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विचार क्यों किया गया है? और क्यों कुपात्र को दान देने का निषेध किया है? अमितगति श्रावकाचार परिच्छेद १० में लिखा है कि
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जैसे कच्चे घड़े में जल का भरना बेकार है, उसी तरह कुपात्र को दान देना निष्फल है । ( श्लो. ५१ ) । जैसे सर्प को दूध पिलाना विष का उत्पादक है, उसी तरह कुपात्र को दान देना दोषों का उत्पादक है। (श्लो. ५३) । असंयमी को दान देकर पुण्य चाहना वैसा ही है जैसे जलती अग्नि में बीज डालकर धान्य होने की वांछा करना । ( श्लो. ५४ ) । कड़वी तुम्बी में रक्खे दूध की तरह कुपात्र को दिया दान किसी काम का नहीं रहता है। (श्लो. ५६) । लोहे की बनी नाव की तरह कुपात्रदानी संसार - समुद्र से नहीं तिर सकता है। (श्लो. ५७)। जो अविवेकी फल की इच्छा से कुपात्रों को दान देता है, वह मानों वन में चोरों के हाथों में धन देकर उनसे उस धन के पुनः मिलने की आशा करता है। (श्लो. ६०) । अपात्र-दान का फल पाप के सिवाय अन्य कुछ नहीं है। बालू (रेत) के पेलने से खेद के सिवा और क्या फल मिल सकता है? (११वां परिच्छेद श्लो. ९०) तत्त्वार्थ सूत्र में भी " विधिद्रव्यदातृ पात्रविशेषात्तद्विशेष:'' इस सूत्र में बताया है कि जैसा - जैसा द्रव्य, विधि, दाता और पात्र होगा वैसा-वैसा ही उसका फल मिलेगा ।
श्लो. ३ में सोमदेव ने लिखा है कि "यों भी गृहस्थ के अनेक खर्च होते रहते हैं, तब साधु को भोजन जिमाने में क्यों सोच विचार करना?" ऐसा लिखना भी योग्य नहीं है। साधारण आदमी को भोजन जिमाने और जैनमुनि को भोजन जिमाने में बड़ा अन्तर है। जैनमुनि को पूज्य गुरु मानकर जिमाया जाता है और जिमाने के पूर्व नवधा भक्ति की जाती है। इसलिये यहाँ सवाल आर्थिक खर्च का नहीं आता, पूज्य - अपूज्य का आता है। एक सम्यग्दृष्टि आचारहीन-मुनि की पूजा- वंदना कैसे कर सकता है? क्योंकि आचार्य कुंदकुंद स्वामी ने दर्शन पाहुड़ में ऐसा कहा है
वह मुनि भी वंदना - योग्य नहीं है, जो नग्नलिंग धारण करके सकल - संयम की विराधना करता है
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यहाँ पर आचार्य श्री कुंदकुंद ने शिथिलाचारी मुनियों की वंदना तक न करने का आदेश दिया है, तब एक सम्यग्दृष्टि ऐसे श्रमणाभासों की नवधा-भक्ति तो कर ही कैसे सकता है? नवधा-भक्ति में तो वंदना के साथ पूजा भी करनी होती है, और चरण धोकर उनका चरणोदक भी मस्तक पर चढ़ाना पड़ता है।
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जहाँ सोमदेव ने "यथा पूज्यं जिनेन्द्राणां " श्लोक कहकर केवल मुनि के वेषमात्र को ही पूजनीय बताया है, वहाँ कुंदकुंद स्वामी ने उसका निषेध किया है। कुंदकुंद स्वामी का कहना है कि मुनिजन उसी हालत में पूजनीय हैं, जबकि वे मुनि के चारित्र का यथावत् पालन करते हों। इस तरह सोमदेव और कुंदकुंद स्वामी के उपदेश में बहुत बड़ा अन्तर है । सोमदेव ने तो जो नाम-निक्षेप से मुनि हो उसे भी मानने को कहा है।
काले कलौ चले चित्ते देहे चान्नादिकीटके । एतच्चित्रं यदद्यापि जिनरूपधरा नराः ॥ एको मुनिर्भवेल्लभ्यो, न लभ्यो वा यथागमम् । अर्थ - चित्त जहाँ चंचल रहता है और शरीर अन्न का कीड़ा बना हुआ है, ऐसे कलिकाल में आज जिनलिंग के धारी मुनियों का दिखाई देना आश्चर्य है । इस काल में शास्त्रोक्त चारित्र के धारी मुनि कोई एक हो तो हो, वर्ना नहीं ही हैं।
सोमदेव ने ऐसा लिखकर अपने समय में यथार्थ मुनियों को अलभ्य बताया है, इसलिये इस कलिकाल में जैसा भी जैनमुनि मिल जावे, उसी को मान लेना चाहिये, ऐसा आदेश दिया है। मतलब कि किसी देश में हंस नहीं हो तो काग को ही हंस मान लेना चाहिये ऐसा सोमदेव का कथन है ।
किन्तु इस काल में यथार्थ मुनियों का मिलना अलभ्य ही हो ऐसा भी सर्वथा नहीं है। सोमदेव के वक्त भी श्रेष्ठ मुनियों का
अस्संजदं ण वंदे वत्थविहीणो वि सो ण वंदिज्जो । दोणिव होंति समाणा एगोवि ण संजदो होदि ॥ २६ ॥ अर्थ - जो सकलसंयमी नहीं है, गृहस्थ है, उसकी वंदना न करें और जो वस्त्र त्यागकर नग्न-साधु बन गया है, परन्तु सकलसंयम का पालन नहीं करता है, वह भी वंदने योग्य नहीं है। दोनों ही, यानी गृहस्थ और मुनिवेषी, एक समान हैं। दोनों में से एक भी संयमी - महाव्रती नहीं है।
सद्भाव था । देवसेन ने वि.सं. ८९० में दर्शनसार ग्रंथ बनाया और सोमदेव ने वि.सं. १०१६ में यशस्तिलक बनाया। इससे देवसेन भी सोमदेव के समय में हुये हैं और इसी काल में गोम्मटसार के कर्ता नेमिचंद्र और उनके सहवर्ती वीरनंदि, इंद्रनंदि, कनकनंदि और माधवचंद्र हुये हैं । ये सब माननीय आचार्य सोमदेव के समय के लगभग ही हुये हैं। इतना ह भी सोमदेव ने जो उस वक्त के मुनियों के अस्तित्व में आश्चर्य प्रगट किया है और यथार्थ मुनियों को अलभ्य बताया है, उससे ऐसा झलकता है कि सोमदेव स्वयं यथार्थ
भावार्थ - गृहस्थ तो वैसे ही वंदनायोग्य नहीं है किन्तु मुनि नहीं थे और न उनमें इतना साहस था, जो वे यथार्थ मुनि
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जून 2005 जिनभाषित
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