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उवओगोजदिहि सुहो पुण्णं जीवस्स संचयंजादि। । (वृहद्रव्यसंग्रहटीका, गा. ३४) ।। असुहो वा तध पावं तेसिमभावे ण चयमस्ति ।
। यहाँ ब्रह्मदेव सरिने शभ. अशभ और शद्ध योगत्रय २/६४/प्र.सा.
व्यापार को ही शुभ, अशुभ और शुद्ध उपयोग के रूप में अर्थ - यदि उपयोग शुभ है, तो जीव के पुण्य का
वर्णित किया है । इस तरह आचार्यों ने दोनों में कथंचित् संचय होता है और यदि अशुभ है, तो पाप का संचय होता
अभेद स्वीकार किया है । है। इन दोनों प्रकार के उपयोगों के अभाव में अर्थात्
मिथ्यात्वादि पाँच प्रत्यय आस्रव के हेतु शुद्धोपयोग के सद्भाव में पाप और पुण्य दोनों का संचय
मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय इन चार प्रत्ययों नहीं होता।
से योग शुभ और अशुभ बनता है । ये शुभाशुभ उपयोग के ज्ञानावरणादि कर्म पापकर्म हैं और सातावेदनीय, शुभायु |
ही विभिन्न रूप हैं। (ता.वृ./प्र.सा./गा. १/९) । अतः मूलतः शुभनाम एवं शुभगोत्र पुण्यकर्म (त.सू.८/२५-२६) । अतः
ये ही आठ कर्मों के आस्रव-हेतु हैं । धवला में निम्नलिखित उक्त गाथा में शुभ और अशुभ उपयोगों से आठों कर्मों का
गाथा उद्धृत की गयी हैआस्रव बतलाया गया है ।
मिच्छत्ताविरदी विय कसायजोगा य आसवा होति। शुभाशुभ योग और उपयोग में कथंचित् अभेद
दंसण-विरमण-णिग्गह-णिरोहया संवरो होंति॥ यतः आत्मा की शुभाशुभ-उपयोगरूप परिणति मन
(पुस्तक ७/पृ.९) वचन-काय के माध्यम से ही होती है तथा मन-वचन-काय
अर्थ-मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये कर्मों की प्रवृत्ति शुभाशुभ उपयोग के प्रभाव से ही शुभाशुभ बनती | के आस्रव-हेत हैं तथा सम्यक्त्व, संयम, अकषाय और है, अतः शुभाशुभ-उपयोग में शुभाशुभ-योग अन्तर्भूत हैं | अयोग संवर के हेतु हैं । यहाँ प्रमाद को कषाय में अन्तर्भूत
और शुभाशुभ योग में शुभाशुभ-उपयोग । इसलिए शुभाशुभ | कर लिया गया है ।। उपयोगों से कर्मों का आस्रव होता है अथवा शुभाशुभ योग | मिथ्यात्वादि के निमित्त से जिन-जिन प्रकृतियों का कर्मास्रव के हेतु हैं, इन दोनों कथनों में कोई अन्तर नहीं है। | आस्रव होता है, उनका वर्णन षट्खण्डागम और सर्वार्थसिद्धि आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है -
में किया गया है । वे इस प्रकार हैंसुहजोगस्य पवित्ती संवरणं कुणदि असुहजोगस्य ।। मिथ्यात्वीदय की विशेषता से निम्नलिखित सोलह सुहजोगस्स णिरोहो सुद्धवजोगेण संभवदि ॥६३॥ प्रकृतियों का आस्रव होता है : मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, नरकायु,
- (बारसाणुवेक्खा) | नरकगति, एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, अर्थ-शुभयोग की प्रवृत्ति अशुभयोग का निरोध करती | चतुरिन्द्रिय जाति, हुण्डक संस्थान, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, है और शुभयोग का निरोध शुद्धोपयोग से होता है।
नरक-गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्तक ___इस गाथा में आचार्य श्री कुन्दकुन्द ने शुभाशुभयोग
| और साधारण शरीर । (ष.खं.पु.८/३,१५-१६,पृ. ४२-४३/ और शुभाशुभ-उपयोग को समानार्थी के रूप में प्रयुक्त किया
स.सि.९/१)। है, क्योंकि शुद्धोपयोग से शुभोपयोग का निरोध होने पर ही
. अनन्तानुबन्धीकषायजनित असंयम की विशेषता से शुभयोग का निरोध संभव है ।
ये पच्चीस प्रकृतियाँ आस्रवित होती हैं : निद्रानिद्रा, प्रचलाब्रह्मदेव सूरि ने भी दोनों का अभेदरूप से उल्लेख
प्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी-क्रोध, मान, माया, लोभ, किया है। यथा
स्त्रीवेद, तिर्यंचायु, तिर्यंचगति, मध्य के चार संस्थान, मध्य मिथ्यादृष्ट्यादिक्षीणकषायपर्यन्तमुपयु परि
के चार संहनन, तिर्यंचगति-प्रायोग्यानुपूर्वी, अद्योत, मन्दत्वात्तारतम्येन तावदशुद्धनिश्चयो वर्त्तते । तस्य मध्ये
| अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दःस्वर, आनादेय और नीचगोत्र पुनर्गुणस्थानभेदेन शुभाशुभशुद्धानुष्ठानरूप-योगत्रय
| (ष.खं., पु.८/३,७-८/पृ.३०/स.सि. ९/१)। व्यापारस्तिष्ठति । तदुच्यते-मिथ्यादृष्टिसासादनमि
अप्रत्याख्यानावरण कषायजनित असंयम की विशेषता श्रगुणस्थानेषूपर्युपरि-मन्दत्वेनाशुभोपयोगो वर्तते । ततोऽप्यसंयतसम्यग्दृष्टि श्रावक-प्रमत्तसंयतेषु पारम्पर्येण
| से आस्रव को प्राप्त होनेवाली दश प्रकृतियाँ निम्नलिखित हैं : शुद्धोपयोगसाधक उपर्युपरि तारतम्येन शुभोपयोगो वर्तते ।
अप्रत्यख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, मनुष्यायु, तदनन्तरमप्रमत्तादि-क्षीणकषायपर्यन्त जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदेन मनुष्यगति, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, विवक्षितैकदेशशुद्धनयरूप शुद्धोपयोगो वर्तते । वज्रवृषभनाराच संहनन और मनुष्यगति-प्रायोग्यानुपूर्वी । 20 जून 2005 जिनभाषित
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