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________________ पत्र एवं पत्रोत्तर पं. नीरज जी जैन (सतना) ने पत्र के माध्यम से कुण्डलपुर में घटित कुछ घटनाओं के विषय में अपनी चिन्ता प्रकट की है। पं. मलचन्द जी लहाडिया ने अपने पत्रोत्तर में नीरज जी की चिन्ता को निराधार बतलाया है। दोनों पत्र प्रकाशित किये जा रहे हैं। पत्र प्रिय बंधु मूलचन्द जी लुहाड़िया, पं. डॉ. रतनचन्द्रजी, शान्ति सदन, कम्पनी बाग, सतना (म.प्र.)-485001 भाई रतनलालजी बैनाड़ा एवं भाई अमरचन्दजी, दिनांक : 15.04.05 सादर जय जिनेन्द्र श्रीक्षेत्र कुण्डलपुर के पर्वत पर जिनालय के निर्माण में एक बलि गत वर्ष हो चुकी थी। जन मानस को हताहत कर जाने वाली दूसरी दुर्घटना में अभी पिछले सप्ताह वहीं कार्यरत गुजरातनिवासी श्री रामधन की अकालमृत्यु का चिन्ताजनक और भयोत्पादक समाचार कुछ पत्रों के माध्यम से मुझे ज्ञात हुआ है। इसके दो दिन बाद इन्दौर के यात्री बालक का वर्द्धमानसागर में डूब मरने का समाचार पाकर मेरी पीड़ा और चिन्ता कई गुनी बढ़ गई है। यह तो सैकड़ों वर्षों से प्रसिद्ध है ही कि श्रीक्षेत्र कुण्डलपुर को तथा विशेषकर बड़ेबाबा की प्रतिमा को कुछ दैवी शक्तियों का संरक्षण प्राप्त है । इतिहास साक्षी है कि जब भी आवश्यक हुआ है, उन शक्तियों ने अपनी उपस्थिति जताई है, और उपसर्गों को टाला है। मेरी पुस्तक 'कराहता कुण्डलपुर' में भी पृष्ठ 69 पर इस बात का संकेत है। __ यह आगम का विधान है कि देवगति के अधिकांश प्राणी यहीं मध्यलोक में हैं और उनमें नियम से 'प्रभाव' शक्ति होती है। तत्त्वार्थसूत्र के चौथे अध्याय का 'स्थितिप्रभावसुख....' वाला बीसवाँ सूत्र देवगति के हर प्राणी में प्रभाव की नियामक सूचना देता है। परमपूज्य पूज्यपादाचार्य महाराज ने सर्वार्थसिद्धि में प्रभाव की व्याख्या करते हुए 'शापानुग्रहशक्तिः प्रभावः' कह कर उसकी सुस्पष्ट व्याख्या कर दी है। आप चारों बंधु शास्त्रज्ञ हैं, यह सब मुझ से अधिक जानते हैं, फिर भी श्रीक्षेत्र के और संघ के प्रति अपने अनुराग के कारण मेरा मन मानता नहीं, अत: आज यह पत्र लिखने के लिए विवश हुआ ___ मुझे ज्ञात हुआ है कि भविष्य में ऐसी अनहोनी को टालने के लिए श्रीक्षेत्र पर विधान और जाप्य अनुष्ठान किये जा रहे हैं, पर मैं समझता हूँ कि ऐसे आयोजनों से करनेवाले श्रद्धालुओं के लिये ही सुरक्षा-चक्र बनता है, मरनेवाले निरीह कार्मिकजनों के लिये नहीं। उन्हें तो निर्माताओं की प्रमाद और दोषपूर्ण संयोजना के कारण ऐसे ही अपने प्राणों की आहुति देते रहना पड़ेगी। मेरी आपसे करबद्ध विनय है कि इन प्राणलेवा घटनाओं पर समय रहते गम्भीरता से विचार करें और योजना में वाँछित सुधार करके बड़ेबाबा को यथावत् रखना सुनिश्चित कराने का प्रयास करें। अर्जी मेरी है, मरजी आप लोगों के हाथ है, और क्या कहूँ। पूज्य आचार्यश्री सहित संघ में सभी के चरणों तक मेरी सविनय वन्दना पहुंचा दें। सदैवसा, संत चरणानुरागी नीरज जैन 26 जून 2005 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524297
Book TitleJinabhashita 2005 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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