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________________ यशस्तिलकचम्पूकार सोमदेव मूलसंघीय नहीं → श्री सोमदेव का बनाया यह एक चंपूग्रंथ है। यह ग्रंथ वि.सं. १०१६ में बना है। इसके उत्तर खंड में श्रावकाचार का कथन है। उसमें जिनाभिषेक की विधि का वर्णन करते हुये पंचामृत से अभिषेक करना बताया है। इसके कर्ता सोमदेव भी मूलसंघ के मालूम नहीं होते हैं । परमार्थतः वे कोई यथार्थ मुनि भी नहीं थे। हमारे यहाँ मध्यकाल में ऐसे कुछ गृहत्यागी साधुओं का समुदाय हो चुका है, जो भट्टारक कहलाते थे। वे चादर ओढ़ते थे, पालकी छत्र चामरादि का उपयोग करते थे। कुवाँ, खेत आदि जागीरें रखते थे, मंत्रतंत्र चिकित्सा आदि करते थे, मठमंदिर में रहते थे और प्रतिष्ठा आदि कार्य करते थे। वे राजाओं की तरह श्रावक - गृहस्थों पर शासन करते हुये बड़े ठाठ-बाट से रहते थे । वे सब ठाठ-बाट उनके बाद उनके पट्टाधिकारी शिष्यों को मिलता था। इसलिये राज्यसिंहासन की तरह उनकी गद्दियों के भी उत्तराधिकारी बनते थे। इतना होते हुए भी ये भट्टारक अपने को मूलसंघी कहते हुये मुनि, यति, मुनींद्र, आचार्य आदि नामों से पुकारे जाते थे, क्योंकि इस पद को ग्रहण करते हुये प्रारम्भ में ये नग्नहोकर ही दीक्षा लेते थे। उपरांत हीन आशा से उनको प्रभावित करना आदि चारित्र उनका भी था । ये साधु महर्षि कुंदकुंद की बताई हुई मुनिचर्या का पालन पूर्णरूप से नहीं करते हुये भी उनके अन्य सिद्धान्तों को प्रायः मान्यता देने से अपने को मूलसंघी ही कहते थे। ऐसे साधुओं ने मुनिचर्या के साथ-साथ श्रावकों की पूजापद्धति को भी विकृत किया है। जो पूजा-पद्धति अल्पसावद्यमय, वीतरागता की द्योतक और निरर्थक आडम्बरों से मुक्त होनी चाहिये थी, उसके स्थान पर इन्होंने उसे बहुसावद्यमय व सरागता की पोषक बनाकर उसमें व्यर्थ के आडम्बर भर दिये । दही, दूध घृतादि खाने के पदार्थों को स्नान के काम में लेना, मिट्टी गोबर राख से भगवान् की आरती करना, ये व्यर्थ आडंबर नहीं तो क्या हैं? जब से मंदिरों पर इन भट्टारकों के अधिकार हुए हैं, तभी से पूजापद्धति में ये आडंबर बढ़े हैं। इस प्रकार के विधान सोमदेव ने भी यशस्तिलक में लिखे हैं । अतः इन सोमदेव की गणना भी ऐसी ही नग्न भट्टारकों में की जा सकती है। इनको जैनमन्दिर की स्थिति बनाये रखने के लिए राजा अरिकेसरी ने एक ग्राम भी दान दिया था। इस दान के ताम्रपत्र की प्रतिलिपि पं. नाथूरामजी प्रेमीकृत " जैन साहित्य और इतिहास" नामक ग्रन्थ के पृ. १९३ पर छपी है। अगर ये सोमदेव शास्त्रोक्त जैनमुनि होते, तो न तो इनको ग्राम दान में दिया जाता और न ये उसे स्वीकार ही करते । तिलतुष मात्र का भी प्रसंग न रखनेवाले और अहर्निश ज्ञान-ध्यान-तप में लवलीन रहनेवाले दिगम्बर जैन ऋषियों को इस प्रकार के दानों से कोई प्रयोजन नहीं है। इन्हीं सोमदेव ने एक नीति- वाक्यामृत नामक ग्रन्थ भी बनाया है। वह ग्रन्थ संस्कृत - गद्यसूत्रों में रचा गया है। उसकी टीका में अनेक ब्राह्मणग्रन्थों के उद्धरण दिये गये हैं। जो बातें सूत्रों में कही गयी हैं, वे ही बातें टीका में दिये उद्धरणों में हैं। इससे सहज ही ज्ञात होता है कि सोमदेव ने यह ग्रन्थ ब्राह्मणग्रन्थों के संहनन और तत्काल पंचों की आज्ञा की आड़ लेकर वस्त्रादि + धारणकर लेते थे। सुनते हैं कि आहार भी वे नग्न होकर ही लेते थे। पीछी कमंडलु रखकर श्वेतांबर यतियों से अपनी भिन्नता व्यक्त करते थे। इनमें से कोई-कोई भट्टारक नग्न भी रहते थे। और नग्न रहकर भी पालकी आदि का उपयोग करते हुए दूसरे सब ठाठ उनके सवस्त्र भट्टारकों जैसे ही रहते थे। यह बात श्वेताम्बरों के साथ जो कुमुदचन्द्र का शास्त्रार्थ हुआ था, उससे प्रकट होती है। यह शास्त्रार्थ वि.सं. ११८१ में गुजरात के राजा सिद्धराज की सभा में श्वेताम्बर यति देवसूरि के साथ दिगम्बर भट्टारक कुमुदचन्द्र ने किया था। उस शास्त्रार्थ का हाल बताते हुए श्वेताम्बरों ने कुमुदचन्द्र के बाबत लिखा है कि 'वे पालकी पर बैठे थे, उनपर छत्र लगा हुआ था, और वे नग्न थे।' पहले इस प्रकार के भट्टारक नग्न ही रहते होंगे । वस्त्रधारण संभवतः बाद में चला हो। इसके भी पहले कुछ ऐसे मुनि भी विचरते थे जो वस्त्र, पालकी, छत्र, चामरादि का उपयोग तो अपने लिये नहीं 'औरस: क्षेत्रजो दत्तः कृत्रिमो गूढोत्पन्नोऽपविद्ध ऐते करते थे, किन्तु जागीरी रखना, मंत्र-तंत्र चिकित्सा करना, षट् पुत्रा दायादाः पिण्डदाश्च ॥ ४१ ॥ " प्रकीर्णक समुद्देश। मठ-मन्दिर में आराम से रहना और उनका प्रबन्ध करना, इसमें लिखा है कि औरस आदि ६ पुत्र पैत्रिक - धन राजसभाओं में जाना और राजाओं द्वारा सन्मान पाने की के और पिण्डदान के अधिकारी होते हैं। (यहाँ पिण्डदान आधार पर बनाया है। जैनधर्म से इस ग्रन्थ का कोई सम्बन्ध नहीं है। इसे जैनग्रन्थ कहना ही नहीं चाहिए । इसीलिए इसकी टीका भी किसी अजैन विद्वान् ने की है। मूलग्रन्थ के कुछ नमूने देखिये 44 + 'जून 2005 जिनभाषित Jain Education International पं. मिलापचन्द्र जी कटारिया For Private & Personal Use Only 9 www.jainelibrary.org
SR No.524297
Book TitleJinabhashita 2005 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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