SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मास्रव का हेतु : योग या उपयोग? प्रो. रतनचन्द्र जैन तत्त्वार्थसूत्रकार गृध्रपिच्छाचार्य जी ने 'कायवाड्मनः । परिणामात्मक। ब्रह्मदेव सूरि ने इनका प्ररूपण निम्नलिखित कर्म योगः' (६/१)इस सूत्र में काय, वचन और मन की | वाक्यों में किया है - क्रिया के निमित्त से होनेवाले आत्मप्रदेशों के परिस्पन्द | "किञ्च ज्ञानदर्शनोपयोगविवक्षायामुपयोगशब्देन (संकोच-विकोच) को योग कहा है। उससे आत्मा |विवक्षितार्थपरिच्छित्तिलक्षणोऽर्थग्रहणव्यापारो गृह्यते । ज्ञानावरणादि कर्म बनने योग्य पदगलस्कन्धों को ग्रहण करता शुभाशुभशुद्धोपयोगत्रयविवक्षायां पुनरुपयोगशब्देन शुभाशुभशुद्धभावनैक रूपमनुष्ठानं ज्ञातव्यमिति" है। इसलिए कर्मों के आस्रव (आने) का कारण होने से योग (बृहद्रव्यसंग्रहटीका, गा. ६) को उपचार से आस्रव कहा गया है। अर्थात् योग यथार्थतः अर्थ - जब 'उपयोग' शब्द से ज्ञानोपयोग और आस्रव (कर्मस्कन्धों के आत्मा में प्रवेश) का हेतु है। | दर्शनोपयोग अर्थ लिया जाय, तब उसका अर्थ होता है किन्तु तत्त्वार्थसूत्रकार ने 'मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादक अर्थग्रहण-व्यापार अर्थात् वस्तुविशेष को जानने की क्रिया । षाययोगा बन्धहेतवः' (त.सू. ८/१) सूत्र में मिथ्यादर्शन, | तथा जब वह शुभ, अशुभ और शुद्ध उपयोग के अर्थ में अविरति (असंयम), प्रमाद, कषाय और योग, इन पाँच प्रयुक्त हो, तब उससे शुभभावरूप-परिणमन, अशुभभावरूपप्रत्ययों को भी आस्रव के हेतु बतलाया है। आस्रव के बिना परिणमन और शुद्धभावरूप-परिणमन अर्थ ग्रहण किया जाना बन्ध नहीं होता, इसलिए आस्रव के हेतुओं को भी बन्धहेतु चाहिए। कहा गया है। मिथ्यात्वादि आस्रव के हेत हैं, यह पूज्यपाद अर्थग्रहणव्यापाररूप उपयोग केवली भगवान् में भी स्वामी के निम्नलिखित वचन से स्पष्ट होता है : "तत्र | होता है, किन्तु शुभाशुभशुद्ध-परिणामात्मक उपयोग छद्मस्थों मिथ्यादर्शनप्राधान्येन यत्कर्म आस्रवति तन्निरोधाच्छेषे | में ही पाया जाता है । आचार्य जयसेन ने कहा है कि पहले से सासादनसम्यग्दृष्ट्यादौ तत्संवरो भवति" (स०सि०९/१)। | तीसरे गुणस्थान तक क्रमशः घटता हुआ अशुभोपयोग होता अब प्रश्न उठता है कि 'योग' आस्रव का हेतु है या | है, चौथे से छठे गुणस्थान तक क्रमशः बढ़ता हुआ शुभोपयोग मिथ्यादर्शनादि ? इसका समाधान तत्त्वार्थवृत्तिकार श्रुतसागर | | होता है, सातवें से बारहवें गुणस्थान तक क्रमशः बढ़ता हुआ सूरि ने इन शब्दों में किया है - शुद्धोपयोग होता है और तेरहवें तथा चौदहवें गुणस्थानों में "मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः" | शुद्धोपयोग के घातिकर्मचतुष्टय-क्षयरूप फल की उपलब्धि इति य उक्त आस्त्रवः स सर्वोऽपि त्रिविधयोगेऽन्तर्भवतीति होती है। वेदितव्यम्। (तत्त्वार्थवृत्ति ६/२) शुभ, अशुभ और शुद्ध परिणाम तथा शुभ, अशुभ अर्थ-'मिथ्यादर्शनादि 'सूत्र में जिन मिथ्यादर्शन आदि | और शुद्ध उपयोग समानार्थी हैं। यह आचार्य जयसेन के को आस्रव-हेतु कहा गया है, वे सभी काययोग, वचनयोग निम्नलिखित वचनों से ज्ञात होता हैऔर मनोयोग, इन तीन योगों में समाविष्ट हो जाते हैं। "किं च जीवस्यासंख्येय लोकमात्रपरिणामाः सिद्धान्ते अर्थात् मोहोदययुक्त जीवों में मिथ्यादर्शनादि से सम्पृक्त मध्यम-प्रतिपत्त्या मिथ्यादृष्ट्यादिचतुर्दशगुणस्थानरूपेण योग आस्रव का हेतु है और उपशान्तमोह एवं क्षीणमोह जीवों कथितः। अत्र प्राभृतशास्त्रे तान्येव गुणस्थानानि संक्षेपेण में मिथ्यादर्शनादि से रहित योग आस्रव का कारण है ।। शुभाशुभशुद्धोपयोगरूपेण कथितानि" (ता.व./प्र.सा./गा. १/९)। आचार्य जयसेन ने मिथ्यादर्शनादि परिणामों को अर्थ - जीव के असंख्यात लोकमात्र परिणाम होते अशुभोपयोग कहा है : "मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोग | हैं। सिद्धान्त-ग्रन्थों में मध्यमदष्टि से उन्हें मिथ्यादृष्टि आदि पञ्चप्रत्ययरूपाशुभोपयोगेनाशुभो विज्ञेयः" (तात्पर्यवृत्ति/ चौदह गुणस्थानों के रूप में वर्णित किया गया है । इस प्रवचनसार, गाथा १/९)। इस अशुभोपयोग से युक्त योग भी प्राभृतशास्त्र में वे ही गुणस्थान संक्षेप में शुभ, अशुभ और अशुभयोग हो जाता है । शद्ध उपयोग के रूप में प्ररूपित किये गये हैं । द्विविध उपयोग : ज्ञानात्मक, आचारणात्मक शुभाशुभोपयोग से योग का शुभाशुभत्व उपयोग दो प्रकार का है: ज्ञानात्मक एवं आचरणात्मक शुभ और अशुभ उपयोग के निमित्त से योग शुभ अथवा अर्थग्रहणव्यापारात्मक एवं शुभाशुभशुद्ध- | 18 जून 2005 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524297
Book TitleJinabhashita 2005 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy