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की दशा तो एकमात्र अपनी शुद्धात्मा के अतिरिक्त और कैसे हो सकता है? चूँकि वस्तुरूप में यह आत्मा पवित्र है, कहीं उपलब्ध नहीं, यह ध्रुव सत्य है ।
निरंजन निर्विकार है, और उसका वास इस शरीर में है, इसलिए इस काया को भी मन्दिर होना चाहिए। वास्तव में परमात्मा का निवास पवित्र हृदय में ही होता है। यदि हम अन्याय करते हैं, अभक्ष्य भक्षण करते हैं, पर - पदार्थों में मूर्च्छा-भाव रखते हैं, तो उसमें पवित्रात्मा का वास कैसे हो सकता है? जैसे एक म्यान में दो तलवारें नहीं आ सकती, वैसे ही काम और राम का एक स्थान पर वास नहीं हो सकता । अतः आवश्यकता इस बात की है कि समस्त पापाचार को छोड़कर हमें हृदय को इतना पवित्र बना लेना चाहिए जिसमें परमात्मा ठहर सकें, तभी हमारा सिद्धस्मरण देखना चाहिए कि समता का दर्शन हमारे जीवन में हो रहा है स्तुत्य कहलाने योग्य है । अपने कर्तव्य निभाते हुये हमें यह
या नहीं। 'समता' धर्म का निकष है। अतः, मोह-क्षोभ से विहीन इस परम - समरसी आत्मा में डुबकी लगाकर उस आनन्दामृत को प्राप्तकर अपने को धन्य बना लेना चाहिए, जो इस विधान का चरम लक्ष्य है।
'वात्सल्य रत्नाकर' (तृतीय खण्ड) से साभार
वे कार्य - परमात्मा हैं, तो यह आत्मा कारण- परमात्मा है । सिद्ध हमारे लिए आदर्श तो हो सकते हैं, पर उपादेय नहीं । उपादेय तो केवल अपनी आत्मा है। पं. टोडरमल जी ने लिखा है- ‘जिनके ध्यान द्वारा भव्य जीवों को स्वद्रव्य व परद्रव्य का और औपाधिक-भाव स्वभाव - भावों का विज्ञान होता है, जिसके द्वारा उन सिद्धों के समान हुआ जाता है। इसलिए साधने-योग्य जो अपना शुद्ध स्वरूप है, उसे दर्शाने को प्रतिबिम्ब माना है ।'
बिम्ब का ही प्रतिबिम्ब होता है। सिद्धों ने यह सिद्धदशा प्रकट की तो निजात्मा का आश्रय लेकर, इसलिए उनकी छवि यही दर्शाने में निमित्त है कि हमें भी एकमात्र निजाराधना द्वारा अपने में वह परमपवित्र दशा प्रकट कर लेना चाहिए।
यह शरीर पवित्रात्मा का मन्दिर है। वैसे शरीर कभी पवित्र नहीं होता, चाहे उसे कितना ही गंगास्नान कराओ। जिसकी उत्पत्ति ही अपवित्र वस्तुओं से हुई हो, वह पवित्र
दीपक और तलवार
भरत चक्रवर्ती के पास एक बार एक जिज्ञासु पहुँचा। उसे इस बात में संदेह था कि भरत चक्रवर्ती हैं, ९६ हजार रानियाँ हैं, फिर भी इतना बड़ा तत्त्वज्ञ और सम्यग्दृष्टि कैसे? वह चक्रवर्ती के पास पहुँचा और कहा कि "प्रभु ! मैं आपके जीवन का रहस्य जानना चाहता हूँ। मैं एक से परेशान हूँ आप ९६ हजार को कैसे संभालते हैं? फिर भी निस्पृह और अनासक्त कैसे बने हो ? चक्रवर्ती ने सुना और कहा तुम्हारी बात का जबाब मैं बाद में दूँगा, पहले एक काम करो मेरे रनिवास में घूम आओ और देखो वहाँ क्या-क्या है। एक बार देख लो फिर मैं बताऊंगा कि मेरे जीवन का रहस्य क्या है । वह बड़ा प्रसन्न हुआ कि आज चक्रवर्ती के रनिवास में घूमने का मौका मिलने वाला । जैसे ही वह जाने को हुआ तो चक्रवर्ती ने कहा सुनो ऐसे नहीं, उसके हाथ में एक दीप पकड़वाया गया। और कहा इस दीपक के प्रकाश में तुम्हें पूरे रनिवास का चक्कर लगाकर आना है, पर एक शर्त है, ये चार तलवारधारी तुम्हारे चारों ओर हैं। रास्ते में न तो दीपक बुझना चाहिए, न ही एक बूँद तेल गिरना चाहिए। यदि दीपक बुझा तो तुम्हारे जीवन का दीपक बुझ जायेगा और तेल गिरा तो तुम्हारी गर्दन भी नीचे गिर जायेगी। उसने सोचा फँस गये अब तो । बड़ी गड़बड़ी है। पर क्या किया जाए चक्रवर्ती के साथ उलझा था और कोई मार्ग नहीं था। बड़ी सावधानी के साथ वह पूरे रनिवास का चक्कर लगाकर आया और जैसे ही चक्रवर्ती के पास पहुँचा, इससे पहले कि वह कुछ कहे, चक्रवर्ती ने पूछा बताओ तुमने क्या-क्या देखा? उसने कहा महाराज तलवार और दीपक के अलावा और कुछ नहीं देखा। तो चक्रवर्ती ने कहा कि "यही है मेरे जीवन का रहस्य । तुम्हें ये भोग और विलास दिखते हैं मुझे अपनी मौत की तलवार दिखती है ।" यदि मौत की तलवार देखते रहोगे तो जीवन में कभी अनर्थ घटित नहीं होगा। हर व्यक्ति को ऐसी प्रतीति करना चाहिए, हर व्यक्ति को अपने अंदर ऐसा विवेक जागृत करना चाहिए, ऐसा बोध हमारे अंदर प्रकट होता है तभी पाप से अपने आप छुटकारा मिल सकता है।
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'दिव्य जीवन का द्वार' (मुनिश्री प्रमाणसागरजी) से साभार)
जून 2005 जिनभाषित
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