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________________ वैदिक रीति को बताता है।) | उनका बहुत प्रकार से धन खर्च होता रहता है। अतः साधुओं सवत्सां धेनुं प्रदक्षिणीकृत्य धर्मोपासनं यायात्॥७३॥ | को आहार देने में उन्हें सोच-विचार नहीं करना चाहिए। "दिवसानुष्ठान समुद्देश" इस प्रकार सोमदेव ने आचारहीन मुनियों को मानने अर्थ - बछड़ेवाली गाय की परिक्रमा देकर धर्मोपासन | की प्रेरणा की है। सोमदेव के वक्त भी ऐसे सम्यग्दृष्टि श्रेष्ठ को जावे। (यहाँ गाय की पूज्यता बताई है।) श्रावक थे, जो परीक्षा करके देव-शास्त्र-गुरुओं को मानते"यः खलु यथाविधि जानपदमाहारं संसारव्यवहारं च | पूजते थे, यहाँ तक कि शिथिलाचारी जैनमुनियों को आहारादि परित्यज्य सकलत्रोऽकलत्रो वा वने प्रतिष्ठते स | देने में भी संकोच करते थे। उन्हीं को लक्ष्य में रखकर वानप्रस्थः॥२२॥" "विवाहसमुद्देश" | सोमदेव ने ऐसी बातें कही हैं। सोमदेव ने जो इस विषय में अर्थ - जो विधिपूर्वक ग्राम्य-भोजन और सांसारिक | दलीलें दी हैं, वे सब नि:सार हैं। प्रथम श्लोक में हेतु दिया है व्यवहार को त्यागकर स्त्रीसहित या स्त्रीरहित वन में रहता | कि 'जैसे पाषाणादि में अंकित जिनेन्द्र की आकृति पूजनीय है, वह वानप्रस्थ कहलाता है। वन में वहाँ वह ग्राम्य भोजन | है, उसी तरह वर्तमान के मुनियों की आकृति भी पूर्व मुनियोंको छोड जंगली फलफूल खाता है। (वानप्रस्थ का यह | जैसी होने से पूजनीय है' सोमदेव का ऐसा लिखना ठीक स्वरूप जैनशास्त्र-सम्मत नहीं है) नहीं है, क्योंकि यहाँ जो दृष्टान्त दिया है वह विषम है। इस प्रकार के कथन एक मान्य जैनाचार्य की कलम पाषाणादि में अंकित जिनेन्द्र की आकृति की तरह पाषाणादि से लिखे जाने के योग्य नहीं हैं, क्योंकि सत्य-महाव्रत का | में अंकित मुनि की आकृति भी पूजनीय है-ऐसा लिखा जाता धारी जैनमुनि, जिसके लिये जैनशास्त्रों में अनुवीचिभाषण | तो दृष्टान्त बराबर बन जाता और वह ठीक माना जा सकता यानी सूत्रानुसार बोलने की आज्ञा दी है, वह इस प्रकार का था. किन्त यहाँ अचेतन से चेतन की तुलना की गई है, सूत्रविरुद्ध वचन मुँह से भी नहीं बोल सकता है, तब ऐसी | इसलिये दृष्टान्त मिलता नहीं है। प्रत्युत उलटे यह कहा जा साहित्यिक रचना तो भला वह कर ही कैसे सकता है? यहाँ | सकता है कि जैसे सचेतन किसी पुरुष-विशेष को जिनेन्द्र यह बात ध्यान में रखने की है कि सोमदेव ने इस नीतिवाक्यामृत | की आकृति का बनाकर उसे पूजना अनुचित है, उसी तरह ग्रन्थ की प्रशस्ति में यशस्तिलक का उल्लेख किया है। | सचेतन पुरुषविशेष में केवल मुनि की आकृति देखकर इसलिए यशस्तिलक की रचना के बाद नीतिवाक्यामृत की | मुनि-जैसे उसमें गुण न हों, तब भी उसे पूजना अनुचित है। रचना हुई है। अत: सोमदेव की प्रामाणिकता जब | प्रथा भी ऐसी ही है कि जैनी लोग पार्श्वनाथ जी की मूर्ति को नीतिवाक्यामृत के निर्माण के वक्त ही नहीं रही, तो उसके | तो पूजेंगे, परन्तु किसी आदमी को पार्श्वनाथ मानकर नहीं पहिले यशस्तिलक के निर्माण के वक्त कैसे हो सकती है? | पूजेंगे। लोक में भी यह देखा जाता है कि किसी देश के राजा सोमदेव ने आधुनिक मुनियों के बाबत जो उद्गार | की मूर्ति बनाकर सम्मान करे तो राजा उसपर खुश होता है, प्रकट किये हैं, वे भी विचारणीय हैं। वे लिखते हैं- | किन्तु किसी अन्य ही पुरुष को उस देश का राजा मानकर यथा पूज्यं जिनेन्द्राणां रूपं लेपादिनिर्मितम्। उसका सम्मान करे तो वह राजा द्वारा दंडनीय होता है। इस तथा पूर्वमुनिच्छायाः पूज्याः संप्रति संयताः ॥१॥ तथ्य के विपरीत लिखकर सचमुच ही सोमदेव ने बड़ा भुक्तिमात्रप्रदाने हि का परीक्षा तपस्विनाम्। अनर्थ किया है। इन्हीं सोमदेव ने इसी ग्रन्थ के "शुद्धे वस्तुनि ते सन्तः संत्वसन्तो वा गृही दानेन शुद्ध्यति ।।२॥ | संकल्पः कन्याजन इवोचितः।" इस श्लोक ४८१ में कहा है सर्वारम्भप्रवृत्तानां गृहस्थानां धनव्ययः। कि किसी शुद्ध वस्तु में परवस्तु का संकल्प होता है, जैसे बहधाऽस्ति ततोऽत्यर्थं न कर्तव्या विचारणा॥३॥ कन्या में पत्नी का संकल्प। इस सिद्धान्त के अनुसार वर्तमान अर्थ - जैसे लेप, पाषाणादि में बनाया हुआ अहँतों के अशुद्ध मुनियों में पूर्व मुनियों का संकल्प भी नहीं हो का रूप पूज्य है, वैसे ही वर्तमान काल के मुनि भी पूजनीय सकता है। इस तरह सोमदेव का कथन पूर्वापरविरुद्ध है। हैं (चाहे वे आचारभ्रष्ट ही हों), क्योंकि बाहर में उनका रूप दूसरे श्लोक में सोमदेव ने कहा है कि “अच्छा हो भी वही है, जो प्राचीनकाल के मुनियों का था। | या बुरा, कैसा भी साधु हो, गृहस्थ को तो दान देने से मतलब भोजन मात्र देने में तपस्वियों की क्या परीक्षा करनी? है। दान का फल तो अच्छा ही लगेगा। गृहस्थ तो दान देने वे अच्छे हों या बरे. गहस्थ तो दान देने से शुद्ध हो जाता है। मात्र से ही शुद्ध हो जाता है।" ऐसा लिखना भी ठीक नहीं गृहस्थ लोग अनेक आरम्भ करते रहते हैं, जिनमें | है। अगर ऐसा ही हो, तो अन्य जैनशास्त्रों में सदसत् पात्र का 10 जून 2005 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524297
Book TitleJinabhashita 2005 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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