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(ष. ख., पु. ८/३, १७/१८, २९/३० / स.सि. ९ / १ ) ।
प्रत्याख्यानावरण-कषायोद्भूत असंयम की विशेषता से प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार प्रकृतियों का आस्रव होता है । (ष.खं. /पु ८/३, १९-२० / स. सि. ९/१) ।
प्रमाद की विशेषता से असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ, अयश: कीर्ति ये छह प्रकृतियाँ आस्रवित होती हैं । (ष.खं., पु. ८/३, १३-१४ / स.सि. ९/१) । देवायु का आस्रव प्रमाद तथा निकटवर्ती अप्रमाद (अप्रमत्तसंयम) से होता है। (ष. खं., पु. ८/३/३१-३२/स.सि.९/१) ।
प्रमादादिरहित संज्वलन के उदय में निद्रा, प्रचला, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, आहारक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक शरीरागोपांग, आहारक शरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण तीर्थंकर, हास्य, रति, भय और जुगुप्सा ये छत्तीस प्रकृतियाँ आस्रव को प्राप्त होती हैं । (ष. खं., पु. ८ / ३ / ९-१०,३३-३४,३५-३६, ३७-३८ / स. सि. ९/ १) ।
प्रमादादिरहित मध्यम संज्वलनकषाय की विशेषता से पुरुषवेद, संज्वलन - क्रोध, मान, माया एवं लोभ इन पाँच प्रकृतियों का आस्रव होता है । (ष. खं., पु. ८/३, २१-२२, २३-२४, २५-२६/ स. सि. ९/१) ।
जघन्य (मन्द) संज्वलन कषाय की विशेषता से पाँच
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ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय ये सोलह प्रकृतियाँ आस्रव को प्राप्त होती हैं । (ष.खं., पु.८/३, ५-६ / स. सि. ९ / १) । योग के निमित्त से केवल सातावेदनीय का आस्रव होता है । (ष.ख.,पु.८/३, ११-१२/ स. सि. ९/१) ।
इस प्रकार आगम में कहीं शुभाशुभ योग को इन एकसौ-बीस कर्म-प्रकृतियों के आस्रव का हेतु कहा गया है, कहीं शुभाशुभ उपयोग को और कहीं मिथ्यात्वादि पाँच प्रत्ययों को। ये अपेक्षा भेद से किये गये निरूपण हैं । इनका अभिप्राय एक ही है ।
सन्दर्भ
१. सर्वार्थसिद्धि (स. सि. ६ / १ )
२.
यथा सरस्सलिलावाहिद्वारं तदास्रवकारणत्वाद् आस्रव इत्याख्यायते तथा योगप्रणालिकया आत्मनः कर्म आस्रवतीति योग आस्रव इति व्यपदेशमर्हति । (स.सि. ६/२) । ३. मिथ्यात्व - सासादन- मिश्रगुणस्थानत्रये तारतम्येना-शुभोपयोगः । तदनन्तरमसंयतसम्यग्दृष्टि-देशविरतप्रमत्तसंयतगुणस्थानत्रये तारतम्येन शुभोपयोगः । तदनन्तरमप्रत्तादिक्षीणकषायान्तगुण-स्थनषट्के तारतम्येन शुद्धोपयोगः । तदनन्तरं सयोग्ययोगिजिनगुणस्थानद्वये शुद्धोपयोगफलमिति भावार्थ:। (ता.वृ./प्र.सा., गा. १ / ९ ) । ४. " को पमादोणाम ? चदुसंजलण-णवणोकसायाणं तिवोदओ" (धवला, पु. ७/२, १,७/पृ. ११)
वीर देशना
सम्यक्त्व संसाररूपी अग्नि को शांत करने के लिए जल के समान है।
The Right Attitude (samyaktva) is like cool water for extinguishing the fires of transmigratory world.
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राग, द्वेष, मोह, मद से मूढ़ता को प्राप्त हुए जो प्राणी अपने ही सुखप्रद कारणों को नहीं जानते, वे दुर्बुद्धि जन दूसरे के लिए मुक्ति के मार्ग के समीचीन धर्म का उपदेश कैसे दे सकते हैं? नहीं दे सकते।
Themselves deluded by attachment, aversion, arrogance and bewilderment, how can those perverted ones who know not the path of their own happiness, lead the others on the course of true dharma? Obviously, they cannot.
• जो हेय - उपादेय तत्त्व के प्रकट करने में दक्ष है, वह शास्त्र अभीष्ट माना जाता है।
The Scripture (sastra) that is competent to reveal the knowledge of what is to be abandoned (heya) and what accepted (upadeya), is the Right Scripture.
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संकलनकर्ता: मुनिश्री अजितसागर जी
• जून 2005 जिनभाषित
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