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का विशेषरूप से प्ररूपण सूत्रकार ने किया है, यह युक्तिपूर्वक है।
मोक्षमार्ग प्रकाशक के आठवें अधिकार में पं. टोडरमलजी ने इस प्रकार कहा है
:
यहाँ कोई कहे - कोई कथन तो ऐसा ही है, परन्तु द्वीप, समुद्रादिक के योजनादिक का निरूपण किया, उनमें क्या सिद्धि है ?
उत्तर : उनको जानने पर उनमें कुछ इष्ट या अनिष्ट बुद्धि नहीं होती, इसलिए पूर्वोक्त (रागादिक घटाने अथवा मिटाने) की सिद्धि होती है। यहाँ उद्यम द्वारा द्वीप समुद्रादिक को जानता है, वहाँ उपयोग लगता है, सो रागादिक घटने पर ऐसा कार्य होता है। ----- - द्वीपादिक में इस लोक संबंधी कार्य कुछ नहीं है, इसलिए रागादिक का कारण नहीं है । यदि स्वर्गादिक की रचना सुनकर वहाँ राग हो, तो परलोक-संबंधी पुण्य होगा । उसका कारण पुण्य को जाने, तब पाप छोड़कर पुण्य में प्रवर्ते, इतना ही लाभ होगा तथा द्वीपादिक को जानने पर यथावत रचना भाषित हो, तब अन्य मतादिक का कहा झूठा भाषित हो, तब अन्य मतादिक का कहा झूठा भाषित होने से सत्य- श्रद्धानी हो और यथावत रचना जानने से भ्रम मिटने पर उपयोग की निर्मलता हो, इसलिए वह अभ्यास कार्यकारी है ।
उपरोक्त प्रमाणों के अनुसार तत्त्वार्थसूत्र के तीसरे व चौथे अध्याय को अत्यन्त उपयोगी समझकर उसका स्वाध्याय करना चाहिए। इससे पंचमेरू, नन्दीश्वरद्वीप, सिद्धशिला, अकृत्रिम जिनालय, विदेहक्षेत्र, पाण्डुकशिला, कर्मभूमि, भोगभूमि आदि का ज्ञान होने से ज्ञान में विशेषता प्राप्त होती है।
जिज्ञासा : क्या दशमी प्रतिमाधारी ब्रह्मचारी को भी छुल्लक के समान इच्छामि करना चाहिए?
समाधान: आ. कुन्दकुन्द ने जिनशासन में तीन लिंग कहे हैं। दर्शन पाहुड़ गाथा नं. 18 में यह कहा है :
एक्कं जिणस्स रूवं बीयं उक्किट्ठसावयाणं तु । अवरट्ठियाण तइयं चउत्थंपुण दंसणं णत्थि ॥ अर्थ : एक जिनेन्द्र भगवान का नग्नरूप, दूसरा उत्कृष्ठ श्रावकों का और तीसरा आर्यिकाओं का। इस प्रकार जिनशासन में तीन लिंग कहे गये हैं। चौथा लिंग जिनशासन में नहीं है।
इसकी टीका में श्रुतसागर सूरि ने 'उत्कृष्ट श्रावक' शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है कि अनुमति-त्याग और उद्दिष्ट-त्याग इन दोनों प्रतिमा के धारी उत्कृष्ट - श्रावक के अन्तर्गत आते हैं।
24 जून 2005 जिनभाषित
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आ. सोमदेव ने भी इसीप्रकार कहा है :
अद्यास्तु षड्जघन्याः स्युर्मध्यमास्तदनुत्रय । शेषौ द्वावुत्तमावुक्तौ जैनेषु जिनशासने ॥ 1 ॥ अर्थ : जिनशासन में प्रारम्भ के छः श्रावक जघन्य, उसके बाद के तीन श्रावक मध्यम तथा अन्त के दो श्रावक उत्तम कहे गये हैं ॥ 1 ॥
दौलतरामकृत क्रियाकोश में भी इसप्रकार कहा है :
मुनिवर के तुल्य महानर ।
दशवी - एकादशयीधार ॥ 1063 ॥ अर्थ : दशमी और ग्यारहवीं प्रतिमाधारी- श्रावक मुनियों के तुल्य महान् 'उत्कृष्ट - श्रावक' होते हैं ।
जिज्ञासा : क्या धरणेन्द्र - पद्मावती को पार्श्वनाथ का यक्ष-यक्षिणी मानना उचित है?
समाधान: समाज में ऐसी धारणा बहुत समय से चली आ रही है कि भगवान् पार्श्वनाथ के उपदेश को सुनकर जो नाग-नागिन का जोड़ा अग्नि में जलते हुए मरण को प्राप्त हुआ था, वह धरणेन्द्र और पद्मावती बना। यदि इस धारणा को सच माना जाये तो कुछ जिज्ञासायें उत्पन्न होती हैं :
1. धरणेन्द्र तो भवनवासी देवों में नागकुमार जाति के इन्द्र को कहा गया है । परन्तु यक्ष तो व्यन्तर देवों का एक भेद है, अत: धरणेन्द्र को यक्ष कहना कैसे उचित कहा जा सकता है?
2. तिलोयपण्णत्ति अधिकार 4 में भगवान पार्श्वनाथ का यक्ष मातंग और यक्षिणी पद्मा कही गई है । फिर धरणेन्द्र को भगवान पार्श्वनाथ का यक्ष कैसे कहा जाय । यदि किन्हीं प्रतिष्ठाग्रन्थों के अनुसार यक्ष का नाम 'धारण' भी माना जाये, तो उसे भवनवासियों के इन्द्र धरणेन्द्र के रूप में कैसे स्वीकार किया जा सकता है, क्योंकि वह तो 'यक्ष' है और यह भवनवासियों का 'इन्द्र' है ?
3. हरिवंशपुराण सर्ग -22 के श्लोक नं. 54-55 और 102 में धरणेन्द्र की देवियों के नाम दिति और अदिति लिखे हैं। वहाँ पर पद्मावती नाम की देवी का नाम कहीं नहीं लिखा, जबकि त्रिलोकसार श्लोक नं. 236 में असुरकुमार जाति के इन्द्र वैरोचन की पट्टदेवियों के नाम में पद्मा, महापद्मा और पद्मश्री ये तीन नाम मिलते हैं। तब फिर धरणेन्द्र की पट्टदेवी पद्मावती कैसे स्वीकार की जाये ?
भगवान पार्श्वनाथ का सबसे प्राचीन जीवन-चरित्र उत्तरपुराण में प्राप्त होता है। उसमें पर्व 73, श्लोक नं. 119 में कहा गया है कि 'सर्प और सर्पणी कुमार के उपदेश से शांत
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