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साधु-धर्म
हमारे मनीषियों ने अनगार और सागार दोनों धर्मों का विस्तार से विवेचन किया है । दोनों के कर्तव्यों पर प्रकाश डालनेवाले अनेकानेक ग्रंथ सुलभ हैं। दोनों में अनगार या यतिधर्म श्रेष्ठ है, यह भी निर्विवाद है । आचार्य श्री अमृतचन्द्रजी ने सर्वप्रथम उच्च वीतराग यतिधर्म का उपदेश करने का निर्देश दिया है, क्योंकि यही हमारी प्राचीन संस्कृति और परम्परा है । इस जिनाज्ञा के लोप करने को अपराध की संज्ञा दी गई है तथा पहले मुनिधर्म का उपदेश न देकर गृहस्थ-धर्म का कथन करनेवाले अल्पमति दीक्षाचार्य को दण्ड का पात्र बताया गया है । उनके शब्द हैं :
यो यतिधर्ममकथन्नुपदिशति गृहस्थधर्ममल्पमतिः । तस्य भगवत्प्रवचने प्रदर्शितं निग्रहस्थानम् ॥ जिन पुरुषों में सामर्थ्य है, उन्हें मुनि बनकर अपना आत्म-कल्याण करना चाहिए, किन्तु किसी कारण से, कर्मोदयवश या शक्तिहीनता से यदि कोई मुनि बनने का संकल्प नहीं जुटा पाता तो उसके लिए घर में रहकर व्रतों का पालन करना ही इष्ट है । व्रत-रहित जीवन प्रशंसनीय नहीं है ।
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हमारे मुनि निर्ग्रन्थ होते हैं । ग्रन्थि कहते हैं परिग्रह को । परिग्रह अंतरंग (राग-द्वेषादि) तथा बहिरंग (धनधान्य - वस्त्रादि) दो प्रकार का होता है । मुनि दोनों के त्यागी होते हैं । इसका आशय यह है कि मुनि के लिए अंतरंग और बहिरंग दोनों प्रकार की नग्नता आवश्यक है । आचार्य कुंदकुंदस्वामी ने इसी नग्नता को मोक्षमार्ग कहा है ।
यह पंचमकाल है । इसमें आचरणगत शिथिलतायें बढ़ रही हैं । चाहे श्रावक हो या मुनि, सभी अपने कर्तव्यपालन में प्रमादी होते जा रहे हैं । श्रावक की कमियों पर प्रायः लोगों की दृष्टि नहीं जाती, किन्तु साधुओं के शिथिलाचार की चर्चा जोर-शोर से होती है । शायद इसका कारण यही है कि साधु का जीवन एक शुभ्र स्वच्छ-निष्कलंक वस्त्र की तरह होता है । उस पर लगा हुआ जरा-सा भी दाग सबको दिखाई देता है। जिन्हें अपना आदर्श स्वीकार किया है, उन्हें सभी निर्दोष देखना चाहते हैं।
साधु का यह शिथिलाचार आखिर है क्या ? चरणानुयोग की दृष्टि से आज भी सभी साधु २८ मूलगुणों का पालन करते हैं । ये मूलगुण हैं- ५ महाव्रत, ५ समिति,
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पं. नरेन्द्रप्रकाश जी जैन
स्नान दंतधोबन - त्याग, क्षिति-शयन, दिन में एक बार आहार और खड़े होकर अल्प भोजन लेना । ये सब मुनि की बाहरी पहिचान है । इसमें आज भी प्रायः सभी मुनि खरे उतरते हैं। दूसरी कसौटी करणानुयोग की है, जिसका सम्बन्ध आत्मा के भावों से रहता है । भाव बाहर नहीं दिखते, किन्तु साधक की बाह्य क्रियाओं को देखकर उनके बारे में अनुमान लगाया जाता है । कमी या शिथिलता भावों में ही हो सकती है ।
धवला में कहा गया है- परम-पय विमग्गया साहू अर्थात् सदाकाल परम पद का अन्वेषण करनेवाला साधु कहलाता है । अपनी आत्मा में स्थिरता के लिए प्रतिपल सजग रहना ही परम पद का अन्वेषण है । आचार्यों का आदेश है- आत्मज्ञानात्परं कार्य न बुद्धौ धारयेच्चिरम् अर्थात् साधु को आत्मज्ञान के अतिरिक्त अन्य किसी भी कार्य को विचार में नहीं लाना चाहिए । आत्मज्ञान से रहित नग्नतामात्र को साधुता नहीं कह सकते ।
आत्म-विशुद्धि के मार्ग से हटना ही साधु का प्रमाद या शिथिलाचार है । किसी भी मुनि को रागी गृहस्थों के कार्यों में कदापि नहीं पड़ना चाहिए । उनके लिए तो कृतकारित - अनुमोदना तीनों प्रकार से राग को छोड़ना ही अभीष्ट है, क्योंकि राग विषरूप है । मुनि-पद की उच्चता का कारण अशुद्धता यानी राग का त्याग ही बताया गया है । रागियों अथवा गृहस्थों के बीच रहकर यह असम्भव है । इसलिए आहार और प्रवचन के समय को छोड़कर सच्चे मुनि एकांत में ही निवास करते हैं ।
साधु के लिये उत्सर्ग-मार्ग तो चौबीस प्रकार के परिग्रहों का त्याग । आहार तथा वसतिका का आश्रय लेना भी साधु के लिए अपवाद-मार्ग है, किन्तु अपवादमार्ग में भी स्वेच्छाचारिता के लिए कोई स्थान नहीं है । आहार-विहार में भी साधु को चरणानुयोग के अनुसार प्रवृत्ति करनी होती है । जिन कार्यों की चरणानुयोग में आज्ञा नहीं है, उन सबकी गणना शिथिलाचार में होती है । चन्दे के द्रव्य से बननेवाले आहार को ग्रहण करना या सेठों के आवास पर ठहरना आदि साधु के लिए वर्जित है । अपवाद - मार्ग में पीछी- कमण्डलु रखना तो एक अपरिहार्य विवशता है, किन्तु टेप रिकार्डर या कैसिट रखने की तो जिनाज्ञा नहीं है ।
मुनि होकर विपरीत आचरण करना अक्षम्य अपराध
५ इन्द्रियों की विजय, ६ आवश्यक तथा नग्नत्व, केशलुंचन, है। झूठी प्रशंसा या वाहवाही के चक्कर में पड़कर भीड़
• जून 2005 जिनभाषित
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