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________________ सम्पादकीय साधु और गृहस्थ दोनों एक-दूसरे के पूरक ध्यान से देखें, तो आपको पता चलेगा कि गृहस्थादि संस्थाएँ अंधानुगामी-सी हो गई हैं और जब अन्धानुकरण होने लग जाता है, तो विकास रुक जाता है, रूढ़ियाँ पनपने लगती हैं और वे संस्थाएँ बाधित होने लगती हैं। यही कारण है कि हमारा बौद्धिक विकास रुक-सा गया है। गृहस्थों ने अधिकांशरूप में यह साहस करना बंद कर दिया है कि एकांत में जाकर वह अपनी शास्त्र-सम्मत बात को कहे, यह जो आप कर रहे हैं, इससे हमारी परंपरा प्रश्नचिह्नित हो रही है, आपके पद का क्षरण हो रहा है, साधुत्व पर सवाल उठ रहे हैं, धर्म पर सवाल उठ रहे हैं, शरीर नहीं चलता तो सल्लेखना ले लेनी चाहिए, क्योंकि डोली-आश्रित चर्या साधुत्व की चर्या नहीं है। साधु को समाज को दिशा देने का काम जरूर करना है, अत: इस अर्थ में वह समाज का प्रबंधक जरूर है, पर गृहस्थ की तरह नहीं। साधु की तरह जीवन जीकर ही उसे समाज को दिशा देने का काम करना है, उसके प्रबंधन में भूमिका निभानी है, साधत्व पर सवाल उठवाकर नहीं। आज स्थिति कछ-एक प्रसंगों के कारण ऐसी उभर रही है कि साधु 'कुछ भी' गृहस्थ से कहता है और गृहस्थ 'वह कुछ भी' करने को तैयार ही नहीं होता, बल्कि करने लग जाता है। ऐसे ही कुछ साधु भी गृहस्थ के द्वारा किए जानेवाले अनुरोध पर वैसी अपनी क्रियाएँ करने लग जाता है। कुल मिलाकर दोनों के बीच के रिश्ते ठीक-से नहीं चल पा रहे हैं, यह समाज के लिए बहुत घातक है। ध्यान रखना चाहिए कि हमारी परम्परा है, जिसमें गृहस्थ का सचेतक है साधु और साधु का सचेतक है गृहस्थ; इसलिए दोनों को अपने इस कर्तव्य में सचेत रहने की जरूरत है और यदि दोनों में से किसी ने भी यह काम नहीं किया, तो निश्चय मानिए कि उसने अपने दायित्व का निर्वहन ठीक से नहीं किया। इसीलिए साधु और गृहस्थ दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं समाज में। एक के बिना दूसरे की सम्यक् सत्ता संकट में है, होगी। इतना ही नहीं, समाज-दशा भी चिन्तनीय हो जाएगी। यदि साधु न होगा या वह न सोचेगा, तो सद्गृहस्थता दुर्लभ होगी। और ऐसे ही सद्गृहस्थता साधु के साथ अपना सम्यक् व्यवहार न करेगी, तो साधु भला सत्साधु कैसे रह पाएगा? और फिर सम्यक समाज का निर्माण आखिर कैसे होगा? इसलिए जरूरत इस बात की है कि हम इन गृहस्थों, साधुसंस्थाओं और इसी क्रम में अपने समाज पर उठनेवाले प्रश्नचिह्नों को उठने से रोकें, तभी हमारा भला होगा। जो जैनों की पहचान मध्यकाल तक थी, हमें उसे वापस लाना होगा। पर यदि बुरा न मानें, तो मैं यह तटस्थ रूप में कह सकता हूँ कि दोनों की ओर से अपने दायित्व का निर्वहन थोड़ा कमतर जरूर हो रहा है, इसलिए शिथिलाचार पनप रहा है। जब हम जागें, तभी हमारा सबेरा, इसी उम्मीद के साथ कि शायद हम जाग जाएँ। वृषभ प्रसाद जैन वीर देशना जो विवेकी जन परीक्षा करके निर्दोष देव, शास्त्र, गुरु और चारित्र की उपासना किया करते हैं, वे शीघ्र ही कर्म सांकल को काटकर पवित्र व अविनश्वर मोक्ष को प्राप्त करते हैं। The wise who, through prudent judgement, worship the unblemished Lord, the Scripture, the Spiritual Master (guru) and observe right conduct, cut asunder the chain of karma and attain the holy and imperishable Liberation. जो जन्म, जरा व मरण से रहित होकर देवों के द्वारा वंदित है, वह देव है। He who, having reached beyond birth, age and death, is worshipped by the gods, is the Supreme Lord. संकलनकर्ता : मुनिश्री अजितसागर जी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524297
Book TitleJinabhashita 2005 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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