तो हि सव्व दव्वेसुकम्म मज्झगदो। है। अल्पकाल हो या चिरकाल हो, चतुर्विध आराधना के लिप्पदि कम्मरयेण दु कदम मज्झे जहा लोहं॥ | बिना आत्मा का उद्धार होनेवाला नहीं है। आचार्य कुंदकुंददेव कहते हैं कि ज्ञानी वह है, जो
संयम को धारण करके वह कोमल-कायावाले कर्मों के बीच रहता हुआ भी अपने स्वभाव में रहता है,
| सुकमाल जंगल में जाकर ध्यान से एकाग्रचित होकर लीन अपने स्वभाव को नहीं छोड़ता, जैसे कीचड़ के बीच पड़ा | हो गये। वहाँ पूर्वभव के बैर से प्रेरित हई उनकी भावज, जो हुआ स्वर्ण अपने गुणधर्म को नहीं छोड़ता, निर्लिप्त रहता | स्यालनी हो गयी थी. खन के दाग संघती हई पहँच गयी और हुआ सदा अपने स्वरूप में स्थिर रहता है। जगत, जगत में | वैर के वशीभूत होकर उस स्यालनी ने अपने बच्चे-सहित रहता है और ज्ञानी जगत में भी जगत (जागृत) रहता है। | मुनिराज बने सुकमाल की काया को विदीर्ण करना प्रारंभ
ज्ञानी अपने आप में जागृत रहता है और जगत को भी | कर दिया, खाना प्रारंभ कर दिया। "एक स्यालनी जुग बच्चायुत जगाता रहता है। वह बाहर नहीं भागता, वह निरंतर अपनी | पांव भख्यो दुखभारी।" ऐसा बड़े समाधिमरण पाठ में आता ओर भागता है। भीतर विहार करना-यही तो यथाख्यात विहार | है। उसमें उपसर्ग और परीषह को सहन करनेवाले और भी
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मुनियों का वर्णन किया गया है।
के गुणश्रेणी-निर्जरा निरंतर होती है। यही संयम का माहात्म्य तीन दिन तक यह अखंड उपसर्ग चला, जो मुनिराज | है। के लिए स्वर्ग व अपवर्ग (मोक्ष) का सोपान माना जाता है। गणेशप्रसाद जी वर्णी कहा करते थे कि देखो, कोई धन्य है वह जीव। जिसको सरसों का दाना चुभता था, वही | असंयत-सम्यग्दृष्टि चक्रवर्ती है और वह सामायिक कर रहा संहनन, वही काया, सब कुछ वही, लेकिन इस प्रकार सहन | है, तो उससे भी असंख्यात-गुणी निर्जरा एक मामूली तिर्यंच करने की क्षमता कहाँ से आयी? तो बंधओ! यह भीतरी | पशु, जो घासोपयोगी अर्थात् जिसका उपयोग घास खाने में परिणामों की बात है। भीतरी गहराई में जब आत्मा उतर | लगा है, उसकी हो सकती है यदि वह पंचम गुणस्थानवर्ती जाती है, तब किसी प्रकार का बाहरी वातावरण उसपर | व्रती है। बड़ा अच्छा शब्द उपयोग में लिया है 'घासोपयोगी', प्रभाव नहीं डाल सकता। आचार्य वीरसेन स्वामी ने एक | घास खाने में उपयोग लगा है। यह सब किसका परिणाम है? स्थान पर लिखा है कि जब एक अनादि मिथ्या-दष्टि मिथ्यात्व | यह सब देश-संयम का परिणाम है। यहाँ विचारणीय बात से ऊपर उठने की भूमिका बनाता हआ उपशमकरण करना | तो यह है कि वह तिर्यंच होने की वजह से देश-संयम से प्रारंभ करता है तो उस समय तीनलोक की कोई भी शक्ति | ऊपर उठने में सक्षम नहीं है, लेकिन आप तो मनष्य हैं। उसपर प्रहार नहीं कर सकती। किसी प्रकार के उपसर्ग का | सकलसंयम/पालन करने की योग्यता आपके पास है. फिर उस पर प्रभाव नहीं पड़नेवाला और उपसर्ग की स्थिति में | भी आप संयम के इच्छुक नहीं हैं। भी उसकी मृत्यु संभव नहीं है।
जो सकल-संयम धारण कर लेता है, उसकी निर्जरा यह सब माहात्म्य आत्मा की भीतरी विशुद्धि का है। | की तो बात ही निराली है। एक महाव्रती मुनि की निर्जरा आत्मानुभूति के समय बाहर भले ही कुछ होता रहे, अंदर तो | सामायिक में लीन देशव्रती की अपेक्षा असंख्यात-गुणी है। आनंद ही बरसता है। यह आस्था/विश्वास का परिणाम है, जैसे जौहरी की दुकान में दिनभर में एक ग्राहक भले ही एकत्व-भावना का परिणाम है। वह भावना उस समय कैसी
आये, लेकिन सौदा होते ही ग्राहक और मालिक दोनों मालामाल थी कि
हो जाते हैं, ऐसे ही मोक्षमार्ग में महाव्रती की दुकान है। जैसेअहमिक्को खलु सुद्धो दंसणणाण मइयो सदारूवी।
जैसे एक-एक गुणस्थान बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे विशुद्धि
बढ़ने के कारण असंख्यात-गुणित कर्मों की निर्जरा बढ़ती णवि अस्थि मज्झ किंचवि अण्णं परमाणुमित्तंपि॥
जाती है। प्रशस्त पुण्य-प्रकृतियों में स्थिति व अनुभाग बढ़ अर्थात् मैं निश्चय से एक हूँ, दर्शनज्ञानमय हूँ और
जाता है। परिश्रम कम और लाभ ज्यादा वाली बात है। अरूपी हूँ, अन्य परपदार्थ परमाणु-मात्र भी मेरा नहीं है। कैसी परिणामों की निर्मलता है कि स्यालिनी के द्वारा शरीर
इसी प्रकार एक-एक लब्धिस्थान बढ़ाते हुए उपसर्ग
होने के बाद भी वह मुनिराज सुकमाल स्वामी कायोत्सर्ग में खाया जा रहा है और मुनिराज आत्मा में लीन हैं।
लीन थे। कायक्लेश-जैसे महान तप को कर रहे थे। निरंतर आप भी ऐसा कर सकते हैं। थोड़ा बहुत एकाग्र होते
आत्मचिंतन चल रहा था। क्लेश की बात ही मन में नहीं थी। भी हैं, प्रवचन सुनते हैं, अभिषेक करते हैं, पूजन करते हैं,
| बुंदेलखंडी भाषा में 'काय' शब्द 'क्या है' के अर्थ में प्रयुक्त स्वाध्याय करते हैं, यदि इन सभी क्रियाओं को विशुद्धता- | होता है। तो कायक्लेश का भाव यही निकलता है कि क्या पूर्वक संकल्प लेकर करते हैं तो असंख्यात्-गुणी निर्जरा | क्लेश अर्थात् कोई क्लेश नहीं है। आगम का गहराई से क्षणभर में होना संभव है। आठ वर्ष की उम्र से लेकर पूर्व- | चिंतन-मनन करें तो ज्ञात होगा कि अभ्यंतर तप के समान कोटि वर्ष तक कोई चाहे तो आठ मूलगुणों का पालन कर | कायक्लेश आदि बाह्य तप भी कर्मनिर्जरा में प्रबल कारण सकता है, बाहर व्रतों का पालन कर सकता है। इस प्रकार | हैं। बाह्य तप भी शुभोपयोगात्मक हैं और जो शुभोपयोग बंध जीवनपर्यन्त निर्दोष व्रतों का पालन करते रहने से एक असंयत | की अपेक्षा असंख्यात-गुणी निर्जरा कराता है, वह परम्परा से सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा देशव्रती मनुष्य या तिर्यंच की | मोक्ष का कारण माना गया है। मुक्ति के लिए साक्षात्-कारण असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा प्रतिसमय होती रहती है। असंयत- | शुद्धोपयोग है, लेकिन उस शुद्धोपयोग का उपादन-कारण सम्यग्दृष्टि की गुणश्रेणी-निर्जरा मात्र सम्यग्दर्शन के उत्पत्ति- | शुभोपयोग ही बनेगा। काल में ही हुआ करती है, अन्य समय में नहीं। लेकिन व्रती सम्यग्दृष्टि साधक की जो बाह्य तप के माध्यम से 6 जून 2005 जिनभाषित
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निर्जरा होती है, वह उसके संयम का परिणाम है। सम्यक्त्व | को जीवन में लाने का प्रयास करना चाहिये। यह प्रथमानुयोग की निर्मलता का परिणाम है। मिथ्यादृष्टि को छहढाला में | की कथा हमारे लिये बोधि और समाधि का कारण बन लिखा है कि वह 'आतम हित हेतु विरागज्ञान, ते लखें आपको | सकती है। कष्टदान'-आत्मा के हितकारी वैराग्य को, तपस्या को कष्टदायी
आचार्य समन्तभद्र ने इसीलिए ठीक लिखा है कि मानता है, वीतराग-विज्ञान को कष्ट की दृष्टि से देखता है, |
प्रथमानुयोगमाख्यानं, चरितं पुराणमपि पुण्यं । किंतु सम्यग्दृष्टि मुमुक्षु प्राणी निर्जरा-तत्त्व की ओर देखता है |
बोधिसमाधि निधानं, बोधति बोधः समीचीनः॥ और निर्जरा करता रहता है। संयमी की तो होलसेल (थोक)
परमार्थ-विषय का कथन करनेवाले चरित अर्थात् दुकान है, जिसमें करोड़ों की आमदनी एक सेकेण्ड में होती
एक पुरुषाश्रित कथा और पुराण अर्थात् त्रेसठ शलाकापुरुष
संबंधी कथारूप पुण्यवर्धक तथा बोधि और समाधि के यह है वीतराग-विज्ञान का फल, जो आत्मानुशासन
निधानरूप प्रथमानुयोग को सम्यक् श्रुतज्ञान जानो। आज के द्वारा अपनी शक्ति को उद्घाटित करनेवाले सुकमाल | वर्तमान में यदि हम इस प्रथमानुयोग की कथाओं को पढ़कर, स्वामी को प्राप्त हआ। उनके द्वारा मोक्षमार्ग पर आगे बढ़ने के
अपने वास्तविक स्वरूप को समझकर, संसार शरीर और लिए जो आत्मिक प्रयोग किया गया, वह सफल हुआ। | भोगों से विरक्त होकर आत्म-कल्याण करना चाहें तो सहज उपसर्ग को जीतकर उन्होंने सर्वार्थसिद्धि को प्राप्त किया एवं
संभव है। आप भी सुकमाल-जैसा कमाल का काम कर अल्प काल में ही मोक्ष-सुख प्राप्त करेंगे। बंधुओ! उसी | सकते हैं. आत्मानशासित होकर अपना कल्याण कर सकते प्रकार की साधना एवं लक्ष्य बनाकर मंजिल की प्राप्ति के हैं। धर्म का सहारा लेकर संसार परिभ्रमण से ऊपर उठ लिए सभी को कम-से-कम समय में विशेष प्रयास कर सकते हैं। लेना चाहिये। ज्ञान को साधना के रूप में ढालकर अध्यात्म
'समग्र' (चतुर्थ खण्ड) से साभार
निज में निज के दर्शन कर लो
हरिश्चन्द्र जैन
॥३॥ मनमन्दिर में ध्यान लगाकर, कभी न देखा मन में हमने। भूल गये क्यों निज स्वभाव को, किसको बाहर निरख रहे हो। अन्तर्मुख हो निज में निज को, स्वयं देखलो मन में अपने॥ भावशून्य है विपुल साधना, इधर-उधर क्यों भटक रहे हो। तुम अनादि परिपूर्ण द्रव्य हो, गुण अनन्त के हो तुम स्वामी। इस अनादि मिथ्यात्व मोह को, उर अन्तर से दूर हटा दो। सर्व सिद्धियों के धारक तुम, चेतन चिदानन्द शिव-गामी॥ एक बार तो मनमन्दिर में, ज्ञानज्योति के दीप जला दो॥ उर, अन्तर को शुद्ध बनाकर, समताभाव हृदय में धर लो। समकित की धारा में बहकर, शुद्ध ज्ञानगंगा-जल भर लो।। सम्यक् ज्ञान जगाकर मन में, निज में निज के दर्शन कर लो॥ अपने मन पुरुषार्थ जगाकर, निज में निज के दर्शन कर लो॥
॥४॥ अंधकार, अज्ञान-तिमिर में, देख नहीं तुम निज को पाते। नरभव में भी आकर चेतन, निज स्वरूप को समझ न पाया। राग-द्वेश और विषय-भोग से, किंचित् मन में नहीं अघाते॥ निज को पर से भिन्न जानकर, कभी न निज में ध्यान लगाया। कर्मों के बन्धन में बँधकर, भव-भव कष्ट अनेकों पाये। यह अवसर फिर नहीं मिलेगा, इस अवसर का लाभ उठा लो। 'पर' को ही है समझा अपना, मोह माया में भाव जगाये॥ 'पर' ममत्व को दूर हटाकर, निज स्वरूप को शुद्ध बना लो॥ रत्नत्रय का आश्रय लेकर, भवसागर से पार उतरलो। कर्म-बन्ध के फन्द मिटाकर, मुक्ती के पथ में पग धर लो। सम्यग्दृष्टि महाव्रती बन, निज में निज के दर्शन कर लो॥ 'हरिश' भावना शद्ध बनाकर, निज में निज के दर्शन कर लो।
Wz-761, पालमगाँव, नईदिल्ली-110045
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कथा
जम्बूद्वीप संबंधी भरतक्षेत्र में भोगभूमि का काल था । अन्तिम कुलकर महाराज नाभिराय थे। भगवान् ऋषभदेव इन्हीं नाभिराय और उनकी महारानी मरु देवी के पुत्र थे । अयोध्या इनकी जन्मभूमि तथा राजधानी थी। चैत्र कृष्ण नवमी के दिन माता मरुदेवी ने प्रात:काल सर्वार्थसिद्धि विमानवासी अहमिन्द्र को तीर्थंकरसुत के रूप में जन्म दिया। बीस लाख वर्ष पूर्व इनका कुमार काल में व्यतीत हुआ । माता-पिता की सहमति से इन्द्र ने महाराज कच्छ, महाकच्छ की बहिनें यशस्वती और सुनन्दा से इनका विवाह सम्पन्न किया । इन्हें राजपद की प्राप्ति हुई। इनमें यशस्वती से भरत आदि निन्यावने पुत्र तथा ब्राह्मी पुत्री हुई। सुनन्दा ने बाहुबली और सुन्दरी को जन्म दिया।
व्याकुल चित्त प्रजा के निवेदन पर सर्वप्रथम, इन्होंने कर्मभूमि के योग्य असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, विद्या और शिल्प इन छह आजीविका के उपायों का उपदेश दिया। क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्णों की स्थापना भी इन्होंने की थी। आषाढ़ कृष्ण प्रतिपदा के दिन इन्होंने कृतयुग का आरम्भ किया था इसीलिए ये प्रजापति कहलाये । तिरेसठ लाख पूर्व वर्ष तक राज्य करने के उपरान्त नृत्य करते-करते नीलांजना नाम की अप्सरा की मृत्यु हो जाने पर आपको संसार से वैराग्य हो गया। भरत का राज्याभिषेक कर तथा बाहुबली को युवराज पद देकर आप सिद्धार्थक वन में गये
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भगवान ऋषभदेव
आचार्य विद्यासागर जी के सुभाषित
प्रतिदिन कम से कम पाँच मिनिट बैठकर ध्यान करो, सोचो जो दिख रहा है सो 'मैं नहीं हूँ' किन्तु जो देख रहा है सो 'मैं हूँ' ।
तनरंजन और मनरंजन से परे निरंजन की बात करने वाले विरले ही लोग होते हैं ।
जिसको शिव की चिन्ता नहीं वह जीवित अवस्था में भी शव के समान है।
यह पंचमकाल है इसमें विषयानुभूति बढ़ेगी, आत्मानुभूति घटेगी।
ज्ञान को अप्रमत्त और शरीर को शून्य करने से ध्यान में एकाग्रता स्वयमेव आती है।
आत्मा भिन्न है और शरीर भिन्न है इसकी सही प्रयोगशाला समाधि की साधना है।
जून 2005 जिनभाषित
मुनिश्री समतासागर जी
तथा चैत्र कृष्ण नवमी के दिन अपराह्न काल में चार हजार राजाओं के साथ दीक्षा धारण की। छह माह का योग पूर्ण होने पर आप आहार के लिये निकले किन्तु आहार - विधि जानने वालों के अभाव में ६ माह १२ दिन तक और अर्थात् एक वर्ष १२ दिन तक आहार नहीं हुआ। तत्पश्चात् हस्तिनापुर नगरी में स्वप्न से ज्ञात होने पर राजा सोमप्रभ एवं श्रेयांस के यहाँ वैशाख शुक्ला तृतीया की तिथि को इक्षुरस द्वारा इनकी प्रथम पारणा हुई। राजा श्रेयांस 'दान तीर्थ प्रवर्तक' घोषित हुए। तभी से यह तिथि 'अक्षय तृतीया' के नाम से प्रसिद्ध हुई। इस तरह छद्मस्थ अवस्था के एक हजार वर्ष व्यतीत कर आप पुरिमताल नगर के समीप शकट नामक उद्यान में वटवृक्ष के नीचे एक शिला पर ध्यानस्थ हुए। जिससे फाल्गुन कृष्ण एकादशी के दिन घातिया कर्म के नाश से केवलज्ञान की प्राप्ति हुई । भगवान् के समवशरण की रचना हुई जिसमें चौरासी हजार मुनि, पचास हजार आर्यिकायें, तीन लाख श्रावक, पाँच लाख श्राविकायें, असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यात तिर्यंच थे। अनेक भव्य जीवों को धर्मोपदेश देते हुए आपने एक लाख पूर्व वर्ष तक पृथ्वी पर विहार किया । तत्पश्चात् आप अष्टापद (कैलाश पर्वत) पर ध्यानारूढ़ हुए और माघकृष्ण चतुर्दशी के दिन सूर्योदय के समय पर्यंकासन से विराजमान हो एक हजार राजाओं के साथ मोक्षपद प्राप्त किया।
विनय और वैयावृत्ति सीखे बिना हम किसी की सल्लेखना नहीं करा सकते ।
जिसने एकान्त में शयनासन का अभ्यास किया है वही निर्भीक होकर समाधि कर सकता है और करा भी सकता 'क्योंकि एकान्त में बैठने से भय और निद्रा दोनों को जीता जा सकता है।
'सागर बूँद समाय' (मुनि श्री समतासागर जी) से साभार
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यशस्तिलकचम्पूकार सोमदेव मूलसंघीय नहीं
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श्री सोमदेव का बनाया यह एक चंपूग्रंथ है। यह ग्रंथ वि.सं. १०१६ में बना है। इसके उत्तर खंड में श्रावकाचार का कथन है। उसमें जिनाभिषेक की विधि का वर्णन करते हुये पंचामृत से अभिषेक करना बताया है। इसके कर्ता सोमदेव भी मूलसंघ के मालूम नहीं होते हैं । परमार्थतः वे कोई यथार्थ मुनि भी नहीं थे। हमारे यहाँ मध्यकाल में ऐसे कुछ गृहत्यागी साधुओं का समुदाय हो चुका है, जो भट्टारक कहलाते थे। वे चादर ओढ़ते थे, पालकी छत्र चामरादि का उपयोग करते थे। कुवाँ, खेत आदि जागीरें रखते थे, मंत्रतंत्र चिकित्सा आदि करते थे, मठमंदिर में रहते थे और प्रतिष्ठा आदि कार्य करते थे। वे राजाओं की तरह श्रावक - गृहस्थों पर शासन करते हुये बड़े ठाठ-बाट से रहते थे । वे सब ठाठ-बाट उनके बाद उनके पट्टाधिकारी शिष्यों को मिलता था। इसलिये राज्यसिंहासन की तरह उनकी गद्दियों के भी उत्तराधिकारी बनते थे। इतना होते हुए भी ये भट्टारक अपने को मूलसंघी कहते हुये मुनि, यति, मुनींद्र, आचार्य आदि नामों से पुकारे जाते थे, क्योंकि इस पद को ग्रहण करते हुये प्रारम्भ में ये नग्नहोकर ही दीक्षा लेते थे। उपरांत हीन
आशा से उनको प्रभावित करना आदि चारित्र उनका भी था । ये साधु महर्षि कुंदकुंद की बताई हुई मुनिचर्या का पालन पूर्णरूप से नहीं करते हुये भी उनके अन्य सिद्धान्तों को प्रायः मान्यता देने से अपने को मूलसंघी ही कहते थे। ऐसे साधुओं ने मुनिचर्या के साथ-साथ श्रावकों की पूजापद्धति को भी विकृत किया है। जो पूजा-पद्धति अल्पसावद्यमय, वीतरागता की द्योतक और निरर्थक आडम्बरों से मुक्त होनी चाहिये थी, उसके स्थान पर इन्होंने उसे बहुसावद्यमय व सरागता की पोषक बनाकर उसमें व्यर्थ के आडम्बर भर दिये । दही, दूध घृतादि खाने के पदार्थों को स्नान के काम में लेना, मिट्टी गोबर राख से भगवान् की आरती करना, ये व्यर्थ आडंबर नहीं तो क्या हैं? जब से मंदिरों पर इन भट्टारकों के अधिकार हुए हैं, तभी से पूजापद्धति में ये आडंबर बढ़े हैं। इस प्रकार के विधान सोमदेव ने भी यशस्तिलक में लिखे हैं । अतः इन सोमदेव की गणना भी ऐसी ही नग्न भट्टारकों में की जा सकती है। इनको जैनमन्दिर की स्थिति बनाये रखने के लिए राजा अरिकेसरी ने एक ग्राम भी दान दिया था। इस दान के ताम्रपत्र की प्रतिलिपि पं. नाथूरामजी प्रेमीकृत " जैन साहित्य और इतिहास" नामक ग्रन्थ के पृ. १९३ पर छपी है। अगर ये सोमदेव शास्त्रोक्त जैनमुनि होते, तो न तो इनको ग्राम दान में दिया जाता और न ये उसे स्वीकार ही करते । तिलतुष मात्र का भी प्रसंग न रखनेवाले और अहर्निश ज्ञान-ध्यान-तप में लवलीन रहनेवाले दिगम्बर जैन ऋषियों को इस प्रकार के दानों से कोई प्रयोजन नहीं है। इन्हीं सोमदेव ने एक नीति- वाक्यामृत नामक ग्रन्थ भी बनाया है। वह ग्रन्थ संस्कृत - गद्यसूत्रों में रचा गया है। उसकी टीका में अनेक ब्राह्मणग्रन्थों के उद्धरण दिये गये हैं। जो बातें सूत्रों में कही गयी हैं, वे ही बातें टीका में दिये उद्धरणों में हैं। इससे सहज ही ज्ञात होता है कि सोमदेव ने यह ग्रन्थ ब्राह्मणग्रन्थों के
संहनन और तत्काल पंचों की आज्ञा की आड़ लेकर वस्त्रादि + धारणकर लेते थे। सुनते हैं कि आहार भी वे नग्न होकर ही
लेते थे। पीछी कमंडलु रखकर श्वेतांबर यतियों से अपनी भिन्नता व्यक्त करते थे। इनमें से कोई-कोई भट्टारक नग्न भी रहते थे। और नग्न रहकर भी पालकी आदि का उपयोग करते हुए दूसरे सब ठाठ उनके सवस्त्र भट्टारकों जैसे ही रहते थे। यह बात श्वेताम्बरों के साथ जो कुमुदचन्द्र का शास्त्रार्थ हुआ था, उससे प्रकट होती है। यह शास्त्रार्थ वि.सं. ११८१ में गुजरात के राजा सिद्धराज की सभा में श्वेताम्बर यति देवसूरि के साथ दिगम्बर भट्टारक कुमुदचन्द्र ने किया था। उस शास्त्रार्थ का हाल बताते हुए श्वेताम्बरों ने कुमुदचन्द्र के बाबत लिखा है कि 'वे पालकी पर बैठे थे, उनपर छत्र लगा हुआ था, और वे नग्न थे।' पहले इस प्रकार के भट्टारक नग्न ही रहते होंगे । वस्त्रधारण संभवतः बाद में चला हो। इसके भी पहले कुछ ऐसे मुनि भी विचरते थे जो वस्त्र, पालकी, छत्र, चामरादि का उपयोग तो अपने लिये नहीं 'औरस: क्षेत्रजो दत्तः कृत्रिमो गूढोत्पन्नोऽपविद्ध ऐते करते थे, किन्तु जागीरी रखना, मंत्र-तंत्र चिकित्सा करना, षट् पुत्रा दायादाः पिण्डदाश्च ॥ ४१ ॥ " प्रकीर्णक समुद्देश। मठ-मन्दिर में आराम से रहना और उनका प्रबन्ध करना, इसमें लिखा है कि औरस आदि ६ पुत्र पैत्रिक - धन राजसभाओं में जाना और राजाओं द्वारा सन्मान पाने की के और पिण्डदान के अधिकारी होते हैं। (यहाँ पिण्डदान
आधार पर बनाया है। जैनधर्म से इस ग्रन्थ का कोई सम्बन्ध नहीं है। इसे जैनग्रन्थ कहना ही नहीं चाहिए । इसीलिए इसकी टीका भी किसी अजैन विद्वान् ने की है। मूलग्रन्थ के कुछ नमूने देखिये
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पं. मिलापचन्द्र जी कटारिया
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वैदिक रीति को बताता है।)
| उनका बहुत प्रकार से धन खर्च होता रहता है। अतः साधुओं सवत्सां धेनुं प्रदक्षिणीकृत्य धर्मोपासनं यायात्॥७३॥ | को आहार देने में उन्हें सोच-विचार नहीं करना चाहिए।
"दिवसानुष्ठान समुद्देश" इस प्रकार सोमदेव ने आचारहीन मुनियों को मानने अर्थ - बछड़ेवाली गाय की परिक्रमा देकर धर्मोपासन | की प्रेरणा की है। सोमदेव के वक्त भी ऐसे सम्यग्दृष्टि श्रेष्ठ को जावे। (यहाँ गाय की पूज्यता बताई है।)
श्रावक थे, जो परीक्षा करके देव-शास्त्र-गुरुओं को मानते"यः खलु यथाविधि जानपदमाहारं संसारव्यवहारं च | पूजते थे, यहाँ तक कि शिथिलाचारी जैनमुनियों को आहारादि परित्यज्य सकलत्रोऽकलत्रो वा वने प्रतिष्ठते स | देने में भी संकोच करते थे। उन्हीं को लक्ष्य में रखकर वानप्रस्थः॥२२॥"
"विवाहसमुद्देश" | सोमदेव ने ऐसी बातें कही हैं। सोमदेव ने जो इस विषय में अर्थ - जो विधिपूर्वक ग्राम्य-भोजन और सांसारिक | दलीलें दी हैं, वे सब नि:सार हैं। प्रथम श्लोक में हेतु दिया है व्यवहार को त्यागकर स्त्रीसहित या स्त्रीरहित वन में रहता | कि 'जैसे पाषाणादि में अंकित जिनेन्द्र की आकृति पूजनीय है, वह वानप्रस्थ कहलाता है। वन में वहाँ वह ग्राम्य भोजन | है, उसी तरह वर्तमान के मुनियों की आकृति भी पूर्व मुनियोंको छोड जंगली फलफूल खाता है। (वानप्रस्थ का यह | जैसी होने से पूजनीय है' सोमदेव का ऐसा लिखना ठीक स्वरूप जैनशास्त्र-सम्मत नहीं है)
नहीं है, क्योंकि यहाँ जो दृष्टान्त दिया है वह विषम है। इस प्रकार के कथन एक मान्य जैनाचार्य की कलम पाषाणादि में अंकित जिनेन्द्र की आकृति की तरह पाषाणादि से लिखे जाने के योग्य नहीं हैं, क्योंकि सत्य-महाव्रत का | में अंकित मुनि की आकृति भी पूजनीय है-ऐसा लिखा जाता धारी जैनमुनि, जिसके लिये जैनशास्त्रों में अनुवीचिभाषण | तो दृष्टान्त बराबर बन जाता और वह ठीक माना जा सकता यानी सूत्रानुसार बोलने की आज्ञा दी है, वह इस प्रकार का
था. किन्त यहाँ अचेतन से चेतन की तुलना की गई है, सूत्रविरुद्ध वचन मुँह से भी नहीं बोल सकता है, तब ऐसी | इसलिये दृष्टान्त मिलता नहीं है। प्रत्युत उलटे यह कहा जा साहित्यिक रचना तो भला वह कर ही कैसे सकता है? यहाँ | सकता है कि जैसे सचेतन किसी पुरुष-विशेष को जिनेन्द्र यह बात ध्यान में रखने की है कि सोमदेव ने इस नीतिवाक्यामृत | की आकृति का बनाकर उसे पूजना अनुचित है, उसी तरह ग्रन्थ की प्रशस्ति में यशस्तिलक का उल्लेख किया है। | सचेतन पुरुषविशेष में केवल मुनि की आकृति देखकर इसलिए यशस्तिलक की रचना के बाद नीतिवाक्यामृत की | मुनि-जैसे उसमें गुण न हों, तब भी उसे पूजना अनुचित है। रचना हुई है। अत: सोमदेव की प्रामाणिकता जब | प्रथा भी ऐसी ही है कि जैनी लोग पार्श्वनाथ जी की मूर्ति को नीतिवाक्यामृत के निर्माण के वक्त ही नहीं रही, तो उसके | तो पूजेंगे, परन्तु किसी आदमी को पार्श्वनाथ मानकर नहीं पहिले यशस्तिलक के निर्माण के वक्त कैसे हो सकती है? | पूजेंगे। लोक में भी यह देखा जाता है कि किसी देश के राजा
सोमदेव ने आधुनिक मुनियों के बाबत जो उद्गार | की मूर्ति बनाकर सम्मान करे तो राजा उसपर खुश होता है, प्रकट किये हैं, वे भी विचारणीय हैं। वे लिखते हैं- | किन्तु किसी अन्य ही पुरुष को उस देश का राजा मानकर
यथा पूज्यं जिनेन्द्राणां रूपं लेपादिनिर्मितम्। उसका सम्मान करे तो वह राजा द्वारा दंडनीय होता है। इस तथा पूर्वमुनिच्छायाः पूज्याः संप्रति संयताः ॥१॥ तथ्य के विपरीत लिखकर सचमुच ही सोमदेव ने बड़ा भुक्तिमात्रप्रदाने हि का परीक्षा तपस्विनाम्। अनर्थ किया है। इन्हीं सोमदेव ने इसी ग्रन्थ के "शुद्धे वस्तुनि ते सन्तः संत्वसन्तो वा गृही दानेन शुद्ध्यति ।।२॥ | संकल्पः कन्याजन इवोचितः।" इस श्लोक ४८१ में कहा है सर्वारम्भप्रवृत्तानां गृहस्थानां धनव्ययः।
कि किसी शुद्ध वस्तु में परवस्तु का संकल्प होता है, जैसे बहधाऽस्ति ततोऽत्यर्थं न कर्तव्या विचारणा॥३॥
कन्या में पत्नी का संकल्प। इस सिद्धान्त के अनुसार वर्तमान अर्थ - जैसे लेप, पाषाणादि में बनाया हुआ अहँतों
के अशुद्ध मुनियों में पूर्व मुनियों का संकल्प भी नहीं हो का रूप पूज्य है, वैसे ही वर्तमान काल के मुनि भी पूजनीय
सकता है। इस तरह सोमदेव का कथन पूर्वापरविरुद्ध है। हैं (चाहे वे आचारभ्रष्ट ही हों), क्योंकि बाहर में उनका रूप
दूसरे श्लोक में सोमदेव ने कहा है कि “अच्छा हो भी वही है, जो प्राचीनकाल के मुनियों का था।
| या बुरा, कैसा भी साधु हो, गृहस्थ को तो दान देने से मतलब भोजन मात्र देने में तपस्वियों की क्या परीक्षा करनी?
है। दान का फल तो अच्छा ही लगेगा। गृहस्थ तो दान देने वे अच्छे हों या बरे. गहस्थ तो दान देने से शुद्ध हो जाता है।
मात्र से ही शुद्ध हो जाता है।" ऐसा लिखना भी ठीक नहीं गृहस्थ लोग अनेक आरम्भ करते रहते हैं, जिनमें
| है। अगर ऐसा ही हो, तो अन्य जैनशास्त्रों में सदसत् पात्र का 10 जून 2005 जिनभाषित
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विचार क्यों किया गया है? और क्यों कुपात्र को दान देने का निषेध किया है? अमितगति श्रावकाचार परिच्छेद १० में लिखा है कि
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जैसे कच्चे घड़े में जल का भरना बेकार है, उसी तरह कुपात्र को दान देना निष्फल है । ( श्लो. ५१ ) । जैसे सर्प को दूध पिलाना विष का उत्पादक है, उसी तरह कुपात्र को दान देना दोषों का उत्पादक है। (श्लो. ५३) । असंयमी को दान देकर पुण्य चाहना वैसा ही है जैसे जलती अग्नि में बीज डालकर धान्य होने की वांछा करना । ( श्लो. ५४ ) । कड़वी तुम्बी में रक्खे दूध की तरह कुपात्र को दिया दान किसी काम का नहीं रहता है। (श्लो. ५६) । लोहे की बनी नाव की तरह कुपात्रदानी संसार - समुद्र से नहीं तिर सकता है। (श्लो. ५७)। जो अविवेकी फल की इच्छा से कुपात्रों को दान देता है, वह मानों वन में चोरों के हाथों में धन देकर उनसे उस धन के पुनः मिलने की आशा करता है। (श्लो. ६०) । अपात्र-दान का फल पाप के सिवाय अन्य कुछ नहीं है। बालू (रेत) के पेलने से खेद के सिवा और क्या फल मिल सकता है? (११वां परिच्छेद श्लो. ९०) तत्त्वार्थ सूत्र में भी " विधिद्रव्यदातृ पात्रविशेषात्तद्विशेष:'' इस सूत्र में बताया है कि जैसा - जैसा द्रव्य, विधि, दाता और पात्र होगा वैसा-वैसा ही उसका फल मिलेगा ।
श्लो. ३ में सोमदेव ने लिखा है कि "यों भी गृहस्थ के अनेक खर्च होते रहते हैं, तब साधु को भोजन जिमाने में क्यों सोच विचार करना?" ऐसा लिखना भी योग्य नहीं है। साधारण आदमी को भोजन जिमाने और जैनमुनि को भोजन जिमाने में बड़ा अन्तर है। जैनमुनि को पूज्य गुरु मानकर जिमाया जाता है और जिमाने के पूर्व नवधा भक्ति की जाती है। इसलिये यहाँ सवाल आर्थिक खर्च का नहीं आता, पूज्य - अपूज्य का आता है। एक सम्यग्दृष्टि आचारहीन-मुनि की पूजा- वंदना कैसे कर सकता है? क्योंकि आचार्य कुंदकुंद स्वामी ने दर्शन पाहुड़ में ऐसा कहा है
वह मुनि भी वंदना - योग्य नहीं है, जो नग्नलिंग धारण करके सकल - संयम की विराधना करता है
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यहाँ पर आचार्य श्री कुंदकुंद ने शिथिलाचारी मुनियों की वंदना तक न करने का आदेश दिया है, तब एक सम्यग्दृष्टि ऐसे श्रमणाभासों की नवधा-भक्ति तो कर ही कैसे सकता है? नवधा-भक्ति में तो वंदना के साथ पूजा भी करनी होती है, और चरण धोकर उनका चरणोदक भी मस्तक पर चढ़ाना पड़ता है।
जहाँ सोमदेव ने "यथा पूज्यं जिनेन्द्राणां " श्लोक कहकर केवल मुनि के वेषमात्र को ही पूजनीय बताया है, वहाँ कुंदकुंद स्वामी ने उसका निषेध किया है। कुंदकुंद स्वामी का कहना है कि मुनिजन उसी हालत में पूजनीय हैं, जबकि वे मुनि के चारित्र का यथावत् पालन करते हों। इस तरह सोमदेव और कुंदकुंद स्वामी के उपदेश में बहुत बड़ा अन्तर है । सोमदेव ने तो जो नाम-निक्षेप से मुनि हो उसे भी मानने को कहा है।
काले कलौ चले चित्ते देहे चान्नादिकीटके । एतच्चित्रं यदद्यापि जिनरूपधरा नराः ॥ एको मुनिर्भवेल्लभ्यो, न लभ्यो वा यथागमम् । अर्थ - चित्त जहाँ चंचल रहता है और शरीर अन्न का कीड़ा बना हुआ है, ऐसे कलिकाल में आज जिनलिंग के धारी मुनियों का दिखाई देना आश्चर्य है । इस काल में शास्त्रोक्त चारित्र के धारी मुनि कोई एक हो तो हो, वर्ना नहीं ही हैं।
सोमदेव ने ऐसा लिखकर अपने समय में यथार्थ मुनियों को अलभ्य बताया है, इसलिये इस कलिकाल में जैसा भी जैनमुनि मिल जावे, उसी को मान लेना चाहिये, ऐसा आदेश दिया है। मतलब कि किसी देश में हंस नहीं हो तो काग को ही हंस मान लेना चाहिये ऐसा सोमदेव का कथन है ।
किन्तु इस काल में यथार्थ मुनियों का मिलना अलभ्य ही हो ऐसा भी सर्वथा नहीं है। सोमदेव के वक्त भी श्रेष्ठ मुनियों का
अस्संजदं ण वंदे वत्थविहीणो वि सो ण वंदिज्जो । दोणिव होंति समाणा एगोवि ण संजदो होदि ॥ २६ ॥ अर्थ - जो सकलसंयमी नहीं है, गृहस्थ है, उसकी वंदना न करें और जो वस्त्र त्यागकर नग्न-साधु बन गया है, परन्तु सकलसंयम का पालन नहीं करता है, वह भी वंदने योग्य नहीं है। दोनों ही, यानी गृहस्थ और मुनिवेषी, एक समान हैं। दोनों में से एक भी संयमी - महाव्रती नहीं है।
सद्भाव था । देवसेन ने वि.सं. ८९० में दर्शनसार ग्रंथ बनाया और सोमदेव ने वि.सं. १०१६ में यशस्तिलक बनाया। इससे देवसेन भी सोमदेव के समय में हुये हैं और इसी काल में गोम्मटसार के कर्ता नेमिचंद्र और उनके सहवर्ती वीरनंदि, इंद्रनंदि, कनकनंदि और माधवचंद्र हुये हैं । ये सब माननीय आचार्य सोमदेव के समय के लगभग ही हुये हैं। इतना ह भी सोमदेव ने जो उस वक्त के मुनियों के अस्तित्व में आश्चर्य प्रगट किया है और यथार्थ मुनियों को अलभ्य बताया है, उससे ऐसा झलकता है कि सोमदेव स्वयं यथार्थ
भावार्थ - गृहस्थ तो वैसे ही वंदनायोग्य नहीं है किन्तु मुनि नहीं थे और न उनमें इतना साहस था, जो वे यथार्थ मुनि
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बन सकें। इसीलिये उन्होंने ऐसा लिखा है सो ठीक ही है।। जिसकी चित्तवृत्ति अलंकृत हो गई, ऐसी वह देवी द्वीपान्तरों,
स्वर्गों और पर्वतों पर स्थित जिन- चैत्यालयों की वंदना में प्रवृत्त हुई।
जो जैसा होता है, वैसा ही बलबूते की प्ररूपणा करता है । यशस्तिलक में राजा यशोधर का चरित वर्णन करते हुये चंडमारी देवी के लिये अनेक पशु-युगल और मनुष्ययुगल को बलि चढ़ाने का वृत्तांत लिखा है। यह चंडमारी देवी कोई धातुपाषाण की बनी देवी की मूर्ति नहीं थीं, किन्तु देवलोक की कोई देवी थी । ऐसा यशस्तिलक चंपू उत्तरार्द्ध पृष्ठ ४१८ (निर्णयसागर प्रेस, बम्बई द्वारा प्रकाशित) के निम्न श्लोक से प्रगट होता है
रत्नद्वयेन समलंकृतचित्तवृत्तिः, सा देवतापि गणिनो महमारचय्य । द्वीपान्तर - नग - जातजिनेन्द्रसद्म, वंदारुताऽनुमतकाम-परायणाऽभूत् ॥ अर्थ - उस समय वह चण्डमारी देवी भी सुदत्ताचार्य गणी की पूजा करके रत्नद्वय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान) से
हींग की डिब्बी में केसर
आचार्य (विद्यासागरजी) महाराज ने पर्युषण पर्व के पहले आहारजी में एक छोटा-सा उदाहरण दिया थाएक व्यक्ति किसी के घर में मेहमान बन के गया। उनके यहाँ केसर का (केसरयुक्त) हलुवा बना था। वह उन (मेहमान) को बहुत अच्छा लगा। उन्होंने सोचा कि अपन भी अपने घर में ऐसा हलुवा बनायेंगे। उन्होंने ( मेजबान से ) पूछ लिया कि आपने हलुवा कैसे बनाया था? मेजबान ने बता दिया कि ये ये चीजें हमने मिलाई थीं और ऐसे बनाया था, इसमें केसर भी डाली थी इसलिए ये इतना स्वादिष्ट बना। ठीक है, मेहमान ने सोचा, अपन भी बनायेंगे। उन्होंने अपने घर में बनाया लेकिन कुछ मजा नहीं आया। अब क्या करें? कैसे करें ! सोचते रहे ।
वह तो
एक दिन वे (मेजबान) रास्ते में मिल गये तो उनसे पूछ लिया कि- 'आपके घर में जो केसर का हलुवा बना था बड़ा स्वादिष्ट था लेकिन हमने (अपने घर में) बनाया तो ढंग का ही नहीं बना। कभी हमारे यहाँ आइये तो बनाकर बता दीजिए। '
बोले - 'ठीक है, अभी चले चलते हैं, अभी देखते हैं कि आपने क्या डाला था? कैसे किया था?' देखा जाकर के, सब एकदम ठीक था। पूछा - 'केसर डाली थी ?"
'हाँ, बिल्कुल, वह बढ़ियावाली लाये थे, वही डाली थी । '
उन्होंने फिर पूछा - 'काहे में रखी थी केसर ?'
'काहे में रखी थी ! डिब्बी में रखी थी ।'
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दिगम्बर जैनागम के अनुसार देवलोक की कोई भी देवी मांस-मदिरा का सेवन नहीं करती। तब फिर उक्त चंडमारी देवी अपने लिये जीवों की बलि किस अर्थ चढ़वाती थी? ऐसा करने का उसका अन्य कारण क्या था जिसका स्पष्टीकरण सोमदेव ने कथा भर में कहीं भी क्यों नहीं किया? कथा पढ़नेवाले को तो यही प्रतिभासित होता है कि जैनधर्म में भी देवलोक की देवी मांस खाती है और तदर्थ जीवों की बलि चढ़वाती है।
'लाना जरा वह डिब्बी' - उन्होंने कहा । केसर जिस डिब्बी में रखी थी वह डिब्बी लाये। अब समझ में आ गया कि गड़बड़ कहाँ है? इस डिब्बी में पहले क्या रखा था? ' हींग ।' हाँ, ये बात तो आप सबको मालूम है कि वह केसर क्यों बिगड़ गई? क्योंकि उस डिब्बी में पहले बदबूदार हींग रखी थी।
यदि इन दस दिनों तक हम धर्म का श्रवण करेंगे और जिस डिब्बी में हम धर्म को रखेंगे वह डिब्बी पहले से ही कषायों की बदबू से भरी होगी तो धर्म का आनन्द नहीं आयेगा इतनी-सी बात अभी तक हमें समझ क्यों नहीं आई? चलो अभी तक नहीं आई तो कोई बात नहीं, आज आ गई हो अगर तो भी अपना काम चल जायेगा। हमें ऐसी ही तैयारी करनी चाहिए।
'गुरुवाणी' ( मुनिश्री क्षमासागर जी के प्रवचन) से साभार)
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इत्यादि बातों से सोमदेव मूलसंघ के ऋषि मालूम नहीं होते हैं। अत: उनका पंचामृताभिषेक लिखना माननेयोग्य नहीं है ।
'जैन निबन्ध रत्नावली' से साभार
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साधु-धर्म
हमारे मनीषियों ने अनगार और सागार दोनों धर्मों का विस्तार से विवेचन किया है । दोनों के कर्तव्यों पर प्रकाश डालनेवाले अनेकानेक ग्रंथ सुलभ हैं। दोनों में अनगार या यतिधर्म श्रेष्ठ है, यह भी निर्विवाद है । आचार्य श्री अमृतचन्द्रजी ने सर्वप्रथम उच्च वीतराग यतिधर्म का उपदेश करने का निर्देश दिया है, क्योंकि यही हमारी प्राचीन संस्कृति और परम्परा है । इस जिनाज्ञा के लोप करने को अपराध की संज्ञा दी गई है तथा पहले मुनिधर्म का उपदेश न देकर गृहस्थ-धर्म का कथन करनेवाले अल्पमति दीक्षाचार्य को दण्ड का पात्र बताया गया है । उनके शब्द हैं :
यो यतिधर्ममकथन्नुपदिशति गृहस्थधर्ममल्पमतिः । तस्य भगवत्प्रवचने प्रदर्शितं निग्रहस्थानम् ॥ जिन पुरुषों में सामर्थ्य है, उन्हें मुनि बनकर अपना आत्म-कल्याण करना चाहिए, किन्तु किसी कारण से, कर्मोदयवश या शक्तिहीनता से यदि कोई मुनि बनने का संकल्प नहीं जुटा पाता तो उसके लिए घर में रहकर व्रतों का पालन करना ही इष्ट है । व्रत-रहित जीवन प्रशंसनीय नहीं है ।
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हमारे मुनि निर्ग्रन्थ होते हैं । ग्रन्थि कहते हैं परिग्रह को । परिग्रह अंतरंग (राग-द्वेषादि) तथा बहिरंग (धनधान्य - वस्त्रादि) दो प्रकार का होता है । मुनि दोनों के त्यागी होते हैं । इसका आशय यह है कि मुनि के लिए अंतरंग और बहिरंग दोनों प्रकार की नग्नता आवश्यक है । आचार्य कुंदकुंदस्वामी ने इसी नग्नता को मोक्षमार्ग कहा है ।
यह पंचमकाल है । इसमें आचरणगत शिथिलतायें बढ़ रही हैं । चाहे श्रावक हो या मुनि, सभी अपने कर्तव्यपालन में प्रमादी होते जा रहे हैं । श्रावक की कमियों पर प्रायः लोगों की दृष्टि नहीं जाती, किन्तु साधुओं के शिथिलाचार की चर्चा जोर-शोर से होती है । शायद इसका कारण यही है कि साधु का जीवन एक शुभ्र स्वच्छ-निष्कलंक वस्त्र की तरह होता है । उस पर लगा हुआ जरा-सा भी दाग सबको दिखाई देता है। जिन्हें अपना आदर्श स्वीकार किया है, उन्हें सभी निर्दोष देखना चाहते हैं।
साधु का यह शिथिलाचार आखिर है क्या ? चरणानुयोग की दृष्टि से आज भी सभी साधु २८ मूलगुणों का पालन करते हैं । ये मूलगुण हैं- ५ महाव्रत, ५ समिति,
पं. नरेन्द्रप्रकाश जी जैन
स्नान दंतधोबन - त्याग, क्षिति-शयन, दिन में एक बार आहार और खड़े होकर अल्प भोजन लेना । ये सब मुनि की बाहरी पहिचान है । इसमें आज भी प्रायः सभी मुनि खरे उतरते हैं। दूसरी कसौटी करणानुयोग की है, जिसका सम्बन्ध आत्मा के भावों से रहता है । भाव बाहर नहीं दिखते, किन्तु साधक की बाह्य क्रियाओं को देखकर उनके बारे में अनुमान लगाया जाता है । कमी या शिथिलता भावों में ही हो सकती है ।
धवला में कहा गया है- परम-पय विमग्गया साहू अर्थात् सदाकाल परम पद का अन्वेषण करनेवाला साधु कहलाता है । अपनी आत्मा में स्थिरता के लिए प्रतिपल सजग रहना ही परम पद का अन्वेषण है । आचार्यों का आदेश है- आत्मज्ञानात्परं कार्य न बुद्धौ धारयेच्चिरम् अर्थात् साधु को आत्मज्ञान के अतिरिक्त अन्य किसी भी कार्य को विचार में नहीं लाना चाहिए । आत्मज्ञान से रहित नग्नतामात्र को साधुता नहीं कह सकते ।
आत्म-विशुद्धि के मार्ग से हटना ही साधु का प्रमाद या शिथिलाचार है । किसी भी मुनि को रागी गृहस्थों के कार्यों में कदापि नहीं पड़ना चाहिए । उनके लिए तो कृतकारित - अनुमोदना तीनों प्रकार से राग को छोड़ना ही अभीष्ट है, क्योंकि राग विषरूप है । मुनि-पद की उच्चता का कारण अशुद्धता यानी राग का त्याग ही बताया गया है । रागियों अथवा गृहस्थों के बीच रहकर यह असम्भव है । इसलिए आहार और प्रवचन के समय को छोड़कर सच्चे मुनि एकांत में ही निवास करते हैं ।
साधु के लिये उत्सर्ग-मार्ग तो चौबीस प्रकार के परिग्रहों का त्याग । आहार तथा वसतिका का आश्रय लेना भी साधु के लिए अपवाद-मार्ग है, किन्तु अपवादमार्ग में भी स्वेच्छाचारिता के लिए कोई स्थान नहीं है । आहार-विहार में भी साधु को चरणानुयोग के अनुसार प्रवृत्ति करनी होती है । जिन कार्यों की चरणानुयोग में आज्ञा नहीं है, उन सबकी गणना शिथिलाचार में होती है । चन्दे के द्रव्य से बननेवाले आहार को ग्रहण करना या सेठों के आवास पर ठहरना आदि साधु के लिए वर्जित है । अपवाद - मार्ग में पीछी- कमण्डलु रखना तो एक अपरिहार्य विवशता है, किन्तु टेप रिकार्डर या कैसिट रखने की तो जिनाज्ञा नहीं है ।
मुनि होकर विपरीत आचरण करना अक्षम्य अपराध
५ इन्द्रियों की विजय, ६ आवश्यक तथा नग्नत्व, केशलुंचन, है। झूठी प्रशंसा या वाहवाही के चक्कर में पड़कर भीड़
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जुटाना साधु-मार्ग नहीं है । मन्त्र-तन्त्र के व्यामोह में पड़ना
भोचेतः किमुजीव, तिष्ठसिकथं, चिन्तास्थितं, साकुतः। भी साधु के लिये उचित नहीं । जब धर्म पर कोई संकट
रागद्वेषवशात्तयोः, परिचयः कस्माच्च जातस्तवः।। उपस्थित हो जाये, तब की बात अलग है । आचार्य श्री
इष्टानिष्ट समागमादिति यदि श्वभ्रं तदा वां गतौ। शांतिसागरजी महाराज कभी किसी को धन की वृद्धि, पुत्र- ... नोचेन मुन्चसमस्त मेतद चिरादिष्टादि संकल्पन्॥ लाभ, शत्रु पर विजय-प्राप्ति आदि के लिए मन्त्र नहीं बताते
यहाँ आचार्य महाराज कह रहे हैं कि राग-द्वेष करने थे। वह कभी किसी व्यापारी के मिल, कारखाने, गोदाम या | से चित्त व्याकुल होता है तथा उसके जन्म के पीछे इष्टानिष्ट दुकान में कमण्डलु का जल छिड़कने नहीं गये । अधिक
की कल्पना रहती है । अतः साधु को किसी व्यक्ति या तो क्या, अपने स्वयं के स्वास्थ्य के लाभार्थ भी उन्होंने कभी | पदार्थ के प्रति इष्ट या अनिष्ट की कल्पना से बचना चाहिये । मन्त्रजाप नहीं किया । आगम में तो आहारदाता को भी मन्त्र | स्व के प्रति रुचि और पर के प्रति अलिप्तता ही इसके लिए बताना मन्त्रोपजीवी नामक दोष कहा गया है ।
एकमात्र उपाय है। यहाँ हमारा यह स्पष्ट मत है कि शिथिलाचार ____ लोकेषणा या ख्याति-लाभ की चाह से साधु को
के बारे में साधुगण स्वहित की दृष्टि से स्वयं विचार करें । सदा दूर रहना चाहिए । यह भी अंतरंग परिग्रह है । वाह्य
हम श्रावकों के लिये तो सभी साधु सदा वंदनीय हैं । आरम्भ और परिग्रह का त्याग होते हुए भी यदि अंतरंग
योगसार में कहा भी है- द्रव्यतो यो निवृत्तोस्ति स पूज्यो परिग्रह से साधु मुक्त नहीं है तो उससे उसमें मलोत्पत्ति हो
व्यवहारिभिः। श्रावक का सम्यग्दर्शन उसकी श्रद्धा पर जाती है।
अवलम्बित है, बाहरी क्रियाओं पर नहीं । साधु का शिथिलाचार साधु के आत्मनिष्ठ व्यवहार एवं निर्दोष आचरण से
साधु के लिए ही अहितकर है, श्रावक के लिए नहीं । समाज प्रभावित होता है, किन्तु जब कोई साधु परिग्रह या
श्रावक तो यदि स्थापना-निक्षेप से भी उनकी पूजा-वंदना वाह्य आडम्बरों में गहरी रुचि लेने लगता है तो मानसिक
करता है तो भी उसका कल्याण ही होता है । विकारों से स्वयं को बचा पाना उसके लिये भी कठिन हो
हम तो बस एक बात जानते हैं कि शुभ-राग के कार्य जाता है। अपनी रुचि के अनुकल कार्य न होने पर उसे | करते हुए भी साधु के मन में भीतर से उनके प्रति अरुचि झुंझलाहट आती है और जो है, उनके प्रति वह समता नहीं
अवश्य होनी चाहिए । प्रवचनसार में यद्यपि 'शुभोपयोगस्य रख पाता । अनुकुल के प्रति राग और प्रतिकूल के प्रति द्वेष |
धर्मेण सहकार्थसमवायः' ऐसा कहा गया है, तथापि उसे बेकार ही समता-भाव से स्खलन का कारण है और इसके पीछे | समझकर करने पर भी जगह-जगह जोर दिया गया है। सांसारिक कार्यों के प्रति अत्यधिक लगाव ही है । अपने
इतना मात्र ध्यान में रहे तो आत्मलीनता में कभी कोई बाधा मन को आत्मा में स्थिर रखने के लिये साधु निरन्तर यह
नहीं आ सकती। चिन्तन करता रहता है
'चिन्तनप्रवाह' से आभार
जिनमन्दिर शिखर-शिलान्यास एवं सम्यग्ज्ञान शिक्षणशिविर सम्पन्न
दिनांक १०.४.२००५ को श्री दिगम्बर जैन मन्दिर जैनभवन पाण्डिचेरी में शिखरशिलान्यास का आयोजन वाणीभूषण प्रतिष्ठाचार्य श्री ब्र. जिनेश जी गुरुकुल मढ़िया जी जबलपुर के सान्निध्य में हर्षोल्लासपूर्वक सम्पन्न हुआ एवं दिनांक १५.४.२००५ से २५.४.२००५ तक श्री श्रमणसंस्कति संस्थान सांगानेर के तत्वावधान में श्री प्रकाशचन्दजी पहाडिया एवं तिलकपहाड़िया तथा ब्र. भरत जी के सानिध्य में शिक्षणशिविर का आयोजन किया गया। शिविर में बालबोध, पूजाओं का अर्थ तथा भक्तामर स्तोत्र का अर्थ सिखाया गया। शताधिक बालक, स्त्री, पुरुष एवं श्वेताम्बर भाइयों ने भाग लेकर जैनधर्म की शिक्षा प्राप्त की।
समापन दिवस पर श्री मेघराज जी कोठारी, श्री सोहनलाल जी जैन ने शिविर शिक्षा पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालते हये बताया, 'इसप्रकार शिविर आयोजन के समय समस्त जैनसमाज को एक होकर शिक्षा प्राप्त कर, जैनधर्म की प्रभावना करना ही, धर्म की महती प्रभावना है।'
सोहन पहाड़िया, पाण्डिचेरी
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सिद्धचक्रविधान : प्रयोजन एवं फल
पं. कपूरचन्द बरैया जैन-धर्म में कर्मों का विशद् वर्णन है। सामान्य से । नंदीश्वर है, जिसकी चारों दिशाओं में ५२ अकृत्रिम जिनालय कर्मों का तीन तरह से विभाजन किया गया है- (१) द्रव्य | हैं, जो अत्यंत भव्य, मनमोहक और बहुत विस्तारवाले हैं। कर्म, (२) भाव कर्म और (३) नोकर्म। द्रव्यकर्म पौद्गलिक एक-एक दिशा में १३-१३ जिनालय हैं। १३ जिनालयों की हैं, भावकर्म चेतनाश्रित राग-द्वेष मोहादि हैं तथा नोकर्म शरीरादि | संख्या इस प्रकार से है-एक अंजनगिरी, चार दधिमुख और हैं। द्रव्यकर्म भी आठ प्रकार हैं- चार घातिया और चार | आठ रतिकार हैं, जिनपर जिनालय बने हैं। इस प्रकार चारों अघातिया हैं। जो जीव के अनुजीवी गुणों को घाते वे घातियाँ दिशाओं में कुल संख्या ५२ (१३ x ४) हो जाती है। इन कर्म हैं, प्रतिजीवी गुणों की घात करनेवाले अघातिया हैं। जो जिनालयों में जो जिन-बिम्ब प्रतिष्ठित हैं, वे रत्नमयी हैं, ग्रहस्थपना त्यागकर मुनिधर्म अंगीकार करके निजस्वभाव- पद्मासन में ५००-५०० धनुषाकार हैं। (एक धनुष चार हाथ साधन द्वारा चार घातिया कर्मों का क्षय कर देते हैं, वे अहंत प्रमाण)। कान्ति चंद्र-सूर्य के तेज को भी लजानेवाली है, कहलाते हैं और कुछ काल पीछे जब चार अघातिया कर्मों | जो भव्यजीवों के वैराग्योत्पत्ति में निमित्तभूत है। उनके का भी विध्वंश हो जाता है, तब इस शरीर को भी छोड़कर | रुचिपूर्वक दर्शन करने से सम्यग्दर्शन तक प्राप्त हो जाए-ऐसी अपने उर्ध्वगमन-स्वभाव के कारण लोक के अग्रभाग में | विचित्र महिमा को धारण किये हुये हैं। चूँकि ढ़ाई द्वीप तक जाकर विराजमान हो जाते हैं, यह सिद्ध-अवस्था है। दोनों ही | ही मनुष्य जा सकते हैं, आगे नहीं, इस कारण यह सौभाग्य परमात्मा हैं। अन्तर केवल शरीर का है। शरीर-सहित होने | उन्हें नहीं मिल पाता। वहाँ तक पहुँचने की शक्ति तो इन्द्र के कारण अहँत को सकल-परमात्मा संज्ञा है और यही | और देवों में ही है, अत: उनके दर्शन कर वे ही अपना जन्म जीवनमुक्त अवस्था है। शरीर-रहित होने पर वे सदा निराकुल, | सफल करते हैं। मनुष्य तो केवल परोक्षरूप में भावना भाकर आनन्दमय, शुद्ध-स्वभाव को प्राप्त, निकल-परमात्मा हैं, | पुण्य कर्मों का सम्पादन करते हैं। जिनके ध्यान द्वारा अन्य भव्य जीवों को भी उनके समान
अष्टाह्निका पर्व आठ दिन का होता है, यह सिद्धचक्रबनने की प्रेरणा मिलती है- ऐसे अहँत व सिद्ध ही हमारे
| विधान भी आठ दिन का है, इसलिये प्रत्येक दिन एक पूजा उपास्य-देव हैं।
करके इस विधान की समाप्ति की जाती है। पहले दिन आठ चक्र कहते हैं समूह को । जैन-धर्म के अनुसार | अर्ध्य से प्रारम्भ करते हैं, आगे के दिनों में दूने-दूने करते हुए सिद्ध एक नहीं, अनन्त हैं। जो उक्त विधि से अपने समस्त | अंतिम आठवें दिन १०२४ अर्घ्य चढ़ाते हैं। इस विधान की कर्मों का नाश कर देते हैं, वही सिद्ध हैं और ऐसे सर्व सिद्धों | महिमा है कि इसमें सभी मुख्य विधान गर्भित हैं; जैसे कर्मदहन के समूह का नाम सिद्धचक्र है। उसका यह मण्डल-विधान | विधान. चौसठ-ऋद्धि विधान, पंच-परमेष्ठी विधान, सहस्रनाम
आदि। एक यह विधान ही ऐसा है जिसको भाव से करलेने इसमें जितने भी सिद्ध हुए हैं उन सबका गुणानुवाद | पर प्रायः उन सभी का फल मिल जाता है, जिनका इसमें है। वैसे तो इस मण्डल-विधान को चाहे जब रचाया जा | वर्णन है। इसी कारण मन्दिरों में लोग बड़ी श्रद्धा से इसमें सकता है, कोई काल का बंधन नहीं है, किन्तु अष्टाह्निका | रुचि लेते हैं और अपने को कृतकृत्य अनुभव करते हैं। महापर्व में ही अधिकतर इसकी विशेष प्रसिद्धि देखी जाती यों तो इस विधान को विशुद्ध भावों से करने का ही है। यह महा-पर्व आठ दिन का होता है, जिसे लोग संक्षेप में | प्रावधान है, किन्तु बहत से प्राणी लौकिक कामनाओं के अठाई भी कहते हैं। यह वर्ष में तीन बार आता है। वशीभूत होकर पाठ करते हुए देखे जाते हैं। उनकी यह
कार्तिक फागुन साढ़ के, अंत आठ दिन माहिं। धारणा रहती है कि इससे हमें सर्व प्रकार की लौकिक सिद्धि नंदीश्वर सुर जात हैं, हम पू0 इह ठाहिं॥ मिल जाती है, जैसे 'श्रीपाल चरित्र' में मैनासुन्दरी ने इन्हीं
दिनों यह विधान रचकर उसके गंधोदक से अपने पति कार्तिक, फाल्गुन और आषाढ़ मास के अंतिम आठ | दिनों में नंदीश्वर द्वीप की पूजा की जाती है। लोक की रचना |
श्रीपाल का कुष्ट रोग दूर किया था। यह उदाहरण देते हुए वे से विदित होता है कि इस मध्यलोक के आठवें द्रीप का नाम | भूल जाते हैं कि मैनाकुमारी तो सती थी, जैनधर्म में अटट
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विश्वास रखनेवाली विदुषी महिला थी। उसने इस अभिप्राय । गृहस्थावस्था में उनकी काया इतनी भव्य और आकर्षक थी
कि उसकी चर्चा स्वयं इन्द्र ने की थी, लेकिन मुनि अवस्था धारण करते ही वे भयंकर कुष्ट रोग से ग्रसित हो गए। वे महाज्ञानी, धीर-वीर, संयमी महापुरुष थे, उन्हें यह ध्यान नहीं था कि उनके शरीर में यह वेदना व्याप्त है। वे तो आत्मा के ध्यान में मस्त थे। एक दिन देवलोक में इन्द्र ने सनत्कुमार मुनि की प्रशंसा की, कि उनके समान धीरवीर संयमी मुनि इस भूलोक में दूसरा नहीं। इसपर एक देव ने उनकी परीक्षा लेने का विचार किया। उसने एक वैद्य का रूप धारण किया और मुनि के पास आकर यह आवाज देता हुआ चक्कर काटने लगा कि मैं सभी रोगों की दवा जानता हूँ, जिसको इलाज कराना हो वह करा ले।
से मण्डल -विधान की पूजा थोड़े ही की थी, बल्कि अत्यन्त विशुद्ध भावों से पति के साथ सिद्धों का गुणानुवाद गाया था। यह तो श्रीपाल के पुण्योदय का फल था कि इधर तो उस सती के द्वारा गंधोदक का देना और उधर उसके पति श्रीपाल काकुष्ट रोग का मिटना एकसाथ बन गया। इससे लोगों में यह बात घर करगई कि मैना ने गंधोदक के प्रभाव से पति का कुष्ट निवारण किया।
वास्तव में कामनाओं की पूर्ति तो व्यक्ति के सातावेदनीय कर्म के उदय से होती है, इसमें सिद्धों का स्तवन / पूजन निमित्त मात्र है । यदि उसकी पहले से ही लौकिक अनुकूलताओं के लक्ष्य से भक्तिभाव में प्रवृत्ति है, तो धर्मभाग कहाँ रहा? यह तो एक प्रकार से कषायों का पोषण - मात्र हुआ। यदि तीव्र कषाय हो गई, तो उससे पापबन्ध ही होगा। पंडित टोडरमलजी "मोक्षमार्ग प्रकाशक" में लिखते हैं कि " अपने को इस प्रयोजन का अर्थी होना योग्य नहीं है । अरहन्तादिक की भक्ति करने से ऐसे प्रयोजन तो स्वयमेव सिद्ध होते हैं। "
साधक का भाव बड़ा पवित्र होता है । उसका लक्ष्य तो वीतरागता की प्राप्ति है। चूँकि सिद्ध-भगवान वीतरागविज्ञानमय हैं, इसलिये वह किसी लौकिक लाभ की अपेक्षा नहीं रखता। पुण्य और पुण्यफल में भी उसकी रुचि नहीं है । इसलिए इस विधान के माध्यम से तो एकमात्र वीतरागभाव की वृद्धि करने का ही प्रयत्न होना चाहिए ।
दूसरे, यह शरीर का रोग तो क्या, परमात्मा की भक्ति तो वह बल है जो आत्मा में लगे मोह, राग, द्वेषरूप रोगों को भी समाप्त कर दे। लोग शरीर के रोगों को मिटाना चाहते हैं, आत्मा के रोग मिटाने की उन्हें चिन्ता नहीं है। शरीर तो पौद्गलिक है, जड़ - परमाणुओं का पुञ्ज है, इसका उपचार तो औषधादि द्वारा किया जा सकता है। बड़ी बात तो आत्मा में लगा यह कर्ममल का रोग है, जिसके कारण यह जीव बार-बार जन्म-मरण के दुःख उठाता है। उसका एक बार नाश हो जाय तो वह शरीर ही कभी न धारण करना पड़े, इसमें लगे रोगों को नष्ट करने की बात तो बहुत दूर की है। 'मूलो नास्ति, कुतो शाखा' - जिसका बीज जल जाए, उस वृक्ष के ज्यादा टिकने की चिन्ता नहीं करना चाहिए। सिद्धचक्रमण्डल की महानता इसी में है कि वह हमारा ध्यान इस तथ्य की ओर आकर्षित करता है ।
पुराणों में सनत्कुमार चक्रवर्ती की कथा आती है। 16 जून 2005 जिनभाषित
जब मुनि ध्यान से निवृत्त हुए तो अपने सामने एक वैद्य को खड़ा पाया। वैद्य ने तत्काल नमन करते हुए कहामुनिश्रेष्ठ ! इस रोग को दूर करने में क्या रखा है ? मैं इस रोग को दूर सकता हूँ।' मुनि बोले- 'यह शरीर तो व्याधि का मन्दिर हैं, मुझे इसकी चिन्ता नहीं। यदि आपके पास कोई ऐसी जड़ी-बूटी हो जो आत्मा के रोग को दूर कर दे, तो मैं इलाज कराने को तैयार हूँ। मेरा रोग जन्म-मरण का है। क्या इसकी दवा तुम्हारे पास है ? '
वैद्य तो हक्का-बक्का रह गया। अपना वास्तविक रूप प्रकट कर क्षमायाचना करने लगा-देव ! वह औषधि तो केवल आपके पास ही है। हम तो देवलोकवासी हैं । इन्द्र ने जैसी आपकी प्रशंसा की, उससे कहीं अधिक आपको पाया। धृष्टता हुई, जो मैंने आपकी इस प्रकार परीक्षा लेने का भाव किया । नमस्कार करता हुआ वह देव अपने स्थान चला
गया।
मोह, राग, द्वेषादि विकारी भाव ही असली रोग है, जिन्हें मिटाने के लिए प्रभु के मन्दिर में आया जाता है, अन्य कोई प्रयोजन नहीं है। वास्तव में आत्मावलोकन द्वारा हमें अपने भावों की स्थिति का अध्ययन करना चाहिए । इसीलिए कुंदकुंद स्वामी सर्व सिद्धों को भावपूर्वक नमन करके प्रथम उन्हें अपने हृदय में स्थान देते हैं और सर्व प्राणियों को यही सलाह देते हैं कि तुम भी उन्हें हृदय-मंदिर में विराजमान करो । सिद्धों की स्तुति-वन्दना सिद्ध होने में कारण है । व्यवहार से वे सिद्ध हैं, जो सिद्धालय में विराजमान हैं। निश्चय से स्वयं आत्मा ही परमात्मा है, क्योंकि सिद्ध होने की शक्ति उसी में है । उसी के आश्रय से सिद्धत्व व्यक्त होता है। सिद्ध-परमेष्ठी का स्तवन - वन्दन शुभभाव है, पर शुद्धोपयोग
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की दशा तो एकमात्र अपनी शुद्धात्मा के अतिरिक्त और कैसे हो सकता है? चूँकि वस्तुरूप में यह आत्मा पवित्र है, कहीं उपलब्ध नहीं, यह ध्रुव सत्य है ।
निरंजन निर्विकार है, और उसका वास इस शरीर में है, इसलिए इस काया को भी मन्दिर होना चाहिए। वास्तव में परमात्मा का निवास पवित्र हृदय में ही होता है। यदि हम अन्याय करते हैं, अभक्ष्य भक्षण करते हैं, पर - पदार्थों में मूर्च्छा-भाव रखते हैं, तो उसमें पवित्रात्मा का वास कैसे हो सकता है? जैसे एक म्यान में दो तलवारें नहीं आ सकती, वैसे ही काम और राम का एक स्थान पर वास नहीं हो सकता । अतः आवश्यकता इस बात की है कि समस्त पापाचार को छोड़कर हमें हृदय को इतना पवित्र बना लेना चाहिए जिसमें परमात्मा ठहर सकें, तभी हमारा सिद्धस्मरण देखना चाहिए कि समता का दर्शन हमारे जीवन में हो रहा है स्तुत्य कहलाने योग्य है । अपने कर्तव्य निभाते हुये हमें यह
या नहीं। 'समता' धर्म का निकष है। अतः, मोह-क्षोभ से विहीन इस परम - समरसी आत्मा में डुबकी लगाकर उस आनन्दामृत को प्राप्तकर अपने को धन्य बना लेना चाहिए, जो इस विधान का चरम लक्ष्य है।
'वात्सल्य रत्नाकर' (तृतीय खण्ड) से साभार
वे कार्य - परमात्मा हैं, तो यह आत्मा कारण- परमात्मा है । सिद्ध हमारे लिए आदर्श तो हो सकते हैं, पर उपादेय नहीं । उपादेय तो केवल अपनी आत्मा है। पं. टोडरमल जी ने लिखा है- ‘जिनके ध्यान द्वारा भव्य जीवों को स्वद्रव्य व परद्रव्य का और औपाधिक-भाव स्वभाव - भावों का विज्ञान होता है, जिसके द्वारा उन सिद्धों के समान हुआ जाता है। इसलिए साधने-योग्य जो अपना शुद्ध स्वरूप है, उसे दर्शाने को प्रतिबिम्ब माना है ।'
बिम्ब का ही प्रतिबिम्ब होता है। सिद्धों ने यह सिद्धदशा प्रकट की तो निजात्मा का आश्रय लेकर, इसलिए उनकी छवि यही दर्शाने में निमित्त है कि हमें भी एकमात्र निजाराधना द्वारा अपने में वह परमपवित्र दशा प्रकट कर लेना चाहिए।
यह शरीर पवित्रात्मा का मन्दिर है। वैसे शरीर कभी पवित्र नहीं होता, चाहे उसे कितना ही गंगास्नान कराओ। जिसकी उत्पत्ति ही अपवित्र वस्तुओं से हुई हो, वह पवित्र
दीपक और तलवार
भरत चक्रवर्ती के पास एक बार एक जिज्ञासु पहुँचा। उसे इस बात में संदेह था कि भरत चक्रवर्ती हैं, ९६ हजार रानियाँ हैं, फिर भी इतना बड़ा तत्त्वज्ञ और सम्यग्दृष्टि कैसे? वह चक्रवर्ती के पास पहुँचा और कहा कि "प्रभु ! मैं आपके जीवन का रहस्य जानना चाहता हूँ। मैं एक से परेशान हूँ आप ९६ हजार को कैसे संभालते हैं? फिर भी निस्पृह और अनासक्त कैसे बने हो ? चक्रवर्ती ने सुना और कहा तुम्हारी बात का जबाब मैं बाद में दूँगा, पहले एक काम करो मेरे रनिवास में घूम आओ और देखो वहाँ क्या-क्या है। एक बार देख लो फिर मैं बताऊंगा कि मेरे जीवन का रहस्य क्या है । वह बड़ा प्रसन्न हुआ कि आज चक्रवर्ती के रनिवास में घूमने का मौका मिलने वाला । जैसे ही वह जाने को हुआ तो चक्रवर्ती ने कहा सुनो ऐसे नहीं, उसके हाथ में एक दीप पकड़वाया गया। और कहा इस दीपक के प्रकाश में तुम्हें पूरे रनिवास का चक्कर लगाकर आना है, पर एक शर्त है, ये चार तलवारधारी तुम्हारे चारों ओर हैं। रास्ते में न तो दीपक बुझना चाहिए, न ही एक बूँद तेल गिरना चाहिए। यदि दीपक बुझा तो तुम्हारे जीवन का दीपक बुझ जायेगा और तेल गिरा तो तुम्हारी गर्दन भी नीचे गिर जायेगी। उसने सोचा फँस गये अब तो । बड़ी गड़बड़ी है। पर क्या किया जाए चक्रवर्ती के साथ उलझा था और कोई मार्ग नहीं था। बड़ी सावधानी के साथ वह पूरे रनिवास का चक्कर लगाकर आया और जैसे ही चक्रवर्ती के पास पहुँचा, इससे पहले कि वह कुछ कहे, चक्रवर्ती ने पूछा बताओ तुमने क्या-क्या देखा? उसने कहा महाराज तलवार और दीपक के अलावा और कुछ नहीं देखा। तो चक्रवर्ती ने कहा कि "यही है मेरे जीवन का रहस्य । तुम्हें ये भोग और विलास दिखते हैं मुझे अपनी मौत की तलवार दिखती है ।" यदि मौत की तलवार देखते रहोगे तो जीवन में कभी अनर्थ घटित नहीं होगा। हर व्यक्ति को ऐसी प्रतीति करना चाहिए, हर व्यक्ति को अपने अंदर ऐसा विवेक जागृत करना चाहिए, ऐसा बोध हमारे अंदर प्रकट होता है तभी पाप से अपने आप छुटकारा मिल सकता है।
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'दिव्य जीवन का द्वार' (मुनिश्री प्रमाणसागरजी) से साभार)
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कर्मास्रव का हेतु : योग या उपयोग?
प्रो. रतनचन्द्र जैन तत्त्वार्थसूत्रकार गृध्रपिच्छाचार्य जी ने 'कायवाड्मनः । परिणामात्मक। ब्रह्मदेव सूरि ने इनका प्ररूपण निम्नलिखित कर्म योगः' (६/१)इस सूत्र में काय, वचन और मन की | वाक्यों में किया है - क्रिया के निमित्त से होनेवाले आत्मप्रदेशों के परिस्पन्द | "किञ्च ज्ञानदर्शनोपयोगविवक्षायामुपयोगशब्देन (संकोच-विकोच) को योग कहा है। उससे आत्मा
|विवक्षितार्थपरिच्छित्तिलक्षणोऽर्थग्रहणव्यापारो गृह्यते । ज्ञानावरणादि कर्म बनने योग्य पदगलस्कन्धों को ग्रहण करता
शुभाशुभशुद्धोपयोगत्रयविवक्षायां पुनरुपयोगशब्देन
शुभाशुभशुद्धभावनैक रूपमनुष्ठानं ज्ञातव्यमिति" है। इसलिए कर्मों के आस्रव (आने) का कारण होने से योग
(बृहद्रव्यसंग्रहटीका, गा. ६) को उपचार से आस्रव कहा गया है। अर्थात् योग यथार्थतः
अर्थ - जब 'उपयोग' शब्द से ज्ञानोपयोग और आस्रव (कर्मस्कन्धों के आत्मा में प्रवेश) का हेतु है।
| दर्शनोपयोग अर्थ लिया जाय, तब उसका अर्थ होता है किन्तु तत्त्वार्थसूत्रकार ने 'मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादक
अर्थग्रहण-व्यापार अर्थात् वस्तुविशेष को जानने की क्रिया । षाययोगा बन्धहेतवः' (त.सू. ८/१) सूत्र में मिथ्यादर्शन,
| तथा जब वह शुभ, अशुभ और शुद्ध उपयोग के अर्थ में अविरति (असंयम), प्रमाद, कषाय और योग, इन पाँच
प्रयुक्त हो, तब उससे शुभभावरूप-परिणमन, अशुभभावरूपप्रत्ययों को भी आस्रव के हेतु बतलाया है। आस्रव के बिना
परिणमन और शुद्धभावरूप-परिणमन अर्थ ग्रहण किया जाना बन्ध नहीं होता, इसलिए आस्रव के हेतुओं को भी बन्धहेतु
चाहिए। कहा गया है। मिथ्यात्वादि आस्रव के हेत हैं, यह पूज्यपाद
अर्थग्रहणव्यापाररूप उपयोग केवली भगवान् में भी स्वामी के निम्नलिखित वचन से स्पष्ट होता है : "तत्र
| होता है, किन्तु शुभाशुभशुद्ध-परिणामात्मक उपयोग छद्मस्थों मिथ्यादर्शनप्राधान्येन यत्कर्म आस्रवति तन्निरोधाच्छेषे
| में ही पाया जाता है । आचार्य जयसेन ने कहा है कि पहले से सासादनसम्यग्दृष्ट्यादौ तत्संवरो भवति" (स०सि०९/१)।
| तीसरे गुणस्थान तक क्रमशः घटता हुआ अशुभोपयोग होता अब प्रश्न उठता है कि 'योग' आस्रव का हेतु है या
| है, चौथे से छठे गुणस्थान तक क्रमशः बढ़ता हुआ शुभोपयोग मिथ्यादर्शनादि ? इसका समाधान तत्त्वार्थवृत्तिकार श्रुतसागर |
| होता है, सातवें से बारहवें गुणस्थान तक क्रमशः बढ़ता हुआ सूरि ने इन शब्दों में किया है -
शुद्धोपयोग होता है और तेरहवें तथा चौदहवें गुणस्थानों में "मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः"
| शुद्धोपयोग के घातिकर्मचतुष्टय-क्षयरूप फल की उपलब्धि इति य उक्त आस्त्रवः स सर्वोऽपि त्रिविधयोगेऽन्तर्भवतीति
होती है। वेदितव्यम्। (तत्त्वार्थवृत्ति ६/२)
शुभ, अशुभ और शुद्ध परिणाम तथा शुभ, अशुभ अर्थ-'मिथ्यादर्शनादि 'सूत्र में जिन मिथ्यादर्शन आदि |
और शुद्ध उपयोग समानार्थी हैं। यह आचार्य जयसेन के को आस्रव-हेतु कहा गया है, वे सभी काययोग, वचनयोग
निम्नलिखित वचनों से ज्ञात होता हैऔर मनोयोग, इन तीन योगों में समाविष्ट हो जाते हैं।
"किं च जीवस्यासंख्येय लोकमात्रपरिणामाः सिद्धान्ते अर्थात् मोहोदययुक्त जीवों में मिथ्यादर्शनादि से सम्पृक्त
मध्यम-प्रतिपत्त्या मिथ्यादृष्ट्यादिचतुर्दशगुणस्थानरूपेण योग आस्रव का हेतु है और उपशान्तमोह एवं क्षीणमोह जीवों
कथितः। अत्र प्राभृतशास्त्रे तान्येव गुणस्थानानि संक्षेपेण में मिथ्यादर्शनादि से रहित योग आस्रव का कारण है ।।
शुभाशुभशुद्धोपयोगरूपेण कथितानि" (ता.व./प्र.सा./गा. १/९)। आचार्य जयसेन ने मिथ्यादर्शनादि परिणामों को
अर्थ - जीव के असंख्यात लोकमात्र परिणाम होते अशुभोपयोग कहा है : "मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोग
| हैं। सिद्धान्त-ग्रन्थों में मध्यमदष्टि से उन्हें मिथ्यादृष्टि आदि पञ्चप्रत्ययरूपाशुभोपयोगेनाशुभो विज्ञेयः" (तात्पर्यवृत्ति/
चौदह गुणस्थानों के रूप में वर्णित किया गया है । इस प्रवचनसार, गाथा १/९)। इस अशुभोपयोग से युक्त योग भी
प्राभृतशास्त्र में वे ही गुणस्थान संक्षेप में शुभ, अशुभ और अशुभयोग हो जाता है ।
शद्ध उपयोग के रूप में प्ररूपित किये गये हैं । द्विविध उपयोग : ज्ञानात्मक, आचारणात्मक
शुभाशुभोपयोग से योग का शुभाशुभत्व उपयोग दो प्रकार का है: ज्ञानात्मक एवं आचरणात्मक
शुभ और अशुभ उपयोग के निमित्त से योग शुभ अथवा अर्थग्रहणव्यापारात्मक एवं शुभाशुभशुद्ध- | 18 जून 2005 जिनभाषित
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और अशुभ होता है, जैसा कि पूज्यपाद स्वामी ने कहा है- । (मिथ्यादोषारोपण) दर्शनमोहनीय के आस्रव के कारण हैं
"कथं योगस्य शुभाशुभत्वम् ? शुभपरिणामनिवृत्तो | (त.सू. ६/१३)। कषायोदयजन्य तीव्र आत्मपरिणाम से योगः शुभः । अशुभपरिणामनिर्वृत्तश्चाशुभः। न पुनः | चारित्रमोहनीय कर्म आस्रवित होता है । बहु आरंभ और शुभाशुभकर्मकारणत्वेन।यद्येवमुच्यते शुभयोग एव न स्यात्, | बहुपरिग्रह नरकायु का, माया तिर्यंचायु का, अल्प आरंभ शुभयोगस्यापि ज्ञानावरणादिबन्धहेतुत्वाभ्युपगमात्।" (स.सि.
और अल्प परिग्रह मनुष्यायु का, स्वाभाविक मृदुता मनुष्यायु ६/३)
और देवायु का तथा शीलव्रतरहितता चारों आयुओं का आस्रव ____ अर्थ - योग शुभ और अशुभ कैसे होता है ?
कराती है (त.सू.६/१४-१९) । शुभपरिणाम से उत्पन्न योग शुभ कहलाता है और अशुभ |
सरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बालतप परिणाम से उत्पन्न योग अशुभ । शुभ-अशुभ कर्मों के बन्ध | ये देवाय के आस्रव-हेतु हैं । सम्यक्त्व भी देवायु के आस्र के हेतु होने से शुभ-अशुभ नहीं कहलाते । ऐसा कहने पर
का कारण है (त.सू.६/२०-२१)। मनोयोग, वचनयोग और शुभयोग का अस्तित्व ही नहीं होगा, क्योंकि शुभयोग भी
काययोग की कुटिलता से अशुभनामकर्म का तथा उनकी ज्ञानावरणादि अशुभ कर्मों के बन्ध का कारण होता है ।
सरलता से शुभनामकर्म का आस्रव होता है। (त.सू.६/२२यहाँ शुभाशुभपरिणाम का अर्थ शुभाशुभ उपयोग है ।
२३)। यह आचार्य अमितगति के निम्नलिखित वचन से स्पष्ट है -
दर्शनविशुद्धि, विनयसम्पन्नता, शील और व्रतों का शभाशभोपयोगेनवासितायोगवृत्तयः।
अतिचार-रहित पालन, सतत ज्ञानोपयोग, सतत संवेग, यथासामान्येन प्रजायन्ते दुरितासवहेतवः॥३/१॥
शक्ति त्याग और तप करना, साधु-समाधि, वैयावृत्य करना, योगसारप्राभृत
अर्हद्भक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, अर्थ- शुभ और अशुभ उपयोग से सम्पृक्त योगवृत्तियाँ
आवश्यकों का नियम से पालन, मोक्षमार्ग की प्रभावना और सामान्यरूप से दुरितों (शुभाशुभ कर्मों) के आस्रव का हेतु
प्रवचनवात्सल्य ये सोलह तीर्थंकर-प्रकृति के आस्रव के होती हैं। ज्ञानावरणादि आठों कर्मों का आस्रव शुभाशुभ योग से
हेतु हैं (त.सू. ६/2४) ।
परनिन्दा और आत्मप्रशंसा तथा दूसरों के विद्यमान तत्त्वार्थसूत्रकार ने केवल अर्थग्रहण-व्यापारात्मक
गुणों का आच्छादन और अविद्यमान गुणों का उद्भावन उपयोग का उल्लेख किया है, शुभाशुभ-शुद्धपरिणामात्मक
नीचगोत्र के आस्रव-हेतु हैं तथा ऐसा न करना एवं नम्रवृत्ति उपयोग का नाम भी नहीं लिया । उन्होंने शुभ और अशुभ
और अनुत्सेक-भाव (अभिमानहीनता) उच्चगोत्र का आस्रव योग को ही ज्ञानावरणादि समस्त कर्मों के आस्रव का हेतु
कराते हैं । दूसरों के दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में बतलाया है। यह सर्वार्थ-सिद्धि की पातनिका-टिप्पणियों से
| विघ्न डालने से अन्तरायकर्म का आस्रव होता है (त.सू. ६/ स्पष्ट हो जाता है । यथा - "उक्तः सामान्येन कर्मास्रवभेदः। इदानीं कर्मविशेषासवभेदो वक्तव्यः। तस्मिन् वक्तव्ये
२५-२७)। आद्ययोनिदर्शनावरणयोरासवभेदप्रतिपत्त्यर्थमाह-"
इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र में इन शुभा-शुभ योग-प्रवृत्तियों 'तत्प्रदोष-निह्नव-मात्सर्यान्तरायासादनोपघाता
को ज्ञानावरणादि आठ कर्मों और अघाती कर्मों की शुभाशुभ ज्ञानदर्शनावरणयोः' (स.सि. ६/१०)
प्रकृतियों के आस्रव का हेतु प्ररूपित किया गया है । इस सूत्र में सूत्रकार ने ज्ञान के विषय में प्रदोष,
आठों कर्मों का आस्रव शुभाशुभ उपयोग से निव, मात्सर्य, अन्तराय, आसादान और उपघात करने को
प्रवचनसार आदि ग्रन्थों में शुभाशुभ उपयोगों को इन ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मों के आस्रव का हेत कहा है। आठ कमाँ के आस्रव का कारण बतलाया गया है । यथास्वयं में और दूसरों में उत्पन्न किये गये दु:ख, शोक,
परणमदि जदा अप्पा सुहम्हि रागदोसजुदो ।
तं पविसदिकम्मरयं णाणावरणादिभावहिं॥ ताप, आक्रन्दन, वध और परिदेवन असातावेदनीय के
२/९५/प्र.सा. आस्रव-हेतु हैं तथा प्राणियों पर अनुकम्पा, व्रतियों पर
अर्थ - जब आत्मा रागद्वेषयुक्त होकर शुभ अनुकम्पा, दान, सरागसंयम, क्षान्ति (क्षमा) और शौच
| (शुभोपयोग) या अशुभ (अशुभोपयोग) में परिणत होता (निर्लोभ) के भाव सातावेदनीय के आस्रव-हेतु बतलाये |
'| है, तब उसमें ज्ञानावरणादि के रूप में कर्मरज प्रविष्ट होती गये हैं (त.सू.६/११-१२)। केवली, श्रुत, संघ, धर्म और देवों का अवर्णवाद
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उवओगोजदिहि सुहो पुण्णं जीवस्स संचयंजादि। । (वृहद्रव्यसंग्रहटीका, गा. ३४) ।। असुहो वा तध पावं तेसिमभावे ण चयमस्ति ।
। यहाँ ब्रह्मदेव सरिने शभ. अशभ और शद्ध योगत्रय २/६४/प्र.सा.
व्यापार को ही शुभ, अशुभ और शुद्ध उपयोग के रूप में अर्थ - यदि उपयोग शुभ है, तो जीव के पुण्य का
वर्णित किया है । इस तरह आचार्यों ने दोनों में कथंचित् संचय होता है और यदि अशुभ है, तो पाप का संचय होता
अभेद स्वीकार किया है । है। इन दोनों प्रकार के उपयोगों के अभाव में अर्थात्
मिथ्यात्वादि पाँच प्रत्यय आस्रव के हेतु शुद्धोपयोग के सद्भाव में पाप और पुण्य दोनों का संचय
मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय इन चार प्रत्ययों नहीं होता।
से योग शुभ और अशुभ बनता है । ये शुभाशुभ उपयोग के ज्ञानावरणादि कर्म पापकर्म हैं और सातावेदनीय, शुभायु |
ही विभिन्न रूप हैं। (ता.वृ./प्र.सा./गा. १/९) । अतः मूलतः शुभनाम एवं शुभगोत्र पुण्यकर्म (त.सू.८/२५-२६) । अतः
ये ही आठ कर्मों के आस्रव-हेतु हैं । धवला में निम्नलिखित उक्त गाथा में शुभ और अशुभ उपयोगों से आठों कर्मों का
गाथा उद्धृत की गयी हैआस्रव बतलाया गया है ।
मिच्छत्ताविरदी विय कसायजोगा य आसवा होति। शुभाशुभ योग और उपयोग में कथंचित् अभेद
दंसण-विरमण-णिग्गह-णिरोहया संवरो होंति॥ यतः आत्मा की शुभाशुभ-उपयोगरूप परिणति मन
(पुस्तक ७/पृ.९) वचन-काय के माध्यम से ही होती है तथा मन-वचन-काय
अर्थ-मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये कर्मों की प्रवृत्ति शुभाशुभ उपयोग के प्रभाव से ही शुभाशुभ बनती | के आस्रव-हेत हैं तथा सम्यक्त्व, संयम, अकषाय और है, अतः शुभाशुभ-उपयोग में शुभाशुभ-योग अन्तर्भूत हैं | अयोग संवर के हेतु हैं । यहाँ प्रमाद को कषाय में अन्तर्भूत
और शुभाशुभ योग में शुभाशुभ-उपयोग । इसलिए शुभाशुभ | कर लिया गया है ।। उपयोगों से कर्मों का आस्रव होता है अथवा शुभाशुभ योग | मिथ्यात्वादि के निमित्त से जिन-जिन प्रकृतियों का कर्मास्रव के हेतु हैं, इन दोनों कथनों में कोई अन्तर नहीं है। | आस्रव होता है, उनका वर्णन षट्खण्डागम और सर्वार्थसिद्धि आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है -
में किया गया है । वे इस प्रकार हैंसुहजोगस्य पवित्ती संवरणं कुणदि असुहजोगस्य ।। मिथ्यात्वीदय की विशेषता से निम्नलिखित सोलह सुहजोगस्स णिरोहो सुद्धवजोगेण संभवदि ॥६३॥ प्रकृतियों का आस्रव होता है : मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, नरकायु,
- (बारसाणुवेक्खा) | नरकगति, एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, अर्थ-शुभयोग की प्रवृत्ति अशुभयोग का निरोध करती | चतुरिन्द्रिय जाति, हुण्डक संस्थान, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, है और शुभयोग का निरोध शुद्धोपयोग से होता है।
नरक-गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्तक ___इस गाथा में आचार्य श्री कुन्दकुन्द ने शुभाशुभयोग
| और साधारण शरीर । (ष.खं.पु.८/३,१५-१६,पृ. ४२-४३/ और शुभाशुभ-उपयोग को समानार्थी के रूप में प्रयुक्त किया
स.सि.९/१)। है, क्योंकि शुद्धोपयोग से शुभोपयोग का निरोध होने पर ही
. अनन्तानुबन्धीकषायजनित असंयम की विशेषता से शुभयोग का निरोध संभव है ।
ये पच्चीस प्रकृतियाँ आस्रवित होती हैं : निद्रानिद्रा, प्रचलाब्रह्मदेव सूरि ने भी दोनों का अभेदरूप से उल्लेख
प्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी-क्रोध, मान, माया, लोभ, किया है। यथा
स्त्रीवेद, तिर्यंचायु, तिर्यंचगति, मध्य के चार संस्थान, मध्य मिथ्यादृष्ट्यादिक्षीणकषायपर्यन्तमुपयु परि
के चार संहनन, तिर्यंचगति-प्रायोग्यानुपूर्वी, अद्योत, मन्दत्वात्तारतम्येन तावदशुद्धनिश्चयो वर्त्तते । तस्य मध्ये
| अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दःस्वर, आनादेय और नीचगोत्र पुनर्गुणस्थानभेदेन शुभाशुभशुद्धानुष्ठानरूप-योगत्रय
| (ष.खं., पु.८/३,७-८/पृ.३०/स.सि. ९/१)। व्यापारस्तिष्ठति । तदुच्यते-मिथ्यादृष्टिसासादनमि
अप्रत्याख्यानावरण कषायजनित असंयम की विशेषता श्रगुणस्थानेषूपर्युपरि-मन्दत्वेनाशुभोपयोगो वर्तते । ततोऽप्यसंयतसम्यग्दृष्टि श्रावक-प्रमत्तसंयतेषु पारम्पर्येण
| से आस्रव को प्राप्त होनेवाली दश प्रकृतियाँ निम्नलिखित हैं : शुद्धोपयोगसाधक उपर्युपरि तारतम्येन शुभोपयोगो वर्तते ।
अप्रत्यख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, मनुष्यायु, तदनन्तरमप्रमत्तादि-क्षीणकषायपर्यन्त जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदेन मनुष्यगति, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, विवक्षितैकदेशशुद्धनयरूप शुद्धोपयोगो वर्तते । वज्रवृषभनाराच संहनन और मनुष्यगति-प्रायोग्यानुपूर्वी । 20 जून 2005 जिनभाषित
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(ष. ख., पु. ८/३, १७/१८, २९/३० / स.सि. ९ / १ ) ।
प्रत्याख्यानावरण-कषायोद्भूत असंयम की विशेषता से प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार प्रकृतियों का आस्रव होता है । (ष.खं. /पु ८/३, १९-२० / स. सि. ९/१) ।
प्रमाद की विशेषता से असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ, अयश: कीर्ति ये छह प्रकृतियाँ आस्रवित होती हैं । (ष.खं., पु. ८/३, १३-१४ / स.सि. ९/१) । देवायु का आस्रव प्रमाद तथा निकटवर्ती अप्रमाद (अप्रमत्तसंयम) से होता है। (ष. खं., पु. ८/३/३१-३२/स.सि.९/१) ।
प्रमादादिरहित संज्वलन के उदय में निद्रा, प्रचला, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, आहारक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक शरीरागोपांग, आहारक शरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण तीर्थंकर, हास्य, रति, भय और जुगुप्सा ये छत्तीस प्रकृतियाँ आस्रव को प्राप्त होती हैं । (ष. खं., पु. ८ / ३ / ९-१०,३३-३४,३५-३६, ३७-३८ / स. सि. ९/ १) ।
प्रमादादिरहित मध्यम संज्वलनकषाय की विशेषता से पुरुषवेद, संज्वलन - क्रोध, मान, माया एवं लोभ इन पाँच प्रकृतियों का आस्रव होता है । (ष. खं., पु. ८/३, २१-२२, २३-२४, २५-२६/ स. सि. ९/१) ।
जघन्य (मन्द) संज्वलन कषाय की विशेषता से पाँच
•
·
ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय ये सोलह प्रकृतियाँ आस्रव को प्राप्त होती हैं । (ष.खं., पु.८/३, ५-६ / स. सि. ९ / १) । योग के निमित्त से केवल सातावेदनीय का आस्रव होता है । (ष.ख.,पु.८/३, ११-१२/ स. सि. ९/१) ।
इस प्रकार आगम में कहीं शुभाशुभ योग को इन एकसौ-बीस कर्म-प्रकृतियों के आस्रव का हेतु कहा गया है, कहीं शुभाशुभ उपयोग को और कहीं मिथ्यात्वादि पाँच प्रत्ययों को। ये अपेक्षा भेद से किये गये निरूपण हैं । इनका अभिप्राय एक ही है ।
सन्दर्भ
१. सर्वार्थसिद्धि (स. सि. ६ / १ )
२.
यथा सरस्सलिलावाहिद्वारं तदास्रवकारणत्वाद् आस्रव इत्याख्यायते तथा योगप्रणालिकया आत्मनः कर्म आस्रवतीति योग आस्रव इति व्यपदेशमर्हति । (स.सि. ६/२) । ३. मिथ्यात्व - सासादन- मिश्रगुणस्थानत्रये तारतम्येना-शुभोपयोगः । तदनन्तरमसंयतसम्यग्दृष्टि-देशविरतप्रमत्तसंयतगुणस्थानत्रये तारतम्येन शुभोपयोगः । तदनन्तरमप्रत्तादिक्षीणकषायान्तगुण-स्थनषट्के तारतम्येन शुद्धोपयोगः । तदनन्तरं सयोग्ययोगिजिनगुणस्थानद्वये शुद्धोपयोगफलमिति भावार्थ:। (ता.वृ./प्र.सा., गा. १ / ९ ) । ४. " को पमादोणाम ? चदुसंजलण-णवणोकसायाणं तिवोदओ" (धवला, पु. ७/२, १,७/पृ. ११)
वीर देशना
सम्यक्त्व संसाररूपी अग्नि को शांत करने के लिए जल के समान है।
The Right Attitude (samyaktva) is like cool water for extinguishing the fires of transmigratory world.
A / 2 मानसरोवर, शाहपुरा, भोपाल-462039, म.प्र.
राग, द्वेष, मोह, मद से मूढ़ता को प्राप्त हुए जो प्राणी अपने ही सुखप्रद कारणों को नहीं जानते, वे दुर्बुद्धि जन दूसरे के लिए मुक्ति के मार्ग के समीचीन धर्म का उपदेश कैसे दे सकते हैं? नहीं दे सकते।
Themselves deluded by attachment, aversion, arrogance and bewilderment, how can those perverted ones who know not the path of their own happiness, lead the others on the course of true dharma? Obviously, they cannot.
• जो हेय - उपादेय तत्त्व के प्रकट करने में दक्ष है, वह शास्त्र अभीष्ट माना जाता है।
The Scripture (sastra) that is competent to reveal the knowledge of what is to be abandoned (heya) and what accepted (upadeya), is the Right Scripture.
संकलनकर्ता: मुनिश्री अजितसागर जी
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सुबह की चाय से लेकर रात के दूध तक हम सफेद चीनी (शक्कर) का प्रयोग करते हैं। तरह-तरह की मिठाईयाँ, बेकरी - उत्पाद, खीर आदि में या यूँ ही मीठा के रूप में फाँकने में भी चीनी का प्रयोग होता । एक तरह से देखें तो मीठे का अर्थ ही है चीनी । चीनी हमारी आहार चर्या का एक हिस्सा बन गयी है। बहुत ही कम प्रतिशत ऐसे लोग होंगे जो इस मीठे का प्रयोग न करते हों। आज के दौर में चीनी के विभिन्न प्रयोगों ने हमारे परम्परागत मीठे 'गुड़' आदि को बहुत पीछे छोड़ दिया है। क्या चीनी का इतना प्रयोग लाभकारी है ? फैसला स्वयं करें। आइये जानें इस चीनी के बारे में।
भारत में चीनी मुख्यतः ईख (गन्ना) से बनायी जाती है। चूँकि भारत में गन्ने की खेती पर्याप्त मात्रा में होती है, अतः चीनी का उत्पादन भी खूब होता है। सरकारी एवं निजि स्तर पर अनेक चीनी मिलें चीनी का उत्पादन कर रही हैं। चीनी बनाते समय सल्फर का प्रयोग होता है। इसकी अधिक मात्रा मानव-शरीर में विभिन्न रोगों का कारक बनती है। नियमों का पालन न करना एवं जाँच के समुचित साधनों के अभाव में सल्फर की संतुलित मात्रा की जाँच हो ही नहीं पाती। चीनी बनाते समय गन्ने के गुण व पोषक तत्त्व नष्ट हो जाते हैं। जैसे-जैसे गन्ने का रस सफेद होता जाता है, उसमें गर्मी बढ़ती जाती है। आहार एवं स्वास्थ्य विशेषज्ञ सफेद चीनी को पोषण रहित खाद्य मानते हैं।
एक मीठा - धीमा जहर : सफेद चीनी
प्राकृतिक शर्करा हमारे शरीर को गर्मी देती है और मांसपेशियों को शक्ति प्रदान करती है। यह शर्करा मीठे फलों, वनस्पति, सूखे मेवे आदि से सहज ही प्राप्त हो जाती है । प्रायः लोगों को भ्रम रहता है कि चीनी से शरीर में आवश्यक शर्करा की पूर्ति होती है ।
स्वास्थ्य की दृष्टि से चीनी को शरीर का शत्रु माना गया है। संतुलित आहार में इसका कोई स्थान नहीं है। इसमें
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22 जून 2005 जिनभाषित
डॉ. श्रीमती ज्योति जैन न तो विटामिन्स हैं, न ही खनिज पदार्थ । केवल है तो वह है कार्बोहाइड्रेटस। दाँतों के लिए चीनी अत्यन्त हानिकारक है। दाँतों की अनेक बीमारियों में चीनी का बड़ा हाथ है। बच्चों के दाँतों के लिए चीनी नुकसानदेय है। चीनी कैलोरी बढ़ाती है, जो मोटापा बढ़ाती है। चीनी को प्राकृतिक शर्करा की अपेक्षा पचने में अधिक समय लगता है। चीनी में विद्यमान कार्बोहाइड्रेट्स असन्तुलित होकर अनेक विकार पैदा करते हैं, जो अनेक रोगों को जन्म देते हैं, जिसमें रक्तचाप, मधुमेह, स्नायु-शिथिलता, तनाव, आंतों के रोग आदि प्रमुख हैं।
बदलते परिवेश और आधुनिक खानपान में सफेद चीनी का दिन-प्रतिदिन चलन बढ़ता ही जा रहा है। 'गुड़' आदि मीठे का प्रयोग कम होने लगा है, जबकि चीनी की अपेक्षा गुड़ बेहतर है। गुड़ में अपनी ही कुछ विशेषताएँ हैं, जो उसे गुणवान् बनाती हैं। आयुर्वेद के अनुसार- 'गुड़ शरीर को निरोगी बनाये रखने में सहायक है। यह हृदय, लीवर, त्वचा रोग आदि में लाभ तथा कफ, पित्त का नाश करता है। गुड़ का सेवन रक्ताल्पता को कम करता है। इसमें लौहतत्त्व भी पर्याप्त मात्रा में रहते हैं'। गुड़ को अनेक तरह से मीठे के रूप में प्रयोग कर सकते हैं।
बदलती जीवन शैली में आहार चर्या पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। चीनी के प्रयोग से जितना संभव हो महिलायें बचें, इस संबंध में आगे आयें, क्योंकि रसोई की जिम्मेदारी उन्हीं के कंधों पर है तथा संतुलित व स्वास्थ्यप्रद भोजन बनाना व देना उनका दायित्व है । अतः, स्वास्थ्यप्रद भोजन लें, स्वयं स्वस्थ्य बनें और आनेवाली पीढ़ी को भी स्वस्थ बनायें ।
वीर देशना
मुनिगण काम के साथ क्रोधादि कषायों को भी जीत लिया करते हैं ।
The mendicants-munis-master their passions such as sexual desires, along with anger.
शिक्षक आवास कुन्दकुन्द जैन महाविद्यालय परिसर, खतौली 251201 (उ.प्र.)
संकलनकर्ता: मुनिश्री अजितसागर जी
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जिज्ञासा-समाधान
पं. रतनलाल बैनाड़ा जिज्ञासा : क्या अस्पर्श-शूद्र व्रत-धारण कर सकता । श्रावक उतना ही आदर का पात्र होता है, जितना कि चरणानुयोग
| स्वीकृत करता है। समाधान : शूद्रों के दो भेद कहे जाते हैं-स्पर्श शूद्र | उपरोक्त प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि अस्पर्श शूद्र भी और अस्पर्श शूद्र । स्पर्श शूद्र वह हैं, जो यद्यपि शूद्र हैं, फिर | व्रतों को धारण तो कर सकता है, परन्तु क्षुल्लक नहीं बन भी जिनसे छू जाने पर स्नान करना आवश्यक नहीं होता है, | सकता। जैसे- धोबी, माली, सुनार, दर्जी आदि। अस्पर्श शूद्र वे हैं, जिज्ञासा - तत्त्वार्थ सूत्र में जीवतत्त्व के निरूपण में जिनसे छूजाने पर स्नान करना आवश्यक होता है, जैसे- | द्वीपसमूह का वर्णन व्यर्थ-सा लगता है, इसे पढ़ें या छोड़ दें? चांडाल, डूम, मेहतर, दाई आदि।
समाधान - ऐसा ही प्रश्न तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय 3/40 यहाँ जिज्ञासा यह है कि क्या ये चाण्डाल आदिक व्रतों | की टीका, श्लोकवार्तिक में आ. विद्यानन्द जी के सामने को धारण कर सकते हैं या नहीं। इसका निर्णय करने के लिए | उठाया गया है. जिसका समाधान उन्होंने इस प्रकार किया हैहमें शास्त्रों के निम्न प्रमाणों पर विचार करना चाहिए :
न च द्वीपसमुद्रादिविशेषाणां प्ररूपणं। 1. श्री रत्नकरण्डक श्रावकाचार में इस प्रकार निः प्रयोजनमाशंक्यं मनुष्याधारनिश्चयात्॥4॥ कहा है :
नानाक्षेत्रविपाकीनि कर्माण्युत्पत्तिहेतवः। मातंगो धनदेवश्च वारिषेणस्ततः परः।
संत्येव तद्विशेषेषु पुद्गलादिविपाकिवत्॥5॥ नीलीजयश्च संप्राप्ताः पूजातिशयमुक्तमम्॥64 ॥
तद्प्ररूपणे जीवतत्त्वं न स्यात् प्ररूपितं। अर्थ - यमपाल चाण्डाल, धनदेव, वारिषेण, नीली
विशेषेणेति तज्ज्ञानश्रद्धाने न प्रसिद्धतः ॥ 6 ॥ और जयकुमार क्रमश: अहिंसादि अणुव्रतों में उत्तम पूजा के
तन्निबंधनमक्षुण्णं चारित्रं च तथा व नु। अतिशय को प्राप्त हुये हैं। विशेष: यहाँ यमपाल नामक चाण्डाल
मुक्तिमार्गोपदेशो नो शेषतत्त्व विशेषवाक् ।। 7॥ को अहिंसाणुव्रत में प्रसिद्ध माना है। इसकी कथा इसी ग्रन्थ में दी हुई है।
अर्थ : द्वीप, समुद्र आदि विशेषों का प्ररूपण करना
प्रयोजन रहित है, यह आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि 2. श्री पद्मपुराण पर्व में इस प्रकार कहा है :
| इससे मनुष्यों के आधारभूत-स्थलों का निर्णय हो जाता है ॥4॥ नजातिर्गर्हिता काचिद्गुणा: कल्याणकारणम्।
पुद्गल या जीवादि में विपाक को करनेवाले विभिन्न व्रतस्थमपि चाण्डालं तं देवा ब्राह्मणं विदुः। 203 ||कर्म हैं. उसी प्रकार उन विशेष द्वीप या समुद्रों में उत्पत्ति हो
अर्थ - कोई भी जाति निन्दनीय नहीं है, गुण ही। जाने के कारण अनेक क्षेत्र-विपाकी कर्म भी हैं॥5॥ कल्याण करनेवाले हैं। यही कारण है कि व्रत धारण करनेवाले
यदि उन क्षेत्रों का निरूपण नहीं किया जायेगा, तो चाण्डाल को भी गणधरादिदेव ब्राह्मण कहते हैं । 203 ॥
जीव-तत्त्व का निरूपण नहीं समझा जायेगा। ऐसी दशा में उस 3. श्री रतनचन्द मुख्तार व्यक्तित्व एवं कृतित्व | जीव-तत्त्व का ज्ञान और श्रद्धान कभी भी प्रसिद्ध नहीं हो ग्रंथ पृष्ठ 707 पर पं. रतनचन्द जी मुख्तार ने कहा है कि जिनके
सकता है॥6॥ हाथ का अन्न-पान ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र नहीं खाते
फिर उन दो के कारण होनेवाला चारित्र भी कैसे संभव हैं ऐसे अभोज्यकारक शूद्र जैनमुनि या क्षुल्लक के व्रतों को तो
हो सकेगा और फिर मोक्षमार्ग का उपदेश तथा शेष अजीव धारण नहीं कर सकता, किन्तु पाँच पापों का एकदेश त्याग
आदि तत्त्वों का विशेष रूप से कथन करना नहीं बन पायेगा। कर अणुव्रत पालन कर सकता है।
भावार्थ : उस जीव-तत्त्व की प्रतिपत्ति करते हुए उस 4. पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य ने श्री
| जीव के विशेष हो रहे आधार आदि और आधारों की लम्बाईरत्नकरण्डश्रावकाचार गाथा-28 के विशेषार्थ में इस प्रकार
चौड़ाई आदि की प्रतिपत्ति कर लेना आवश्यक पड़ जाता है। कहा है :
इस प्रकार तृतीय एवं चतुर्थ अध्याय में द्वीप, समुद्र, पर्वत, चाण्डालादि कुल में उत्पन्न हुआ सम्यग्दृष्टि या देशव्रती | नदी, स्वर्ग आदि का वर्णन और उनमें रहनेवाले जीवों आदि
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का विशेषरूप से प्ररूपण सूत्रकार ने किया है, यह युक्तिपूर्वक है।
मोक्षमार्ग प्रकाशक के आठवें अधिकार में पं. टोडरमलजी ने इस प्रकार कहा है
:
यहाँ कोई कहे - कोई कथन तो ऐसा ही है, परन्तु द्वीप, समुद्रादिक के योजनादिक का निरूपण किया, उनमें क्या सिद्धि है ?
उत्तर : उनको जानने पर उनमें कुछ इष्ट या अनिष्ट बुद्धि नहीं होती, इसलिए पूर्वोक्त (रागादिक घटाने अथवा मिटाने) की सिद्धि होती है। यहाँ उद्यम द्वारा द्वीप समुद्रादिक को जानता है, वहाँ उपयोग लगता है, सो रागादिक घटने पर ऐसा कार्य होता है। ----- - द्वीपादिक में इस लोक संबंधी कार्य कुछ नहीं है, इसलिए रागादिक का कारण नहीं है । यदि स्वर्गादिक की रचना सुनकर वहाँ राग हो, तो परलोक-संबंधी पुण्य होगा । उसका कारण पुण्य को जाने, तब पाप छोड़कर पुण्य में प्रवर्ते, इतना ही लाभ होगा तथा द्वीपादिक को जानने पर यथावत रचना भाषित हो, तब अन्य मतादिक का कहा झूठा भाषित हो, तब अन्य मतादिक का कहा झूठा भाषित होने से सत्य- श्रद्धानी हो और यथावत रचना जानने से भ्रम मिटने पर उपयोग की निर्मलता हो, इसलिए वह अभ्यास कार्यकारी है ।
उपरोक्त प्रमाणों के अनुसार तत्त्वार्थसूत्र के तीसरे व चौथे अध्याय को अत्यन्त उपयोगी समझकर उसका स्वाध्याय करना चाहिए। इससे पंचमेरू, नन्दीश्वरद्वीप, सिद्धशिला, अकृत्रिम जिनालय, विदेहक्षेत्र, पाण्डुकशिला, कर्मभूमि, भोगभूमि आदि का ज्ञान होने से ज्ञान में विशेषता प्राप्त होती है।
जिज्ञासा : क्या दशमी प्रतिमाधारी ब्रह्मचारी को भी छुल्लक के समान इच्छामि करना चाहिए?
समाधान: आ. कुन्दकुन्द ने जिनशासन में तीन लिंग कहे हैं। दर्शन पाहुड़ गाथा नं. 18 में यह कहा है :
एक्कं जिणस्स रूवं बीयं उक्किट्ठसावयाणं तु । अवरट्ठियाण तइयं चउत्थंपुण दंसणं णत्थि ॥ अर्थ : एक जिनेन्द्र भगवान का नग्नरूप, दूसरा उत्कृष्ठ श्रावकों का और तीसरा आर्यिकाओं का। इस प्रकार जिनशासन में तीन लिंग कहे गये हैं। चौथा लिंग जिनशासन में नहीं है।
इसकी टीका में श्रुतसागर सूरि ने 'उत्कृष्ट श्रावक' शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है कि अनुमति-त्याग और उद्दिष्ट-त्याग इन दोनों प्रतिमा के धारी उत्कृष्ट - श्रावक के अन्तर्गत आते हैं।
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आ. सोमदेव ने भी इसीप्रकार कहा है :
अद्यास्तु षड्जघन्याः स्युर्मध्यमास्तदनुत्रय । शेषौ द्वावुत्तमावुक्तौ जैनेषु जिनशासने ॥ 1 ॥ अर्थ : जिनशासन में प्रारम्भ के छः श्रावक जघन्य, उसके बाद के तीन श्रावक मध्यम तथा अन्त के दो श्रावक उत्तम कहे गये हैं ॥ 1 ॥
दौलतरामकृत क्रियाकोश में भी इसप्रकार कहा है :
मुनिवर के तुल्य महानर ।
दशवी - एकादशयीधार ॥ 1063 ॥ अर्थ : दशमी और ग्यारहवीं प्रतिमाधारी- श्रावक मुनियों के तुल्य महान् 'उत्कृष्ट - श्रावक' होते हैं ।
जिज्ञासा : क्या धरणेन्द्र - पद्मावती को पार्श्वनाथ का यक्ष-यक्षिणी मानना उचित है?
समाधान: समाज में ऐसी धारणा बहुत समय से चली आ रही है कि भगवान् पार्श्वनाथ के उपदेश को सुनकर जो नाग-नागिन का जोड़ा अग्नि में जलते हुए मरण को प्राप्त हुआ था, वह धरणेन्द्र और पद्मावती बना। यदि इस धारणा को सच माना जाये तो कुछ जिज्ञासायें उत्पन्न होती हैं :
1. धरणेन्द्र तो भवनवासी देवों में नागकुमार जाति के इन्द्र को कहा गया है । परन्तु यक्ष तो व्यन्तर देवों का एक भेद है, अत: धरणेन्द्र को यक्ष कहना कैसे उचित कहा जा सकता है?
2. तिलोयपण्णत्ति अधिकार 4 में भगवान पार्श्वनाथ का यक्ष मातंग और यक्षिणी पद्मा कही गई है । फिर धरणेन्द्र को भगवान पार्श्वनाथ का यक्ष कैसे कहा जाय । यदि किन्हीं प्रतिष्ठाग्रन्थों के अनुसार यक्ष का नाम 'धारण' भी माना जाये, तो उसे भवनवासियों के इन्द्र धरणेन्द्र के रूप में कैसे स्वीकार किया जा सकता है, क्योंकि वह तो 'यक्ष' है और यह भवनवासियों का 'इन्द्र' है ?
3. हरिवंशपुराण सर्ग -22 के श्लोक नं. 54-55 और 102 में धरणेन्द्र की देवियों के नाम दिति और अदिति लिखे हैं। वहाँ पर पद्मावती नाम की देवी का नाम कहीं नहीं लिखा, जबकि त्रिलोकसार श्लोक नं. 236 में असुरकुमार जाति के इन्द्र वैरोचन की पट्टदेवियों के नाम में पद्मा, महापद्मा और पद्मश्री ये तीन नाम मिलते हैं। तब फिर धरणेन्द्र की पट्टदेवी पद्मावती कैसे स्वीकार की जाये ?
भगवान पार्श्वनाथ का सबसे प्राचीन जीवन-चरित्र उत्तरपुराण में प्राप्त होता है। उसमें पर्व 73, श्लोक नं. 119 में कहा गया है कि 'सर्प और सर्पणी कुमार के उपदेश से शांत
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भाव को प्राप्त होकर नागकुमार का इन्द्र धरणेन्द्र और उसकी | पर्वत के कारण कहाँ जाती हैं? पत्नी हुए।' इस उद्धरण से यह तो स्पष्ट होता ही है कि भगवान
समाधान : उपरोक्त संबंध में हरिवंशपुराण के पंचम पार्श्वनाथ पर उपसर्ग होने के समय, उपसर्ग दूर करने के
सर्ग में इस प्रकार कहा है : लिए यक्ष और यक्षिणी नहीं आये थे बल्कि धरणेन्द्र और उसकी पत्नी आए थे। पत्नी का नाम भी पद्मावती लिखा
चतुर्दशगुहाद्वारदत्तनिर्गमनो गिरिः। नहीं मिलता है। दूसरी यह बात और भी स्पष्ट होती है कि
पुष्करोदं नयत्येष पूर्वापरनदी वधूः॥ 586॥ आजकल बहुत से मंदिरों में जो पद्मावती के फण के ऊपर
__अर्थ : यह पर्वत चौदह गुफारूपी दरवाजों के द्वारा भगवान पार्श्वनाथ को विराजमान किया गया है, वह धारणा
| निकलने का मार्ग देकर पूर्व पश्चिम की नदीरूपी स्त्रियों को बिल्कुल भी आगम-सम्मत नहीं है। उत्तरपुराण के अनुसार | पुष्करोदधि के पास भेजता रहता है अर्थात् चौदह नदियाँ इस धरणेन्द्र ने भगवान को अपने फणों के ऊपर उठाया था और | गुफारूपी हदरवाजों से निकलकर पुष्कर समुद्र में जाकर उसकी पत्नी ने बज्रभय-छत्र ताना था। वर्तमान में भगवान | गिरती हैं। पार्श्वनाथ की जो सबसे प्राचीन मूतियाँ ऐलोरा और एहोले श्री त्रिलोकसार में इसप्रकार कहा है: आदि में प्राप्त होती हैं, उनमें भी पद्मावती को छत्र लगाते हुए
अंते टंकच्छिण्णो बाहिं कमवड्डिहाणि कणयणिहो। ही दिखाया गया है, जो आगम-सम्मत है। ये मूर्तियाँ 7वीं,
णदिणिग्गमपहचोद्दस गुहाजुदो माणुसुत्तरगो।। १37॥ 9वीं-10वीं शताब्दी तक की हैं।
अर्थ : पुष्करद्वीप के मध्य में मानुषोत्तर पर्वत है। वह उपरोक्त हरिवंशपुराण के अलावा अकलंक स्वामी ने |
अभ्यन्तर में टङ्कछिन्न और बाह्य भाग में क्रमिक वृद्धि एवं राजवार्तिक में धरणेन्द्र की अग्रदेवियों की संख्या 6 तो जरूर | द्वानि कोलि
हानि को लिए हुए है। स्वर्ण-सदृश वर्णवाला एवं नदी निकलने बताई है. परन्तु उनके नाम नहीं लिखे हैं। तिलोयपण्णत्ति व | के चौदह गुफाद्वारों से युक्त है। त्रिलोकसार में धरणेन्द्र की पट्टदेवियों का नाम कहीं भी लिखा
श्री सिद्धान्तसार दीपक के अधिकार 10 में इसप्रकार नहीं मिलता है। आ. समन्तभद्र ने स्वयंभूस्तोत्र में भगवान
कहा है: पार्श्वनाथ का स्तवन करते हुए 'धारण' शब्द का प्रयोग तो किया है, परन्तु पद्मावती का नाम नहीं लिखा। श्वेताम्बराचार्य
चतुर्दशनदीनिर्गमनद्वारादि शलिनः। हेमचन्द्र ने भी 'तृसष्टि शलाका पुरुष चरित' में नाग-नागिनी
क्रमहस्वस्य चास्यागुरुदयो योजनैर्मतः ॥ 271॥ का मरकर धरणेन्द्र और उसकी देवी होना तो स्वीकार किया
अर्थ : चौदह महानदियों के निकलने के 14 द्वारों से है, परन्तु उन्होंने भी पद्मावती नाम नहीं दिया है। सुशोभित और क्रमशः ह्रस्व होते हुए इस पर्वत की ऊंचाई उपरोक्त सभी प्रमाणों से यह स्पष्ट होता है कि भगवान
योजनों में मानी गई है। पार्श्वनाथ के ऊपर जो उपसर्ग हुआ था, उसे यक्ष और यक्षिणी उपरोक्त सभी आगम-प्रमाणों से यह समाधान प्राप्त ने दूर नहीं किया था। वास्तव में जो नाग-नागिनी मरकर | होता है कि पुष्करार्ध की 14 नदियाँ मानुषोत्तर पर्वत की 14 धरणेन्द्र और उनकी पत्नी बने थे, उन धरणेन्द्र और उसकी | गुफाओं से बाहर जाती हैं। देवी ने किया था, जो वास्तव में भवनवासियों के असुरकुमार यहाँ पर यह भी बताना आवश्यक है कि श्रुतसागर सूरि जाति के इन्द्र और उसकी देवी थे। भगवान पार्श्वनाथ के | नेतत्त्वार्थसूत्र अध्याय 3 के 35वें सूत्र 'प्राङ्मानुषोत्तरान्मनुष्याः' यक्ष-यक्षिणी भिन्न हैं और उपसर्ग दूर करनेवाले धरणेन्द्र और | की टीका करते हुए लिखा है कि 'मानुषोत्तरात्' नद्योऽपि उसकी देवी भिन्न हैं। अतः अपनी धारणा को हमें ठीक | बहिर्न गच्छन्ति, किन्तु मानुषोत्तरं पर्वतमाश्रित्य तिष्ठति। बनाना चाहिए। साथ ही यह भी धारणा ठीक करनी चाहिए
अर्थ : मानुषोत्तर पर्वत से नदियाँ भी बाहर नहीं जाती कि पद्मावती देवी ने उपसर्ग के समय भगवान पार्श्वनाथ को
हैं, किन्तु मानुषोत्तर पर्वत को आश्रय करके रुक जाती हैं। यह फण पर उठाया था। उसने तो मात्र छत्र लगाया था। फण पर |
कथन उपरोक्त आगम-प्रमाणों से नहीं मिलता, अत: अप्रमाणिक उठाने का कार्य तो धरणेन्द्र ने किया था।
मानना चाहिए। श्रुतसागर सूरि के और भी बहुत से कथन जिज्ञासा : पुष्करार्ध की 28 नदियों में से 14 नदियाँ | आगम-सम्मत नहीं है, जिसकी चर्चा फिर कभी की जायेगी। तो कालोदधि समुद्र में मिलती हैं, शेष 14 नदियाँ मानुषोत्तर |
1/205, प्रोफेसर कॉलोनी, आगरा -282 002
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पत्र एवं पत्रोत्तर पं. नीरज जी जैन (सतना) ने पत्र के माध्यम से कुण्डलपुर में घटित कुछ घटनाओं के विषय में अपनी चिन्ता प्रकट की है। पं. मलचन्द जी लहाडिया ने अपने पत्रोत्तर में नीरज जी की चिन्ता को निराधार बतलाया है। दोनों पत्र प्रकाशित किये जा रहे हैं।
पत्र
प्रिय बंधु मूलचन्द जी लुहाड़िया, पं. डॉ. रतनचन्द्रजी,
शान्ति सदन, कम्पनी बाग,
सतना (म.प्र.)-485001 भाई रतनलालजी बैनाड़ा एवं भाई अमरचन्दजी,
दिनांक : 15.04.05 सादर जय जिनेन्द्र
श्रीक्षेत्र कुण्डलपुर के पर्वत पर जिनालय के निर्माण में एक बलि गत वर्ष हो चुकी थी। जन मानस को हताहत कर जाने वाली दूसरी दुर्घटना में अभी पिछले सप्ताह वहीं कार्यरत गुजरातनिवासी श्री रामधन की अकालमृत्यु का चिन्ताजनक
और भयोत्पादक समाचार कुछ पत्रों के माध्यम से मुझे ज्ञात हुआ है। इसके दो दिन बाद इन्दौर के यात्री बालक का वर्द्धमानसागर में डूब मरने का समाचार पाकर मेरी पीड़ा और चिन्ता कई गुनी बढ़ गई है।
यह तो सैकड़ों वर्षों से प्रसिद्ध है ही कि श्रीक्षेत्र कुण्डलपुर को तथा विशेषकर बड़ेबाबा की प्रतिमा को कुछ दैवी शक्तियों का संरक्षण प्राप्त है । इतिहास साक्षी है कि जब भी आवश्यक हुआ है, उन शक्तियों ने अपनी उपस्थिति जताई है, और उपसर्गों को टाला है। मेरी पुस्तक 'कराहता कुण्डलपुर' में भी पृष्ठ 69 पर इस बात का संकेत है।
__ यह आगम का विधान है कि देवगति के अधिकांश प्राणी यहीं मध्यलोक में हैं और उनमें नियम से 'प्रभाव' शक्ति होती है। तत्त्वार्थसूत्र के चौथे अध्याय का 'स्थितिप्रभावसुख....' वाला बीसवाँ सूत्र देवगति के हर प्राणी में प्रभाव की नियामक सूचना देता है। परमपूज्य पूज्यपादाचार्य महाराज ने सर्वार्थसिद्धि में प्रभाव की व्याख्या करते हुए 'शापानुग्रहशक्तिः प्रभावः' कह कर उसकी सुस्पष्ट व्याख्या कर दी है। आप चारों बंधु शास्त्रज्ञ हैं, यह सब मुझ से अधिक जानते हैं, फिर भी श्रीक्षेत्र के और संघ के प्रति अपने अनुराग के कारण मेरा मन मानता नहीं, अत: आज यह पत्र लिखने के लिए विवश हुआ
___ मुझे ज्ञात हुआ है कि भविष्य में ऐसी अनहोनी को टालने के लिए श्रीक्षेत्र पर विधान और जाप्य अनुष्ठान किये जा रहे हैं, पर मैं समझता हूँ कि ऐसे आयोजनों से करनेवाले श्रद्धालुओं के लिये ही सुरक्षा-चक्र बनता है, मरनेवाले निरीह कार्मिकजनों के लिये नहीं। उन्हें तो निर्माताओं की प्रमाद और दोषपूर्ण संयोजना के कारण ऐसे ही अपने प्राणों की आहुति देते रहना पड़ेगी। मेरी आपसे करबद्ध विनय है कि इन प्राणलेवा घटनाओं पर समय रहते गम्भीरता से विचार करें और योजना में वाँछित सुधार करके बड़ेबाबा को यथावत् रखना सुनिश्चित कराने का प्रयास करें।
अर्जी मेरी है, मरजी आप लोगों के हाथ है, और क्या कहूँ। पूज्य आचार्यश्री सहित संघ में सभी के चरणों तक मेरी सविनय वन्दना पहुंचा दें।
सदैवसा, संत चरणानुरागी
नीरज जैन
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पत्रोत्तर
'लुहाड़िया सदन', जयपुर रोड, मदनगंज-किशनगढ़ (राज.) 305805
दिनांक : 20.4.2005 आदरणीय श्री नीरज जी, सविनय जय जिनेन्द्र।
आपके दो पत्र मिले । पहले पत्र में फिरोजाबाद में आपके साथ हुए दुर्व्यवहार के समाचार पढ़कर अत्यंत दुःख हुआ।इस घटना की जितनी निंदा की जाय उतनी ही कम है। शिष्टता में अग्रणी रही हमारी अहिंसोपासक दिगम्बर जैन समाज को इन दिनों क्या हो गया है। लेखन एवं वाणी की स्वतंत्रता के सिद्धांत को हमारे देश के संविधान से पूर्व अतीतकाल से जैनधर्म में अनेकांत के प्रयोगपक्ष के रूप में स्वीकार किया है। अत: किसी भी विषय पर अपने विचार प्रकट करना आपका मौलिक अधिकार है। उन विचारों को स्वीकार करना या न करना दूसरों का मौलिक अधिकार है। किंतु विचार-भिन्नता को आधार बनाकर हिंसात्मक व्यवहार करना तो अत्यंत निंदनीय है। कुछ ही दिनों पहले ऐसी ही घटना श्री अभय बरगाले इचलकरंजी-वालों के साथ कुंथुगिरि पर घटी थी। उन पर किया गया आक्रमण तो इतना क्रूर था कि उन्हें 3-4 दिन अस्पताल में रहना पड़ा था। काश! हम गंभीरता से विचार कर पायें कि | इस प्रकार के व्यवहार से हम धर्म को पुष्ट नहीं, अपितु नष्ट करने जा रहे हैं। अधिक दुःख तो तब होता है, जब हम देखते हैं कि ऐसा व्यवहार करनेवाले लोग अज्ञानता के कारण संभवत: यह भ्रम पाले रहते हैं कि वे इस प्रकार धर्म प्रभावना का कार्य कर रहे हैं। काश! हम समझ पायें कि हिंसा, असहिष्णुता, साधर्मी-अवात्सल्य, साधर्मी-निंदा का प्रत्येक कार्य नियम से धर्म की महती अप्रभावना का ही कारण होता है।
___ आप विज्ञ हैं। मुझे विश्वास है कि आप इस घटना को उपसर्ग समझते हुए समता-भाव से सहकर कर्म-निर्जरा का निमित्त बना लेंगे।
दूसरे पत्र में आपने कुंडलपुर क्षेत्र पर अभी घटी दुर्घटनाओं के बारे में चिंता व्यक्त की है। क्षेत्र एवं बड़े बाबा के प्रति आपकी श्रद्धा के कारण आपकी चिंता स्वाभाविक है। तालाब में इन्दौर के यात्री बालक का असावधनीवश डूब जाने में किसी देवता की मंदिर | निर्माण के संबंध में रुष्टता की कल्पना कैसे की जा सकती है? बड़े बाबा के रक्षक-देवता को यदि मंदिर-निर्माण से नाराजगी हो तो निर्माण करनेवालों का अनिष्ट करना चाहिए था, अबोध निरपराध यात्री बालक का जीवन छीनकर उनका क्या प्रयोजन सिद्ध होता है? इसी प्रकार कार्यरत श्री रामधन की मृत्यु को भी देवकोपकृत कैसे माना जा सकता है? क्योंकि निर्माण-कार्य करने में बेचारे रामधन का क्या अपराध था? वह तो मंदिर-निर्माण के पक्ष-विपक्षसे निरपेक्ष केवल अपनी अजीविका के लिए कार्यरत था।देवताओं की सामर्थ्य और ज्ञान के बारे में संदेह नहीं किया जा सकता है। वे चाहें तो निर्माणकर्ताओं एवं निर्माणकार्य पर अपनी शक्ति का प्रयोग कर कार्य को सरलता से रुकवा सकते हैं। श्री रामधन की मृत्युका कारण आपने पत्र में ठीक लिखा है "उन्हें तो निर्माताओं की प्रमाद आर दोषपूर्ण योजना के कारण ऐसे ही अपने प्राणों की आहुति देते रहना पड़ेगी।"वास्तव में निर्माताओं के प्रमाद. असावधानी एवं त्रुटिपूर्ण व्यवस्था के कारण ही यह दुर्घटना घटी है और आगे भी दुर्घटनाओं की संभावना बनी रह सकती है। आपके द्वारा देवताओं के शाप को इन दो दुर्घटनाओं के कारण के रूप में कल्पना किया जाना मेरी समझ में सर्वथा निराधार है।
बड़े बाबा की प्रतिमा को दैवी शक्तियों का संरक्षण तथा देवताओं की शापानुग्रह शक्ति की बात आपने लिखी है। उसको मान लेने पर एवं अब तक के निर्माण कार्य के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर मुझे तो ऐसा लगता है कि प्रतिमा के रक्षक देवताओं की इस नए विशाल मंदिर के निर्माण एवं बड़े बाबा के वहाँ स्थानांतरण में सहमति है। यदि इन रक्षक देवताओं को आपत्ति होती, तो वे अतुल दैवी-शक्ति-सम्पन्न देवता अबतक हुए निर्माण कार्य को नहीं होने देते। देवताओं की शक्ति के आगे यह मर्त्य अशक्त मानव कैसे कुछ कर सकने में समर्थ हो सकता है? अब तक की सभी परिस्थितियां यही घोषणा कर रही हैं कि बड़े बाबा स्वयं एवं उनकी प्रतिमा के रक्षक देवता यही चाहते हैं कि उस प्रतिमा की गरिमा के अनुकूल विशाल मंदिर के गर्भगृह में वह प्रतिमा विराजित हो और भक्त दर्शकों की बढ़ी हुई संख्या सुविधापूर्वक दर्शन-लाभ प्राप्तकर अपने परिणामों को विशुद्ध बनाए एवं बड़े बाबा के गुणगान गाए।
__ आपके परामर्श को समुचित मूल्य प्रदान करते हुए आपसे निवेदन है कि आपस्वयं पधारकर समय-समय पर निर्माणकर्ताओं का मार्ग दर्शन करते रहें। आदर सहित,
आपकास्नेहभाजन मूलचंदलुहाड़िया
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ग्रंथ - समीक्षा
दिशाबोध देता है शोध - संदर्भ
शान्तिलाल जैन ( जांगड़ा )
प्राचीन जैनसाहित्य । पुराण, जैन नीति, आचार, धर्म योग एवं जैन इतिहास, संस्कृति, प्राकृत भाषा में लिखा कला एवं पुरातत्व - संबंधी शोध-प्रबन्धों का विषयवार गया। इसके उपरान्त वर्गीकृत परिचय है। जैन बौद्ध तुलनात्मक विषय के अन्तर्ग संस्कृत, अपभ्रंश, दक्षिण- जैन योग और बौद्ध योग, जैन एवं बौद्ध न्याय में अनुमान भारतीय भाषाओं, अन्य इत्यादि के तुलनात्मक अध्ययन से संबंधित शोध-प्रबन्धों प्रादेशिक भाषाओं एवं के परिचय हैं। इसी तरह जैन वैदिक तुलनात्मक अध्ययन हिन्दी में जैनसाहित्य की विषय के अन्तर्गत जैनधर्म एवं गीता में कर्मसिद्धांत, शंकर रचना हुई । मध्यकाल तक तथा कुन्दकुन्द के दार्शनिक विचार, स्वामी पारसनाथ और विभिन्न भाषाओं में लिखे गुरुनानक, जैनदर्शन और कबीर इत्यादि के तुलनात्मक गये जैनसाहित्य को धार्मिक अध्ययन से संबंधित शोध-प्रबन्धों के परिचय हैं। साहित्य मानकर इसकी अपेक्षा की गई। किन्तु उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में प्राच्य और पाश्चात्य विद्वानों ने इस साहित्य की ओर ध्यान दिया और अनेक गवेषणात्मक और तुलनात्मक ग्रंथ लिखे गये । शोध-उपाधियों के लिए भी विभिन्न विश्वविद्यालयों के अंतर्गत अनेक शोध-प्रबन्ध लिखे गये। यह कार्य सतत् होता रहा है। प्राकृत और जैनविद्या में रुचि रखनेवाले विद्वानों एवं इस क्षेत्र में नयी शोध करनेवाले व्यक्तियों को संबंधित क्षेत्र में शोध-प्रबन्धों के परिचय की आवश्यकता सदैव रहती है। उन्हें यह ज्ञात होना चाहिए कि कौनसी सामग्री कहाँ पर उपलब्ध होगी। श्री कुन्दुकुन्दु जैन महाविद्यालय, खतौली के रीडर एवं संस्कृत विभाग के अध्यक्ष डॉ. कपूरचंद जैन ने 'प्राकृत एवं जैन विद्या: शोध-संदर्भ Bibliography of Prakrit and Jaina Research' नामक पुस्तक का सन् 2004 ई. में पूर्णतः परिवर्तित एवं परिवर्धित संस्करण प्रकाशित कर इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किया है। पुस्तक का प्रथम संस्करण सन् 1988 ई. में एवं द्वितीय संस्करण सन् 1991 में निकाला गया था।
प्राकृत एवं जैनविद्या :
शोध- सन्दर्भ
BIBLIOGRAPHY OF PRAKRIT AND JAINA RESEARCH
Dr. Kapoor Chand Jain
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तृतीय संस्करण में भारतीय विश्वविद्यालयों में हुए लगभग 100 तथा विदेशी विश्वविद्यालयों में हुए 131 शोधप्रबन्धों का परिचय दिया गया है। भारतीय विश्वविद्यालयों
हुए लगभग 1100 शोध-प्रबन्धों को 34 विषयों में वर्गीकृत किया गया है। सर्वप्रथम प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत, गुजराती, मराठी, राजस्थानी, हिन्दी एवं दक्षिण- भारतीय भाषाओं में लिखे गये जैनसाहित्य से संबंधित शोध-प्रबन्धों का भाषावार वर्गीकरण करके परिचय दिया है। इसके पश्चात् भाषाविज्ञान एवं व्याकरण, जैनागम, जैन न्याय तथा दर्शन, जैन 28 जून 2005 जिनभाषित
जैन रामकथा - साहित्य के अन्तर्गत जैन रामकथा साहित्य का बाल्मीकिकृत रामायण, गोस्वामी तुलसीकृत रामचरित मानस इत्यादि से तुलनात्मक अध्ययन से संबंधित शोध-प्रबन्धों का परिचय दिया गया है। व्यक्तित्व एवं कृतित्व विषय के अन्तर्गत प्राचीन एवं वर्तमान युग के विभिन्न जैनाचार्यों, जैन सन्तों, पंडितों एवं विद्वानों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व-सम्बन्धी शोध-प्रबन्धों का परिचय है। जैन विज्ञान एवं गणित विषय के अन्तर्गत दिये गये शोध-प्रबन्धों के कुछ शीर्षक हैं - गणित और ज्योतिष के विकास में जैनाचार्यों का योगदान, भारतीय दर्शन में परमाणुवाद (जैनदर्शन के विशेष सन्दर्भ में) प्राचीन भारतीय सैन्य-विज्ञान एवं युद्धनीति (जैन स्रोत के आधार पर)। जैन राजनीति विषय के अन्तर्गत जैन - साहित्य में निर्दिष्ट राजनैतिक सिद्धांत एवं जैन शिक्षा शास्त्र विषय के अन्तर्गत प्राचीन भारतीय जैन शिक्षाव्यवस्था इत्यादि से संबंधित शोध-प्रबन्धों का परिचय है। जैन मनोविज्ञान एवं भूगोल, जैन अर्थशास्त्र इत्यादि विषयों के अन्तर्गत भी कई शोध-प्रबन्धों का परिचय है, जिनका ज्ञान विद्वानों एवं शोधार्थियों के लिये उपयोगी है। इन विषयों के अतिरिक्त पर्यावरण, शाकाहार विज्ञान, गांधीवाद, मानवमूल्य, आयुर्वेद, संगीत, पुस्तकालय विज्ञान, पत्रकारिता इत्यादि विषय भी शोध-प्रबन्धों की सूची से अछूते नहीं हैं।
जैन केन्द्र, रीवा के निदेशक डॉ. नन्दलाल जैन ने इस पुस्तक का 'विदेशों में जैनविद्या शोध (Jainalogical Researches Abroad)' अध्याय लिखकर इस ग्रंथ की उपयोगिता में वृद्धि की है। अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, जापान, कनाडा, फ्रांस इत्यादि देशों में स्थिति विभिन्न विश्वविद्यालयों से संबंधित 131 शोध-प्रबन्धों का परिचय इस अध्याय से
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हमें प्राप्त होता है। पुस्तक के प्रारम्भ में मानद् डी.लिट. | लिखे जा चुके हैं। शोध-संदर्भ के संकलन का जो परिश्रमयुक्त उपाधि प्राप्त जैन विभूतियों का उल्लेख किया गया है। पुस्तक | कार्य इन्होंने किया है, वह प्रशंसनीय है। विषयवस्तु की में उन विश्वविद्यालयों की सूची भी दी गई है जिन्हें इस ग्रंथ | प्रामाणिकता का लेखक ने पूरा ध्यान रखा है। पुस्तक इस में उद्धृत किया गया है तथा जहाँ प्राकृत, अपभ्रंश एवं जैन- तरह की शैली में तैयार की गई है कि हिन्दी एवं अंग्रेजी विद्याओं पर शोधकार्य हुए हैं। जैनविद्या से संबंधित 101 दोनों के पाठक इसका लाभ उठा सकें। इसके प्रकाशन हेत शोधयोग्य वर्गीकृत विषयों की सूची एवं विभिन्न प्रकाशकों अर्थ-सहयोग-प्रदाता वर्ल्ड काउंसिक ऑफ जैन एकेडमिज़ की सूची भी शोधार्थियों के उपयोग हेतु प्रस्तुत की गई है। लंदन के अध्यक्ष डॉ. नटुभई शाह हैं। यह ग्रंथ प्राकृत और लेखक ने लगभग 200 शोध-प्रबन्धों का एक छोटे पुस्तकालय जैनविद्या के अध्ययन में रुचि रखनेवाले विद्वानों और इस के रूप में संकलन किया है। इससे संबंधित ग्रंथों का विस्तृत | | क्षेत्र में नवीन शोध करनेवाले शोधार्थियों हेतु दिशाबोध परिचय संदर्भग्रंथ में दिया है। शोधार्थियों द्वारा संकलित ग्रंथों करानेवाला महत्वपूर्ण ग्रंथ है। मन्दिरों, पुस्तकालयों तथा के उपयोग के बारे में निर्देश संदर्भग्रंथ के पीछे दिये हैं। व्यक्तिगत संकलनकर्ताओं के लिये यह अति उपयोगी है।
शोध-संदर्भ में विभिन्न विषयों के शोधकर्ताओं के | पुस्तक का प्रकाशन आकर्षक एवं सुन्दर है। भारतीय मुद्रा नामों को देखकर ज्ञात होता है कि प्राकृत और जैनविद्या | में इसका मूल्य रु.200 एवं विदेशी मुद्रा में डालर 5 है। साहित्य के अध्ययन एवं शोध के क्षेत्र में जैन ही नहीं अनेक पुस्तक में दिये गये प्राप्ति-स्थानों में से दो निम्नानुसार हैं : जैनेतर व्यक्तियों एवं विद्वानों की भी गहरी रुचि रही है।। (1) डॉ. कपरचन्द जैन, सचिव-श्री कैलाशचन्द जैन स्मति विदेशी विश्वविद्यालयों के अतिरिक्त भारतीय विश्वविद्यालयों न्यास, श्री कुन्दकुन्द जैन महाविद्यालय परिसर, खतौली - से संबंधित शोधकर्ताओं के कछ नाम यह भी हैं- पी.एम. | 251201 (उ.प्र.), (2) डॉ. नन्दलाल जैन, जैन सेन्टर, जोसेफ, डी.बी. पठान, कु. अनीस फातिमा, अंजुम सैफी, | रीवा-486001। पुस्तक का प्रकाशन श्री कैलाशचन्द जैन Ohira Suzuka,M.C. Thomas,Miss MariaHibbets,Esthar | स्मृति न्यास, खतौली (उ.प्र.) द्वारा किया गया है। Abraham एवं यामिन मौहम्मद।
श्रेयस, 2-डी, कालाजी गोराजी कॉलोनी, डॉ. कपरचन्द जैन द्वारा अब तक 'स्वतंत्रता संग्राम में
उदयपुर (राज.) जैन' इत्यादि चार पुस्तकें एवं लगभग 50 शोधपूर्ण लेख
तीर्थंकर तीर्थ अर्थात् घाट । जिस घाट को पाकर संसार सागर से तरा जाए वह तीर्थ है। मोक्ष प्राप्ति के उपायभूत रत्नत्रय धर्म को तीर्थ कहा गया है। 'तीर्थं करोति इति तीर्थंकर' इस तरह धर्म-तीर्थ के जो कर्त्ता अर्थात् प्रवर्तक होते हैं वे तीर्थंकर कहलाते हैं। तीर्थंकर का तीर्थ, उनका शासन सर्वजन हितकारी, सर्वसुखकारी होने से 'सर्वोदय तीर्थ' कहा जाता है। जहाँ पर सबके उदय/कल्याण की बात होती है वही तो सर्वोदय तीर्थ है। जीव यदि पुरुषार्थ करे तो पतित से पावन परमात्मा बन सकता है। निगोद पर्याय से निकलकर उत्थान करता हुआ निरञ्जन निर्वाण पद को भी प्राप्त कर सकता है। यह दिव्य संदेश तीर्थंकर भगवन्तों के शासन से ही प्राप्त हुआ है। तीर्थंकर पद की प्राप्ति में कारण-भूत तीर्थंकर प्रकृति पुण्य-कर्म की एक ऐसी विशिष्ट प्रकृति है जिसके बंध होने से लेकर उदय में आने तक उस जीव को इस संसार के लिए चमत्कृत करने की असाधारण शक्ति प्राप्त होती है। लोक मंगलकारी अतिशय घटित हुआ करते हैं। सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय की पवित्र भावना से आपूरित जब दर्शनविशुद्धि आदि सोलहकारण भावनाओं को कोई जीव भाता है तब वह तीर्थंकर प्रकृति के विशिष्ट पुण्य का संचय करता है। मोक्ष जाने के लिए तीर्थंकर बनना जरूरी नहीं है किन्तु तीर्थ प्रवर्तन कर व्यापक रूप से धर्म प्रभावना और जगत का हित करने के लिए तीर्थंकर पद पाना जरूरी है। जब धर्म का प्रभाव घटने लगता है और मिथ्यात्व का प्रभाव बढ़ने लगता है तब तीर्थंकर अवतरित होकर धर्म-तीर्थ की स्थापना करते हैं। कहा गया है : आचाराणां विघातेन कुदृष्टिनां च संपदा । धर्मग्लानिं परिप्राप्तमुच्छ्रयन्ते जिनोत्तमाः।
__ (पद्मपुराण ५/२०६) 'शलाका पुरुष' (मुनिश्री समतासागर जी) से साभार
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ज्ञानकथा
थोड़े के लिए बहुत हानि किसी नगर में एक निर्धन और भाग्यहीन वणिक , पेड़ के नीचे गड्ढा खोदकर वणिक ने सारी मुद्राएँ गाड़ दीं। रहता था । निर्धन और भाग्यहीन होने के साथ वह कंजस | ऊपर से मिटटी ढक दी और पहचान के लिए निशान बना भी अव्वल दर्जे का था । मितव्ययिता-किफायतशारी और | दिया । कृपणता अथवा कंजूसी दोनों भिन्न हैं । कंजूसी कभी ठीक लौटकर वह दुकानदार के पास पहुँचा । बोला- यहाँ नहीं । कंजूसों का धन दूसरे ही उड़ाते हैं।
मेरी एक काकिणी गिर गई थी । मुझे वापस कर दो । इस निर्धन वणिक ने बहत प्रयास किये. पर धन उसे | दकानदार साफ मुकर गया । बोला-यहाँ तो नहीं गिरी । नहीं मिला । पेट भरना अलग बात है । पेट तो सभी भर लेते | तुमने मुझे एक कार्षापण दिया था और मैंने सामान देकर हैं। एक बार इस नगर के कुछ व्यापारी धन कमाने के लिए | बची हुई काकिणी गिनकर तुमको वापस कर दी थी । अब विदेश गए । यह भाग्यहीन वणिक भी उनके साथ हो | मैं नहीं जानता, कहाँ गिरी? लिया। दूर-देश जाकर सबने व्यापार किया । सबको खूब | । कहीं नहीं मिली खोई हुई एक काकिणी । बेचारा लाभ हुआ । इस बेचारे ने भी अपनी कृपण-वृत्ति से एक | निराश लौटा । पहले स्थान पर गड़ी मुद्राएँ निकालने के हजार स्वर्णमुद्राएँ जोड़ ली थी । क्रय-विक्रय समाप्त कर | लिए गड्ढा खोदा तो मुद्राएँ नदारद थीं । जिस समय उसने सब अपने देश को लौटने लगे।
ये मुद्राएँ गाड़ी थीं, उस समय कोई दूर से देख रहा था, सो मार्ग में एक नगर पड़ा । सब यहाँ ठहरे और अपने | निकाल ले गया । घर के लिए कुछ जरूरी चीजें खरीदी । एक कर्षापण (एक | भाग्य का मारा बेचारा वणिक सिर पकड़कर बैठ सिक्का जिसमें 20 काकिणी होती थी) भुनवाकर कुछ सामान | गया और रोने लगा । रोने से क्या होता? लुटा-पिटा घर इस निर्धन वणिक ने भी खरीदा । यथासमय सब आगे चल | लौटा और आपबीती सबको सनाई । सनकर सबने यही दिये। चलते-चलते एक जंगल में पहुँचे । कछ देर विश्राम | कहा- थोडे के पीछे बहत गँवा दिया । किसी की न माननेवाले किया । वणिक ने अपनी मद्राएँ सम्हाली. काकिणी गिनी तो | इसी तरह पछताते हैं । एक काकिणी के पीछे हजार मद्राएँ उनमें एक काकिणी कम थी । उसने अपने साथियों से | गँवा दी, वाह रे मूढ़। कहा- पीछे नगर में मैंने एक कार्षापण भुनवाया, उसमें एक | विषय-भोगरूपी थोड़े से सुख के पीछे पड़े रहनेवाले काकिणी कम हो रही है । मेरी एक काकिणी या तो दुकान | आत्मोद्धाररूपी महासुख को इसी तरह गँवा देते हैं । तलवार पर रह गई या कहीं रास्ते में गिर गई । आप लोग यहाँ | पर लिपटा शहद तो दीखता है, पर उसकी धार भी दीखनी रुकिए। मैं खोई हई काकिणी लेकर उलटे पैरों वापस आता चाहिए, वरना शहद चाटनेवाले की जीभ कट जाती है । एक
काकिणी के लिए पीछे लौटना मूर्खता है । मुक्ति-सुख वही साथियों ने समझाया-अब पीछे लौटना व्यर्थ है । प्राप्त करते हैं, जो पीछे नहीं लौटते, आगे बढ़ते रहते हैं और इतनी दूर निकल आये । एक काकिणी के लिए इतना पीछे | जिनका हर कदम सावधानी के साथ रखा जाता है तथा जो लौटना बुद्धिमानी नहीं । फिर भी यह जरूरी नहीं कि वह | गुरुवचनों पर श्रद्धा रखते हैं । मिल ही जाए । क्या खोई हुई चीज कहीं मिलती है ? | दुकानदार के पास होगी, तो वह भी अब देने से रहा ।
जरूर सुनें वणिक नहीं माना । अन्त में साथियों ने कहा-तम्हारी
सन्त-शिरोमणि आचार्यरत्न श्री 108 विद्यासागर जी इच्छा। लेकिन हम तुम्हारी प्रतीक्षा यहाँ जंगल में नहीं कर
महाराज के आध्यात्मिक एवं सारगर्भित प्रवचनों का प्रसारण सकते। हम तो चलते हैं । अगर मिल सके तो आगे किसी
'साधना चैनल' पर प्रतिदिन रात्रि 9.30 से 10.00 बजे तक नगर या गाँव में मिल जायेंगे ।
किया जा रहा है, अवश्य सुनें। साथी आगे बढ़ गए । वणिक काकिणी खोजने पीछे
नोट : यदि आपके शहर में 'साधना चैनल' न आता हो तो लौटने लगा । उसने सोचा, साथ की इन मुद्राओं को कहाँ
कृपया मोबाइल नं. 09312214382 पर अवश्य सूचित लिये फिरूँगा? यहीं कहीं छिपा दूं, लौटकर ले लूँगा । एक
करें।
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समाचार
ईसरी में मुनिश्री प्रमाणसागर जी का | मेरठ में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव का आयोजन वैराग्य-स्मरण दिवस सम्पन्न
सराकोद्धारक परमपज्य उपाध्याय श्री ज्ञानसागरजी 4 इसरीवासियों एवं उदासीन आश्रम के परम सौभाग्य | महाराज एवं क्ष. श्री सहजसागरजी महाराज के पावन सान्निध्य से परमपूज्य आचार्य १०८ श्री विद्यासागर जी महाराज के
में दिनांक १२ जून २००५ से १८ जून २००५ तक रेलवे रोड, परमशिष्य झारखण्ड-गौरव पूज्य मुनि १०८ श्री प्रमाणसागर |
तीर्थंकर महावीर मार्ग श्री दि. जैन मंदिर की पंचकल्याणक जी महाराज एवं पूज्य क्षुल्लक १०५ श्री सम्यक्सागर जी
प्रतिष्ठा का आयोजन पं. गुलाबचन्द्रजी 'पुष्प' के निर्देशन एवं महाराज का मंगल पदार्पण दिनांक ३० मार्च को उदासीन
ब्र. जयनिशान्त जी के प्रतिष्ठाचार्यत्व में किया जा रहा है, आश्रम में हुआ एवं दिनांक ३१ मार्च को उनके १८वें दीक्षादिवस के अवसर पर उदासीन आश्रम में वैराग्य-स्मरण
जिसका विशाल पाण्डाल रेलवे रोड स्थित वर्धमान एकेडमी दिवस का आयोजन हुआ, जिसमें काफी धर्म-प्रभावना हई। म बनाया जायेगा एवं पाण्डुक शिला का आयोजन महावीर
नरेश कुमार जैन, | जयन्ती भवन में किया जायेगा। सूरज भवन, स्टेशन रोड़, पटना-800 001 (बिहार)
सुनील कुमार जैन, मेरठ शहर
उपाध्याय श्री ज्ञानसागर जी का तिहाड़ जेल में प्रवचन
अनेकान्त ज्ञानमंदिर शोधसंस्थान बीना की भव्य "आपको अपना पेट भरना है, तो न्याय नीति की __ प्रस्तुति "समयसार महोत्सव" कमाई से भरो। किसकी खातिर इतने पाप करते हो? क्या अध्यत्म शिरोमणि आ. कुन्दकुन्दस्वामी की तुम्हारे माता-पिता, पत्नी कर्मों को भोगने में सहयोग करेंगे?"
अमरकृति 'समयसार' ग्रन्थराज अपनी तीन संस्कृत टीकाओं ये धार्मिक उद्गार पूज्य उपाध्याय श्री ज्ञानसागर जी | (आत्मख्याति-अमृतचन्द्राचार्यकृत, तात्पर्यवृत्तिमहाराज ने दिल्ली की प्रसिद्ध तिहाड़ जेल में हजारों की | जयसेनाचार्यकृत एवं तत्वप्रबोधनी-पं. मोतीलाल जी कोठारी तादात में उपस्थित कैदियों के मध्य व्यक्त किए। फलटणकृत) एवं हिन्दी विवेचन के साथ अनेकान्त भवन
केन्द्रीय कारागार (तिहाड़ जेल नं.4) में दिनांक ४ | ग्रन्थमाला के १३वें पुष्प के रूप में प्रकाशित किया गया है। अप्रैल, २००५ को कैदियों को सम्बोधित करते हुये पूज्यश्री | सम्पूर्ण समयसार ग्रन्थ को चार खण्डों में प्रकाशित ने कहा कि यह देश वह देश है जहाँ पर अहिंसा और सत्य | किये जाने की योजना है, जिसमें प्रथम एवं द्वितीय खण्ड में के प्रकाश से सारा जगत प्रकाशित होता था, जहाँ पर राम, | कर्तृकर्माधिकार पर्यन्त १४४ गाथाओं का प्रस्तुतिकरण १२०८ महावीर जैसे महापुरुषों ने जन्म लेकर नई राह दिखाई थी, | पृष्ठों में किया गया है। माँ जिनवाणी के बहुमान को दृष्टि में यह वह देश है, जहाँ पर राम, रहीम, महावीर के समय | रखते हुए ग्रन्थराज पर मूल्य अंकित न करते हुए प्रचारअहिंसा, दया बरसती थी, किन्तु आज उसी धरा पर अहिंसा, | प्रसार. सदपयोग करने के लिए संस्थान के द्वारा ससम्मान दया खोजे नहीं मिल रही है। यह नरभव कुछ करने के लिये |
भेंट स्वरूप प्रदान किया जा रहा है। इस ग्रन्थ के प्रकाशन में मिला है। इस नरभव को पाकर जो अन्याय, अनीति, अत्याचार |
सदाचारी, अष्टमूलगुणधारी, गुप्तदान के रूप में दान देनेवाले कर तिजोरी भरते हैं वह नरभव को पाकर यूँ ही गवाँ देते हैं।
श्रावक-श्राविकाओं की राशि का उपयोग किया गया है। इस वाल्मीकि को जब यह ज्ञात हुआ कि इन कर्मों का फल
महान कार्य में परमपूज्य गुरुवर श्री १०८ सरलसागर जी स्वयं को ही भोगना पड़ता है, माता-पिता, पत्नी-पुत्र आदि कर्मों का फल भोगने में सहयोग नहीं करेंगे, तब उनकी दृष्टि
महाराज का पुनीत आशीर्वाद एवं परमपूज्य मुनिश्री १०८ परिवर्तित हो गई, फिर वह संत बन गये।
ब्रह्मानंदसागरजी महाराज की पावन प्रेरणा रही है। हंस कुमार जैन, मेरठ
ब्र. संदीप 'सरल' मानद सम्पादक 'सराक सोपान'
संस्थापक - अनेकान्त ज्ञानमंदिर शोधसंस्थान, बीना
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माननीय सिद्दीकी जी द्वारा
| मिली। बुद्धि-कौशल और विशेष कर्त्तव्यपरायणता के कारण विद्यासागर इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेन्ट का अवलोकन | 30 वर्ष की युवावस्था में आप इस गौरवपूर्ण पद (स्क्वेड्रन
माननीय न्यायमूर्ति श्री एम.एस.ए. सिद्दीकी, अध्यक्ष, | लीडर) पर पहुँच गये हैं। ऐसी होनहार युवा प्रतिभा पर राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान आयोग एवं श्री इब्राहिम | सम्पूर्ण देश और जैनसमाज को नाज़ है। कुरैशी, अध्यक्ष, मध्यप्रदेश राज्य अल्पसंख्यक आयोग ने अपनी व्युत्पन्नमति और ईमानदारी के कारण भारतीय १२ अप्रैल २००५ को विद्यासागर इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेन्ट | वायसेना के कोर्टमार्शल में मजिस्टेट के पद पर भी आपने संस्थान के ज्ञानोदय भवन, शांति भवन और त्रिशला भवन | अतिरिक्त सेवाएँ दीं। ज्ञातव्य है कि आप जैनदर्शन के प्रसिद्ध का अवलोकन कर संस्थान की गतिविधियों की सराहना
| विद्वान एवं वैज्ञानिक आधार पर प्रवचन में दक्ष पं. निहालचंद की। माननीय सिद्दीकी जी पाँच वर्ष की छोटी-सी अवधि में |
जैन बीना (म.प्र.) के द्वितीय दामाद हैं। जिन्होंने स्वयं एवं संस्थान की विशाल प्रगति को देखकर अत्यधिक प्रसन्न आपके पितामह ने दहेज लेने से स्पष्ट मनाकर, आज से तीन हए। उन्होंने घोषणा की कि यह संस्थान शीघ्र ही राष्टीय स्तर
वर्ष पूर्व जयपुर से पण्डित जी की द्वितीय सुपुत्री नन्दिनी का उत्कृष्टतम शिक्षाकेन्द्र बन जावेगा।
जैन से परिणय-सम्बन्ध करके सामाजिक आदर्श को साकार
संगीता जैन, किया था। शाकाहार जीवनशैली और जैनधर्म के संस्कार डी-१९/१०२, माचना कॉलोनी, भेपाल, म.प्र. | आपको विरासत के रूप में अपने दादा और पिता (स्व.) श्री
सुनीलकुमार जैन से मिले, जो राजस्थान शिक्षाविभाग में सरोदा ( राजस्थान) में वेदीप्रतिष्ठा महोत्सव
प्राचार्य पद पर थे। राजस्थान के दक्षिणी भाग में स्थित वागड़ प्रदेश के |
रेडॉर प्रक्षेपास्त्र आदि इलेक्ट्रानिक यंत्रों के विशेषज्ञ सरोदा नगर में सकल दिगम्बर जैनसमाज द्वारा श्री १००८ |
स्के.ली. निमिष जैन के भावी उज्ज्वल भविष्य के लिए भगवान आदिनाथ दिगम्बर जैनमंदिर का वेदीप्रतिष्ठा महोत्सव
हार्दिक शुभकामनाएँ। परमपूज्य धर्मालंकार आचार्य १०८ श्री रयणसागर जी महाराज
सिद्धार्थ जैन, युवा संगीतज्ञ, बीना (म.प्र.) ससंघ एवं परमपूज्य मुनि १०८ श्री आज्ञासागर जी महाराज ससंघ के पावन सान्निध्य में एवं प्रतिष्ठाचार्य, मन्दिर-शिल्प
आई.आई.टी. की परीक्षा में उत्तीर्ण वास्तु-शास्त्री पंडित श्रीमान् कान्तिलालजी पगारिया निवासी सागवाड़ा जिला डूंगरपुर (राज.) एवं सह प्रतिष्ठाचार्य श्री
एलोरा गुरुकुल के सदस्य श्री नेमीचंदजी.
अर्पण (जैन) के सुपूत्र चि. पराग विनोद पगारिया 'विरल' के नेतृत्व निर्देशन में रविवार दिनांक
आई.आई.टी. गेट 2005 परीक्षा में ऑल २९ मई से बुधवार दिनांक १ जून २००५ तक धर्मभावनात्मक विधिक कार्यक्रमों के साथ आयोजित किया जा
इंडिया रैंक 21 से उत्तीर्ण हुए हैं
गुलाबचंद बोरालकर रहा है।
श्रद्धांजलि महावीर जैन
स्व. श्री बाबूलाल जैन बज (इंजीनियर साहब) राष्ट्र सेवा के लिए समर्पित :
को शत् शत् नमन जैनसमाज-गौरव : स्क्वे ड्रन लीडर निमिष जैन
| श्रद्धा-सुमन का हार बनाकर, देश के पश्चिमी सेक्टर कच्छ क्षेत्र भुज में, भारतीय | आपको है समर्पित। वायुसेना में, वैमानिक इन्जीनियरिंग (इलेक्ट्रॉनिक्स) में विगत | जिनके कारण हम सभी ने की है प्रगति, आठ वर्षों से अपनी विशिष्ट सेवाएँ देते हुए फ्लाइट ले. | प्रतिष्ठा अर्जित ॥ निमिष जैन अभी हाल में स्क्वेड्रन लीडर के पद पर पदोन्नत | | शशिकान्ता (धर्मपत्नी), श्रवणकुमार हुए हैं। लड़ाकू विमानों में मिसाइल-स्क्वेड्रन के विशेषज्ञ | (भ्राता), अरुणकुमार-सुनीता (पुत्र-पुत्रवधु), बालकृष्ण, निमिषि जैन ने एम.बी.एम. इन्जी. कॉलेज जोधपुर से | कैलाश, रमेश, शान्तिलाल, सुनील कुमार, कमलेश, शैलेन्द्र, इलेक्ट्रॉनिक्स इन्जी. में डिग्री प्राप्त की और प्रतिभा के धनी | दीपक, संजय, विपिन, अजय (भतीजे), अपूर्व, संभव होने से प्रथमबार में ही 24 नवम्बर 1997 में भारतीय वायुसेना | (पौत्र), अंकिता (पौत्री) एवं समस्त बज परिवार छावनी, .. में पायलेट ऑफीसर के रूप में कमीशन प्राप्त कर जोधपुर | कोटा। एवं पाकिस्तान सीमा जैसलमेर और पोरवरण में नियक्ति
जैन मंदिर, नगर परिषद कॉलोनी, छावनी, कोटा
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तीर्थंकर
• डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन
आत्म / परमात्म / स्वयम्बुद्ध और प्रभु हैं आप।
हे तीर्थंकर! निरावण हो तुम तन से/मन से राग से/ द्वेष से धन से भी
आपको देखते ही आपमें देखते हैं मनुष्यों/ देवों/ पशुओं के साथ कीड़े-मकोड़े भी स्वयं का विकास विकासपुंज हैं आप।
वीतरागता अवश्य है तुममें अपनी पूर्णता के साथ इन्द्रियजयी हो तुम, आतमजयी भी।
तुम धर्म से बँधे हो आत्मधर्म से कर्म से रहित कर्मों के ज्ञाता-द्रष्टा होने पर भी। इसीलिए तुम्हें कहते हैंनिष्कर्म! यह कोई अभाव नहीं बल्कि, सद्भाव की निशानी है जो निकम्मे हैं (संसारी) उन्हें क्यों परेशानी है?
आपकी दृष्टि में न संकीर्णता है, न प्रलोभन न आशा है, न निराशा न याचना है, न तिरस्कार किससे माँगें और क्यों सब कुछ तो है आपके पास।
सम्प्रदायों से बेखबर नहीं किन्तु; साम्प्रदायिक नहीं हैं आप क्योंकि, साम्प्रदायिक होना छोटा-बड़ा होना है और आप देखते हैं सबमें बड़प्पन, आत्मा, आत्मबल स्वयं को जीतने का।
उसके लिए सुरक्षा कवच हैं आप जिसकी आस्था है आपमें, निज में आपका अविजित / अपराजेय रूप कहता है हर समय कि जीतो उसे नहीं जीत सका जिसे कोई आत्मा ही तो है वह जो बना सकती है तुम्हें परमात्म भी।
मनुष्यता का विराट्प हैं आप जिसे दिखाना नहीं पड़ता आपको बल्कि स्वयं ही दिख जाता है आपको निज में पर, पर में निजका वैभव इसीलिए तो आप आप हैं
यदि मुझ जैसे सच्चे / निजभाव से झाँको निज/ आत्मा में तो तुमसे भी दूर नहीं हूँ मैं
और न ही दूर है तुमसे तुम्हारा परमात्मा।
एल-65, न्यू इन्दिरा नगर, बुरहानपुर (म.प्र.)
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________________ रजि नं. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC डाक पंजीयन क्र.-म.प्र./भोपाल/588/2003-05 श्री सिद्धान्त तीर्थ क्षेत्र शिकोहपुर (गुड़गाँव) हरियाणा की झलकियाँ श्री पंचबालयति वेदिका मुख्य प्रवेश द्वार स्वागत कक्ष त्यागी तपोवन स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, जोन-1, महाराणा प्रताप नगर, __ Jain Education Internभोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं सर्वोदय जैन विद्यापीठ/205 प्रोफेसर कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित |