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भी है कि जहाँ कहीं भी धर्मात्मा पुरुष चला जाता है वहाँ । सभी की ओर से सुख-सुविधा का ध्यान रखा जाता था। पहुंचने से पहले ही लोग स्वागत-सत्कार के लिए तत्पर | पहले कमाल की बात आपने सनी, यह बात अब रहते हैं और निवेदन करते हैं कि हमारी सेवा मंजूर करके
| सुकमाल की है। यह सारी-की-सारी व्यवस्था सुकमाल की हम सभी को अनुगृहीत कीजिये। धर्मात्मा भले ही कुछ नहीं
| माँ ने कर रखी थी कि कहीं बेटा घर से विरक्त न हो जाये। चाहता, लेकिन उसके महान् पुण्य के माध्यम से सभी उसकी
एक दिन रत्नकंबल बेचनेवाला आया और जब वह कीमती प्रशंसा करते हैं। जिनके जीवन में धर्म का सहारा नहीं है,
कंबल राजा नहीं खरीद पाया, तो सेठानी ने अर्थात् सुकुमाल खाओ-पिओ मौज उड़ाओ वाली बात जिनके जीवन में है,
की माँ ने उसकी जूतियाँ बनवाकर बहुओं को पहना दी। उन्हें पग-पग पर पीड़ा उठानी पड़ती है और अनंत काल
संयोगवश एक जूती पक्षी उठाकर ले गया और राजा के तक इसी संसार-रूपी-चक्की में पिसना पड़ता है।
महल पर गिरा दी। राजा को जब सारी बात ज्ञात हुई तो वह असंयमी का जीवन हमेशा संक्लेशमय और कष्टदायक सुकमाल को देखने आया कि देखें सचमुच बात क्या है? ही रहता है। जैसे गर्मी के दिनों में आप आराम से छाया में
सेठानी ने राजा के स्वागत में जब दीपक जलाया, तो बैठकर प्रवचन का, धर्म का लाभ ले रहे हैं और यदि छाया
सुकमाल की आँखों में पानी आ गया। जब भोजन परोसा, तो न हो तो क्या स्थिति होगी? सारा सुख छिन जायेगा। ठीक
सुकमाल एक-एक चावल बीनकर खाने लगा, क्योंकि उस ऐसी ही स्थिति संयम के अभाव में, धर्म के अभाव में
दिन साधारण चावल के साथ मिलाकर कमल-पत्र के चावल अज्ञानी प्राणी की होती है। ध्यान रखो, संयोगवश कभी
बनाये गये थे। राजा सब देखकर चकित रह गया और असंयमी-जीव देवगति में भी चला जाता है तो वहाँ पर भी
अचरज करता हुआ लौट गया। कुछ समय बीत जाने के संयम के अभाव में प्राप्त हुए इन्द्रिय-सुखों के छूटते समय
उपरांत एक दिन राज्य में किसी मुनिराज का आगमन हुआ। और अपने से बड़े देवों की विभूति को देखकर संक्लेश
वे मुनिराज और कोई नहीं, सुकमाल के पिता ही थे, जो करता है, जिससे अध:पतन ही हुआ करता है और निंरतर
सुकुमाल के उत्पन्न होते ही विरक्त होकर वन में चले गये दुःख सहना पड़ता है।
थे। सेठानी ने बहुत प्रयास किया कि मुनि इस नगर में न 'विषय-चाह दावानल दह्यो, मरत विलाप करत दुःख | आयें, पर संयोग ऐसा ही हुआ कि एक दिन रात्रि के अंतिम सह्यो।' संसार में जो दुःख मिला है, वह आत्मा के द्वारा प्रहर में सामायिक आदि से निवृत्त होकर महल के समीप किये गए अशभ परिणामों का फल है और सुख मिला है, | उपवन में पधारे उन मनिराज ने वैराग्य-पाठ पढ़ना प्रारंभ वह आत्मा के द्वारा किये गए उज्ज्वल परिणामों का फल है। | किया तो सुकमाल के अंदर ज्ञान की किरण जागृत हो गयी। यह संसार एक झील की भांति है, जो सुखदायक भी है और
रत्नदीप की किरणें तो मात्र बाहरी देश को आलोकित दु:खदायक भी है। नाव में बैठकर यदि झील को पार किया
| करती थीं, किंतु भीतरी देश को प्रकाशित करनेवाली ज्ञान जाए तो आनंद की लहर आने लगती है, किंतु असावधानी
और वैराग्य की किरणें सुकमाल के जीवन में अब जागृत हो करने से, सछिद्र नाव में बैठने से प्राणी झील में डूब भी जाता
गयीं। उन किरणों ने कमाल कर दिया, अज्ञान-अंधकार है। इस बात को आप उदाहरण के माध्यम से समझ लीजिये।
समाप्त हो गया। इसलिए रात्रि के अंतिम प्रहर में ही चुपचाप एक व्यक्ति के जीवन की घटना है, जिसका पालन- | उठता है, पलियाँ सब सोई हुईं थीं। इधर-उधर देखता है पोषण-शिक्षण सब बडी सुख-सुविधा में हो रहा था। आना- | और एक खिडकी के माध्यम से नीचे उतरने की बात सोच जाना, खाना-पीना, सोना, उठना, बैठना सभी अंडरग्राउंड में | लेता है। बिना किसी से कुछ कहे साड़ियों को परस्पर ही होता था। वहाँ पर सारी व्यवस्था वातानुकूलित/एयरकंडीशन | बांधकर खिड़की से नीचे लटका देता है और धीरे-धीरे थी। साथ ही बातानुकूल अर्थात् कहे-अनुरूप भी थी। उसे नीचे उतरना प्रारंभ कर देता है। जिसके पैर आज तक सूर्य और बिजली या दीपक का प्रकाश भी चुभता था, | सीढ़ियों पर नहीं टिके वही रस्सी को संभाले हुए नीचे उतर इसलिए रत्नदीपक के प्रकाश का प्रबंध रहता था। सरसों | रहा है। सबकुछ संभव हो जाता है भइया, बस ज्ञान एवं का दाना भी बिस्तर के नीचे आ जाए तो चुभता था, नींद नहीं | वैराग्य जागृत होना चाहिए। प्रत्येक कार्य संपादित हुआ करते आती थी। भोजन भी सामान्य नहीं था, कमल-पत्रों पर रखे | हैं और होते ही रहते हैं, असंभव कोई चीज नहीं है। हुए चावल का भात बनता था। उनकी माँ थी. पत्नियाँ थीं।
जिसके सुख-वैभव की इतनी पराकाष्ठा थी कि 4 जून 2005 जिनभाषित
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