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निर्जरा होती है, वह उसके संयम का परिणाम है। सम्यक्त्व | को जीवन में लाने का प्रयास करना चाहिये। यह प्रथमानुयोग की निर्मलता का परिणाम है। मिथ्यादृष्टि को छहढाला में | की कथा हमारे लिये बोधि और समाधि का कारण बन लिखा है कि वह 'आतम हित हेतु विरागज्ञान, ते लखें आपको | सकती है। कष्टदान'-आत्मा के हितकारी वैराग्य को, तपस्या को कष्टदायी
आचार्य समन्तभद्र ने इसीलिए ठीक लिखा है कि मानता है, वीतराग-विज्ञान को कष्ट की दृष्टि से देखता है, |
प्रथमानुयोगमाख्यानं, चरितं पुराणमपि पुण्यं । किंतु सम्यग्दृष्टि मुमुक्षु प्राणी निर्जरा-तत्त्व की ओर देखता है |
बोधिसमाधि निधानं, बोधति बोधः समीचीनः॥ और निर्जरा करता रहता है। संयमी की तो होलसेल (थोक)
परमार्थ-विषय का कथन करनेवाले चरित अर्थात् दुकान है, जिसमें करोड़ों की आमदनी एक सेकेण्ड में होती
एक पुरुषाश्रित कथा और पुराण अर्थात् त्रेसठ शलाकापुरुष
संबंधी कथारूप पुण्यवर्धक तथा बोधि और समाधि के यह है वीतराग-विज्ञान का फल, जो आत्मानुशासन
निधानरूप प्रथमानुयोग को सम्यक् श्रुतज्ञान जानो। आज के द्वारा अपनी शक्ति को उद्घाटित करनेवाले सुकमाल | वर्तमान में यदि हम इस प्रथमानुयोग की कथाओं को पढ़कर, स्वामी को प्राप्त हआ। उनके द्वारा मोक्षमार्ग पर आगे बढ़ने के
अपने वास्तविक स्वरूप को समझकर, संसार शरीर और लिए जो आत्मिक प्रयोग किया गया, वह सफल हुआ। | भोगों से विरक्त होकर आत्म-कल्याण करना चाहें तो सहज उपसर्ग को जीतकर उन्होंने सर्वार्थसिद्धि को प्राप्त किया एवं
संभव है। आप भी सुकमाल-जैसा कमाल का काम कर अल्प काल में ही मोक्ष-सुख प्राप्त करेंगे। बंधुओ! उसी | सकते हैं. आत्मानशासित होकर अपना कल्याण कर सकते प्रकार की साधना एवं लक्ष्य बनाकर मंजिल की प्राप्ति के हैं। धर्म का सहारा लेकर संसार परिभ्रमण से ऊपर उठ लिए सभी को कम-से-कम समय में विशेष प्रयास कर सकते हैं। लेना चाहिये। ज्ञान को साधना के रूप में ढालकर अध्यात्म
'समग्र' (चतुर्थ खण्ड) से साभार
निज में निज के दर्शन कर लो
हरिश्चन्द्र जैन
॥३॥ मनमन्दिर में ध्यान लगाकर, कभी न देखा मन में हमने। भूल गये क्यों निज स्वभाव को, किसको बाहर निरख रहे हो। अन्तर्मुख हो निज में निज को, स्वयं देखलो मन में अपने॥ भावशून्य है विपुल साधना, इधर-उधर क्यों भटक रहे हो। तुम अनादि परिपूर्ण द्रव्य हो, गुण अनन्त के हो तुम स्वामी। इस अनादि मिथ्यात्व मोह को, उर अन्तर से दूर हटा दो। सर्व सिद्धियों के धारक तुम, चेतन चिदानन्द शिव-गामी॥ एक बार तो मनमन्दिर में, ज्ञानज्योति के दीप जला दो॥ उर, अन्तर को शुद्ध बनाकर, समताभाव हृदय में धर लो। समकित की धारा में बहकर, शुद्ध ज्ञानगंगा-जल भर लो।। सम्यक् ज्ञान जगाकर मन में, निज में निज के दर्शन कर लो॥ अपने मन पुरुषार्थ जगाकर, निज में निज के दर्शन कर लो॥
॥४॥ अंधकार, अज्ञान-तिमिर में, देख नहीं तुम निज को पाते। नरभव में भी आकर चेतन, निज स्वरूप को समझ न पाया। राग-द्वेश और विषय-भोग से, किंचित् मन में नहीं अघाते॥ निज को पर से भिन्न जानकर, कभी न निज में ध्यान लगाया। कर्मों के बन्धन में बँधकर, भव-भव कष्ट अनेकों पाये। यह अवसर फिर नहीं मिलेगा, इस अवसर का लाभ उठा लो। 'पर' को ही है समझा अपना, मोह माया में भाव जगाये॥ 'पर' ममत्व को दूर हटाकर, निज स्वरूप को शुद्ध बना लो॥ रत्नत्रय का आश्रय लेकर, भवसागर से पार उतरलो। कर्म-बन्ध के फन्द मिटाकर, मुक्ती के पथ में पग धर लो। सम्यग्दृष्टि महाव्रती बन, निज में निज के दर्शन कर लो॥ 'हरिश' भावना शद्ध बनाकर, निज में निज के दर्शन कर लो।
Wz-761, पालमगाँव, नईदिल्ली-110045
- जून 2005 जिनभाषित
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