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मुनियों का वर्णन किया गया है।
के गुणश्रेणी-निर्जरा निरंतर होती है। यही संयम का माहात्म्य तीन दिन तक यह अखंड उपसर्ग चला, जो मुनिराज | है। के लिए स्वर्ग व अपवर्ग (मोक्ष) का सोपान माना जाता है। गणेशप्रसाद जी वर्णी कहा करते थे कि देखो, कोई धन्य है वह जीव। जिसको सरसों का दाना चुभता था, वही | असंयत-सम्यग्दृष्टि चक्रवर्ती है और वह सामायिक कर रहा संहनन, वही काया, सब कुछ वही, लेकिन इस प्रकार सहन | है, तो उससे भी असंख्यात-गुणी निर्जरा एक मामूली तिर्यंच करने की क्षमता कहाँ से आयी? तो बंधओ! यह भीतरी | पशु, जो घासोपयोगी अर्थात् जिसका उपयोग घास खाने में परिणामों की बात है। भीतरी गहराई में जब आत्मा उतर | लगा है, उसकी हो सकती है यदि वह पंचम गुणस्थानवर्ती जाती है, तब किसी प्रकार का बाहरी वातावरण उसपर | व्रती है। बड़ा अच्छा शब्द उपयोग में लिया है 'घासोपयोगी', प्रभाव नहीं डाल सकता। आचार्य वीरसेन स्वामी ने एक | घास खाने में उपयोग लगा है। यह सब किसका परिणाम है? स्थान पर लिखा है कि जब एक अनादि मिथ्या-दष्टि मिथ्यात्व | यह सब देश-संयम का परिणाम है। यहाँ विचारणीय बात से ऊपर उठने की भूमिका बनाता हआ उपशमकरण करना | तो यह है कि वह तिर्यंच होने की वजह से देश-संयम से प्रारंभ करता है तो उस समय तीनलोक की कोई भी शक्ति | ऊपर उठने में सक्षम नहीं है, लेकिन आप तो मनष्य हैं। उसपर प्रहार नहीं कर सकती। किसी प्रकार के उपसर्ग का | सकलसंयम/पालन करने की योग्यता आपके पास है. फिर उस पर प्रभाव नहीं पड़नेवाला और उपसर्ग की स्थिति में | भी आप संयम के इच्छुक नहीं हैं। भी उसकी मृत्यु संभव नहीं है।
जो सकल-संयम धारण कर लेता है, उसकी निर्जरा यह सब माहात्म्य आत्मा की भीतरी विशुद्धि का है। | की तो बात ही निराली है। एक महाव्रती मुनि की निर्जरा आत्मानुभूति के समय बाहर भले ही कुछ होता रहे, अंदर तो | सामायिक में लीन देशव्रती की अपेक्षा असंख्यात-गुणी है। आनंद ही बरसता है। यह आस्था/विश्वास का परिणाम है, जैसे जौहरी की दुकान में दिनभर में एक ग्राहक भले ही एकत्व-भावना का परिणाम है। वह भावना उस समय कैसी
आये, लेकिन सौदा होते ही ग्राहक और मालिक दोनों मालामाल थी कि
हो जाते हैं, ऐसे ही मोक्षमार्ग में महाव्रती की दुकान है। जैसेअहमिक्को खलु सुद्धो दंसणणाण मइयो सदारूवी।
जैसे एक-एक गुणस्थान बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे विशुद्धि
बढ़ने के कारण असंख्यात-गुणित कर्मों की निर्जरा बढ़ती णवि अस्थि मज्झ किंचवि अण्णं परमाणुमित्तंपि॥
जाती है। प्रशस्त पुण्य-प्रकृतियों में स्थिति व अनुभाग बढ़ अर्थात् मैं निश्चय से एक हूँ, दर्शनज्ञानमय हूँ और
जाता है। परिश्रम कम और लाभ ज्यादा वाली बात है। अरूपी हूँ, अन्य परपदार्थ परमाणु-मात्र भी मेरा नहीं है। कैसी परिणामों की निर्मलता है कि स्यालिनी के द्वारा शरीर
इसी प्रकार एक-एक लब्धिस्थान बढ़ाते हुए उपसर्ग
होने के बाद भी वह मुनिराज सुकमाल स्वामी कायोत्सर्ग में खाया जा रहा है और मुनिराज आत्मा में लीन हैं।
लीन थे। कायक्लेश-जैसे महान तप को कर रहे थे। निरंतर आप भी ऐसा कर सकते हैं। थोड़ा बहुत एकाग्र होते
आत्मचिंतन चल रहा था। क्लेश की बात ही मन में नहीं थी। भी हैं, प्रवचन सुनते हैं, अभिषेक करते हैं, पूजन करते हैं,
| बुंदेलखंडी भाषा में 'काय' शब्द 'क्या है' के अर्थ में प्रयुक्त स्वाध्याय करते हैं, यदि इन सभी क्रियाओं को विशुद्धता- | होता है। तो कायक्लेश का भाव यही निकलता है कि क्या पूर्वक संकल्प लेकर करते हैं तो असंख्यात्-गुणी निर्जरा | क्लेश अर्थात् कोई क्लेश नहीं है। आगम का गहराई से क्षणभर में होना संभव है। आठ वर्ष की उम्र से लेकर पूर्व- | चिंतन-मनन करें तो ज्ञात होगा कि अभ्यंतर तप के समान कोटि वर्ष तक कोई चाहे तो आठ मूलगुणों का पालन कर | कायक्लेश आदि बाह्य तप भी कर्मनिर्जरा में प्रबल कारण सकता है, बाहर व्रतों का पालन कर सकता है। इस प्रकार | हैं। बाह्य तप भी शुभोपयोगात्मक हैं और जो शुभोपयोग बंध जीवनपर्यन्त निर्दोष व्रतों का पालन करते रहने से एक असंयत | की अपेक्षा असंख्यात-गुणी निर्जरा कराता है, वह परम्परा से सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा देशव्रती मनुष्य या तिर्यंच की | मोक्ष का कारण माना गया है। मुक्ति के लिए साक्षात्-कारण असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा प्रतिसमय होती रहती है। असंयत- | शुद्धोपयोग है, लेकिन उस शुद्धोपयोग का उपादन-कारण सम्यग्दृष्टि की गुणश्रेणी-निर्जरा मात्र सम्यग्दर्शन के उत्पत्ति- | शुभोपयोग ही बनेगा। काल में ही हुआ करती है, अन्य समय में नहीं। लेकिन व्रती सम्यग्दृष्टि साधक की जो बाह्य तप के माध्यम से 6 जून 2005 जिनभाषित
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