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रत्नकंबल चुभता था, आज वही व्यक्ति नंगे पैरों चला जा । विशद्धि 'संयम' का प्रतीक है। वह राजकुमार सुकमाल रहा है। पगतल लहूलुहान हो गए। कंकर-कांटे चुभते जा रहे | अब मुनिदीक्षा धारण कर लेते हैं और मोक्षमार्ग में स्थित हो थे, फिर भी दृष्टि उस तरफ नहीं थी। अविरतरूप से आत्मा | जाते हैं। मोक्षमार्ग तो उपसर्ग और परीषहों से गुजरनेवाला और शरीर के पृथक्-पृथक् अस्तित्व की अनुभूति करने के | मार्ग है। अध्यात्मग्रंथों में आचार्य कुंदकुंददेव और पूज्यपाद लिए कदम बढ़ रहे थे। वह पगडंडी ढूँढ़ता-ढूँढ़ता एकाकी | स्वामी जैसे महान् आचार्यों ने लिखा है कि जो सुख के साथ चला जा रहा है उस ओर, जिस ओर से मांगलिक आवाज | प्राप्त हुआ ज्ञान है, वह दुःख के आने पर पलायमान हो जाता आ रही थी। वहाँ पहुँचकर वीतराग-मुद्रा को धारण करने | है और जो ज्ञान कष्ट/परीषह झेलकर अर्जित किया जाता है, वाले एक मुनि महाराज से साक्षात्कार हो जाता है। वह स्वयं | वह अनुकूल या प्रतिकूल किसी भी वातावरण में स्थायी भी वीतरागता के प्रति अभिमुख हुआ है, काया के प्रति राग | बना रहता है। नहीं रहा, भीतर भी रागात्मक विकल्प नहीं है।
जैसे, पौधे को मजबूत बनाना है, उसका सही विकास जैसे ही उसे ज्ञात हो जाता है कि तीन दिन के उपरांत करना है, तो मात्र खाद-पानी ही पर्याप्त नहीं है, उसे प्रकृति तो इस शरीर का अवसान होनेवाला है, वह सोचता है कि | के सभी तरह के वातावरण की आवश्यकता भी है। ऐसा ही बहुत अच्छा हुआ जो मैं अंत समय में कम-से-कम इस मोक्षमार्ग में आत्म-विकास के लिए आवश्यक है। यदि मोह-निद्रा से उठकर सचेत हो गया और महान पुण्य के | आप सोचते हो कि बीज को छाया में बोने से अच्छी फसल उदय से सच्चे परम वीतराग-धर्म की शरण मिल गयी। अब | होगी, तो ध्यान रखना, बीज अंकुरित हो तो जायेगा, लेकिन मुझे संसार में कुछ नहीं चाहिये। आत्म-कल्याण के लिए | फसल पीली-पीली होगी, दाना ठीक नहीं आयेगा। उसे उस उपादेयभूत वीतरागता को प्राप्त करना है, जो इस संसार | हराभरा होने के लिए सूर्य की तपन भी चाहिये। वह सूर्य की में सर्वश्रेष्ठ और सारभूत है। जिसकी प्राप्ति के लिए स्वर्गों के | प्रखर किरणों को भी सहन कर सकता है। इसी प्रकार इंद्र भी तरसते रहते हैं। जिस निग्रंथ-मुद्रा के माध्यम से | दर्शन, ज्ञान और चारित्र को पुष्ट बनाने के लिए उपसर्ग और केवल-ज्ञान की उत्पत्ति होनेवाली है, अक्षय अनंत ज्ञान की | परीषहों से गुजरने की आवश्यकता पड़ती है। ज्ञान में विकास, उपलब्धि जिस मुनिपद को पाने के बाद होती है, वही मुनि- | ज्ञान में निखार और मजबूती परीषह-जय से युक्त चारित्र के पद उसने पा लिया।
माध्यम से आती है। बंधुओ! शुद्धात्मा की प्राप्ति के लिए हमें रागद्वेष, आज तक कोई जीव ऐसा नहीं हुआ जो उपसर्ग या विषय-कषाय आदि सभी वैभाविक परणतियों से हटना | परीषह को जीते बिना केवलज्ञान प्राप्तकर सिद्ध-परमेष्ठी बना होगा, तभी हम उस निर्विकल्पात्मक ज्ञानीपने को प्राप्त कर | हो। भरत चक्रवर्ती को भी सिद्ध-पद प्राप्त हुआ, भले ही सकेंगे। उस ज्ञानी की महिमा क्या बताऊँ -
अल्पकाल में हुआ, लेकिन मुनिपद को धारण किये बिना, णाणी रागप्पजहो हि सव्व दव्वेसुकम्म मझगदो। | सम्यक् चारित्र के बिना नहीं हुआ। उन्हें भी छठे सातवें णो लिप्पदि कम्म रयेण दु कद्दम मझे जहा कणयं।। | | गुण-स्थान में हजारों बार चढ़ना उतरना पड़ा। यह आवश्यक अण्णाणी पुण रत्तो हि सव्व दव्वेसुकम्म मज्झगदो। है। अल्पकाल हो या चिरकाल हो, चतुर्विध आराधना के लिप्पदि कम्मरयेण दु कदम मज्झे जहा लोहं॥ | बिना आत्मा का उद्धार होनेवाला नहीं है। आचार्य कुंदकुंददेव कहते हैं कि ज्ञानी वह है, जो
संयम को धारण करके वह कोमल-कायावाले कर्मों के बीच रहता हुआ भी अपने स्वभाव में रहता है,
| सुकमाल जंगल में जाकर ध्यान से एकाग्रचित होकर लीन अपने स्वभाव को नहीं छोड़ता, जैसे कीचड़ के बीच पड़ा | हो गये। वहाँ पूर्वभव के बैर से प्रेरित हई उनकी भावज, जो हुआ स्वर्ण अपने गुणधर्म को नहीं छोड़ता, निर्लिप्त रहता | स्यालनी हो गयी थी. खन के दाग संघती हई पहँच गयी और हुआ सदा अपने स्वरूप में स्थिर रहता है। जगत, जगत में | वैर के वशीभूत होकर उस स्यालनी ने अपने बच्चे-सहित रहता है और ज्ञानी जगत में भी जगत (जागृत) रहता है। | मुनिराज बने सुकमाल की काया को विदीर्ण करना प्रारंभ
ज्ञानी अपने आप में जागृत रहता है और जगत को भी | कर दिया, खाना प्रारंभ कर दिया। "एक स्यालनी जुग बच्चायुत जगाता रहता है। वह बाहर नहीं भागता, वह निरंतर अपनी | पांव भख्यो दुखभारी।" ऐसा बड़े समाधिमरण पाठ में आता ओर भागता है। भीतर विहार करना-यही तो यथाख्यात विहार | है। उसमें उपसर्ग और परीषह को सहन करनेवाले और भी
- जून 2005 जिनभाषित 5
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