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कथा
जम्बूद्वीप संबंधी भरतक्षेत्र में भोगभूमि का काल था । अन्तिम कुलकर महाराज नाभिराय थे। भगवान् ऋषभदेव इन्हीं नाभिराय और उनकी महारानी मरु देवी के पुत्र थे । अयोध्या इनकी जन्मभूमि तथा राजधानी थी। चैत्र कृष्ण नवमी के दिन माता मरुदेवी ने प्रात:काल सर्वार्थसिद्धि विमानवासी अहमिन्द्र को तीर्थंकरसुत के रूप में जन्म दिया। बीस लाख वर्ष पूर्व इनका कुमार काल में व्यतीत हुआ । माता-पिता की सहमति से इन्द्र ने महाराज कच्छ, महाकच्छ की बहिनें यशस्वती और सुनन्दा से इनका विवाह सम्पन्न किया । इन्हें राजपद की प्राप्ति हुई। इनमें यशस्वती से भरत आदि निन्यावने पुत्र तथा ब्राह्मी पुत्री हुई। सुनन्दा ने बाहुबली और सुन्दरी को जन्म दिया।
व्याकुल चित्त प्रजा के निवेदन पर सर्वप्रथम, इन्होंने कर्मभूमि के योग्य असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, विद्या और शिल्प इन छह आजीविका के उपायों का उपदेश दिया। क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्णों की स्थापना भी इन्होंने की थी। आषाढ़ कृष्ण प्रतिपदा के दिन इन्होंने कृतयुग का आरम्भ किया था इसीलिए ये प्रजापति कहलाये । तिरेसठ लाख पूर्व वर्ष तक राज्य करने के उपरान्त नृत्य करते-करते नीलांजना नाम की अप्सरा की मृत्यु हो जाने पर आपको संसार से वैराग्य हो गया। भरत का राज्याभिषेक कर तथा बाहुबली को युवराज पद देकर आप सिद्धार्थक वन में गये
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भगवान ऋषभदेव
आचार्य विद्यासागर जी के सुभाषित
प्रतिदिन कम से कम पाँच मिनिट बैठकर ध्यान करो, सोचो जो दिख रहा है सो 'मैं नहीं हूँ' किन्तु जो देख रहा है सो 'मैं हूँ' ।
तनरंजन और मनरंजन से परे निरंजन की बात करने वाले विरले ही लोग होते हैं ।
जिसको शिव की चिन्ता नहीं वह जीवित अवस्था में भी शव के समान है।
यह पंचमकाल है इसमें विषयानुभूति बढ़ेगी, आत्मानुभूति घटेगी।
ज्ञान को अप्रमत्त और शरीर को शून्य करने से ध्यान में एकाग्रता स्वयमेव आती है।
आत्मा भिन्न है और शरीर भिन्न है इसकी सही प्रयोगशाला समाधि की साधना है।
जून 2005 जिनभाषित
मुनिश्री समतासागर जी
तथा चैत्र कृष्ण नवमी के दिन अपराह्न काल में चार हजार राजाओं के साथ दीक्षा धारण की। छह माह का योग पूर्ण होने पर आप आहार के लिये निकले किन्तु आहार - विधि जानने वालों के अभाव में ६ माह १२ दिन तक और अर्थात् एक वर्ष १२ दिन तक आहार नहीं हुआ। तत्पश्चात् हस्तिनापुर नगरी में स्वप्न से ज्ञात होने पर राजा सोमप्रभ एवं श्रेयांस के यहाँ वैशाख शुक्ला तृतीया की तिथि को इक्षुरस द्वारा इनकी प्रथम पारणा हुई। राजा श्रेयांस 'दान तीर्थ प्रवर्तक' घोषित हुए। तभी से यह तिथि 'अक्षय तृतीया' के नाम से प्रसिद्ध हुई। इस तरह छद्मस्थ अवस्था के एक हजार वर्ष व्यतीत कर आप पुरिमताल नगर के समीप शकट नामक उद्यान में वटवृक्ष के नीचे एक शिला पर ध्यानस्थ हुए। जिससे फाल्गुन कृष्ण एकादशी के दिन घातिया कर्म के नाश से केवलज्ञान की प्राप्ति हुई । भगवान् के समवशरण की रचना हुई जिसमें चौरासी हजार मुनि, पचास हजार आर्यिकायें, तीन लाख श्रावक, पाँच लाख श्राविकायें, असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यात तिर्यंच थे। अनेक भव्य जीवों को धर्मोपदेश देते हुए आपने एक लाख पूर्व वर्ष तक पृथ्वी पर विहार किया । तत्पश्चात् आप अष्टापद (कैलाश पर्वत) पर ध्यानारूढ़ हुए और माघकृष्ण चतुर्दशी के दिन सूर्योदय के समय पर्यंकासन से विराजमान हो एक हजार राजाओं के साथ मोक्षपद प्राप्त किया।
विनय और वैयावृत्ति सीखे बिना हम किसी की सल्लेखना नहीं करा सकते ।
जिसने एकान्त में शयनासन का अभ्यास किया है वही निर्भीक होकर समाधि कर सकता है और करा भी सकता 'क्योंकि एकान्त में बैठने से भय और निद्रा दोनों को जीता जा सकता है।
'सागर बूँद समाय' (मुनि श्री समतासागर जी) से साभार
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