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और अशुभ होता है, जैसा कि पूज्यपाद स्वामी ने कहा है- । (मिथ्यादोषारोपण) दर्शनमोहनीय के आस्रव के कारण हैं
"कथं योगस्य शुभाशुभत्वम् ? शुभपरिणामनिवृत्तो | (त.सू. ६/१३)। कषायोदयजन्य तीव्र आत्मपरिणाम से योगः शुभः । अशुभपरिणामनिर्वृत्तश्चाशुभः। न पुनः | चारित्रमोहनीय कर्म आस्रवित होता है । बहु आरंभ और शुभाशुभकर्मकारणत्वेन।यद्येवमुच्यते शुभयोग एव न स्यात्, | बहुपरिग्रह नरकायु का, माया तिर्यंचायु का, अल्प आरंभ शुभयोगस्यापि ज्ञानावरणादिबन्धहेतुत्वाभ्युपगमात्।" (स.सि.
और अल्प परिग्रह मनुष्यायु का, स्वाभाविक मृदुता मनुष्यायु ६/३)
और देवायु का तथा शीलव्रतरहितता चारों आयुओं का आस्रव ____ अर्थ - योग शुभ और अशुभ कैसे होता है ?
कराती है (त.सू.६/१४-१९) । शुभपरिणाम से उत्पन्न योग शुभ कहलाता है और अशुभ |
सरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बालतप परिणाम से उत्पन्न योग अशुभ । शुभ-अशुभ कर्मों के बन्ध | ये देवाय के आस्रव-हेतु हैं । सम्यक्त्व भी देवायु के आस्र के हेतु होने से शुभ-अशुभ नहीं कहलाते । ऐसा कहने पर
का कारण है (त.सू.६/२०-२१)। मनोयोग, वचनयोग और शुभयोग का अस्तित्व ही नहीं होगा, क्योंकि शुभयोग भी
काययोग की कुटिलता से अशुभनामकर्म का तथा उनकी ज्ञानावरणादि अशुभ कर्मों के बन्ध का कारण होता है ।
सरलता से शुभनामकर्म का आस्रव होता है। (त.सू.६/२२यहाँ शुभाशुभपरिणाम का अर्थ शुभाशुभ उपयोग है ।
२३)। यह आचार्य अमितगति के निम्नलिखित वचन से स्पष्ट है -
दर्शनविशुद्धि, विनयसम्पन्नता, शील और व्रतों का शभाशभोपयोगेनवासितायोगवृत्तयः।
अतिचार-रहित पालन, सतत ज्ञानोपयोग, सतत संवेग, यथासामान्येन प्रजायन्ते दुरितासवहेतवः॥३/१॥
शक्ति त्याग और तप करना, साधु-समाधि, वैयावृत्य करना, योगसारप्राभृत
अर्हद्भक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, अर्थ- शुभ और अशुभ उपयोग से सम्पृक्त योगवृत्तियाँ
आवश्यकों का नियम से पालन, मोक्षमार्ग की प्रभावना और सामान्यरूप से दुरितों (शुभाशुभ कर्मों) के आस्रव का हेतु
प्रवचनवात्सल्य ये सोलह तीर्थंकर-प्रकृति के आस्रव के होती हैं। ज्ञानावरणादि आठों कर्मों का आस्रव शुभाशुभ योग से
हेतु हैं (त.सू. ६/2४) ।
परनिन्दा और आत्मप्रशंसा तथा दूसरों के विद्यमान तत्त्वार्थसूत्रकार ने केवल अर्थग्रहण-व्यापारात्मक
गुणों का आच्छादन और अविद्यमान गुणों का उद्भावन उपयोग का उल्लेख किया है, शुभाशुभ-शुद्धपरिणामात्मक
नीचगोत्र के आस्रव-हेतु हैं तथा ऐसा न करना एवं नम्रवृत्ति उपयोग का नाम भी नहीं लिया । उन्होंने शुभ और अशुभ
और अनुत्सेक-भाव (अभिमानहीनता) उच्चगोत्र का आस्रव योग को ही ज्ञानावरणादि समस्त कर्मों के आस्रव का हेतु
कराते हैं । दूसरों के दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में बतलाया है। यह सर्वार्थ-सिद्धि की पातनिका-टिप्पणियों से
| विघ्न डालने से अन्तरायकर्म का आस्रव होता है (त.सू. ६/ स्पष्ट हो जाता है । यथा - "उक्तः सामान्येन कर्मास्रवभेदः। इदानीं कर्मविशेषासवभेदो वक्तव्यः। तस्मिन् वक्तव्ये
२५-२७)। आद्ययोनिदर्शनावरणयोरासवभेदप्रतिपत्त्यर्थमाह-"
इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र में इन शुभा-शुभ योग-प्रवृत्तियों 'तत्प्रदोष-निह्नव-मात्सर्यान्तरायासादनोपघाता
को ज्ञानावरणादि आठ कर्मों और अघाती कर्मों की शुभाशुभ ज्ञानदर्शनावरणयोः' (स.सि. ६/१०)
प्रकृतियों के आस्रव का हेतु प्ररूपित किया गया है । इस सूत्र में सूत्रकार ने ज्ञान के विषय में प्रदोष,
आठों कर्मों का आस्रव शुभाशुभ उपयोग से निव, मात्सर्य, अन्तराय, आसादान और उपघात करने को
प्रवचनसार आदि ग्रन्थों में शुभाशुभ उपयोगों को इन ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मों के आस्रव का हेत कहा है। आठ कमाँ के आस्रव का कारण बतलाया गया है । यथास्वयं में और दूसरों में उत्पन्न किये गये दु:ख, शोक,
परणमदि जदा अप्पा सुहम्हि रागदोसजुदो ।
तं पविसदिकम्मरयं णाणावरणादिभावहिं॥ ताप, आक्रन्दन, वध और परिदेवन असातावेदनीय के
२/९५/प्र.सा. आस्रव-हेतु हैं तथा प्राणियों पर अनुकम्पा, व्रतियों पर
अर्थ - जब आत्मा रागद्वेषयुक्त होकर शुभ अनुकम्पा, दान, सरागसंयम, क्षान्ति (क्षमा) और शौच
| (शुभोपयोग) या अशुभ (अशुभोपयोग) में परिणत होता (निर्लोभ) के भाव सातावेदनीय के आस्रव-हेतु बतलाये |
'| है, तब उसमें ज्ञानावरणादि के रूप में कर्मरज प्रविष्ट होती गये हैं (त.सू.६/११-१२)। केवली, श्रुत, संघ, धर्म और देवों का अवर्णवाद
जून 2005 जिनभाषित 19
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