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भाव को प्राप्त होकर नागकुमार का इन्द्र धरणेन्द्र और उसकी | पर्वत के कारण कहाँ जाती हैं? पत्नी हुए।' इस उद्धरण से यह तो स्पष्ट होता ही है कि भगवान
समाधान : उपरोक्त संबंध में हरिवंशपुराण के पंचम पार्श्वनाथ पर उपसर्ग होने के समय, उपसर्ग दूर करने के
सर्ग में इस प्रकार कहा है : लिए यक्ष और यक्षिणी नहीं आये थे बल्कि धरणेन्द्र और उसकी पत्नी आए थे। पत्नी का नाम भी पद्मावती लिखा
चतुर्दशगुहाद्वारदत्तनिर्गमनो गिरिः। नहीं मिलता है। दूसरी यह बात और भी स्पष्ट होती है कि
पुष्करोदं नयत्येष पूर्वापरनदी वधूः॥ 586॥ आजकल बहुत से मंदिरों में जो पद्मावती के फण के ऊपर
__अर्थ : यह पर्वत चौदह गुफारूपी दरवाजों के द्वारा भगवान पार्श्वनाथ को विराजमान किया गया है, वह धारणा
| निकलने का मार्ग देकर पूर्व पश्चिम की नदीरूपी स्त्रियों को बिल्कुल भी आगम-सम्मत नहीं है। उत्तरपुराण के अनुसार | पुष्करोदधि के पास भेजता रहता है अर्थात् चौदह नदियाँ इस धरणेन्द्र ने भगवान को अपने फणों के ऊपर उठाया था और | गुफारूपी हदरवाजों से निकलकर पुष्कर समुद्र में जाकर उसकी पत्नी ने बज्रभय-छत्र ताना था। वर्तमान में भगवान | गिरती हैं। पार्श्वनाथ की जो सबसे प्राचीन मूतियाँ ऐलोरा और एहोले श्री त्रिलोकसार में इसप्रकार कहा है: आदि में प्राप्त होती हैं, उनमें भी पद्मावती को छत्र लगाते हुए
अंते टंकच्छिण्णो बाहिं कमवड्डिहाणि कणयणिहो। ही दिखाया गया है, जो आगम-सम्मत है। ये मूर्तियाँ 7वीं,
णदिणिग्गमपहचोद्दस गुहाजुदो माणुसुत्तरगो।। १37॥ 9वीं-10वीं शताब्दी तक की हैं।
अर्थ : पुष्करद्वीप के मध्य में मानुषोत्तर पर्वत है। वह उपरोक्त हरिवंशपुराण के अलावा अकलंक स्वामी ने |
अभ्यन्तर में टङ्कछिन्न और बाह्य भाग में क्रमिक वृद्धि एवं राजवार्तिक में धरणेन्द्र की अग्रदेवियों की संख्या 6 तो जरूर | द्वानि कोलि
हानि को लिए हुए है। स्वर्ण-सदृश वर्णवाला एवं नदी निकलने बताई है. परन्तु उनके नाम नहीं लिखे हैं। तिलोयपण्णत्ति व | के चौदह गुफाद्वारों से युक्त है। त्रिलोकसार में धरणेन्द्र की पट्टदेवियों का नाम कहीं भी लिखा
श्री सिद्धान्तसार दीपक के अधिकार 10 में इसप्रकार नहीं मिलता है। आ. समन्तभद्र ने स्वयंभूस्तोत्र में भगवान
कहा है: पार्श्वनाथ का स्तवन करते हुए 'धारण' शब्द का प्रयोग तो किया है, परन्तु पद्मावती का नाम नहीं लिखा। श्वेताम्बराचार्य
चतुर्दशनदीनिर्गमनद्वारादि शलिनः। हेमचन्द्र ने भी 'तृसष्टि शलाका पुरुष चरित' में नाग-नागिनी
क्रमहस्वस्य चास्यागुरुदयो योजनैर्मतः ॥ 271॥ का मरकर धरणेन्द्र और उसकी देवी होना तो स्वीकार किया
अर्थ : चौदह महानदियों के निकलने के 14 द्वारों से है, परन्तु उन्होंने भी पद्मावती नाम नहीं दिया है। सुशोभित और क्रमशः ह्रस्व होते हुए इस पर्वत की ऊंचाई उपरोक्त सभी प्रमाणों से यह स्पष्ट होता है कि भगवान
योजनों में मानी गई है। पार्श्वनाथ के ऊपर जो उपसर्ग हुआ था, उसे यक्ष और यक्षिणी उपरोक्त सभी आगम-प्रमाणों से यह समाधान प्राप्त ने दूर नहीं किया था। वास्तव में जो नाग-नागिनी मरकर | होता है कि पुष्करार्ध की 14 नदियाँ मानुषोत्तर पर्वत की 14 धरणेन्द्र और उनकी पत्नी बने थे, उन धरणेन्द्र और उसकी | गुफाओं से बाहर जाती हैं। देवी ने किया था, जो वास्तव में भवनवासियों के असुरकुमार यहाँ पर यह भी बताना आवश्यक है कि श्रुतसागर सूरि जाति के इन्द्र और उसकी देवी थे। भगवान पार्श्वनाथ के | नेतत्त्वार्थसूत्र अध्याय 3 के 35वें सूत्र 'प्राङ्मानुषोत्तरान्मनुष्याः' यक्ष-यक्षिणी भिन्न हैं और उपसर्ग दूर करनेवाले धरणेन्द्र और | की टीका करते हुए लिखा है कि 'मानुषोत्तरात्' नद्योऽपि उसकी देवी भिन्न हैं। अतः अपनी धारणा को हमें ठीक | बहिर्न गच्छन्ति, किन्तु मानुषोत्तरं पर्वतमाश्रित्य तिष्ठति। बनाना चाहिए। साथ ही यह भी धारणा ठीक करनी चाहिए
अर्थ : मानुषोत्तर पर्वत से नदियाँ भी बाहर नहीं जाती कि पद्मावती देवी ने उपसर्ग के समय भगवान पार्श्वनाथ को
हैं, किन्तु मानुषोत्तर पर्वत को आश्रय करके रुक जाती हैं। यह फण पर उठाया था। उसने तो मात्र छत्र लगाया था। फण पर |
कथन उपरोक्त आगम-प्रमाणों से नहीं मिलता, अत: अप्रमाणिक उठाने का कार्य तो धरणेन्द्र ने किया था।
मानना चाहिए। श्रुतसागर सूरि के और भी बहुत से कथन जिज्ञासा : पुष्करार्ध की 28 नदियों में से 14 नदियाँ | आगम-सम्मत नहीं है, जिसकी चर्चा फिर कभी की जायेगी। तो कालोदधि समुद्र में मिलती हैं, शेष 14 नदियाँ मानुषोत्तर |
1/205, प्रोफेसर कॉलोनी, आगरा -282 002
- जून 2005 जिनभाषित 25
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