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तीर्थंकर
• डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन
आत्म / परमात्म / स्वयम्बुद्ध और प्रभु हैं आप।
हे तीर्थंकर! निरावण हो तुम तन से/मन से राग से/ द्वेष से धन से भी
आपको देखते ही आपमें देखते हैं मनुष्यों/ देवों/ पशुओं के साथ कीड़े-मकोड़े भी स्वयं का विकास विकासपुंज हैं आप।
वीतरागता अवश्य है तुममें अपनी पूर्णता के साथ इन्द्रियजयी हो तुम, आतमजयी भी।
तुम धर्म से बँधे हो आत्मधर्म से कर्म से रहित कर्मों के ज्ञाता-द्रष्टा होने पर भी। इसीलिए तुम्हें कहते हैंनिष्कर्म! यह कोई अभाव नहीं बल्कि, सद्भाव की निशानी है जो निकम्मे हैं (संसारी) उन्हें क्यों परेशानी है?
आपकी दृष्टि में न संकीर्णता है, न प्रलोभन न आशा है, न निराशा न याचना है, न तिरस्कार किससे माँगें और क्यों सब कुछ तो है आपके पास।
सम्प्रदायों से बेखबर नहीं किन्तु; साम्प्रदायिक नहीं हैं आप क्योंकि, साम्प्रदायिक होना छोटा-बड़ा होना है और आप देखते हैं सबमें बड़प्पन, आत्मा, आत्मबल स्वयं को जीतने का।
उसके लिए सुरक्षा कवच हैं आप जिसकी आस्था है आपमें, निज में आपका अविजित / अपराजेय रूप कहता है हर समय कि जीतो उसे नहीं जीत सका जिसे कोई आत्मा ही तो है वह जो बना सकती है तुम्हें परमात्म भी।
मनुष्यता का विराट्प हैं आप जिसे दिखाना नहीं पड़ता आपको बल्कि स्वयं ही दिख जाता है आपको निज में पर, पर में निजका वैभव इसीलिए तो आप आप हैं
यदि मुझ जैसे सच्चे / निजभाव से झाँको निज/ आत्मा में तो तुमसे भी दूर नहीं हूँ मैं
और न ही दूर है तुमसे तुम्हारा परमात्मा।
एल-65, न्यू इन्दिरा नगर, बुरहानपुर (म.प्र.)
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