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________________ ज्ञानकथा थोड़े के लिए बहुत हानि किसी नगर में एक निर्धन और भाग्यहीन वणिक , पेड़ के नीचे गड्ढा खोदकर वणिक ने सारी मुद्राएँ गाड़ दीं। रहता था । निर्धन और भाग्यहीन होने के साथ वह कंजस | ऊपर से मिटटी ढक दी और पहचान के लिए निशान बना भी अव्वल दर्जे का था । मितव्ययिता-किफायतशारी और | दिया । कृपणता अथवा कंजूसी दोनों भिन्न हैं । कंजूसी कभी ठीक लौटकर वह दुकानदार के पास पहुँचा । बोला- यहाँ नहीं । कंजूसों का धन दूसरे ही उड़ाते हैं। मेरी एक काकिणी गिर गई थी । मुझे वापस कर दो । इस निर्धन वणिक ने बहत प्रयास किये. पर धन उसे | दकानदार साफ मुकर गया । बोला-यहाँ तो नहीं गिरी । नहीं मिला । पेट भरना अलग बात है । पेट तो सभी भर लेते | तुमने मुझे एक कार्षापण दिया था और मैंने सामान देकर हैं। एक बार इस नगर के कुछ व्यापारी धन कमाने के लिए | बची हुई काकिणी गिनकर तुमको वापस कर दी थी । अब विदेश गए । यह भाग्यहीन वणिक भी उनके साथ हो | मैं नहीं जानता, कहाँ गिरी? लिया। दूर-देश जाकर सबने व्यापार किया । सबको खूब | । कहीं नहीं मिली खोई हुई एक काकिणी । बेचारा लाभ हुआ । इस बेचारे ने भी अपनी कृपण-वृत्ति से एक | निराश लौटा । पहले स्थान पर गड़ी मुद्राएँ निकालने के हजार स्वर्णमुद्राएँ जोड़ ली थी । क्रय-विक्रय समाप्त कर | लिए गड्ढा खोदा तो मुद्राएँ नदारद थीं । जिस समय उसने सब अपने देश को लौटने लगे। ये मुद्राएँ गाड़ी थीं, उस समय कोई दूर से देख रहा था, सो मार्ग में एक नगर पड़ा । सब यहाँ ठहरे और अपने | निकाल ले गया । घर के लिए कुछ जरूरी चीजें खरीदी । एक कर्षापण (एक | भाग्य का मारा बेचारा वणिक सिर पकड़कर बैठ सिक्का जिसमें 20 काकिणी होती थी) भुनवाकर कुछ सामान | गया और रोने लगा । रोने से क्या होता? लुटा-पिटा घर इस निर्धन वणिक ने भी खरीदा । यथासमय सब आगे चल | लौटा और आपबीती सबको सनाई । सनकर सबने यही दिये। चलते-चलते एक जंगल में पहुँचे । कछ देर विश्राम | कहा- थोडे के पीछे बहत गँवा दिया । किसी की न माननेवाले किया । वणिक ने अपनी मद्राएँ सम्हाली. काकिणी गिनी तो | इसी तरह पछताते हैं । एक काकिणी के पीछे हजार मद्राएँ उनमें एक काकिणी कम थी । उसने अपने साथियों से | गँवा दी, वाह रे मूढ़। कहा- पीछे नगर में मैंने एक कार्षापण भुनवाया, उसमें एक | विषय-भोगरूपी थोड़े से सुख के पीछे पड़े रहनेवाले काकिणी कम हो रही है । मेरी एक काकिणी या तो दुकान | आत्मोद्धाररूपी महासुख को इसी तरह गँवा देते हैं । तलवार पर रह गई या कहीं रास्ते में गिर गई । आप लोग यहाँ | पर लिपटा शहद तो दीखता है, पर उसकी धार भी दीखनी रुकिए। मैं खोई हई काकिणी लेकर उलटे पैरों वापस आता चाहिए, वरना शहद चाटनेवाले की जीभ कट जाती है । एक काकिणी के लिए पीछे लौटना मूर्खता है । मुक्ति-सुख वही साथियों ने समझाया-अब पीछे लौटना व्यर्थ है । प्राप्त करते हैं, जो पीछे नहीं लौटते, आगे बढ़ते रहते हैं और इतनी दूर निकल आये । एक काकिणी के लिए इतना पीछे | जिनका हर कदम सावधानी के साथ रखा जाता है तथा जो लौटना बुद्धिमानी नहीं । फिर भी यह जरूरी नहीं कि वह | गुरुवचनों पर श्रद्धा रखते हैं । मिल ही जाए । क्या खोई हुई चीज कहीं मिलती है ? | दुकानदार के पास होगी, तो वह भी अब देने से रहा । जरूर सुनें वणिक नहीं माना । अन्त में साथियों ने कहा-तम्हारी सन्त-शिरोमणि आचार्यरत्न श्री 108 विद्यासागर जी इच्छा। लेकिन हम तुम्हारी प्रतीक्षा यहाँ जंगल में नहीं कर महाराज के आध्यात्मिक एवं सारगर्भित प्रवचनों का प्रसारण सकते। हम तो चलते हैं । अगर मिल सके तो आगे किसी 'साधना चैनल' पर प्रतिदिन रात्रि 9.30 से 10.00 बजे तक नगर या गाँव में मिल जायेंगे । किया जा रहा है, अवश्य सुनें। साथी आगे बढ़ गए । वणिक काकिणी खोजने पीछे नोट : यदि आपके शहर में 'साधना चैनल' न आता हो तो लौटने लगा । उसने सोचा, साथ की इन मुद्राओं को कहाँ कृपया मोबाइल नं. 09312214382 पर अवश्य सूचित लिये फिरूँगा? यहीं कहीं छिपा दूं, लौटकर ले लूँगा । एक करें। 30 जून 2005 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524297
Book TitleJinabhashita 2005 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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