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________________ जुटाना साधु-मार्ग नहीं है । मन्त्र-तन्त्र के व्यामोह में पड़ना भोचेतः किमुजीव, तिष्ठसिकथं, चिन्तास्थितं, साकुतः। भी साधु के लिये उचित नहीं । जब धर्म पर कोई संकट रागद्वेषवशात्तयोः, परिचयः कस्माच्च जातस्तवः।। उपस्थित हो जाये, तब की बात अलग है । आचार्य श्री इष्टानिष्ट समागमादिति यदि श्वभ्रं तदा वां गतौ। शांतिसागरजी महाराज कभी किसी को धन की वृद्धि, पुत्र- ... नोचेन मुन्चसमस्त मेतद चिरादिष्टादि संकल्पन्॥ लाभ, शत्रु पर विजय-प्राप्ति आदि के लिए मन्त्र नहीं बताते यहाँ आचार्य महाराज कह रहे हैं कि राग-द्वेष करने थे। वह कभी किसी व्यापारी के मिल, कारखाने, गोदाम या | से चित्त व्याकुल होता है तथा उसके जन्म के पीछे इष्टानिष्ट दुकान में कमण्डलु का जल छिड़कने नहीं गये । अधिक की कल्पना रहती है । अतः साधु को किसी व्यक्ति या तो क्या, अपने स्वयं के स्वास्थ्य के लाभार्थ भी उन्होंने कभी | पदार्थ के प्रति इष्ट या अनिष्ट की कल्पना से बचना चाहिये । मन्त्रजाप नहीं किया । आगम में तो आहारदाता को भी मन्त्र | स्व के प्रति रुचि और पर के प्रति अलिप्तता ही इसके लिए बताना मन्त्रोपजीवी नामक दोष कहा गया है । एकमात्र उपाय है। यहाँ हमारा यह स्पष्ट मत है कि शिथिलाचार ____ लोकेषणा या ख्याति-लाभ की चाह से साधु को के बारे में साधुगण स्वहित की दृष्टि से स्वयं विचार करें । सदा दूर रहना चाहिए । यह भी अंतरंग परिग्रह है । वाह्य हम श्रावकों के लिये तो सभी साधु सदा वंदनीय हैं । आरम्भ और परिग्रह का त्याग होते हुए भी यदि अंतरंग योगसार में कहा भी है- द्रव्यतो यो निवृत्तोस्ति स पूज्यो परिग्रह से साधु मुक्त नहीं है तो उससे उसमें मलोत्पत्ति हो व्यवहारिभिः। श्रावक का सम्यग्दर्शन उसकी श्रद्धा पर जाती है। अवलम्बित है, बाहरी क्रियाओं पर नहीं । साधु का शिथिलाचार साधु के आत्मनिष्ठ व्यवहार एवं निर्दोष आचरण से साधु के लिए ही अहितकर है, श्रावक के लिए नहीं । समाज प्रभावित होता है, किन्तु जब कोई साधु परिग्रह या श्रावक तो यदि स्थापना-निक्षेप से भी उनकी पूजा-वंदना वाह्य आडम्बरों में गहरी रुचि लेने लगता है तो मानसिक करता है तो भी उसका कल्याण ही होता है । विकारों से स्वयं को बचा पाना उसके लिये भी कठिन हो हम तो बस एक बात जानते हैं कि शुभ-राग के कार्य जाता है। अपनी रुचि के अनुकल कार्य न होने पर उसे | करते हुए भी साधु के मन में भीतर से उनके प्रति अरुचि झुंझलाहट आती है और जो है, उनके प्रति वह समता नहीं अवश्य होनी चाहिए । प्रवचनसार में यद्यपि 'शुभोपयोगस्य रख पाता । अनुकुल के प्रति राग और प्रतिकूल के प्रति द्वेष | धर्मेण सहकार्थसमवायः' ऐसा कहा गया है, तथापि उसे बेकार ही समता-भाव से स्खलन का कारण है और इसके पीछे | समझकर करने पर भी जगह-जगह जोर दिया गया है। सांसारिक कार्यों के प्रति अत्यधिक लगाव ही है । अपने इतना मात्र ध्यान में रहे तो आत्मलीनता में कभी कोई बाधा मन को आत्मा में स्थिर रखने के लिये साधु निरन्तर यह नहीं आ सकती। चिन्तन करता रहता है 'चिन्तनप्रवाह' से आभार जिनमन्दिर शिखर-शिलान्यास एवं सम्यग्ज्ञान शिक्षणशिविर सम्पन्न दिनांक १०.४.२००५ को श्री दिगम्बर जैन मन्दिर जैनभवन पाण्डिचेरी में शिखरशिलान्यास का आयोजन वाणीभूषण प्रतिष्ठाचार्य श्री ब्र. जिनेश जी गुरुकुल मढ़िया जी जबलपुर के सान्निध्य में हर्षोल्लासपूर्वक सम्पन्न हुआ एवं दिनांक १५.४.२००५ से २५.४.२००५ तक श्री श्रमणसंस्कति संस्थान सांगानेर के तत्वावधान में श्री प्रकाशचन्दजी पहाडिया एवं तिलकपहाड़िया तथा ब्र. भरत जी के सानिध्य में शिक्षणशिविर का आयोजन किया गया। शिविर में बालबोध, पूजाओं का अर्थ तथा भक्तामर स्तोत्र का अर्थ सिखाया गया। शताधिक बालक, स्त्री, पुरुष एवं श्वेताम्बर भाइयों ने भाग लेकर जैनधर्म की शिक्षा प्राप्त की। समापन दिवस पर श्री मेघराज जी कोठारी, श्री सोहनलाल जी जैन ने शिविर शिक्षा पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालते हये बताया, 'इसप्रकार शिविर आयोजन के समय समस्त जैनसमाज को एक होकर शिक्षा प्राप्त कर, जैनधर्म की प्रभावना करना ही, धर्म की महती प्रभावना है।' सोहन पहाड़िया, पाण्डिचेरी 14 जून 2005 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524297
Book TitleJinabhashita 2005 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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