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हमें प्राप्त होता है। पुस्तक के प्रारम्भ में मानद् डी.लिट. | लिखे जा चुके हैं। शोध-संदर्भ के संकलन का जो परिश्रमयुक्त उपाधि प्राप्त जैन विभूतियों का उल्लेख किया गया है। पुस्तक | कार्य इन्होंने किया है, वह प्रशंसनीय है। विषयवस्तु की में उन विश्वविद्यालयों की सूची भी दी गई है जिन्हें इस ग्रंथ | प्रामाणिकता का लेखक ने पूरा ध्यान रखा है। पुस्तक इस में उद्धृत किया गया है तथा जहाँ प्राकृत, अपभ्रंश एवं जैन- तरह की शैली में तैयार की गई है कि हिन्दी एवं अंग्रेजी विद्याओं पर शोधकार्य हुए हैं। जैनविद्या से संबंधित 101 दोनों के पाठक इसका लाभ उठा सकें। इसके प्रकाशन हेत शोधयोग्य वर्गीकृत विषयों की सूची एवं विभिन्न प्रकाशकों अर्थ-सहयोग-प्रदाता वर्ल्ड काउंसिक ऑफ जैन एकेडमिज़ की सूची भी शोधार्थियों के उपयोग हेतु प्रस्तुत की गई है। लंदन के अध्यक्ष डॉ. नटुभई शाह हैं। यह ग्रंथ प्राकृत और लेखक ने लगभग 200 शोध-प्रबन्धों का एक छोटे पुस्तकालय जैनविद्या के अध्ययन में रुचि रखनेवाले विद्वानों और इस के रूप में संकलन किया है। इससे संबंधित ग्रंथों का विस्तृत | | क्षेत्र में नवीन शोध करनेवाले शोधार्थियों हेतु दिशाबोध परिचय संदर्भग्रंथ में दिया है। शोधार्थियों द्वारा संकलित ग्रंथों करानेवाला महत्वपूर्ण ग्रंथ है। मन्दिरों, पुस्तकालयों तथा के उपयोग के बारे में निर्देश संदर्भग्रंथ के पीछे दिये हैं। व्यक्तिगत संकलनकर्ताओं के लिये यह अति उपयोगी है।
शोध-संदर्भ में विभिन्न विषयों के शोधकर्ताओं के | पुस्तक का प्रकाशन आकर्षक एवं सुन्दर है। भारतीय मुद्रा नामों को देखकर ज्ञात होता है कि प्राकृत और जैनविद्या | में इसका मूल्य रु.200 एवं विदेशी मुद्रा में डालर 5 है। साहित्य के अध्ययन एवं शोध के क्षेत्र में जैन ही नहीं अनेक पुस्तक में दिये गये प्राप्ति-स्थानों में से दो निम्नानुसार हैं : जैनेतर व्यक्तियों एवं विद्वानों की भी गहरी रुचि रही है।। (1) डॉ. कपरचन्द जैन, सचिव-श्री कैलाशचन्द जैन स्मति विदेशी विश्वविद्यालयों के अतिरिक्त भारतीय विश्वविद्यालयों न्यास, श्री कुन्दकुन्द जैन महाविद्यालय परिसर, खतौली - से संबंधित शोधकर्ताओं के कछ नाम यह भी हैं- पी.एम. | 251201 (उ.प्र.), (2) डॉ. नन्दलाल जैन, जैन सेन्टर, जोसेफ, डी.बी. पठान, कु. अनीस फातिमा, अंजुम सैफी, | रीवा-486001। पुस्तक का प्रकाशन श्री कैलाशचन्द जैन Ohira Suzuka,M.C. Thomas,Miss MariaHibbets,Esthar | स्मृति न्यास, खतौली (उ.प्र.) द्वारा किया गया है। Abraham एवं यामिन मौहम्मद।
श्रेयस, 2-डी, कालाजी गोराजी कॉलोनी, डॉ. कपरचन्द जैन द्वारा अब तक 'स्वतंत्रता संग्राम में
उदयपुर (राज.) जैन' इत्यादि चार पुस्तकें एवं लगभग 50 शोधपूर्ण लेख
तीर्थंकर तीर्थ अर्थात् घाट । जिस घाट को पाकर संसार सागर से तरा जाए वह तीर्थ है। मोक्ष प्राप्ति के उपायभूत रत्नत्रय धर्म को तीर्थ कहा गया है। 'तीर्थं करोति इति तीर्थंकर' इस तरह धर्म-तीर्थ के जो कर्त्ता अर्थात् प्रवर्तक होते हैं वे तीर्थंकर कहलाते हैं। तीर्थंकर का तीर्थ, उनका शासन सर्वजन हितकारी, सर्वसुखकारी होने से 'सर्वोदय तीर्थ' कहा जाता है। जहाँ पर सबके उदय/कल्याण की बात होती है वही तो सर्वोदय तीर्थ है। जीव यदि पुरुषार्थ करे तो पतित से पावन परमात्मा बन सकता है। निगोद पर्याय से निकलकर उत्थान करता हुआ निरञ्जन निर्वाण पद को भी प्राप्त कर सकता है। यह दिव्य संदेश तीर्थंकर भगवन्तों के शासन से ही प्राप्त हुआ है। तीर्थंकर पद की प्राप्ति में कारण-भूत तीर्थंकर प्रकृति पुण्य-कर्म की एक ऐसी विशिष्ट प्रकृति है जिसके बंध होने से लेकर उदय में आने तक उस जीव को इस संसार के लिए चमत्कृत करने की असाधारण शक्ति प्राप्त होती है। लोक मंगलकारी अतिशय घटित हुआ करते हैं। सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय की पवित्र भावना से आपूरित जब दर्शनविशुद्धि आदि सोलहकारण भावनाओं को कोई जीव भाता है तब वह तीर्थंकर प्रकृति के विशिष्ट पुण्य का संचय करता है। मोक्ष जाने के लिए तीर्थंकर बनना जरूरी नहीं है किन्तु तीर्थ प्रवर्तन कर व्यापक रूप से धर्म प्रभावना और जगत का हित करने के लिए तीर्थंकर पद पाना जरूरी है। जब धर्म का प्रभाव घटने लगता है और मिथ्यात्व का प्रभाव बढ़ने लगता है तब तीर्थंकर अवतरित होकर धर्म-तीर्थ की स्थापना करते हैं। कहा गया है : आचाराणां विघातेन कुदृष्टिनां च संपदा । धर्मग्लानिं परिप्राप्तमुच्छ्रयन्ते जिनोत्तमाः।
__ (पद्मपुराण ५/२०६) 'शलाका पुरुष' (मुनिश्री समतासागर जी) से साभार
- जून 2005 जिनभाषित 29
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