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जिज्ञासा-समाधान
पं. रतनलाल बैनाड़ा जिज्ञासा : क्या अस्पर्श-शूद्र व्रत-धारण कर सकता । श्रावक उतना ही आदर का पात्र होता है, जितना कि चरणानुयोग
| स्वीकृत करता है। समाधान : शूद्रों के दो भेद कहे जाते हैं-स्पर्श शूद्र | उपरोक्त प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि अस्पर्श शूद्र भी और अस्पर्श शूद्र । स्पर्श शूद्र वह हैं, जो यद्यपि शूद्र हैं, फिर | व्रतों को धारण तो कर सकता है, परन्तु क्षुल्लक नहीं बन भी जिनसे छू जाने पर स्नान करना आवश्यक नहीं होता है, | सकता। जैसे- धोबी, माली, सुनार, दर्जी आदि। अस्पर्श शूद्र वे हैं, जिज्ञासा - तत्त्वार्थ सूत्र में जीवतत्त्व के निरूपण में जिनसे छूजाने पर स्नान करना आवश्यक होता है, जैसे- | द्वीपसमूह का वर्णन व्यर्थ-सा लगता है, इसे पढ़ें या छोड़ दें? चांडाल, डूम, मेहतर, दाई आदि।
समाधान - ऐसा ही प्रश्न तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय 3/40 यहाँ जिज्ञासा यह है कि क्या ये चाण्डाल आदिक व्रतों | की टीका, श्लोकवार्तिक में आ. विद्यानन्द जी के सामने को धारण कर सकते हैं या नहीं। इसका निर्णय करने के लिए | उठाया गया है. जिसका समाधान उन्होंने इस प्रकार किया हैहमें शास्त्रों के निम्न प्रमाणों पर विचार करना चाहिए :
न च द्वीपसमुद्रादिविशेषाणां प्ररूपणं। 1. श्री रत्नकरण्डक श्रावकाचार में इस प्रकार निः प्रयोजनमाशंक्यं मनुष्याधारनिश्चयात्॥4॥ कहा है :
नानाक्षेत्रविपाकीनि कर्माण्युत्पत्तिहेतवः। मातंगो धनदेवश्च वारिषेणस्ततः परः।
संत्येव तद्विशेषेषु पुद्गलादिविपाकिवत्॥5॥ नीलीजयश्च संप्राप्ताः पूजातिशयमुक्तमम्॥64 ॥
तद्प्ररूपणे जीवतत्त्वं न स्यात् प्ररूपितं। अर्थ - यमपाल चाण्डाल, धनदेव, वारिषेण, नीली
विशेषेणेति तज्ज्ञानश्रद्धाने न प्रसिद्धतः ॥ 6 ॥ और जयकुमार क्रमश: अहिंसादि अणुव्रतों में उत्तम पूजा के
तन्निबंधनमक्षुण्णं चारित्रं च तथा व नु। अतिशय को प्राप्त हुये हैं। विशेष: यहाँ यमपाल नामक चाण्डाल
मुक्तिमार्गोपदेशो नो शेषतत्त्व विशेषवाक् ।। 7॥ को अहिंसाणुव्रत में प्रसिद्ध माना है। इसकी कथा इसी ग्रन्थ में दी हुई है।
अर्थ : द्वीप, समुद्र आदि विशेषों का प्ररूपण करना
प्रयोजन रहित है, यह आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि 2. श्री पद्मपुराण पर्व में इस प्रकार कहा है :
| इससे मनुष्यों के आधारभूत-स्थलों का निर्णय हो जाता है ॥4॥ नजातिर्गर्हिता काचिद्गुणा: कल्याणकारणम्।
पुद्गल या जीवादि में विपाक को करनेवाले विभिन्न व्रतस्थमपि चाण्डालं तं देवा ब्राह्मणं विदुः। 203 ||कर्म हैं. उसी प्रकार उन विशेष द्वीप या समुद्रों में उत्पत्ति हो
अर्थ - कोई भी जाति निन्दनीय नहीं है, गुण ही। जाने के कारण अनेक क्षेत्र-विपाकी कर्म भी हैं॥5॥ कल्याण करनेवाले हैं। यही कारण है कि व्रत धारण करनेवाले
यदि उन क्षेत्रों का निरूपण नहीं किया जायेगा, तो चाण्डाल को भी गणधरादिदेव ब्राह्मण कहते हैं । 203 ॥
जीव-तत्त्व का निरूपण नहीं समझा जायेगा। ऐसी दशा में उस 3. श्री रतनचन्द मुख्तार व्यक्तित्व एवं कृतित्व | जीव-तत्त्व का ज्ञान और श्रद्धान कभी भी प्रसिद्ध नहीं हो ग्रंथ पृष्ठ 707 पर पं. रतनचन्द जी मुख्तार ने कहा है कि जिनके
सकता है॥6॥ हाथ का अन्न-पान ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र नहीं खाते
फिर उन दो के कारण होनेवाला चारित्र भी कैसे संभव हैं ऐसे अभोज्यकारक शूद्र जैनमुनि या क्षुल्लक के व्रतों को तो
हो सकेगा और फिर मोक्षमार्ग का उपदेश तथा शेष अजीव धारण नहीं कर सकता, किन्तु पाँच पापों का एकदेश त्याग
आदि तत्त्वों का विशेष रूप से कथन करना नहीं बन पायेगा। कर अणुव्रत पालन कर सकता है।
भावार्थ : उस जीव-तत्त्व की प्रतिपत्ति करते हुए उस 4. पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य ने श्री
| जीव के विशेष हो रहे आधार आदि और आधारों की लम्बाईरत्नकरण्डश्रावकाचार गाथा-28 के विशेषार्थ में इस प्रकार
चौड़ाई आदि की प्रतिपत्ति कर लेना आवश्यक पड़ जाता है। कहा है :
इस प्रकार तृतीय एवं चतुर्थ अध्याय में द्वीप, समुद्र, पर्वत, चाण्डालादि कुल में उत्पन्न हुआ सम्यग्दृष्टि या देशव्रती | नदी, स्वर्ग आदि का वर्णन और उनमें रहनेवाले जीवों आदि
जून 2005 जिनभाषित 23
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