Book Title: Jinabhashita 2005 02 03
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनभाषित वीर निर्वाण सं. 2531 श्री चन्द्रप्रभ दि. जैन अतिशय क्षेत्र देहरा तिजारा, जिला अलवर (राजस्थान) माघ-फाल्गुन वि.सं. 2061 फरवरी-मार्च, 2005 सयुक्तांक NEETITI Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनंद का स्रोत : आत्मानुशासन ० आचार्य श्री विद्यासागर जी आज हम एक सुनने, समझने के लिए ये कर्ण पर्याप्त नहीं है। ज्ञानचक्षु के माध्यम पवित्र आत्मा की स्मृति से ही हम महावीर भगवान की दिव्य छवि का दर्शन कर सकते हैं। के उपलक्ष्य में एकत्रित हुये हैं। भिन्न-भिन्न लोगों ने इस उनकी वाणी को समझ सकते हैं। भगवान महावीर का शासन महान् आत्मा का मूल्यांकन भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से किया रागमय शासन नहीं रहा, वह वीतरागमय शासन है। वीतरागता है। लेकिन सभी अतीत में झांक रहे हैं। महावीर भगवान बाहर से नहीं आती, उसे तो अपने अंदर जागृत किया जा सकता अतीत की स्मृति मात्र से हमारे हृदय में नहीं आयेंगे। वास्तव है। यह वीतरागता ही आत्म-धर्म है। यदि हम अपने ऊपर शासन में देखा जाये तो महावीर भगवान एक चैतन्य पिंड हैं वे कहीं करना सीख जायें, आत्मानुशासित हो जाएँ तो यही वीतराग आत्म गये नहीं है वे प्रतिक्षण विद्यमान हैं किन्तु सामान्य आँखे उन्हें धर्म, विश्वधर्म बन सकता है। देख नहीं पाती। भगवान पार्श्वनाथ के समय ब्रह्मचर्य की अपेक्षा अपरिग्रह देश के उत्थान के लिए, सामाजिक विकास के लिए को मुख्य रखा था। सारी भोग-सामग्री परिग्रह में आ ही जाती है। और जितनी भी समस्याएँ हैं उन सभी के समाधान के लिए इसलिए अपरिग्रह पर अधिक जोर दिया गया। वह अपरिग्रह आज अनुशासन को परम आवश्यक माना जा रहा है। लेकिन आज भी प्रासंगिक है। भगवान महावीर ने उसे अपने जीवन के भगवान महावीर ने अनुशासन की अपेक्षा आत्मानुशासन को विकास में बाधक माना है। आत्मा के दुख का मूलस्रोत माना है। श्रेष्ठ माना है। अनुशासन चलाने के भाव में मैं बड़ा और दूसरा किन्तु आप लोग परिग्रह के प्रति बहुत आस्था रखते हैं। परिग्रह छोटा इस प्रकार का कषाय भाव विद्यमान है लेकिन छोडने को कोई तैयार नहीं है। उसे कोर्ट बरा नहीं मानता। जब आत्मानुशासन में अपनी ही कषायों पर नियंत्रण की । व्यक्ति बुराई को अच्छाई के रूप में और अच्छाई को बुराई के रूप आवश्यकता है। आत्मानुशासन में छोटे-बड़े की कल्पना में स्वीकार कर लेता है, तब उस व्यक्ति का सुधार, उस व्यक्ति का नहीं है। सभी के प्रति समता भाव है। विकास असंभव हो जाता है। आज दिशाबोध परमावश्यक है। अनादिकाल से इस जीवन ने कर्तृत्व-बुद्धि के परिग्रह के प्रति आसक्ति कम किये बिना वस्तुस्थिति ठीक माध्यम से विश्व के ऊपर अनुशासन चलाने का दम्भ किया प्रतिबिंबित नहीं हो सकती। है। उसी के परिणामस्वरूप यह जीव चारों गतियों में भटक 'सम्यदर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' की घोषणा रहा है । चारों गतियों में सुख नहीं है, शांति नहीं है, आनंद सैद्धांतिक भले ही हो किन्तु प्रत्येक कार्य के लिए यह तीनों बातें नहीं है, फिर भी यह इन्हीं गतियों में सुख-शांति और आनंद प्रकारांतर से अन्य शब्दों के माध्यम से हमारे जीवन में सहायक की गवेषणा कर रहा है। वह भूल गया है कि दिव्य घोषणा है सिद्ध होती हैं। आप देखते हैं कि कोई भी, सहज ही किसी को कह संतों की, कि सुख शांति का मूल स्रोत आत्मा है। वहीं इसे देता है या माँ अपने बेटे को कह देती है कि बेटा, देखभाल कर खोजा और पाया जा सकता है। यदि दुख का, अशांति और चलना, 'देख' यह दर्शन का प्रतीक है, भाल' विवेक का प्रतीक आकुलता का कोई केन्द्र बिंदु है, तो वह भी स्वयं की विकृत है, सम्यग्ज्ञान का प्रतीक है और चलना' यह सम्यक्चारित्र का दशा को प्राप्त आत्मा ही है। विकृत-आत्मा स्वयं अपने ऊपर प्रतीक है। इस तरह यह तीनों बातें सहज ही प्रत्येक कार्य के लिए अनुशासन चलाना नहीं चाहता, इसी कारण विश्व में सब आवश्यक हैं। ओर अशांति फैली हुई है। आप संसार के विकास के लिए चलते हैं तो उसी भगवान महावीर की छवि का दर्शन करने के लिए ओर देखते हैं, उसी को जानते हैं। महावीर भगवान आत्म भौतिक आँखें काम नहीं कर सकेंगी, उनकी दिव्यध्वनि विकास की बात करते हैं। उसी ओर देखते, उसी को जानते For Private & Personal use only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से होगा। हैं और उसी की प्राप्ति के लिए चलते हैं। इसलिए महावीर | जिस व्यक्ति के वर्तमान में अच्छे कदम नहीं उठ रहे उसका भगवान का दर्शन ज्ञेय पदार्थों को महत्व नहीं देता अपितु | | भविष्य अंधकारमय होगा ही। कोई चोरी करता रहे और ज्ञान को महत्व देता है। ज्ञेय पदार्थों से प्रभावित होने वाला पूछे कि मेरा भविष्य क्या है? तो भैया वर्तमान में चोरी करने वर्तमान भौतिकवाद भले ही आध्यात्म की चर्चा कर ले वालों का भविष्य क्या जेल में व्यतीत नहीं होगा यह एक किन्तु अध्यात्म को प्राप्त नहीं कर सकता। ज्ञेयतत्व का छोटा सा बच्चा भी जानता है। यदि हम उज्ज्वल भविष्य मूल्यांकन आप कर रहे हैं और सारा संसार ज्ञेय बन सकता | चाहते हैं तो वर्तमान में रागद्वेष रूपी अपराध को छोड़ने का है किन्तु मूल्यांकन करने वाला किस जगह बैठा है इसे भी संकल्प लेना होगा। देखने की बहुत आवश्यकता है। अध्यात्म का प्रारंभ उसी | अतीत में अपराध हो गया कोई बात नहीं। स्वीकार कर लिया। दंड भी ले लिया। अब आगे प्रायश्चित करके आपकी घड़ी की कीमत है, आपकी खरीदी हुई प्रत्येक भविष्य के लिए अपराध नहीं करने का जो संकल्प ले लेता वस्तु की कीमत है, किन्तु कीमत करने वाले की कीमत क्या | है वह ईमानदार कहलाता है। वह अपराध अतीत का है है। अभी यह जानना शेष है। जिसने इसको जान लिया उसने | वर्तमान का नहीं। वर्तमान यदि अपराध मुक्त है तो भविष्य महावीर भगवान को जान लिया। अपनी आत्मा को जान लेना भी उज्ज्वल हो सकता है। यह वर्तमान पुरूषार्थ का परिणाम ही सारे विश्व को जान लेना है। भगवान महावीर के दिव्य ज्ञान है। भगवान महावीर यह कहते हैं कि डरो मत। तुम्हारा में सारा विश्व प्रतिबिंबित है। उन्होंने अपनी आत्मा को जान अतीत पापमय रहा है किन्तु यदि वर्तमान सच्चाई लिए हुए है लिया है। अपने शुद्ध आत्म-तत्त्व को प्राप्त कर लिया है। अपने तो भविष्य अवश्य उज्ज्वल रहेगा। भविष्य में जो व्यक्ति आप को जान लेना ही हमारी भारतीय संस्कृति की विशेषता है, आनंदपूर्वक, शांतिपूर्वक जीना चाहता है उसे वर्तमान के यही आध्यात्म की उपलब्धि है। जहाँ आत्मा जीवित है वहीं ज्ञेय | प्रति सजग रहना होगा। पदार्थों का मूल्यांकन भी संभव है। पाप केवल दूसरों की अपेक्षा से ही नहीं होता। आप ___ शुद्ध आत्म तत्त्व का निरीक्षण करने वाला व्यक्ति | अपनी आत्मा को बाहरी अपराध से सांसारिक भय के महान पवित्र होता है। उसके कदम बहुत ही धीमे-धीमे | कारण भले ही दूर रख सकते हैं, किन्तु भावों से होने वाला उठते हैं किन्तु ठोस उठते हैं। उनमें बल होता है, उनमें | पाप, हिंसा, झूठ, चोरी आदि हटाये बिना आप पाप से मुक्त गंभीर होता है, उसके साथ विवेक जुड़ा हुआ रहता है। नहीं हो सकते। भगवान महावीर का जोर भावों की निर्मलता विषय-कषाय उससे बहुत पीछे छूट जाता है। | पर है। जो स्वाश्रित है। आत्मा में जो भाव होगा वही तो बाहर जो व्यक्ति वर्तमान में ज्ञानानुभूति में लीन है वह | कार्य करेगा। अंदर जो गंदगी फैलेगी वह अपने आप बाहर व्यक्ति आगे बहुत कुछ कर सकता है। किन्तु आज व्यक्ति आयेगी। बाहर फैलने वाली अपवित्रता के स्त्रोत की ओर अतीत की स्मृति में उसी की सुरक्षा में लगा है या फिर | देखना आवश्यक है। यही आत्मानुशासन है जो विश्व में भविष्य के बारे में चिंतित है कि आगे क्या होगा। इस प्रकार शांति और आनंद फैला सकता है। वह स्वयं वर्तमान पुरुषार्थ को खोता जा रहा है। वह भूल रहा ___ जो व्यक्ति कषाय के वशीभूत होकर स्वयं शासित है कि वर्तमान में से ही भूत और भविष्य निकलने वाला है। | हुए बिना विश्व के ऊपर शासन करना चाहता है वह कभी अनागत भी इसी में से आयेगा और अतीत भी इसी में | सफलता नहीं पा सकता। आज प्रत्येक प्राणी राग-द्वेष, विषय-- ढलकर निकल चुका है। जो कुछ कार्य होता है वह वर्तमान कषाय और मोह-मत्सर इनको संवरित करने के लिए संसार में होता है और विवेकशील व्यक्ति ही उसका संपादन कर | की अनावश्यक वस्तुओं का सहारा ले रहा है। यथार्थतः सकता है। भविष्य की ओर दृष्टि रखने वाला आकांक्षा और | देखा जाये तो इन सभी को जीतने के लिए आवश्यक पदार्थ आशा में जीता है । अतीत में जीना भी बासी खाना है । एक मात्र अपनी आत्मा को छोड़कर और दूसरा है ही नहीं। वर्तमान में जीना ही वास्तविक जीना है। आत्म तत्त्व का आलंबन ही एकमात्र आवश्यक पदार्थ है। अतीत भूत के रूप में व्यक्ति को भयभीत करता है | क्योंकि आत्मा ही परमात्मा के रूप में ढलने की योग्यता और भविष्य की आशा, तृष्णा बनकर नागिन की तरह खड़ी रखता है। रहती है, जिससे जो वर्तमान में जीता है वह निश्चित होता इस रहस्य को समझना होगा कि विश्व को संचालित है, वह निडर और निर्भीक होता है। साधारण सी बात है कि | करने वाला कोई एक शासन कर्ता नहीं है। और न ही हम -फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित 1 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस शासक के नौकर चाकर हैं। भगवान महावीर कहते हैं | में स्वरूप पर दृष्टिपात आप करते हैं समझिये उतनी मात्रा में कि प्रत्येक आत्मा में परमात्मा बनने की शक्ति विद्यमान है। आप आज भी महावीर भगवान के समीप हैं, उनके उपासक परमात्मा की उपासना करके अनंत आत्माएँ स्वयं परमात्मा है। जिस व्यक्ति ने वीतराग पथ का आलंबन लिया है, उस व्यक्ति बन चुकी हैं और आगे भी बनती रहेगी। हमारे अंदर जो | ने ही वास्तव में भगवान महावीर के पास जाने का प्रयास किया शक्ति राग-द्वेष और मोह रूपी विकारी भावों के कारण | है। वही व्यक्ति आत्म-कल्याण के साथ-साथ विश्व कल्याण तिरोहित हो चुकी है। उस शक्ति को उद्घाटित करने के | | कर सकता है। लिए और आत्मानुशासित होने के लिए समता भाव की आप आज ही यह संकल्प कर लें कि हम अनावश्यक अत्यंत आवश्यकता है। पदार्थों को, जो जीवन में किसी प्रकार से सहयोगी नहीं हैं, वर्तमान में समता का अनुसरण न करते हुए हम | त्याग कर देंगे। जो आवश्यक उसको भी कम करते उसका विलोम परिणमन कर रहे हैं। समता का विलोम है | जायेंगे। आवश्यक भी आवश्यकता से अधिक नहीं रखेंगे। तामस। जिस व्यक्ति का जीवन वर्तमान में तामसिक तथा | भगवान महावीर का हमारे लिए यही दिव्य संदेश है कि राजसिक है, सात्त्विक नहीं है, वह व्यक्ति भले ही बुद्धिमान | जितना बने उतना अवश्य करना चाहिए। यथाशक्ति त्याग हो, वेदपाठी हो तो भी तामसिक प्रवृत्ति के कारण कुपथ की | की बात है। जितनी अपनी शक्ति है जितनी ऊर्जा और बल ओर ही बढ़ता रहेगा। यदि हम अपनी आत्मा को जो राग, | उतना तो कम से कम वीतरागता की ओर कदम बढ़ाइये। द्वेष, मोह, मद, मत्सर से कलंकित हो चुकी है। विकृत हो सर्वाधिक श्रेष्ठ यह मनुष्य पर्याय है। जब इसके माध्यम से चुकी है उसका संशोधन करने के लिए महावीर भगवान की आप संसार की ओर बढ़ने का इतना प्रयास कर रहे हैं। तो जयंती मानते हैं, तो यह उपलब्धि होगी। केवल लंबी चौड़ी | यदि आप चाहें तो अध्यात्म की ओर भी बढ़ सकते हैं। भीड़ के समक्ष भाषण आदि के माध्यम से प्रभावना होने | शक्ति नहीं है ऐसा कहना ठीक नहीं है। वाली नहीं है। प्रभावना उसके द्वारा होती है। जो अपने मन 'संसार सकल त्रस्त है पीडित व्याकुल विकल/इसमें के ऊपर नियंत्रण करता है और सम्यग्ज्ञान रूपी रथ पर | है एक कारण/हृदय से नहीं हटाया विषय राग को/हृदय में आरूढ़ होकर मोक्षपथ पर यात्रा करता है। आज इस पथ पर | नहीं बैठाया वीतराग को/जो शरण, तारण-तरण।' दूसरे पर आरूढ़ होने की तैयारी होनी चाहिये। अनुशासन करने के लिए तो बहुत परिश्रम उठाना पड़ता है 'चेहरे पर चेहरे हैं बहत-बहुत गहरे हैं, खेद की बात | पर आत्मा पर शासन करने के लिए किसी परिश्रम की तो यही है, वीतरागता के क्षेत्र में अंधे और बहरे हैं? आज | आवश्यकता नहीं है, एक मात्र संकल्प की आवश्यकता है। मात्र वीतरागता के नारे लगाने की आवश्यकता नहीं है। जो | संकल्प के माध्यम से मैं समझता हूँ आज का यह हमारा परिग्रह का विमोचन करके वीतराग पथ पर आरूढ़ हो चुका जीवन जो कि पतन की ओर है वह उत्थान की ओर, पावन है या होने के लिए उत्सुक है वही भगवान महावीर का | बनने की ओर जा सकता है। स्वयं को सोचना चाहिये कि सच्चा उपासक है। मेरी दृष्टि में राग का अभाव दो प्रकार से | अपनी दिव्य शक्ति का हम कितना दुरुपयोग कर रहे हैं। पाया जाता है। अराग अर्थात् जिसमें रागाभाव संभव ही नहीं आत्मानुशासन से मात्र अपनी आत्मा का ही उत्थान नहीं है ऐसा जड़ पदार्थ और दूसरा वीतराग अर्थात् जिसमें रागभाव | होता अपितु बाहर जो भी चैतन्य है उन सभी का उत्थान भी होता संभव ही नहीं है ऐसा जड़ पदार्थ और दूसरा वीतराग अर्थात | है। आज भगवान का जन्म नहीं हुआ था, बल्कि राजकुमार जिसने राग को जीत लिया है, जो रागद्वेष से ऊपर उठ गया | वर्धमान का जन्म हुआ था। जब उन्होंने वीतरागता धारण कर है। सांसारिक पदार्थों के प्रति मूर्छा रूप परिग्रह को छोड़कर | ली वीतराग-पथ पर आरूढ़ हुए और आत्मा को स्वयं जीता, तब जो अपने आत्म स्वरूप में लीन हो गया है। पहले राग था महावीर भगवान बने । आज मात्र भौतिक शरीर का जन्म हुआ अब उस राग को जिसने समाप्त कर दिया है, जो समता भाव | | था। आत्मा तो अजन्मा है। वह तो जन्म मरण से परे है। आत्मा से आरूढ़ हो गया है, वही वीतराग है। निरंतर परिणमनशील शाश्वत द्रव्य है। भगवान महावीर जो राग की उपासना करना अर्थात् राग की ओर बढ़ना एक | पूर्णता में ढल चुके हैं उन पवित्र दिव्य आत्मा को मैं बार-बार प्रकार से महावीर भगवान के विपरीत जाना है । यदि महावीर | नमस्कार करता हूँ। यही प्रार्थना वीर से, अनुनय से कर जोर। भगवान की ओर, वीतरागता की ओर बढ़ना हो तो धीरे-धीरे राग हरी भरी दिखती रहे, धरती चारों ओर।" कम करना होगा। जितनी मात्रा में राग आप छोड़ते हैं जितनी मात्रा 'समग्र' से साभार 2 फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजि. नं. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC फरवरी-मार्च 2005 सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जैन कार्यालय ए/2, मानसरोवर, शाहपुरा भोपाल- 462039 (म.प्र.) फोन नं. 0755-2424666 सहयोगी सम्पादक पं. मूलचन्द्र लुहाड़िया, (मदनगंज किशनगढ़) पं. रतनलाल बैनाड़ा, आगरा डॉ. शीतलचन्द्र जैन, जयपुर डॉ. श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत प्रो. वृषभ प्रसाद जैन, लखनऊ डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती', बुरहानपुर शिरोमणि संरक्षक श्री रतनलाल कंवरलाल पाटनी (आर. के. मार्बल) किशनगढ़ (राज.) श्री गणेश कुमार राणा, जयपुर प्रकाशक सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) फोन : 0562-2851428, 2852278 सदस्यता शुल्क 5,00,000रु. 51,000रु. 5,000 रु. 500 रु. 100 रु. शिरोमणि संरक्षक परम संरक्षक संरक्षक आजीवन वार्षिक एक प्रति 10 रु. सदस्यता शुल्क प्रकाशक को भेजें। मासिक जिनभाषित सम्पादकीय ● प्रवचन • देव-मूढ़ता • लेख डाक पंजीयन क्र. - म.प्र. / भोपाल / 588/2003-05 वर्ष 4, • आनंद का स्रोत : आत्मानुशासन • प्राकृतिक चिकित्सा अन्तस्तत्त्व • माँ का स्वास्थ्य एवं • जिज्ञासा समाधान • कविताएँ • पूजन विधि • जैन और हिन्दू • सामयिक चिंतन • स्याद्वादमहाविद्यालय के के सुवर्ण: श्रद्धेय वर्णी जी • जैन संस्कृत महाविद्यालयों, छात्रों की दशा और दिशा मानव की विकृत सोच : ईर्ष्या जानिए कि हम क्या खा रहे हैं • पॉलीथिन प्रदूषण • • स्वास्थ्य के लिए खतरा शरीर संतुलन चिकित्सा पृष्ठ : जैन जीवन के बिना जैन शिक्षा संस्थान अधूरे या बेकाम के • सूरज के तथाकथित पुल • नारी शिक्षा : आ. श्री विद्यासागर जी : आ. श्री देशभूषण जी : पं. हीरालाल शास्त्री : डॉ. ज्योति प्रसाद जैन : मूलचन्द लुहाड़िया अमूर्तशिल्पी, सोलहवानी : ब्र. संदीप 'सरल' • सब कुछ देख आँख मत मींचो • स्वाध्याय : डॉ. अनेकान्त कुमार जैन : डॉ. नरेन्द्र जैन 'भारती' : डॉ. अनिल कुमार जैन : डॉ. उमेशचन्द्र अग्रवाल : डॉ. वन्दना जैन पं. रतनलाल बैनाड़ा : योगेन्द्र दिवाकर : प्रो. भागचन्द्र जैन भास्कर विशेष • रीवा दिगम्बर जैन मंदिर ट्रस्ट का रोमाञ्चक पत्र समाचार अङ्क 1 लेखक के विचारों से सम्पादक का सहमत होना आवश्यक नहीं है। जिनभाषित से सम्बन्धित समस्त विवादों के लिए न्याय क्षेत्र भोपाल ही मान्य होगा । 4 आव. पृ. 2 9 - 142 100 11 15 18 19 32880 26 29 33 35 5 00 : सुरेश जैन 'सरल' 40 : क्षु. श्री ध्यानसागर जी आव. पृ. 3 8 6 27, 34, 41-48 एवं आव. पृ.4 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 सम्पादकीय जैन जीवन के बिना जैन शिक्षा संस्थान अधूरे या बेकाम के . प्राचीन भारत के शास्त्र पर दृष्टि डालें तो आपको साफ दिखेगा कि जैनों की उपस्थिति आयुर्वेद, साहित्य, साहित्य शास्त्र व्याकरण, गणित, पुराण आदि सभी क्षेत्रों में रही है। संस्कृत के बारह व्याकरणिक सम्प्रदायों में से अधिकतम जैनों के नेतृत्व के द्वारा प्रख्यापित हुए हैं, लेकिन यदि आप उसके उत्तरार्ध में देखें, तो आपके मन में एक सवाल बराबर उठेगा कि मध्यकाल तक जैनों की वैचारिक उपस्थिति साहित्य एवं विभिन्न ज्ञान-विज्ञान आदि के क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण रही और यही कारण था कि जैन बृहत्तर समाज के हिस्से होते हुए भी अपनी अलग पहचान भी बनाये रहे, पर इधर यदि आप अखिल भारतीय स्तर पर आँकें, तो दस बड़े नाटककारों, दस बड़े वैज्ञानिकों, दस बड़े कवियों, दस बड़े निबंधकारों, दस बड़े चित्रकारों, दस बड़े संगीतकारों आदि-आदि में जैनों की उपस्थिति लगभग नहीं जैसी दिखेगी। उसका प्रमुख कारण यह रहा कि हमने पहले तो बहुत शैक्षिक संस्थान बनाये नहीं और उनमें जो बनाये भी, वे नाम के जैन संस्थान-भर रहे, या फिर वे केवल जैनधर्म, जैन-अध्यात्म या जैनदर्शन-भर को पढ़ाने वाले शिक्षा संस्थान के रूप में रहे। वास्तव में सम्पूर्णता के साथ जुड़ने वाला या जुड़ा रहने वाला जैन विचार शास्त्र, जैन साहित्य, जैन जीवन-पद्धति आदि उनसे कोशों दूर रही। इसीलिए किसी भी जैन महाविद्यालय से बी.ए., बी.एस.सी. या बी. काम करने वाले छात्रों ने ऐसा कुछ अलग न पढ़ा और न सीखा ही, जो एक जैनेतर महाविद्यालय से बी.ए., बी.एस.सी., बी. काम करने वाल छात्र ने सीखा होता। इधर जो हमारे विद्वान् हुए भी वे जैनेतर विद्वानों की तुलना में अपने को उस रूप में समाज में बौद्धिक स्तर पर स्थापित भी न कर पाये अर्थात् यदि उसे गलत अर्थों में न लिया जाए, तो उनकी पहचान दोयम स्तर की रही, जिसका नुकसान यह हुआ कि हम जब मध्यकालीन साहित्य पढ़ते हैं, तो उससे जैन रचनाकार लगभग गायब हैं, कुछ एक जैन रचनाकार एवं जैन वैज्ञानिक जरूर उभरे, पर उनकी उपस्थिति भी जैनत्व के साथ लगभग नहीं है। जैन महाविद्यालयों, विद्यालयों आदि की स्थापना पर हमने जैन समाज के लाखों-करोड़ों, बल्कि कहा जाये, तो हमने अरबों रुपये लगा दिये, पर उससे जैनत्व को कोई बहुत बड़ा लाभ हुआ हो, ऐसा तथ्य नहीं है, नाम के लिए कुछ जैनों की उपस्थिति-भर समाज में उनसे दिख रही है। चूँकि पाठ्यक्रम निर्धारण में जैनों की प्रमुख भूमिका नहीं रही, इसलिए हमारे चाहने पर भी हमारी रचनाएँ वर्तमान में पढ़ाये जाने वाले विश्वविद्यालयों, विद्यालयों के पाठ्यक्रम में न जा पायीं और जब वे पाठ्यक्रमों में गईं नहीं तो उनमें अध्ययन-अनुसंधान करने वाले विद्वानों की रुचि भी क्रमशः घटती गई और अब धीरे-धीरे स्थिति ऐसी होती जा रही है कि ऐसे विद्वानों का मिलना लगभग मुश्किल सा होता जा रहा है, जो हमारी परम्परा की मूल रचना को बिना किसी टीका के सीधे समझ पाएँ और यह गति यदि अगले 20-25 साल और चल गयी, तो निश्चय मानिए कि हमारी परम्परा के, हमारे ग्रन्थों के जानकार, हमारी रचनाओं के विचार - बिन्दुओं के जानकार ढूंढे नहीं मिलेंगे। इसलिए बच्चों के/ शिक्षार्थियों के पाठ्यक्रमों को निर्धारण करने वाली शक्ति हमारे हाथ में होनी चाहिए और वैसा करते समय हमें तटस्थ रूप में पाठ्यक्रम निर्धारित करने चाहिए। यह हमें तब हासिल होगी, जब हम ऐसी किसी संस्था के नियंत्रक बनें, ऐसी संस्था स्थापित करें, चूँकि अब प्राइवेटाइजेशन का जमाना आ गया है या आ रहा है, इसलिए इधर यह होना अब पहले की तुलना में आसान भी है, पर इस सबके लिए जरूरी है कि हम जो जैन संस्थाएँ बनाएँ, उनमें परम्परा में उपलब्ध फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन विचार के साथ-साथ आधुनिक समाज के लिए जरूरी विषयों के अध्ययन, अध्यापन और अनुसंधान पर भी समुचित रूप में बल जरूर दिया गया हो और वह भी इस गुणवत्ता का हो, जो किसी भी राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय मानकवाली संस्था से कम न हो और यदि हम ऐसा नहीं करेंगे तो निश्चित मानिए कि हम कोई धार्मिक संस्थान भले हो जाएँ, पर आज के समाज के काम के शैक्षिक संस्थान तो न हो पाएँगे, जैसा कि हमारे अनेक संस्थानों का हश्र हुआ है। यदि हम ऐसा करेंगे तो निश्चित रूप में जो जैनधर्म आज भारतीय समाज में हासिये पर चला गया है, वह केन्द्र में आ जाएगा। समाज के पैसे का शैक्षिक संस्थानों के नाम पर जो दुरुपयोग हो रहा है, वह बन्द होगा और हम सही मायने में जैनधर्म का ही नहीं. आम भारतीय समाज का भी भला कर सकेंगे, बल्कि ऐसे समाज क निर्माण कर सकेंगे, जिसके केन्द्र में जैन विचार या जैन जीवन-पद्धति होगी। आज के हमारे समाज का दुर्भाग्य यह भी है कि जो हमारी बीमारियाँ नहीं थीं, वे हमारी हो गई हैं, जो हमारे परिधान नहीं थे, वे हमारे हो गए हैं, जो कार्य त्याज्य थे, वे आज खुले आम किये जाने लगे हैं। जिन भोजन सम्बन्धी वस्तुओं को हम कभी छूना तक नहीं पसन्द करते थे, वे आज हमारी रसोइयों के भीतर बनने लग गए हैं। पहले आप जैनों के घर के सामने से निकल जाएँ, तो रसोई की गन्ध यह बता देती थी कि यह जैन घर है। आज जैन और जैनेतर की रसोई की गन्ध में बहुत अन्तर नहीं रह गया है। इसलिए मैं कहना चाहूँगा कि आप जैन शैक्षिक संस्थान जरूर बनाएँ, लेकिन अपने ढंग से, अपने पाठ्यक्रम से, अपनी जीवन-पद्धति व अपने विचारशास्त्र को सँजोते हुए, तभी ऐसे बनाये गए हमारे शैक्षिक संस्थान सही मायने में हमारे शैक्षिक संस्थान होंगे/हो सकेंगे। केवल ढलाचला में चली आ रही वर्तमान विश्वविद्यालय शिक्षा की नकल से नहीं, और यदि ऐसा हुआ, तो सच ही फिर हम जहाँ के तहाँ रह जाएँगे, बल्कि हम अपना पैसा, अपनी शक्ति व अपनी बहुत कुछ ऊर्जा भी बर्बाद कर चुके होंगे। मेरी इस टिप्पणी का उद्देश्य भी आपको वैचारिक रूप में विचलित करते हुए ऐसे नए सृजन के लिए आन्दोलित करने में ही है, जिससे कि निश्चितरूप से हमारे उत्तराधिकार का भला सम्भावित है। वृषभ प्रसाद जैन प्रोफेसर एवं निदेशक भाषा-केन्द्र महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, १/१२, सेक्टर - एच, अलीगंज, लखनऊ सब कुछ देख आँख मत मींचो मृत्यु खड़ी मुँह बाये देखो, काला नाग खड़ा डसने को। नाकारा बन यहाँ रहोगे. दुनिया है तुम पर हँसने को।। ढोंगी साधु से तो अच्छा, फुटपाथों पर पड़ा भिखारी । योगेन्द्र दिवाकर हाथ पसारे भीख माँगता मानवता का नहीं शिकारी ॥ सब कुछ देख आँख मत मींचो, रोनी सी मत सकल बनाओ। आँसू से मरूथल को सींचो, और स्वेद से फसल उगाओ । दिवानिकेतन, सतना (म.प्र.) -फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित 5 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 अध्यक्ष अरुण कुमार बड़कुल कटरा, रीवा फोन नं. २५२९६५ रीवा दिगम्बर जैन मंदिर ट्रस्ट का रोमाञ्चक पत्र ॥ श्री शान्तिनाथाय नमः ॥ श्री दिगम्बर जैन मंदिर ट्रस्ट जैन भवन, जैन धर्मशाला कटरा, रीवा (म.प्र.) ४८६००१ (पंजीयन दि. ०७ अगस्त १९६८ ) कोषाध्यक्ष श्रीपाल जैन कटरा, रीवा फोन नं. २४०४८३, २५३२६९ सावधान मुनि मंदिरसागर का आकलन एक युवा मुनि श्री मंदिरसागर जी (एकल विहारी) का आगमन दिनांक ३०.०६.०४ को रिक्शा में बैठकर हुआ । मुनि श्री पूर्ण स्वस्थ रहे हैं। मुनि श्री मंदिरसागर जी ने चातुर्मास रीवा में करने की इच्छा व्यक्त की। धर्म एवं साधु प्रेमी समाज ने इसका स्वागत किया। चातुर्मास के समय युवा मुनि श्री मंदिरसागर की क्रियायें, आचरण, जैनमुनिधर्म के अनुकूल नहीं थीं तथा शिथिलताओं पर शिथिलता परिलक्षित होती रही। अस्पताल में जाकर इंजेक्शन लगवाना, सी.टी.स्केन कराना, प्रवचन न करना, आहार के बाद १२ बजे से ३-४ बजे तक दरवाजा बंद करके सोना, कमरे में एक के बाद एक ऐसे ३ परतों में परदे लगाना ताकि अंदर का कुछ दिखाई न पड़े, मंत्र-तंत्र महिलाओं को तथा अन्यों को देना, आहार या शौच हेतु जाने पर कमरे में ताला लगाकर जाना, कमरे में तथा चौका में बिजली-पंखा चलाया जाना, कमरे में मच्छर मारने के उपक्रम में आल आउट लगवाना, आहार के समय गैस का चूल्हा जलवाकर भाप निकलती रोटी, चावल का सेवन (अनिवार्यता ), नित नई-नई फरमाइशें समाज के व्यक्तियों से करना, दान के रूप में चार अंकों की राशि स्वयं माँगना तथा संग्रह करना, दो-दो मोबाइल फोन तथा लैंड लाइन का एक फोन पूर्णतया अपने ही पास रखकर दैनिक उपयोग, तथाकथित एक मौसी तथा उनकी युवा बेटी को बगल के कमरे में, जिसका कि दरवाजा मुनिश्री के कमरे में खुलता है, ठहराना, उनका बीच में जाकर पुनः पुनः आना-जाना, आपत्ति करने पर मोबाइल से कलेक्टर, कमिश्नर को ट्रस्ट की शिकायत करने तथा ट्रस्ट भंग करने की धमकी देना, रात्रि में १० - १०.३० बजे तक बोलते रहना आदि मुनिश्री की नियमित दैनिकचर्या में रहा है। फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित मंत्री शरद कुमार संदेहास्पद आचरण के कारण मुनि मंदिरसागर चर्चा के विषय तो रहते थे, परंतु मुनि के प्रति अंध भक्ति के श्रावकों के द्वारा उनका पक्ष लेना तथा रीवा जैन समाज की छवि विवादास्पद न हो, सभी कुछ देखते हुए भी सहा जाता रहा। जैन २, रोशन काम्पलेक्स अमहिया, रीवा फोन नं. (दु.) २५४६३४, (नि.) ५०६५०९ (मो.) ९८२६३१२७७५ दिनांक २१ दिसंबर ०४ को मुनि श्री का विहार बनारस हेतु प्रातः ८ बजे हुआ। विहार के समय ४ व्हीलर में प्रथम किश्त में चौका लगाने का सामान गया। तथा रात्रि में 1 बजे तक स्वयं ६ बड़े थैलों में पैक की गई सामग्री, मय बाहर भीतर लगे हुए पर्दों को निकालकर थैलों में रखकर तथा थैलों में ताले लगे हुए थे, भेजना थी । यहाँ यह स्मरणीय Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है कि जब आये थे, तब मात्र एक थैला था । अब छ: थैलों में सामान था एवं वे सामान्य से भारी थे। सामान कार में रखते समय शंका को सबलता मिली। प्रातः का समय ९ बजे होने के कारण मंदिर जी में भक्तों की काफी संख्या थी। समाज के उपस्थित ट्रस्टियों, पंचों तथा अन्यों ने निर्णय लिया कि थैले खोलकर सामान देख लिया जाये। सभी थैलों में ताले लगे थे। चाभियाँ ढूंढने पर एक थैले के बाहरी पॉकेट में मिल गई। समाज के ३५-४० व्यक्तियों के सामने थैले खोले गये, जिनमें निम्न सामग्रियाँ प्राप्त हुईं, जो कि एक निर्ग्रन्थ मुनि के पास होना विचारणीय तो है ही, एक प्रश्नवाचक स्थिति को जन्म देता है : (निम्न सामग्री का लिखित हस्ताक्षरयुक्त पंचनामा ट्रस्ट के पास है) १. नगद राशि रु. ६१७४०/ (इकसठ हजार सात सौ चालीस) पोर्टेबिल कलर टी.व्ही. एक नग (चालू) सी.डी.प्लेयर एक नग (चालू) शोले फिल्म की सी.डी.तीन पार्ट में एक सैट तीन सी.डी. सी.डी. फिल्म आपत्तिजनक (ब्लू फिल्म) एक नग मोबाइल फोन दो नग मुनिश्री साथ ले गये थे, उनके चार्जर दो नग लैन्डलाइन का फोन का इंस्टूमेन्ट जो कि कमरे में उपयोग करते थे - एक नग ८. पीतल की पद्मासन मूर्ति लगभग ५ किलो. १०० ग्राम की भगवान श्री मुनिसुब्रतनाथ की - एक नग (मूर्ति सामान में सामग्री की तरह पैक कर रखी हुई थी अर्थात प्रतिष्ठित या अप्रतिष्ठित शंकास्पद) ९. पेन्ट शर्ट तीन जोड़े १०. रेजर तथा ब्लैड एक सैट ११. पीयर्स साबुन एक नग १२. कैमरे दो नग १३. पानी गरम करने की इमलशन राड दो नग १४. लड़की जो उनके साथ जाती थी, उसके तरोताजा २५० फोटो १५. जंत्र तंत्र के धातुओं की प्लेटें तथा ताबीज बहुतायत में १६. फिल्मी गाने मुनि श्री के हस्तलिखित चुम्मा चुम्मा दे दे आदि। १७. फिल्मी गानों के भरे हुए टेप का कैसेट एक नग। १८. फोन तथा मोबाइल का बिल। १९. मंदिर में रखे, बिना जानकारी के लिए गये अनेक ग्रंथ। २०. कमरों में लगाये गये पर्दे 3 सैट आदि। मुनिश्री के पास तीन मोबाइल फोन रहे हैं, जिसमें से एक मोबाइल उक्त लड़की को दे दिया गया था तथा अपने एक मोबाइल से जिसका कि नंबर सार्वजनिक नहीं किया गया था, आपस में दोनों कन्नड़ भाषा में चर्चा किया करते थे। अन्य सामान में तीन अतिरिक्त बनी बनाई पिछी पाई गईं। तीन पिछी के होते हुए २५०० मोर पंख मँगाये गये, जो कि उसी स्वरूप में (बिना पिछी बने) रखे थे। उपरोक्त सामान सभी उपस्थित जनों ने देखा तथा मुनि आचरण के प्रतिकूल आपत्तिजनक सामग्री का हस्ताक्षर युक्त पंचनामा कर, ट्रस्ट की सुपुर्दगी में दिया गया तथा शेष सामग्री थैलों में भरकर तथाकथित मुनिश्री के पास भेज दी गई। दिनांक २१.१२.०४ (गमन के प्रथम दिन ही) मुनिश्री को सामान खोले जाने की जानकारी मार्ग में हो गई। तो वे मार्ग से वापस रीवा आने लगे। रीवा नगर में यह परिदृश्य मीडिया के प्रचार प्रसार की सामग्री न बने, इस हेतु ट्रस्ट पदाधिकारी, सदस्य, पंच, श्रावक तथा युवक मंडल के सदस्य आदि मुनिश्री से भेंट करने गये त गहन गंभीर चर्चा हुई । कपड़े पहनने का आग्रह किया गया। मुनिश्री ने सभी सामग्री मय आपत्तिजनक सामग्री के, उन्हीं -फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित 7 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की होना लिखित में स्वीकारा तथा लिखित में दिया, जो कि ट्रस्ट के पास प्रमाण स्वरूप रखी हुई है। अगले पड़ाव मनगवाँ में चौका में उपयोग हेतु, वहाँ एकमात्र रह रहे श्रावक ने गैर चूल्हा तथा रेग्युलेटर दिया, जो कि मुनिश्री ने, बिना अनुमति , स्वीकृति तथा जानकारी के साथ में लदवाया और ले गये, तथा वापिस नहीं किया। आगे हनुमना में संपर्क करने के बाद रीवा समाज के गये सदस्यों को पता चला कि मुनिश्री कभी किसी के साथ साइकिल में, कभी साइकिल-रिक्शा में विहार कर रहे थे। और अधिक जानकारी संग्रहीत करने पर पता चला कि उनके आचार्यश्री ने इन्हें आचरण शिथिलता सहित अन्य कारणों से शिष्य समुदाय से अलग कर दिया है तथा उस समय इनका नाम मुनि सूर्यसागर था, उनके मंदिरसागर नाम के कोई शिष्य नहीं हैं। ऐसा भी सुनने में आया है कि मुनि मंदिरसागर पहले दो बार कपड़े पहिन चुके हैं। साथ में तीन जोड़े कपड़े भी संदेह की परिधि में आते हैं। रीवा जैन समाज की ट्रस्ट का यह दायित्व बनता है कि ऐसी शंकास्पद घटनाओं से जैन समाज को अवगत कराया जाये। चूँकि यह एक निर्ग्रन्थ मुनि से जुड़ा विषय है। अस्तु निर्णय आपको करना है ताकि मुनियों के प्रति आस्था रखने वाली समाज कहीं चूक न जाये। साथ रीवा जैन समाज का भी मार्गदर्शन करें। आपके निर्णय सुझाव हमारा पथ प्रदर्शन ही करेगा। विनयावनत अध्यक्ष/मंत्री श्री दिगम्बर जैन मंदिर ट्रस्ट, जैन भवन कटरा मोहल्ला, रीवा म.प्र. तथाकथित सम्पादकीय टिप्पणी मुनि मंदिरसागर दि.जैन मंदिर ट्रस्ट रीवा (म.प्र.) ने अपने दायित्व को बखूबी निभाया है। ट्रस्ट के पदाधिकारियों का जिनशासन को विकृति से जिनभक्तों को गुरुमूढ़ता से और जिनमंदिर को पापक्रियाओं से बचाने का उपर्युक्त प्रयास सराहनीय एवं अनुकरणीय है। सम्पादक स्वाध्याय प्रो. भागचन्द्र जैन भास्कर 'स्व' का अध्ययन स्वाध्याय है, निज दर्शन तो स्वयं करो। बस तटस्थ हो शान्त भाव से, देखों यही किनारा है। शुद्ध चेतना अन्तर बैठी, उसकी स्वानुभूति कर लो। सही ध्यान हो तो समझोगे, नहिं संसार हमारा है। भीड़भाड़ बहुत है भीतर, भाव वासनाएँ उठतीं। जहाँ शोध है, वहीं साधु है, नहीं दिगम्बर श्वेताम्बर। स्मृतियाँ गतिमान बनी हैं, मेला कुंभ लगा करती ॥ १॥ जागो तो मुनि, मोक्ष मिलेगा, सोओ तो संसाराम्बर ॥ ४॥ उसका अध्ययन अवलोकन हो, जागरूक उसमें होना। सभी कर्म तो विजातीय हैं, नहिं रहते चेतन के साथ। स्वयं को जान न पाया, आगम क्या लेना-देना। वे निर्जीर्ण हुआ करते हैं, सम्यक् तप जब होता साथ ॥ आगम स्वधन भले ही हो पर, उसकी तल पानी होगी। अनन्त शक्ति पहचानी जाती, संयम तप के माध्यम से। भीतर परदे पर तब मन की रेखा नशनी होगी॥ २॥ निराकांक्ष निर्मोही होकर, भेदज्ञान पाओ सुख से ॥ ५॥ निष्पक्ष निरीक्षण मन को हो तो सम्यग्दर्शन होगा ही। मत अटको तुम अर्थ काम में, ताशों का सा खेल रहा। भ्रमित दशा जब विगलित होगी,मन भी तिरहित होगा ही। पर द्रव्यों का संसारी सुख, मात्र कल्पना जाल बना॥ मन की गति जब चंचल होती, तब लगाम रखना होगा। स्वाध्याय निज-पर को जानो, धर्म स्वभाव ही जीवन है। उसको वश में किये बिना क्या रत्नत्रय पालन होगा।। ३ ।। परम सत्य इसको ही मानो, मानों आत्मनमन है॥६॥ तुकाराम चाल, सदर, नागपुर फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित 8 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनांश देव मूढ़ता संसार में जीव अपने विकृत राग-द्वेष, मोह आदि परिणामों द्वारा कर्मबंध किया करता है। उन विकृत भावों में से कुछ भाव शुभ होते हैं- जैसे कि वीतराग देव की भक्ति, निर्ग्रन्थ गुरु की सेवा, जिनवाणी का स्वाध्याय, तीर्थयात्रा, व्रतनियम आचरण, दया, दान, परोपकार, दीन दुःखी जीवों की सेवा आदि, ऐसे भाव शुभ कहलाते हैं। इन शुभ भावों के द्वारा, जीव अपने भविष्य के लिये कुछ सुख शांति के साधन मिलाने वाले पुण्य कर्म का उपार्जन करता है, जिससे अन्य भव में अच्छा शरीर, अच्छी आयु, अच्छा परिवार, अच्छा कुल, गुणों का विकास, सत्संगति आदि अच्छे साधन मिला करते हैं, जिनके द्वारा वह अन्य असंख्य दु:खी प्राणियों की अपेक्षा सुख शांति अनुभव करता है। अन्य प्राणियों को दुःख देना, अभक्ष्य, माँस-मदिरा आदि खाना-पीना, असत्य बोलना, चोरी करना, व्यभिचार करना, धन संचय करके उसके द्वारा अपना तथा जनता का कुछ उपकार न करना, दान न करना, तीर्थयात्रा, भगवत् पूजा, गुरुवंदना न करना, व्रत नियम आदि न करना, सदा विषय भोगों में लगे रहना । क्रोध, अभिमान, धोखेबाजी, विश्वासघात आदि करना इत्यादि बुरे भाव हैं। ऐसे बुरे भावों के द्वारा जीव पाप कर्मों का उपार्जन करता है । पापकर्म के उदय से दुःख व्याकुलताकारक अनिष्ट सामग्री मिलती है। जैसे कि रोगी, कुरूप शरीर मिलना, नीच कुल में जन्म लेना, दुर्गुणी कलहकारक परिवार मिलना, दरिद्रता प्राप्त होना इत्यादि । संसारी जीवों को मध्यम दर्जे की सुख सामग्री मनुष्य गति में अच्छे कुल में जन्म लेकर मिला करती है, अधिक पुण्य कर्म के योग से जीव को देवगति प्राप्त होती है, अत्यंत अशुभ कार्य करने से जीव नरक में जाता है और मध्यम श्रेणी का पापकर्म उपार्जन करने से पशु पक्षी आदि होता है। पुण्यकर्म असंख्य तरह के होते हैं, अत: उनके फलस्वरूप सुखदायक शरीर भी असंख्य तरह के होते हैं, इसी कारण न सब देव एक समान होते हैं, अनेक मध्यम श्रेणी के सुखी हैं और अनेक निम्न श्रेणी के होते हैं । जिनका जीव दुःखमय होता है, इसी पापकर्म की असंख्य श्रेणियाँ हैं और उनके फलस्वरूप पशु पक्षियों में दुःख सुख की तरतमता तथा नारकियों में दुःख का तारतम्य प्राप्त होता है । यद्यपि देव, मनुष्य, पशु, नरक ये चार गतियाँ हैं और इनमें जन्म लेने के स्थान रूप योनि ८४ लाख प्रकार की हैं, परंतु शरीर असंख्य प्रकार का होता है और कुल-जाति, परिवार आदि उपलब्ध सामग्री भी असंख्य तरह की अपने-अपने उपार्जित पुण्य पाप रूप कर्मों के उदय अनुसार मिला करती है। इनमें से हमको मनुष्य पशु पक्षी आदि तिर्यंच जीव तो यहाँ दिखाई देते हैं परंतु नारकी तथा देव दिखाई नहीं देते। उन दोनों तरह के जीवों की सत्ता अर्हन्त सर्वज्ञ की वाणी के अनुसार शास्त्रीय प्रमाण से मानी जाती है। इसके सिवाय अनेक स्त्री पुरुषों आचार्य श्री देशभूषण जी पर भूत प्रेतों की बाधा होते भी देखी जाती है, इसलिये देवों का अस्तित्व अनुमान से भी सिद्ध होता है। दिव् धातु से देव शब्द बना है। दिव धातु के क्रीड़ा करना, जीतने की इच्छा करना आदि अनेक अर्थ हैं। देवों के वैक्रियिक शरीर होता है, हमारी तरह हड्डी, माँस आदि सात धातुओं वाला औदारिक शरीर नहीं होता। इसी कारण वे अनेक तरह की विक्रिया (रूप) कर सकते हैं। यह विक्रिया ऋद्धि अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व, अन्तर्धान, अप्रतिघात, कामरूपित्व आदि अनेक प्रकार की हैं। अपना शरीर परमाणु जैसा छोटा बना लेने की शक्ति अणिमा है। पहाड़ जैसा तथा उससे भी बड़ा अपना शरीर बनाने की शक्ति महिमा है। रूई की तरह अपना शरीर हल्का बना लेने की शक्ति लघिमा है। लोहे पत्थर की तरह अपना बहुत भारी शरीर बना लेने की शक्ति गरिमा है। पृथ्वी पर बैठे अपनी उंगली से सूर्य चन्द्र आदि छू लेने की शक्ति प्राप्ति है। पृथ्वी पर जल में डुबकी सी लगाते हुए और जल में पृथ्वी की तरह चल सकने की शक्ति प्राकाम्य है । अपना खूब अच्छा राजा महाराजाओं से भी अधिक ठाट-बाट बना लेने की शक्ति ईशित्व है। अन्य जीवों को अपने वश में कर लेने की शक्ति वशित्व है। तत्काल अपना शरीर अदृश्य (न दिखने वाला) बना लेने की शक्ति अंतर्धान है। पर्वत आदि में से बिना रूकावट के आने वाले निकल जाने की शक्ति अप्रतिघात है । अनेक प्रकार के रूप और अनेक शरीर बना लेने की शक्ति कामरूपित्व है 1 इस प्रकार विक्रिया ऋद्धि के कारण देवों के शरीर में मनुष्य की अपेक्षा अनेक महत्वपूर्ण विशेषताएँ पाई जाती हैं, उनमें बल भी मनुष्य की अपेक्षा अधिक होता है, इसी कारण वे अनेक चमत्कार पूर्ण कार्य कर डालते हैं। देव स्वर्गों में, मध्यलोक तथा पाताल में भी रहते हैं उनकी अनेक जातियाँ हैं । वैमानिक देव । स्वर्गों में रहते हैं। ज्योतिषी देव मध्यलोक में रहते हैं। भवनवासी अधोलोक में रहते हैं और व्यन्तर देवों में कुछ अधोलोक में और कुछ मध्यलोक में ही रहते हैं। भूत पिशाच आदि व्यंतर देवों के ही भेद हैं। विक्रिया ऋद्धि के कारण देवों में यद्यपि साधारण मनुष्यों से अधिक बल विक्रम तथा विशेषता होती है, उन्हें जन्म भर कोई रोग नहीं होता, बुढ़ापा नहीं आता, भूख प्यास लगते ही उनके गले से स्वयं अमृत झरकर उनकी भूख-प्यास को शांत कर देता है। उनको जन्म भर कोई शारीरिक कष्ट नहीं हुआ करता, इस दृष्टि से देवों का जीवन मनुष्यों की अपेक्षा अधिक सुखी समझा जाता है। परंतु मनुष्य शरीर में आध्यात्मिक गुणों का विकास देवों की अपेक्षा भी अधिक हो सकता है। मनुष्य ही उन शुभ कर्मों का उपार्जन कर सकता है जिनके • फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित 9 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वारा देवयोनि प्राप्त होती है। देव कोई भी वैसे शुभ काम का | सूर्यहास खड्ग शम्बुकुमार ने सिद्ध किया परंतु उससे भी अधिक उपार्जन नहीं कर सकता। इसी कारण देव मरकर पुन: देव शरीर | पुण्यशाली लक्ष्मण ने उसे सहज में प्राप्त कर लिया। इसलिए सुख नहीं पा सकते। इसके सिवाय तीर्थंकर, चक्रवर्ती, नारायण आदि | शांति पाने के लिये अर्हन्त भगवान् की पूजा उपासना तथा दान व्रत भी मनुष्य ही होते हैं जिनकी सेवा देवगण किया करते हैं । अनेक | आदि धर्म सेवन करना चाहिए जिससे पुण्य कर्म उपार्जन हो और मंत्रवादी अपने मंत्र बल से देव देवियों को अपने वश में कर लेते | जिसके द्वारा सुख प्राप्त हो। हैं। इसके सिवाय जन्म मरण की परंपरा समाप्त करके मुक्तिपद शासन देवी देवताओं के सिवाय संसार में और भी अनेक भी मनुष्य ही प्राप्त कर सकता है। इस कारण देवों में यद्यपि | मिथ्यादृष्टि देवी देवता हैं उनकी पूजा आराधना तो और भी साधारणतः शारीरिक विशेषताएं होती हैं। किन्तु आध्यात्मिक | अधिक बुरी है क्योंकि उससे आत्मा का और भी पतन होता है। विशेषताएँ मनुष्य में ही विकसित होती हैं । मनुष्य ही अपने आत्मा | आत्मा के पतन का कारण मिथ्यात्व है । मिथ्या देवी देवताओं की के समस्त गुणों का पूर्ण विकास करके त्रिलोक पूज्य परमात्मा बन | भक्ति पूजा से मिथ्या श्रद्धा (मिथ्यात्व) मिलती है। मिथ्या श्रद्धा जाता है। वह अर्हन्त परमात्मा समस्त देवों से भी पूज्य होने के से ही लोग बकरा, मुर्गी, भैंसा आदि जीव-जंतुओं का निर्दयता से कारण देवाधिदेव कहलाता है। कत्ल करके देवी देवताओं को भेंट करते हैं और अनेक मान्याताएँ आत्मा को महात्मा और परमात्मा बनाने के लिए उन्हीं | मानते हैं। यह सब देवमूढ़ता है। आत्म श्रद्धालु सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा देवाधिदेव अर्हन्त भगवान् की आराधना की जाती है। अर्हन्त | किसी भय, आशा, लोभ से रागीद्वेषी देवी देवताओं की पूजा भक्ति भगवान की पूजा भक्ति करने से सौधर्मेन्द्र, यक्ष यक्षिणी आदि देव | नहीं करता है। देवियों को आत्म श्रद्धा होकर सम्यग्दर्शन हो जाता है। ऐसे | अज्ञानता के कारण भोले लोग सड़क पर लगे हुए मील सम्यग्दष्टी देव कभी-कभी धर्मात्मा स्त्री पुरुषों पर, मुनियों पर | के पत्थरों को भी पूजने लगते हैं। तथा तीर्थंकरों पर कोई विपत्ति या उपसर्ग आजाने पर धर्मानुराग एक बार एक नगर में एक राजा की सवारी निकलनी थी, से सहायता करके उपद्रव दूर कर दिया करते हैं। जैसे कि भगवान् | अतः उस सड़क की खूब सफाई और पानी का छिड़काव किया पार्श्वनाथ का उपसर्ग धरणेन्द्र पद्मावती ने दूर किया था, सीता | | गया। म्युनिसिपलिटी (नगरपालिका) के कर्मचारी सफाई का के अग्निकुण्ड को पानी में परिणत कर दिया था, सुदर्शन सेठ की | ध्यान बराबर रख रहे थे। इधर राजा हाथी पर सवार होकर आ शूली सिंहासन बना दी थी।अत: मंत्रवादी मनुष्य मंत्र सिद्ध करके रहा था उधर उसी समय सड़क पर एक कुत्ते ने टट्टी कर दी। ऐसे देवों की सहायता से लौकिक कार्य सिद्ध किया करते हैं तथा | म्युनिसिपलिटी के सफाई करने वाले अधिकारी ने देख लिया, चमत्कार दिखला कर जनता में धर्म का प्रभाव फैलाते हैं। उसने इधर-उधर देखा परंतु वहाँ पर कोई मेहतर दिखाई न दिया। यदि आत्मा की शुद्धता की दृष्टि से देखें तो सम्यग्दृष्टि देव | तब उसने टट्टी को छिपाने के लिये अपने गले में से फूलों की तथा शासन चौथे गुणस्थानवर्ती असंयत सम्यग्दृष्टी होते हैं। अतः | माला उतार कर उस कुत्ते की टट्टी पर डाल दी। राजा की सवारी जो मनुष्य सम्यग्दृष्टी नहीं हैं वही मनुष्य उनको नमस्कार कर | वहाँ से निकल गई। सकता है, सम्यग्दृष्टि मनुष्य को सांसारिक इच्छाएँ या सांसारिक | | लोगों ने देखा कि यहाँ पर फूलों की माला रखी हुई है तो सख अभीष्ट नहीं होते अत: वह अर्हन्त भगवान के सिवाय अन्य | यहाँ कोई देव होगा। अत: दूसरे मनुष्य ने भी उस पर फूल चढ़ा किसी को न नमस्कार करता है, न आत्मशुद्धि के लिये उसे आदर्श | दिये, तीसरा मनुष्य भी कोई नया देव मानकर फूल चढ़ा गया, इस मानता है। कभी धर्म प्रभावना के लिये उन देवों की सहायता से | तरह देखा देखी जो भी मनुष्य सवार उधर आया उसने वहाँ फूल चमत्कार दिखला देते हैं। जैसे मुसलमानी शासन के समय अनेक देखकर किसी नये दवे का उदय उस स्थान पर जानकर फूल चढ़ा बार भट्टारकों ने दिखलाये थे। दिये, इस तरह वहाँ थोड़ी ही देर में फूलों का ढेर लग गया और ऐसे चमत्कारों को देखकर कुछ अज्ञानी पुरुष ऐसे देवी- उसका नाम भी फूलों का देवता प्रसिद्ध हो गया। देवताओं की पूजा करने लगते हैं और उससे धन, सम्पत्ति, स्त्री, तब एक बुद्धिमान मनुष्य आया उसने सोचा कि दो घंटे पुत्र आदि पदार्थ पाने की प्रार्थना किया करते हैं। यह देव मूढ़ता | पहले यहाँ कोई भी देवी-देवता न था अब अचानक कहाँ से कोई देव आ गया? अपनी शंका दूर करने के लिए उसने जब सब फूलों धन, सम्पत्ति, पुत्र, मित्र, स्त्री आदि सुख-सामग्री पुण्य | को हटाया तो वहाँ पर कुत्ते की टट्टी निकली। कर्म के उदय से मिलती है यदि पूर्व भव में पुण्य कर्म का उपार्जन | ऐसे ही देखा-देखी पीपल, जंडी, दुइया, चौराया आदि में न किया हो तो चाहे जितने देवी-देवताओं की पूजा उपासना की | भी अज्ञानी स्त्री-पुरुष देवी देवता की कल्पना करके उनको पूजते जावे, चाहे जितने मंत्र साधन किये जावें, सुख-सामग्री नहीं मिल | हैं। यह सब देव मूढ़ता है। देवमूढ़ता से बचकर शुद्ध बुद्ध वीतराग सकती। रावण ने रामचंद्र लक्ष्मण को युद्ध में जीतने के लिये कितने | सर्वज्ञ अर्हन्त परमात्मा के सिवाय अन्य किसी देवी-देवता की मंत्र सिद्ध किये, बहुरूपिणी विद्या भी सिद्ध कर ली परंतु राम- | पूजा आराधना भक्ति नहीं करनी चाहिये। लक्ष्मण के तीव्र पुण्य के सामने कोई भी काम न आया। देवाधिष्ठित 'उपदेशसार संग्रह' (द्वितीय भाग) से साभार . 10 फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गतांक से आगे पूजन-विधि सिद्धांताचार्य पं.हीरालाल शास्त्री 'आहता ये परा देवा' इत्यादि विसर्जन पाठ-गत श्लोक | समय आहूत दिग्पालादि देवों के ही विसर्जन का विधान किया तो मूर्ति-प्रतिष्ठा और यज्ञादि करने के समय आह्वानन किये गये | गया है और उन्हीं को लक्ष्य करके यह बोला जाता हैइन्द्र, सोम, यम, वरुण आदि देवों के विसर्जनार्थ हैं और उन्हीं __ आहूता ये पुरा देवा लब्धभागा यथाक्रमम। को लक्ष्य करके 'लब्धभागा यथाक्रमम्' पद बोला जाता है जैसा ते मयाऽभ्यर्चिता भक्त्या सर्वे यान्तु यथास्थितिम। कि आगे किये गये वर्णन से पाठक जान सकेंगे। अर्थात् - जिन दिग्पालादि देवों का मैंने अभिषेक के आवाहन और विसर्जन पहिले आवाहन किया था, वे अपने यज्ञ-भाग को लेकर यथा सोमदेव ने पूजन के पूर्व अभिषेक के लिए सिंहासन पर | स्थान जावें। जिनबिम्ब के विराजमान करने को स्थापना कहा है और उसके यहाँ यह आशंका की जा सकती है कि जिनाभिषेक के पश्चात् लिखा है कि इस अभिषेक महोत्सव में कशल-क्षेम- समय इन दिग्पाल देवों के आवाहन की क्या आवश्यकता है? दक्ष इन्द्र, अग्नि,यम,नैऋत, वरुण, वायु, कुबेर और ईश तथा शेष इसका समाधान मिलता है श्री रयधुरचित 'वड्ढमाणचरिउ' से। चन्ट आदि आठ प्रमख गह अपने-अपने परिवार के साथ वहाँ बतलाया गया है कि भ.महावीर के जन्माभिषेक के समय आकर और अपनी-अपनी दिशा में स्थित होकर जिनाभिषेक | सौधर्म इन्द्र सोम, यम, वरुण आदि दिग्पालों को बुलाकर और के लिए उत्साही पुरुषों के विघ्नों को शांत करें। (श्रावकाचार पांड्क शिला के सर्व ओर प्रदक्षिणा रूप से खड़े कर कहता हैसं.भाग १ पृष्ठ १८२ श्लोक ५०४) णिय णिय दिस रक्खडु सावहाण, देवसेन ने प्राकृत भावसंग्रह में सिंहासन को ही सुमेरु मा कोवि विसउ सुरु मज्झ ठाण। मानकर उस पर जिनबिम्ब को स्थापित करने के बाद दिग्पालों (ब्यावरभवन प्रति, पत्र ३६ ए) को आवाहन करके अपनी-अपनी दिशा में स्थापित कर और अर्थात् - हे दिग्पालो, तुम लोग सावधान होकर अपनीउन्हें यज्ञ भाग देकर तदनन्तर जिनाभिषेक करने का विधान | अपनी दिशा का संरक्षण करो और अभिषेक करने के इस किया है। (श्रावकाचार सं.भाग ३ पृष्ठ ४४८ गाथा ८८-९२) मध्यवर्ती स्थान में किसी भी देव को प्रवेश मत करने दो। अभिषेक के पश्चात् जिनदेव का अष्ट द्रव्यों से पूजन | यह व्यवस्था ठीक उसी प्रकार की है, जैसी की आज करके, तथा पञ्च परमेष्ठी का ध्यान करके पूर्व-आहूत दिग्पाल किसी महोत्सव या सभा आदि के अधिवेशन के समय कमाण्डर देवों को विसर्जन करने का विधान किया है। यथा - अपने सैनिकों को या स्वयंसेवकनायक अपने स्वयंसेवकों को झाणं झाऊण पुणो मज्झाणिलवंदणस्थ काऊण। रंगमंच या सभा मंडप के सर्व ओर नियुक्त करके उन्हें शांति उवसंहरिय विसज्जउ जे पुव्वावाहिया देवा॥ बनाये रखने और किसी को भी रंगमंच या सभा-मंडप में प्रविष्ट (भाग ३ पृष्ठ ४५२ गाथा १३२) | नहीं होने देने के लिए देता है। जब उक्त कार्य सम्पन्न हो जाता अर्थात - जिनदेव का ध्यान करके और माध्याहिक | है तो इन नियुक्त पुरुषों को धन्यवाद के साथ पारितोषिक देकर वंदन-कार्य करके पूजन का उपसंहार करते हुए पूर्व आहूत देवों | विसर्जित करता है। का विसर्जन करें। तीर्थंकरों के जन्माभिषेक के समय की यह व्यवस्था वामदेव ने संस्कृत भावसंग्रह में भी उक्त-अर्थ को इस | आज भी लोग पञ्चामृताभिषेक के समय करते हैं। यह बताया प्रकार कहा है जा चुका है कि नवीन मूर्ति की प्रतिष्ठा के समय जन्मकल्याणक स्तत्वा जिनं विसापि दिगीशादि मरुद्-गणान्। के दिन बनाये गये सुमेरू पर्वत पर ही यह सब किया जाना अर्चिते मूलपीठे ऽथ स्थापयेजिननायकम्॥ चाहिए। पञ्चकल्याणकों में प्रतिष्ठित मूर्ति का प्रतिदिन (भाग ३ पृष्ठ ४६८ श्लोक ४७) | जन्मकल्याणक की कल्पना करके उक्त विधि-विधान करना अर्थात - अभिषेक के बाद जिनदेव की स्तुति करके | उचित नहीं है, क्योंकि मुक्ति को प्राप्त तीर्थंकरों का न आगमन और दिग्पालादि देवों को विसर्जित करके जिनबिम्ब को जहाँ | ही होता है और न वापिस गमन ही। अतएव ऊपर उद्धृत प्रतिष्ठा से उठाया था, उसी मूलपीठ (सिंहासन) पर स्थापित करे। दीपक के उल्लेखानुसार जिनबिम्ब का केवल जलादि अष्टद्रव्यों उक्त उल्लेखों से यह बात स्पष्ट है कि अभिषेक के | से पूजन ही करना शास्त्र-विहित मार्ग है। प्रतिमा के सम्मुख -फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित 11 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्यमान होते हुए न आह्वानन आदि की आवश्यकता है और न | त् भण्डार में द्रव्य देना। विसर्जन की ही। पाठक स्वयं ही अनुभव करेंगे कि जैन परंपरा में प्रचलित पूर्व काल में चतुर्विंशति-तीर्थंकर-भक्ति, सिद्धभक्ति आदि | अष्ट द्रव्यों में से जो द्रव्य वैदिक-परंपरा की पूजा में नहीं थे. के बाद शांतिभक्ति बोली जाती थी, आज उनका स्थान चौबीस | उनको निकाल करके किस विधि से युक्ति के साथ इक्कीस तीर्थंकर पूजा और सिद्धपूजा ने तथा शांतिभक्ति का स्थान वर्तमान । | प्रकार के पूजन का विधान उमास्वामी ने अपने श्रावकाचार में में बोले जाने वाले शांतिपाठ ने ले लिया है, अतः पूजन के अंत | किया। (देखो-भाग ३, पृ.१६४, श्लोक १३५-१३७) में शांतिपाठ तो अवश्य बोलना चाहिए। किन्तु विसर्जन-पाठ इससे आगे चलकर उमास्वामी ने पंचोपचारवाली पूजा बोलना निरर्थक ही नहीं, प्रत्युत भ्रामक भी है, क्योंकि मुक्तात्माओं | | का भी विधान किया है। वे पाँच उपचार ये हैं - १. आवाहन, का न आगमन ही संभव है और न वापिस गमन ही। | २. संस्थापन, ३. सन्निधीकरण, ४. पूजन और ५. विसर्जन। हिन्द-पूजा पद्धति या वैदिकी पूजा-पद्धति में यज्ञ के | इस पंचोपचारी पूजन का विधान धर्मसंग्रह श्रावकाचार में पं. समय आहूत देवों के विसर्जनार्थ यही 'आहता ये पूरा देवा' | मेधावीने तथा लाटीसंहिता में पं.राजमल्लजी ने भी किया है। श्लोक बोला जाता है। शांतिमंत्र, शांतिधारा, पुण्याहवाचन और हवन वैदिक पूजा-पद्धति यद्यपि जैनधर्म निवृत्ति-प्रधान है और उसमें पापरूप वैदिक धर्म में पूजा के सोलह उपचार बताये गये हैं- 1. | अशुभ और पुण्यरूप शुभ क्रियाओं की निवृत्ति होने तथा आवाहन, 2. आसन, 3. पाद्य, 4. अर्घ्य, 5. आचमनीय, 6.स्नान, आत्मस्वरूप में अवस्थिति होने पर ही मुक्ति की प्राप्ति बतलायी 7. वस्त्र, 8. यज्ञोपवीत, 9. अनुलेपन या गंध, 10. पुष्प, 11. गयी है। पर यह अवस्था वीतरागी साधुओं के ही संभव है, धूप, 12. दीप, 13. नैवेद्य, 14. नमस्कार, 15. प्रदक्षिण और | सरागी श्रावक तो उक्त लक्ष्य को सामने रखकर यथासंभव अशभ 16. विसर्जन और उदासन। विभिन्न ग्रंथों में कछ भेद भी पाया | क्रियाओं की निवृत्ति के साथ शुभक्रियाओं में प्रवृत्ति करता है। जाता है - किसी में यज्ञोपवीत के पश्चात भषण और प्रदक्षिणा | इसी दृष्टि से आचार्यों ने देव-पूजा आदि कर्त्तव्यों का विधान या नैवेद्य के बाद ताम्बल का उल्लेख है, अत: कछ ग्रंथों में | किया है। वर्तमान में निष्काम वीतरागदेव के पूजन का स्थान उपचारों की संख्या अठारह है. किसी में आवाहन नहीं है. | सकाम देवपूजन लेता जा रहा है और जिनपूजन के पूर्व अभिषेक किन्तु आसन के बाद स्वागत और आचमनीय के बाद मधुपर्क | के समय शांतिधारा बोलते हुए तथा पूजन के पश्चात् शांतिपाठ है। किसी में स्तोत्र और प्रणाम भी है। जो वस्त्र और आभषण | के स्थान पर या उसके पश्चात् अनेक प्रकार के छोटे-बडे समर्पण करने में असमर्थ हैं, वह सोलह में से केवल दश शांतिमंत्र बोलने का प्रचार बढ़ता जा रहा है। इन शांतिमंत्रों में उपचारवाली पूजा करता है। जो इसे भी करने में असमर्थ हैं, | बोले जाने वाले पदों एवं वाक्यों पर बोलने वालों का ध्यान जाना वह केवल पुष्पोपचारी पूजा करता है। चाहिए कि क्या हमारे वीतरागी जिनदेव कोई अस्त्र-शस्त्र लेकर प्रतिष्ठित प्रतिमा में आवाहन और विसर्जन नहीं होता, | बैठे हुए हैं। जो कि हमारे द्वारा 'सर्वशत्रु छिन्द छिन्द, भिन्द केवल चौदह ही उपचार होते हैं। अथवा आवाहन और विसर्जन | भिन्द ' बोलने पर हमारे शत्रुओं का विनाश कर देंगे। फिर यह के स्थान में मंत्रोच्चारण पूर्वक पुष्पांजलि दी जाती है। नवीन | भी तो विचारणीय है कि हमारा शत्रु भी तो यही पद या वाक्य प्रतिमा में सोलह उपचारवाली ही पूजा होती है। बोल सकता है ! तब वैसी दशा में जिनदेव आपकी इष्ट प्रार्थना जैन पूजापद्धति को कार्य रूप से परिणत करेंगे या आपके शत्रु की प्रार्थना पर उक्त पजापद्धति को जैन परंपरा में किस प्रकार से | ध्यान देंगे? वास्तविक बात यह है कि क्रियाकाण्डी भट्टारकों ने परिविर्धित करके अपनाया गया है, यह उमास्वामी श्रावकाचार | ब्राह्मणी शांतिपाठ आदि की नकल करके उक्त प्रकार के पाठों के श्लोक १३६ और १३७ में देखिये। यहाँ डक्कीस प्रकार की | को जिनदेवों के नामों के साथ जैन रूप देने का प्रयास किया है बतलायी गयी है। यथा - १. स्नान पूजा, २. विलेपनपूजा, ३. और सम्यक्त्व के स्थान पर मिथ्यात्व का प्रचार किया है। आभूषणपूजा, ४. पुष्पपूजा, ५. सुगंधपूजा, ६. धुप-पूजा. ७. | वास्तविक शांतिपाठ तो 'क्षेमं सर्वप्रजानां' आदि श्लोकोंवाला ही प्रदीपपूजा, ८. फलपूजा, ९. तन्दुलपूजा, १०. पत्रपूजा, ११. पत्रपजा. ११. | है। जिसमें सर्व सौख्यप्रदायी जिन धर्म के प्रचार की भावना की पुंगीफलपूजा, १२. नैवेद्यपूजा, १३. जलपूजा, १४. वसनपजा. | गई है और अन्त में 'कुर्वन्तु जगत: शांति वृषभाद्या जिनेश्वराः' १५. चमरपूजा, १६. छत्रपूजा, १७. वादित्रपूजा, १८. गीतपूजा, | का नि:स्वाथ, निष्काम भावना भाया गया है। १९. नृत्यपूजा, २०. स्वस्तिक पूजा और २१. कोषवृद्धिपूजा | जैन पद्धति से की जानेवाली विवाह-विधि के अंत में 12 फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा मूर्ति प्रतिष्ठा के अंत में किया जाने वाला पुण्याहवाचन भी | कोटि-गुणित बतलाया है। जैसा कि इस अत्यंत प्रसिद्ध श्लोकों से सिद्ध है वैदिक पद्धति के अनुकरण है और नियत परिणाम में किये जाने वाले मंत्रजापों के दशमांश प्रमाण हवन आदि का किया कराया जाना भी अन्य सम्प्रदाय का अन्धानुसरण है, फिर भले ही उसे जैनाचार में किसी ने भी सम्मिलित क्यों न किया हो? ! जैनधर्म की सारी भित्ति सम्यक्तवरूप मूल नींव पर आश्रित है। सम्यक्त्व के दूसरे नि:कांक्षित अंग के स्वरूप में बतलाया गया है कि धर्म धारण करके उसके फलस्वरूप किसी भी लौकिक लाभ की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए। यदि कोई जैनी इस नि:कांक्षित अंग का पालन नहीं करता है, प्रत्युत धर्मसाधन या अमुक मंत्र जाप से किसी लौकिक लाभ की कामना करता है, तो उसे मिथ्यात्वी जानना चाहिए। स्नपन, पूजन, स्तोत्र, जप, ध्यान और लय सोमदेव ने अपने उपासकाध्ययन में सामायिक शिक्षाव्रत के अंतर्गत देवपूजन का विधान किया है और देवपूजा के समय छह क्रियाओं के करने का उल्लेख कर उनका विस्तृत वर्णन किया है । वे छह क्रियाएँ इस प्रकार हैं स्नपनं पूजनं स्तोत्रं जपो ध्यानं श्रुतस्तवः । षोढा क्रियोदिता सद्भिर्देवसेवासु गेहिनाम् ॥ (भाग १, पृष्ठ २२९, श्लोक ८८०) अर्थात - संत पुरुषों ने गृहस्थों के लिए देवोपासना के समय स्नपन, पूजन, स्तोत्र, जप, ध्यान और श्रुतस्तव (शास्त्रभक्ति और स्वाध्याय) इन छह क्रियाओं का विधान किया है। स्नपन नाम अभिषेक का है। इसका विचार' जलाभिषेक या पञ्चामृताभिषेक' शीर्षक में पहिले किया जा चुका है। स्नपन यतः पूजन का ही अंग है, अतः उसका फल भी पूजन के ही अंतर्गत जानना चाहिए। हालांकि आचार्यों ने एक-एक द्रव्य से पूजन करने का और जल - दुग्ध आदि के अभिषेक करने का फल पृथक्-पृथक् कहा है। पर उन सबका अर्थ स्वर्ग प्राप्ति रूप एक ही है। श्रुतस्तव नाम सबहुमान जिनागम की भक्ति करना और उसका स्वाध्याय करना श्रुतस्तव कहलाता है। स्नपन पूजन और श्रुतस्तव के सिवाय शेष जो तीन कर्त्तव्य और कहे हैं - जप, ध्यान और लय । इनका स्वरूप आगे कहा जा रहा है। सर्व साधारण लोग पूजा, जप आदि को ईश्वर आराधना के समान प्रकार समझकर उनके फलको भी एक सा ही समझते हैं। कोई विचारक पूजा को श्रेष्ठ समझता है तो कोई जप ध्यान आदि को । पर शास्त्रीय दृष्टि से जब हम इन पाँचों के स्वरूप का विचार करते हैं तो हमें उनके स्वरूप में ही नहीं, फल में भी महान् अंतर दृष्टिगोचर होता है। आचार्यों ने इनके फलको उत्तरोत्तर - पूजाकोटिसमं स्तोत्रं स्तोत्र कोटिसमो जपः । जप- कोटिसमं ध्यानं ध्यान - कोटिसमो लयः ॥ अर्थात् - एक कोटिवार पूजा करने का जो फल है, उतना फल एक बार स्तोत्र पाठ करने में है। कोटि बार स्तोत्र पढ़ने से जो फल होता है, उतना फल एक बार जप करने में होता है। इसी प्रकार कोटि जप के समान एक बार के ध्यान का फल और कोटि ध्यान के समान एक वारके लयका फल जानना चाहिए। पाठकगण शायद उक्त फलको बांचकर चौंकेंगे और कहेंगे कि ध्यान और लयका फल तो उत्तरोत्तर कोटिगुणित हो सकता है,पर पूजा, स्तोत्र और जपका उत्तरोत्तर कोटि-गुणित फल कैसे संभव है? उनके समाधानार्थ यहाँ उनके स्वरूप पर कुछ प्रकाश डाला जाता है। - 1. पूजा : पूज्य पुरुषों के सम्मुख जाने पर अथवा उनके अभाव में उनकी प्रतिकृतियों के सम्मुख जाने पर सेवाभक्ति करना, सत्कार करना, उनकी प्रदक्षिणा करना, नमस्कार करना, उनके गुणगान करना और घर से लाई हुई भेंट को उन्हें समर्पण करना पूजा कहलाती है। वर्तमान में विभिन्न सम्प्रदायों के भीतर जो हम पूज्य पुरुषों की उपासना आराधना के विभिन्न प्रकार के रूप देखते हैं, वे सब पूजा के ही अंतर्गत जानना चाहिए। जैनाचार्यों ने पूजा के भेद-प्रभेदों का बहुत ही उत्तम रीति से सांगोपांग वर्णन किया है । प्रकृत में हमें स्थापना पूजा और द्रव्य पूजा से प्रयोजन है। क्योंकि भाव- पूजा में तो स्तोत्र, जप आदि सभी का समावेश हो जाता है। हमें यहाँ वर्तमान में प्रचलित पद्धति वाली पूजा ही विवक्षित है और जन-साधारण भी पूजा-अर्चासे स्थापना पूजा या द्रव्यपूजा का ही अर्थ ग्रहण करते हैं । 2. स्तोत्र : वचनों के द्वारा गुणों की प्रशंसा करने को स्तवन या स्तुति कहते हैं । जैसा अरहंत देव के लिए कहना - तुम वीतराग विज्ञान से भरपूर हो, मोहरूप अंधकार के नाश करने के लिए सूर्य के समान हो आदि। इसी प्रकार की अनेक स्तुतियों के समुदाय को स्तोत्र कहते हैं। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगला, कनड़ी, तमिल आदि भाषाओं स्वया परनिर्मित गद्य या पद्य रचना के द्वारा पूज्य पुरुषों की प्रशंसा में वचन प्रकट किये जाते हैं उन्हें स्तोत्र कहते हैं । 3. जप : देवता वाचक या बीजाक्षररूप मंत्र आदि के अन्तर्जल्परूप से बार-बार उच्चारण करने को तप कहते हैं । परमेष्ठी - वाचक विभिन्न मंत्रों का किसी नियत परिमाण में स्मरण करना जप कहलाता है। 1 'फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित 13 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. ध्यान : किसी ध्येय वस्तु का मन ही मन चिन्तन | करना ध्यान कहलाता है। ध्यान शब्द का यह यौगिक अर्थ है । सर्व प्रकार के संकल्प विकल्पों का अभाव होना चिन्ता का निरोध होना यह ध्यान शब्द का रूढ अर्थ है, जो वस्तुतः लय या समाधि के अर्थ को प्रकट करता है । 5. लय - एकरूपता, तल्लीनता या साम्य अवस्था का नाम लय है। साधक किसी ध्येय विशेष का चिन्तवन करता हुआ जब उसमें तन्मय हो जाता है उसके भीतर सर्वप्रकार के संकल्प विकल्पों और चिंताओं का अभाव हो जाता है और जब परम समाधिरूप निर्विकल्प दशा प्रकट होती है, तब उसे लय कहते हैं । पूजा, स्तोत्र आदि के उक्त स्वरूप का सूक्ष्म दृष्टि से अवलोकन करने और गंभीरता से विचारने पर यह अनुभव हुए बिना न रहेगा कि ऊपर जो इनका उत्तरोत्तर कोटि गुणित फल बतलाया गया है, वह वस्तुतः ठीक ही है। इसका कारण यह है कि पूजा में बाह्य वस्तुओं का आलंबन और पूजा करने वाले व्यक्ति के हस्तादि अंगों का संचालन प्रधान रहता है। और यह प्रत्येक शास्त्राभ्यासी जानता है कि बाहरी द्रव्य क्रियाओं से भीतरी भावरूप क्रियाओं का महत्व बहुत अधिक होता है। असैनी पंचेन्द्रिय तिर्यंच यदि अत्यधिक संक्लेश युक्त होकर भी मोह कर्म का बंध करे, तो एक हजार सागर से अधिक का नहीं कर सकेगा, जब कि संज्ञी पंचेन्द्रिय साधारण मनुष्य की तो बात रहने दें, अत्यंत मंदकषायी और विशुद्ध परिणामवाला अप्रमत्तसंयत साधु भी अन्तः कोटाकोटी सागरोपम की स्थिति वाले कर्मों का बंध करेगा, जो कई करोड़ सागर प्रमाण होता है। इन दोनों के बंधने वाले कर्मों की स्थिति में इतना महान् अंतर केवल मनके सद्भाव और अभाव के कारण ही होता है । प्रकृत में इसके कहने का अभिप्राय यह है कि किसी भी व्यक्ति विशेष का भले ही वह देव जैसा प्रतिष्ठित और महान् क्यों न हो-स्वागत और सत्कारादि तो अन्यमनस्क होकर भी संभव है पर उसके गुणों का सुंदर, सरल और मधुर शब्दों में वर्णन अनन्य मनस्क या भक्ति-भरित हुए बिना संभव नहीं है। यहाँ यह एक बात ध्यान में रखना आवश्यक है दूसरे के द्वारा निर्मित पूजा-पाठ या स्तोत्र उच्चारण का उक्त फल नहीं बतलाया गया है । किन्तु भक्त द्वारा स्वयं निर्मित पूजा, स्तोत्र पाठ आदि का यह फल बतलाया गया है। पुराणों के कथानकों से भी इसी बात की पुष्टि होती है। दो एक अपवादों को छोड़कर किसी भी कथानक में एक बार पूजा करने का वैसा चमत्कारी फल दृष्टिगोचर नहीं होता, जैसा कि भक्तामर, कल्याण मंदिर, एकीभाव, विषापहार, स्वयम्भू स्तोत्र आदि के रचयिताओं 14 फरवरी - मार्च 2005 जिनभाषित को प्राप्त हुआ है । स्तोत्र काव्यों की रचना करते हुए भक्त - स्तोता के हृदयरूप मानसरोवर से जो भक्ति - सरिता प्रवाहित होती है, वह अक्षत पुष्पादि के गुण बखानकर उन्हें चढ़ाने वाले पूजक के संभव नहीं है। पूजन का ध्यान पूजन की बाह्य सामग्री की स्वच्छता आदि पर ही रहता है, जबकि स्तुति करने वाले भक्त का ध्यान एकमात्र स्तुत्य व्यक्ति के विशिष्ट गुणों की ओर ही रहता है। वह एकाग्रचित होकर अपने स्तुत्य के एक-एक गुण का वर्णन मनोहर शब्दों के द्वारा व्यक्त करने में निमग्न रहता है। इस प्रकार पूजा और स्तोत्र का अंतर स्पष्ट लक्षित हो जाता है। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि पूजा पाठों में अष्टक के अनन्तर जो जयमाल पढ़ी जाती है, वह स्तोत्र का ही कुछ अंशों में रूपान्तर है । स्तोत्र पाठ से भी जपका माहात्म्य कोटि गुणित अधिक बतलाया जाता है। इसका कारण यह है कि स्तोत्र पाठ में तो बाहरी इंद्रियों और वचनों का व्यापार बना रहता है, परंतु जप में उस सबको रोककर और परिमित क्षेत्र में एक आसन से अवस्थित होकर मौन - पूर्वक अन्तर्जल्प के साथ आराध्य के नाम का उसके गुण वाचक मंत्रों का उच्चारण किया जाता है। अपने द्वारा उच्चारण किया हुआ शब्द स्वयं ही सुन सके और समीपस्थ व्यक्ति भी न सुन सके, जिसके उच्चारण करते हुए ओंठ कुछ फड़कते रहें, पर अक्षर बाहिर न निकलें, ऐसे भीतरी मंद एवं अव्यक्त या अस्फुट उच्चारण को अन्तर्जल्प कहते हैं । व्यवहार में देखा जाता है कि जो व्यक्ति सिद्धचक्रादिकी पूजा-पाठ में ६-६ घंटे लगातार खड़े रहते हैं, वे ही उसी सिद्धचक्र मंत्र का जप करते हुए आधे घंटे में ही घबड़ा जाते हैं, आसन डांवाडोल हो जाता है, और शरीर से पसीना झरने लगता है। इससे सिद्ध होता है कि पूजा-पाठ और स्तोत्रादि के उच्चारणसे भी अधिक इंद्रिय निग्रह जप करते समय करना पड़ता है और इसी इंद्रियनिग्रह के कारण जप का फल स्तोत्र से कोटि गुणित अधिक बतलाया गया है। क्रमशः श्रावकाचार संग्रह, भाग-४ से साभार जरूर सुनें सन्त शिरोमणि आचार्यरत्न श्री 108 विद्यासागर जी महाराज के आध्यात्मिक एवं सारगर्भित प्रवचनों का प्रसारण 'साधना चैनल पर प्रतिदिन रात्रि 9.30 से 10.00 बजे तक किया जा रहा है, अवश्य सुनें । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन और हिन्दू डॉ. ज्योति प्रसाद जैन 'प्रसिद्ध ऐतिहासज्ञ और बहुश्रुत विद्वान डा. ज्योति प्रसाद जी ने प्रस्तुत लेख में उन सभी मान्यताओं का खंडन किया है, जिनके आधार पर कतिपय कानूनविद् जैनों को हिन्दू समझते हैं। राष्ट्रनायक स्व.पं.जवाहरलाल जी नेहरू ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ 'डिस्कवरी ऑफ इण्डिया' में लिखा है कि जैन धर्म और बौद्ध धर्म निश्चय से न हिन्दू धर्म हैं और न वैदिक धर्म ही, तथापि उन दोनों का जन्म भारतवर्ष में हुआ और वे भारतीय जीवन संस्कृति एवं दार्शनिक चिंतन के अविभाज्य अंग रहे हैं। जैन धर्म अथवा बौद्ध धर्म भारतीय विचारधारा एवं सभ्यता की शत-प्रतिशत उपज हैं तथापि उनमें से कोई हिन्द नहीं है।' विद्वान लेखक ने अनेक प्रमाणों के आधार पर इसी बात को सिद्ध किया है जो पठनीय एवं तर्क सम्मत और यथार्थ है। क्या जैन हिन्दू हैं? अथवा, क्या जैनी हिन्दू नहीं हैं? ये | अध्ययन, शोधखोज, अनुसंधान, अन्वेषण और गवेषण के एक ही प्रश्न के दो पहलू हैं, और यह प्रश्न आधुनिक युग के परिणामस्वरूप प्राच्यविदों, प्ररातत्त्वज्ञों, इतिहासज्ञों एवं इतिहासकारों प्रारंभ से ही रह रह कर उठता रहा है। सन् 1950-55 के बीच तथा भारतीय धर्म, दर्शन, साहित्य और कला के विशेषज्ञों ने यह तो सन् 51 की भारतीय जनगणना, तदनन्तर हरिजन मंदिर प्रवेश तथ्य मान्य कर लिया है कि जैन धर्म भारतवर्ष का एक शुद्ध बिल एवं आंदोलन तथा भारतीय भिखारी अधिनियम आदि को | भारतीय, सर्वथा स्वतंत्र एवं अत्यंत प्राचीन धर्म है। उसकी लेकर इस प्रश्न ने पर्याप्त तीव्र वाद-विवाद का रूप ले लिया था। | परम्परा कदाचित वैदिक अथवा ब्राह्मणीय परंपरा से भी अधिक स्वयं जैनों में इस विषय के दो पक्ष रहे हैं- एक वो स्वयं | प्राचीन है। उसका अपना स्वतंत्र तत्त्वज्ञान है, स्वतंत्र दर्शन है, को हिन्दू परंपरा से पृथक् एवं स्वतंत्र घोषित करता रहा है और | स्वतंत्र अनुश्रुतिएँ एवं परम्पराएँ हैं, विशिष्ट आचार-विचार एवं दूसरा अपने आपको हिन्दू समाज का अंग मानने में कोई आपत्ति उपासना पद्धति है, जीवन और उसके लक्ष्य संबंधी विशिष्ट नहीं अनुभव करता। इसी प्रकार तथाकथित हिन्दुओं में भी दो पक्ष दृष्टिकोण है। अपने स्वतंत्र देवालय एवं तीर्थस्थल हैं। विशिष्ट रहे हैं जिनमें से एक तो जैनों को अपने से पृथक एक स्वतंत्र पर्व त्यौहार हैं। विविध विषयक एवं विभिन्न भाषा विषयक सम्प्रदाय मानता रहा है और दूसरा उन्हें हिन्दू समाज का ही एक | विपुल साहित्य हैं तथा उच्चकोटि की विविध एवं प्रचुर कलाकृतियाँ अंग घोषित करने में तत्पर दिखाई दिया है। वास्तव में यह प्रश्न हैं। इस प्रकार एक सुस्पष्ट एवं सुप्रसिद्ध संस्कृत से समन्वित यह उतना तात्विक नहीं जितना कि वह ऐतिहासिक है। जैन धर्म भारतवर्ष की श्रमण नामक प्राय: सर्वप्राचीन सांस्कृतिक जैन या जैनी 'जिन' के उपासक या अनुयायी हैं।। एवं धार्मिक परम्परा का प्रागैतिहासिक काल से ही सजीव जिन,जितेन्द्र, जिनेष या जिनेश्वर उन अर्हत् केवलियों को कहते हैं प्रतिनिधित्व करता आया है। जिन्होंने श्रमपूर्वक तपश्चरणादि रूप आत्मशोधन की प्रक्रियाओं इस संबंध में कतिपय विशिष्ट विद्वानों के मन्तव्य दृष्टव्य द्वारा मनुष्य जन्म में ही परमात्मपद प्राप्त कर लिया है। उनमें से जो हैं (देखिए हमारी पुस्तक- जैनिज्म दी ओल्डेस्ट लिविंग संसार के समस्त प्राणियों के हितसुख के लिए धर्मतीर्थ की | रिलीजन) यथा... प्रो.जयचंद विद्यालंकर- 'जैनों के इस विश्वास स्थापना करते हैं वह तीर्थंकर कहलाते हैं। इन तीर्थंकरों द्वारा | को कि उनका धर्म अत्यंत प्राचीन है और महावीर के पूर्व अन्य आचारित, प्रतिपादित एवं प्रचारित धर्म ही जैन धर्म है और उसके | 23 तीर्थंकर हो चुके थे भ्रमपूर्ण और निराधार कहना तथा उन अनुयायी जैन या जैनी कहलाते हैं। विभिन्न समयों एवं प्रदेशों में | समस्त पूर्ववर्ती तीर्थंकरों को काल्पनिक एवं अनैतिहासिक मान वे भ्रमण, व्रात्य, निर्ग्रन्थ, श्रावक, सराक, सरावगी या सराओगी, लेना, न तो न्यायसंगत ही है और न उचित ही। भारतवर्ष का सेवरगान, समानी, सेवड़े, भावड़े, भव्य, अनेकांती, स्याद्वादी आदि | प्रारंभिक इतिहास उतना ही जैन है, जितना कि वह अपने विभिन्न नामों से भी प्रसिद्ध रहे हैं। आपको वेदों का अनुयायी कहने वालों का है।'(वही पू.१६) आधुनिक युग में लगभग सौ-सवासौ वर्ष पर्यन्त गंभीर | इसी विद्वान तथा डा.काशीप्रसाद जायसवाल के अनुसार अथर्ववेद -फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित 15 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि में उल्लिखित व्रात्य अथवा अब्राह्मणीय क्षत्रिय जैन धर्म के | भाषा को हिन्दी या हिन्दवी कहते थे। उनका यह सूबा भी हिन्द अनुयायी थे। (वही पृ.17) डा. राधाकृष्णन के अनुसार जैन धर्म | की सत्रयी (क्षत्रयी) कहलाता था और उनकी सेना का भी एक वर्धमान अथवा पार्श्वनाथ के भी बहुत पूर्व प्रचलित था (वही | अंग हिन्दी सेना था। पृ.20), तथा यह कि यजुर्वेद में ऋषभ, अजितनाथ और अरिष्टनेमि, | ईरानियों के द्वार से ही यनानियों को सर्वप्रथम इस देश का इन तीर्थंकरों का नामोल्लेख है, ऋग्वेदादि के यह उल्लेख तमाम, | ज्ञान हुआ और ईसा पूर्व 326 में सिकंदर महान के आक्रमण द्वारा ऋषभादि, विशिष्ट जैन तो तीर्थंकरों के ही हैं और भागवतपुराण से | उसके साथ उनका प्रत्यक्ष संपर्क हुआ। यूनानी लोग 'ह' का इस तथ्य की पुष्टि होती है कि ऋषभदेव ही जैनधर्म के प्रवर्तक | उच्चारण नहीं कर पाते थे। उन्होंने ईरानियों के हिन्द को 'इन्ड' थे(वही पृ.41-42)। कर दिया। वह हिन्दु (सिन्ध) नदी को 'इन्डस' कहने लगे और प्रो.पाजिस्टर, रहोड, एडकिन्स, ओल्डहस आदि विद्वानों | उसके तटवर्ती उस हिन्द (सिन्ध) प्रदेश या देश को इन्डिया का मत है कि वैदिक एवं हिन्दू पौराणिक साहित्य के असुर, | इन्डिका कहने लगे। जब सिंध नदी के इस पार के प्रदेश से उनका राक्षस आदि जैन ही थे। और डा.हरिसत्य भट्टाचार्य का कहना है | परिचय हुआ तो पूरे भारत देश को भी वे उसी नाम से पुकारने कि जैन और ब्राह्मणीय, दोनों परंपराओं के साहित्य के तुलनात्मक | लगे। रोम देश के निवासियों ने भी यूनानियों का ही अनुकरण अध्ययन से आधुनिक युग के कतिपय विद्वानों का यह साग्रह मत | किया और कालांतर में यूरोप की अन्य सब भाषाओं में भी है कि वैदिक परंपरा के अनुयायियों ने राक्षसों की जो अत्यधिक | भारतवर्ष का सूचन इन्ड, इन्डि, इन्डे, इन्डियेन, इन्डीस, इन्डिया निंदा, भर्त्सना की है उसका कारण यही है कि वे जैन थे। यह कि | आदि विभिन्न रूपों में हुआ जो सब एक ही मूल यूनानी शब्द की बाल्मीकि रामायण में राक्षस जाति का जैसा वर्णन है, उससे स्पष्ट | पर्याय हैं। इस प्रकार अंग्रेजी में भारतवर्ष के लिए इंडिया और है कि वे जैनों के अतिरिक्त अन्य कोई हो ही नहीं सकते और | भारतीय विशेषण के लिए इंडियन तथा इन्डो शब्द प्रचलित हुए। रामायण के रचयिता ने उनका जो वीभत्स चित्रण किया है वह चीनियों को भारतवर्ष की स्पष्ट जानकारी सर्पप्रथम दूसरी धार्मिक विद्वेष से प्रेरित होकर ही किया है (वही पृ.26,27,30)। | शताब्दी ईसवी पूर्व में उत्तरवर्ती हानवंश के सम्राट वूति के समय अन्य अनेक प्रख्यात विद्वानों ने जैन धर्म और उसके अनुयायियों | में हुई बताई जाती है और उस काल के एक चीनी ग्रंथ में उसका की स्वतंत्र सत्ता वैदिक परंपरा के ब्राह्मण (या हिन्दू) धर्म और | सर्वप्रथम उल्लेख हुआ बताया जाता है। उसमें सिन्धुनदी के लिए उसके अनुयायियों के उदय से पूर्व से चली आई निश्चित की है, - 'शिन्तु' शब्द प्रयुक्त हुआ है और यहाँ के निवासियों के लिए कुछ ने सिन्धु घाटी की प्रागेतिहासिक सभ्यता में भी जैन धर्म के | 'युआन्तु' अथवा 'यिन्तु' कालांतर में 'ध्यान्तु' शब्द का प्रयोग भी उस समय प्रचलित रहने के चिन्ह लक्ष्य किये हैं। (वही, पृ.39 | मिलता है।। आदि)। उसके ब्राह्मण (हिन्दू) धर्म की कोई शाखा या उपसम्प्रदाय सातवीं शताब्दी ई.से मुसलमान अरब इस देश में आने प्रारंभ होने का प्रायः सभी विद्वानों ने सबल प्रतिवाद किया है। हुए और वे ईरानियों के आक्रमण से इसे 'हिन्द' और इसके निवासियों अब 'हिन्दू' शब्द को लें। प्रथम तो यह शब्द भारतीय है | को अहले हिन्द कहने लगे।दसवीं शताब्दी के अंत में अफगानिस्तान ही नहीं, विदेशी है और अपेक्षाकृत पर्याप्त अर्वाचीन है। इतिहासकाल | को केन्द्र बनाकर तुर्क मुसलमानों का साम्राज्य स्थापित हुआ और वे में सर्वप्रथम जो विदेशी जाति भारतवर्ष और भारतीयों के स्पष्ट | गजनी के सुलतानों के रूप में भारतवर्ष पर लुटेरे आक्रमण करने लगे। संपर्क में आयी वह फ़ारसदेश के निवासी ईरानी थे। छठी शताब्दी | तुर्की का मूलस्थान चीन की पश्चिमी सीमा पर था और भारत एवं ईसा पूर्व में ईरान के शाहदारा ने भारतवर्ष के पश्चिमोत्तर सीमांत | चीन के बीच यातयात प्रायः उन्हीं के देश में होकर होता था। यह पर आक्रमण किया था और उसके कुछ भाग को उसने अपने राज्य | तुर्क लोग मुसलमान बनने के पूर्व चिरकाल तक बौद्धादि भारतीय में मिला लिया था तथा उसे उसकी एक क्षेत्रयी (सूबा) बना दिया | धर्मों के अनुयायी रहे थे अतएव दसवीं ग्यारहवीं शताब्दी में जब वे था। उस काल में वर्तमान अफ़गानिस्तान भी भारतवर्ष का ही एक | भारतवर्ष के संपर्क में आये तो चीनी, अरबी एवं फ़ारसी एवं फ़ारसी अंग समझा जाता था। ईरानी लोग सिंधु नदी के उस पार के प्रदेश | मिश्र प्रभाव के कारण वे इस देश को हिन्दुस्तान, यहाँ के निवासियों को भारत ही समझते थे। इस पार का समस्त प्रदेश उनके लिए को हिन्दू और यहाँ की भाषा को हिन्दवी कहने लगे। मध्यकाल के चिर काल तक अज्ञात बना रहा। ईरानी भाषा में 'स' को 'ह' हो । लगभग 700 वर्ष के मुसलमानी शासन में ये शब्द प्राय: व्यापक रूप जाता है, अतएव वह लोग सिंध नदी को दरियाए हिन्द कहते थे | से प्रचलित हो गये। और इस समस्त प्रदेश को मुल्के हिन्द, तथा उसके निवासियों एवं यह मुसलमान लोग समस्त मुसलमानेतर भारतीयों को, 16 फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो कि यहाँ के प्राचीन निवासी थे सामान्यतः स्थूल रूप से हिन्दू या अहले हनूद और उनके धर्म को हिन्दू मजहब कहते रहे हैं, वैसे उनके कोष में काफिर, जिम्मी, बुतपरस्त, दोजखी आदि अन्य अनेक सुशब्द भी थे जिन्हें वे भारतीयों के लिए बहुधा प्रयुक्त करते थे, हिन्दू शब्द का एक अर्थ वे 'चोर' भी करते थे। ये कथित हिन्दू एक ही धर्म के अनुयायी हैं। या एकाधिक परस्पर में स्वतंत्र धार्मिक परंपराओं के अनुयायी हैं । इसमें औसत मुसलमान की कोई दिलचस्पी नहीं थी, उसके लिए तो वे सब समान रूप से काफिर, बुतपरस्त, जाहिल और बेईमान थे। स्वयं भारतीयों को भी उन्हें यह तथ्य जानने की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि उनके लिए प्रायः सभी मुसलमान विधर्मी थे। किन्तु मुसलमानों में जो उदार विद्वान और जिज्ञासु थे यदि उन्होंने भारतीय समाज का कुछ गहरा अध्ययन किया था प्रशासकीय संयोगों से किन्हीं ऐसे तथ्यों के संपर्क में आए, तो उन्होंने सहज ही यह भी लक्ष्य कर लिया कि इन कथित हिन्दुओं में एक-दूसरे से स्वतंत्र कई धार्मिक परंपराएँ हैं और अनुयायियों की पृथक-पृथक सुसंगठित समाजें हैं। ऐसे विद्वानों ने या दर्शकों ने कथित हिन्दू समूह के बीच में जैनों की स्पष्ट सत्ता को बहुधा पहचान लिया। मुसलमान लेखकों के समानी, तायसी, सयूरगान, सराओगान, सेवड़े आदि जिन्हें उन्होंने ब्राह्मण धर्म के अनुयायियों से पृथक-पृथक सूचित किया है जैन ही थे। अबुलफ़जल ने तो आईने अकबरी में जैन धर्म और उसके अनुयायियों का हिन्दू धर्म एवं उसके अनुयायियों से सर्वथा स्वतंत्र एक प्राचीन परंपरा के रूप में विस्तृत वर्णन किया है। जब अंग्रेज भारत में आये तो उन्होंने भी प्रारंभिक मुसलमानों की भाँति स्वभावतः तथा उन्हीं का अनुकरण करते हुए, समस्त मुसलमानेतर भारतीयों (इण्डियन्स) को हिन्दू और उनके धर्म को हिन्दूइज्म समझा और कहा। किन्तु 18 वीं शती के अंतिमपाद में ही उन्होंने भारतीय संस्कृति का गंभीर अध्ययन एवं अन्वेषण भी प्रारंभ कर दिया था। और शीघ्र ही उन्हें यह स्पष्ट हो गया है कि हिन्दुओं और उनके धर्म से स्वतंत्र भी कुछ धर्म और उनके अनुयायी इस देश में है और वे भी प्राय: उतने ही प्राचीन एवं महत्वपूर्ण हैं। भले ही वर्तमान में वे अत्यधिक अल्पसंख्यक हों । 19 वीं शती के आरंभ में ही कोलबुक, डुबाय, टाड, फर्लांग, मेकेन्जी, विल्सन आदि प्राच्य विदों ने इस तथ्य को भली प्रकार समझ लिया था और प्रकाशित कर दिया था। फिर तो जैसे-जैसे अध्ययन बढ़ता चला गया यह बात स्पष्ट से स्पष्टतर होती चली गई। इन प्रारंभिक प्राच्यविदों ने कई प्रसंगों में ब्राह्मणादि कथित हिंदुओं के तीव्र जैन विद्वेष को भी लक्षित किया। 19 वीं शती के उत्तरार्ध में उत्तर भारत के अनेक नगरों में जैनों के रथ यात्रा आदि धर्मोत्सवों का जो तीव्र विरोध कथित हिंदुओं द्वारा हुआ वह भी सर्वविदित है। गत दर्शकों में यह गाँव, जबलपुर आदि में जैनों पर जो साम्प्रदायिक अत्याचार हुए और वर्तमान में बिजोलिया में जो उत्पात चल रहे हैं उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। हिन्दू महासभा में जैनों के स्वत्त्वों की सुरक्षा की व्यवस्था होती तो जैन महासभा की स्थापना की कदाचित आवश्यकता न होती। आर्यसमाज संस्थापक स्वामी दयानंद ने जैन धर्म और जैनों का उन्हें हिन्दू विरोधी कहकर खंडन किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या जनसंघ में भी वही संकीर्ण हिन्दू साम्प्रदायिक मनोवृत्ति दृष्टिगोचर होती है। स्वामी करपात्री जो आदि वर्तमान कालीन हिन्दूधर्म नेता भी हिन्दू धर्म का अर्थ वैदिक धर्म अथवा उससे निसृत शैव वैष्णवादि सम्प्रदाय ही करते हैं। अंग्रेजी कोष ग्रंथों में भी हिन्दूइज़्म (हिन्दू धर्म) का अर्थ ब्रह्मनिज़्म (ब्राह्मण धर्म) ही किया गया है। इस प्रकार मूल वैदिक धर्म तथा वैदिक परंपरा में ही समय-समय पर उत्पन्न होते रहने वाले अनगिनत अवांतर भेद प्रभेद, यथा याज्ञिक कर्मकाण्ड और औपनिषदिक अध्यात्मवाद, श्रौत और स्मार्त, सांख्य-योग-वैशेषिक-न्याय-मीमांसा-वेदांत आदि तथाकथित आस्तिक दर्शन और बार्हस्पत्य-लोकायत वा चार्वाक जैसे नास्तिक दर्शन, भागवत एवं पाशुपत जैसे प्रारंभिक पौराणिक सम्प्रदाय और शैव-शाक्त-वैष्णवादि उत्तरकालीन पौराणिक सम्प्रदाय, इन सम्प्रदायों के भी अनेक उपसम्प्रदाय, पूर्व मध्यकालीन सिद्धों और जोगियों के पंथ जिनमें तांत्रिक, अघोरी और वाममार्गी भी सम्मिलित हैं, मध्यकालीन निर्गुण एवं सगुण संत परंपराएँ, आधुनिकयुगीन आर्यसमाज, प्रार्थनासमाज, राधास्वामी मत आदि तथा असंख्य देवी-देवताओं की पूजा भक्ति जिनमें नाग, वृक्ष, ग्राम्यदेवता, वनदेवता आदि भी सम्मिलित हैं, नाना प्रकार के अंधविश्वास, जादू टोना, इत्यादि में से प्रत्येक भी और ये सब मिलकर भी 'हिन्दूधर्म' संज्ञा से सूचित होते हैं । इस हिन्दू धर्म की प्रमुख विशेषताएँ हैं ऋग्वेदादि ब्राह्मणीय वेदों को प्रमाण मानना, ईश्वर को सृष्टि का कर्त्ता, पालनकर्त्ता और हर्त्ता मानना, अवतारवाद में आस्था रखना, वर्णाश्रम धर्म को मान्य करना, गो एवं ब्राह्मण का देवता तुल्य पूजा करना, मनुस्मृति आदि स्मृतियों को व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन-व्यापार का नियामक विधान स्वीकार करना, महाभारत, रामायण एवं ब्राह्मणीय पुराणों को धर्मशास्त्र मानना, मृत पित्रों का श्राद्धतर्पण पिण्डदानादि करना, तीर्थस्नान को पुण्य मानना, विशिष्ट देवताओं को हिंसक पशुबलि, कभी नरबलि भी देना इत्यादि । क्रमशः श्री तनसुखराय स्मृतिग्रन्थ से साभार फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित 17 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामयिक चिंतन मूलचन्द लुहाड़िया श्री सूरजमल जी जैन ने एक लेख में जैन तीर्थंकर की | करना उपयुक्त नहीं है। प्रतिमाओं के अभिषेक के औचित्य एवं उपयोगिता पर प्रश्न चिन्ह | यह अवश्य है कि पूजा अभिषेक आदि क्रियाओं में लगाया है। उनका मुख्य तर्क यह है कि तीर्थंकरों के मुनि अवस्था | अहिंसा धर्म की पालना का ध्यान रखा जाना अत्यंत आवश्यक है में स्नान का निषेध होने से अभिषेक नहीं होता और अहँत अन्यथा परिणामों की वांछित विशुद्धि भी प्राप्त नहीं हो पायेगी। अवस्था में भी अभिषेक नहीं होता अत: उन तीर्थंकरों की प्रतिमा | आचार्य समंतभद्र देव द्वारा स्थापित 'सावधलेशो बहु पुण्य राशौ' का भी अभिषेक नहीं किया जाना चाहिए। इस बात पर विचार | के सिद्धांत के अनुसार इन क्रियाओं में न्यूनतन सावध हो और करने के लिए यह समझ लेना आवश्यक है कि जिनेन्द्र भगवान | अधिकतम परिणामों की विशुद्धि प्राप्त हो यह विवेक और सावधानी और जिन प्रतिमा दोनों भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं। यद्यपि जिन प्रतिमा तो आवश्यक है। जिनेन्द्र भगवान की प्रतिकृति है तथापि दोनों की पदार्थ भिन्नता के गंधोदक किसी लौकिक लाभ की मान्यता से नहीं लगाया कारण उनके प्रति हमारे व्यवहार में भी भिन्नता होना स्वाभाविक | जाता है अपितु जिस प्रकार पूज्य जिनेन्द्र देव की चरण रज मस्तक है। जिनेन्द्र भगवान चेतन हैं किंतु प्रतिमा जड़ है। उपासक जड़ पर लगाना व चरण स्पर्श करना उनके प्रति विनय का प्रतीक है प्रतिमा को यद्यपि साक्षात् चेतन भगवान मानते हुए उपासना करता | उसी प्रकार गंधोदक लगाना भी विनय प्रदर्शन का ही अंग है। है। तथापि वह जड़ प्रतिमा के कारण प्राप्त भगवान के प्रति अपनी | जिनेन्द्र भगवान किसी का भला बुरा नहीं करते किंतु उनके गुणों विनयाभिव्यक्ति के अतिरिक्त प्रकारों का लाभ उठाने का लोभ भी | में अनुराग रखते हुए भक्ति करने वाले उपासक के परिणामों की संवरण नहीं कर पाता है। अभिषेक भक्ति एवं विनय की अभिव्यक्ति विशुद्धि के कारण उसका स्वतः भला हो जाता है। आचार्य का एक सशक्त माध्यम है जो साक्षात अर्हत भगवान के प्रसंग में | समंतभद्र कहते हैं: प्राप्त नहीं हो पाता है। अतः अहँत प्रतिमा का अभिषेक सहज 'न पूजयार्थ स्त्वयि वीतरागे। न निदंया नाथ विवांत वैरे। उपलब्ध होने पर उपासक अपने परिणामों की विशुद्धि के इस तथापि ते पुण्य गुण स्मतिर्न । पुनातु चित्तं दुरितांजनेभ्यः॥' निमित्त का लाभ उठाने से वंचित कैसे रह सकता है? अभिषेक पूजा वंदना आदि शुभ क्रियाएँ परिणामों की विशुद्धि की पाठ में कवि ने उपासक की भावना व्यक्त करते हुए लिखा है:- साधक होने से हितकारी है अतः उपादेय हैं। किंतु साधन को 'पापाचरण तजि न्हवन करता चित्त में ऐसे धरूं। साधन समझकर परिणामों की विशुद्धि रूप साध्य को सिद्ध करने साक्षात् श्री अहँत का मानो न्हवन परसन करूँ॥ की दृष्टि रहनी चाहिए। यदि साधन को ही साध्य समझकर साध्य ऐसे विमल परिणाम होते अशुभ नशि शुभ बंधतें। को विस्मृत करते हुए साधन में ही अटक कर रह जायेगा तो साध्य विधि अशुभ नशि शुभ बंध द्वैतै शर्म सब विधि तास तें॥' | प्राप्त नहीं हो पायेगा। जिस प्रकार साध्य निरपेक्ष साधन व्यर्थ है उपासक के द्वारा उपासना के अंग के रूप में जिनेन्द्र | उसी प्रकार साधन निरपेक्ष साध्य की चर्चा कार्यकारी नहीं है। प्रतिमाओं का अभिषेक किए जाने का विधान प्राचीन जैन आगम | 'हतं ज्ञानं क्रिया हीनं हताचाज्ञानिनां क्रिया।' अस्तु अनेकांत दृष्टि में अनेक स्थलों पर प्राप्त है। ही हितकारी है। तिलोय पण्णत्ति भाग 3 गाथा 104 - यह सत्य है कि इन दिनों किन्हीं साधुओं के द्वारा केवल कुव्वंते अभिसेयं महाविभूदीहि ताण देविंप्त। क्रियाकांड पर अत्यधिक जोर दिया जा रहा है। अधिक खेद की कंचण कमल मादेहिं विडल जलेहिं सुगंधेहि॥104॥ | बात तो यह है कि जिनेन्द्र भगवान को छोड़कर रागी द्वेषी देवी देवेन्द्र महान विभूति के साथ उन जिन प्रतिमाओं का स्वर्ण | देवताओं की पूजा आराधना विशेष रूप से की जाने लगी है। कलशों से भरे हुए विपुल सुगंधित जल से अभिषेक करते हैं। आगम ज्ञान शून्य जनसाधारण में लौकिक सिद्धिओं की प्राप्ति एवं आचार्य पूज्यपादकृत नन्दीश्वर भक्ति के श्लोक सं.15 में | संकट दूर होने का लोभ जाग्रत कर योजनाबद्ध रूप से इस भाव भेदेन वर्णना का सौधर्मः स्नपन कर्तृता मापन्नः। | निरपेक्ष क्रिया कांड में उलझाया जा रहा है। अध्यात्म प्रधान परिचारक भाव मिता:शेषेन्द्र रून्द्रचन्द्रनिर्मल यशसः।n5 | वैज्ञानिक जैन धर्म पर आई यह संकट की स्थिति वस्तुत: चिंतनीय उन प्रतिमाओं के अभिषेक कार्य में रत हुआ उस भक्ति | है। काश हमारे साधु विद्वान और नेतागण इस वीतराग जैनधर्म के पूर्ण दृश्य का क्या वर्णन किया जा सकता है। शेष इन्द्र भी उस | इस हो रहे अवर्णवाद को रोक कर धर्म के आध्यात्मिक मूल्यों की अभिषेक कार्य में सहयोगी बनकर पूर्ण चन्द्रमा के समान यश प्राप्त | पुनर्स्थापना करने की दिशा में प्रयत्नशील हों। करते हैं। अतः एकांत भावातिरेक वश प्रतिमाभिषेक का निषेध । मदनगंज -किशनगढ़ (राजस्थान ) 18 फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमहाविद्यालय के अमूर्तशिल्पी, सोलहवानी के सुवर्ण: श्रद्धेय वर्णी जी किसी भी सामाजिक संस्था को अपने शताब्दी वर्ष की महायात्रा सम्पन्न करना अपने आप में एक अद्वितीय उपलब्धि हुआ करती है । अत्यंत हर्ष की बात है कि विपरीत परिस्थितियों में पुनीत भावना से स्थापित किया गया जैन समाज का प्रथम स्याद्वादमहाविद्यालय अपना शतक पूर्ण करते हुए शताब्दी वर्ष समारोह के साथ अपने संस्थापक, युगपुरुष, परमश्रद्धेय क्षु. १०५ गणेश प्रसादवर्णी जी की यशोगाथा गा रहा है। काल की तीव्रगति के साथ व्यक्ति की इहलीला समाप्त होते ही समाज उसको भुला देती है। किन्तु श्रद्धेय वर्णी जी इसके अपवाद हैं। जो काल पर भी विजय प्राप्त कर चिरस्मरणीय हो गये हैं। जिस प्रकार खदान से निकला हुआ सुवर्ण सोलह बार अग्नि का ताप प्राप्त कर पूर्ण शुद्धता को प्राप्त होता हुआ सोलहवानी का सुवर्ण कहलाता है । उसी प्रकार बुंदेलखण्ड की रत्नगर्भा पावनभूमि में जन्म लेकर अज्ञान के गहनवातावरण में जिन्हें ज्ञान का द्वीप प्रज्जवलित करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ अनेकों शिक्षा संस्थाओं को जन्म देकर बुंदेलखण्ड को विद्वानों की खान बनाने वाले, लोकोत्तर साधक के महानगुणों के प्रति बढ़ते हुए तीव्र गुणानुराग से प्रेरित होकर नन्हीं सी मेधा एवं लड़खड़ाती लेखनी से निस्रत सोलह विशेषताओं के साथ अपनी श्रद्धा का एक जिनवाणी शिशु ने समर्पण किया है। आशा है पाठकगण इस महापुरुष के जीवन चरित्र से अपने चरित्र को निर्मल बनायेंगे । 1. अटूट आस्था के मेरु शिखर : वैष्णव कुल में जन्म लिया, शिक्षा का प्रारंभ भी ब्राह्मण गुरु के द्वारा वैष्णव पाठशाला में हुआ । माता, पत्र एवं अन्य संबंधी सभी वैष्णव धर्म के कट्टर अनुयायी थे। सभी के द्वारा उपेक्षित एवं जाति से बहिष्कृत होने पर भी पूर्वभव के प्रबल संस्कार तथा अपने पिता श्री हीरालाल जी से प्राप्त णमोकार मंत्र के प्रति अत्यधिक श्रद्धा ने आपको न केवल जैन धर्म के प्रति आकर्षित किया अपितु अजैन से सच्चा जैनी बना दिया। आपकी जिनेन्द्रदेव एवं माँ जिनवाणी के प्रति अटूट भक्ति थी। परिणामतः अनेक विस्मयकारी कार्य हुए। शाश्वत् तीर्थ क्षेत्र सम्मेदशिखर जी की परिक्रमा करते हुए भीषणगर्मी में मार्ग भटक गए, जल के अभाव में प्राण कंठ में आ गए। सच्चे हृदय से पार्श्वप्रभु को स्मरण करते ही शीतल जल से भरा हुआ झरना मिल गया । पेटभर पानी पिया और श्रद्धा को भी बल मिल गया। आपके जीवन में अनेक प्रतिकूल परिस्थितियाँ आईं लेकिन बड़ी से बड़ी प्रतिकूलता आपकी आस्था को नहीं डिगा सकी। आप सच्चे अर्थों में एक सम्यग्दृष्टि पुरुष थे, आपके जीवन में ब्र. संदीप 'सरल' सम्यग्दर्शन के आठों अंग परिलक्षित होते थे । 2. अचल साहसिक संकल्प के धनी : मेरी जीवन गाथा पढ़ने पर ज्ञात होता है कि रुग्णावस्था, विपन्नावस्था, शास्त्रज्ञान से शून्यावस्था, समाज द्वारा उपेक्षित एवं एक विद्वान द्वारा अपमानित होने पर इन सभी अवस्थाओं को कर्मोदय जन्य मानते हुए पैदल यात्राएँ भी की, सड़क पर मिट्टी डालने के कार्य से भी पीछे नहीं हटे, अपने सामान की चोरी होने पर दो पैसे के चने चबाकर उदरपूर्ति जैसी परिस्थितियों में भी संकल्प से विचलित नहीं हुए । जैन दर्शन के अध्ययन की पिपासा लेकर एक पण्डित जी के पास पहुँचे, किन्तु तुम जैन हो, हम नहीं पढ़ा सकते। इस अपमान के घूँट को नहीं पी सके और संकल्प कर लिया कि इसी काशी में विद्यालय की स्थापना करने के पहले चैन से नहीं बैठूंगा और उन्होंने कठिनाईयों से जूझते हुए अपने संकल्प का परिचायक स्याद्वादमहाविद्यालय खड़ा कर दिया। 3. विनम्रता सरलता के धनी : आपका जीवन अत्यधिक विनम्र था। सरलता तो कूट-कूट कर भरी हुई थी। आपके संपर्क में आने वाले धीमान्-श्रीमान् सभी सरलता का पाठ पढ़कर नतमस्तक हो जाया करते थे। आपने अपने अध्ययनकाल में जिनजिन गुरुओं से ज्ञानार्जन किया, उनके हृदय में भी आपकी सरलताविनयसम्पन्नता ने अमिटस्थान बनाया था। न्यायग्रंथ अष्टसहस्री के अध्ययन पूर्ण होने पर आपने अपने गुरु अम्बादास शास्त्री को हीरे की अंगूठी समर्पित करते हुए कहा कि आज मैं इतना प्रसन्न हूँ कि यदि मेरे पास राज्य होता तो पूरा राज्य ही समर्पित कर देता । ज्ञान और ज्ञानवानों के प्रति इतनी प्रगाढ़ विनम्रता वर्णी जी के जीवन में थी । 4. अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी : आपका पूरा समय ज्ञानदेवी की उपासना में ही लगा रहता था । निरंतर ज्ञानाभ्यास में संलग्न रहने वाले इन महामनीषी ने अपने जीवन की सारी श्वांसें ज्ञान के प्रचार-प्रसार के साथ स्व को पाने में ही लगाई। वर्णी वाणी के 4 खण्ड, समयसार ग्रंथ की टीका एवं मेरी जीवन गाथा के दोनों खण्ड एवं हजारों पत्र जो कि आध्यात्मिकता से भरे हुए हैं आपके अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग के ही परिचायक हैं। 5. ज्ञानरथ के प्रवर्तक : कुरीतियों एवं अज्ञानता की राजधानी इस बुंदेलखण्ड में वर्णी जी ने अनुभव किया कि ज्ञान के अभाव में धर्मप्रभावना के नाम पर कोरे क्रियाकाण्ड में जनता उलझी हुई है। आपने धार्मिक शिक्षा महत्व को समझाते हुए । बुंदेलखण्ड में परिभ्रमण करते हुए अपनी सरल भाषा में ज्ञान की फरवरी मार्च 2005 जिनभाषित 19 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महिमा को उजागर करते हुए नगर-नगर में रात्रिकालीन पाठशालाएँ । प्रारंभ करवाईं। स्याद्वादमहाविद्यालय काशी, के अलावा अनेकों विद्यालयों की न सिर्फ स्थापना करवाई अपितु उनके सम्यक् संचालन हेतु आर्थिक संसाधन जुटवाने के लिए समाज को प्रेरित करते रहे । वर्णी जी द्वारा स्थापित इन विद्यालयों से विद्वानों की एक धुरंधर टीम तैयार हुई। जिसने समाज में जनचेतना जाग्रत करने का अच्छा कार्य किया। अपने जीवन के अंतिम समय तक इन ज्ञानरथों के संचालन की प्रेरणा देते रहे । आवश्यकता है कि वर्णी जी द्वारा स्थापित इन विद्यालयों को गति देते रहें । 6. कुशलसमाज सुधारक : अज्ञानता एवं रूढ़ियों से ग्रसित समाज में वर्णी जी ने एक कुशल समाज सुधारक के रूप में कार्य किया है। अनेक पीढ़ियों से उपेक्षित अनेक परिवारों को समाज में सम्मिलित किया। इस प्रकार की अनेकों घटनाओं का उल्लेख मेरी जीवन गाथा में दिया हुआ है। 7. उपेक्षित नारी समाज के उन्नायक : वर्णी जी के समय में नारी समाज की उपेक्षा बहुत थी। शिक्षा के क्षेत्र में नारी समाज को कोई स्थान नहीं था। मंदिरों में शास्त्र स्वाध्याय भी महिलायें नहीं कर सकती थीं। वर्णी जी ने इस दिशा में उल्लेखनीय कार्य किये। आपने प्रवचनों में कहा - 'एक सुशिक्षित, सभ्य, सदाचारिणी, धर्मपरायण माँ अपने बच्चों में जो संस्कार दे सकती है, उन संस्कारों को सौ शिक्षक भी मिलकर नहीं दे सकते हैं। जिस कार्य को करने में राज्य सत्ता भी हार मानती है उस कार्य को सदाचारिणी स्त्री समाज सहज ही कर सकती है। पंचमकाल में यदि चतुर्थकाल का दृश्य देखना हो तो स्त्रीसमाज की उपेक्षा न कर उसे सुशिक्षित किया जावे' इस प्रकार के प्रेरक उपदेश देते हुए गया में महिला कालेज का उद्घाटन करवाया। सागर और ईसरी में विधवा महिला आश्रम खुलवाकर महिलाओं को गौरवपूर्ण स्थान दिलवाया। समाज में एक चेतना जाग्रत हुई और स्त्री समाज शिक्षा का प्रचार प्रसार तीव्र गति से हुआ । 8. उदारहृदय की बेजोड़ मिसाल : वर्णी जी का हृदय अत्यंत उदार एवं सहिष्णु था । वे किसी भी प्राणी को क्षणभर के लिए भी दुःखी नहीं देख सकते थे। स्वयं दुःख में पड़कर दूसरों के दुःख दूर करने के लिए सदैव तत्पर रहते थे। उनकी यह उदारता मानव प्राणी तक ही सीमित नहीं थी अपितु पशुओं के प्रति भी उतने ही उदार थे। सागर की एक घटना है - एक गधा नाले में गिर गया था और सभी चिल्ला रहे थे कि गधा मर जायेगा, निकालो, किन्तु कोई भी आगे नहीं बढ़ रहा था। वर्णी जी उस समय ब्रह्मचारी थे, कुछ बच्चों को लेकर आए और गधे को निकालकर बाहर किया। इस प्रकार की अनेकों घटनायें मेरी जीवन गाथा में मिलतीं हैं। 9. विलक्षण चुम्बकीय व्यक्तित्व के धनी : वर्णी जी का अपना अलौकिक आदर्श था। हर वर्ग व्रती - अव्रती, गरीबअमीर, विद्वान - मूर्ख, संत- नेता सभी उनके पास खिचे हुए चले 20 फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित आते थे। उनकी मधुरवाणी 'काय भैया' सभी को आकर्षित कर लेती थी। उनके पास जो एक बार आ जाता था वह ऐसा अनुभव करने लगता था कि वर्णी जी सिर्फ हमारे ही हैं किन्तु वर्णी जी तो जन-जन के हो चुके थे। संत बिनोवा जी एवं राष्ट्रपति श्री राजेन्द्र कुमार जी भी वर्णी जी से मिलकर बहुत प्रभावित हुए थे। 10. प्रभावक उपदेष्टा : आपके प्रभावक, मिष्ठ वचनों को सुनने के लिए लोग व्याकुल रहते थे। आपका एक-एक शब्द गंभीर और प्रभावक हुआ करता था । जनमानस पर आपके वचन स्थायित्व पा जाते थे । श्रोताओं को भी मित शब्दों में अपरिमित जैनदर्शन का सार सुनने को मिल जाता था । यथा- (1) चित्त को उदार बनाओ। (2) पर पदार्थों की आशा छोड़ो। (3) वैराग्य दृष्टि विकसित करो। (4) वैराग्य ही मोक्षमार्ग है । (5) पर के दोष देखने का जो स्वभाव बना रखा है, उसे त्यागो। (6) जितना परिकर उतना दुःख । (7) जब अमल करो तब बात बने । (8) समय पाकर ही कार्य होता है। (9) विद्वानों के समागम से संतोष होता है। (10) नियत साफ रखकर व्यापार करो । प्रतिदिन कुछ दान अवश्य करो। (11) अपने बनो। 11. जाग्रति और शांति के अग्रदूत : अपनी सरल, सहजवृत्ति, मृदुवाणी, मंद मुस्कान, सतत अध्यवसाय आदि गुणों से मण्डित बाबाजी ने बुंदेलखण्ड के साथ भारतवर्ष के बहुभाग में भ्रमणकर सहधर्मी -- विधर्मी बंधुओं के मध्य सशक्त जन चेतना जाग्रत की। क्रोधी से क्रोधी व्यक्ति भी आपके संपर्क में आकर अपने को बदला हुआ महसूस करता था । त्यागीवर्ग को भी प्रभावक आध्यात्मिक ज्ञानामृत का पान कराकर भेदविज्ञान की प्राप्ति हेतु पुरुषार्थ करने की प्रेरणा दिया करते थे । शांति के पिपासु सद्गृहस्थों के लिए वर्णी जी के शांतिसूत्र आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं यथा - 1. प्रतिदिन जिनेन्द्र भगवान की सच्चे हृदय से भक्ति करो। भक्ति में बड़ी शक्ति होती है । 2. प्रतिदिन जितना खर्च गृहकार्यों में करते हो उसमें से कम से कम एक रुपये पर एक पैसा दानकार्यों के लिए जरूर निकालो। घर में बच्चों के लिए धार्मिक शिक्षा जरूर दो । अष्टमी - चतुर्दशी, दशलक्षणपर्व एवं अष्टान्हिका पर्व पर ब्रह्मचर्य का पालन नियम से करो । 5. संतोष धारण करो । 12. समयसारमयवर्णी जी : आध्यात्मिक शिरोमणि आ. कुन्दकुन्द स्वामी की अमरकृति समयसार ग्रंथराज का न सिर्फ अध्ययन किया अपितु वर्णी जी का जीवन ही समयसारमय हो गया था। आप समयसार की कला के सर्वोपरि कलाकार थे। समयसार की गाथाएँ एवं उनपर लिखी आत्मख्याति टीका आपकी श्वांसों पर बस गई थी। एक बार वर्णी जी ने कुछ समय के लिए इस प्रकार प्रतिज्ञा ली कि 'मैं प्रतिदिन सटीक समयसार का आद्योपांत स्वाध्याय करूँगा जिस दिन नहीं कर पाऊँगा तो दूसरे - 3. 4. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिन नमक का त्याग रखूगा। ' एक स्थान पर लिखते हैं कि - | कठोर परीक्षाएँ हुईं किन्तु वे सदैव खरे ही उतरे। हरिजनमंदिर 'एक समयसार का ही स्वाध्याय करता हूँ, चाहे कुछ आवे या न | प्रवेश को लेकर समाज में वैषम्य का वातावरण निर्मित हो गया आवे। समयसार ही शरण है।' था। उस समय कतिपय लोगों ने वर्णी जी की पीछी कमण्डल समयसार के प्रति तीव्र उत्कंठा का एक संस्मरण श्रद्धेय | छीनने की बात कही, वर्णी जी को ज्ञात होने पर सहजभाव से । के मुख से अनेकों बार सुना था। | बोले कि - "जिन्हें पीछी कमण्डल छीनना है तो छीन लो किन्तु वह इस प्रकार है - इटावा (उ.प्र.) में वर्णी जी का चातुर्मास चल | हमारे आत्मधर्म को थोड़े ही छीन सकते हो।' इस प्रकार के रहा था। स्वास्थ्य खराब हो गया। दिल्ली के भक्तों को ज्ञात हुआ | समयसारमय वचन बोलते हुए शांत हो गये, उनके चेहरे पर क्षोभ तो लालाराजकृष्ण जी, लाला फिरोजालाल, मैं (पं.जी) अन्य | की छोटी सी रेखा भी नहीं उभरी। लोगों के साथ प्रस्थान करते हैं। रात्रि के 3:30 पर वर्णी जी के | वर्णी जी का पुण्य भी अतिप्रशस्त था कि अजैन कुल में प्रवास स्थल पर पहुँचे। चारों ओर अंधेरा छाया हुआ है किन्तु एक | जन्म लेकर चिन्तामणिसम जैनधर्म अपनाकर कर्मणा जैनी बन कमरे में कुछ रोशनी दिखाई दे रही हैं। उस कक्ष में जाकर देखा | गये। प्रशममूर्ति, उदारमना माँ चिरोजाबाई जी का समागम प्राप्त तो एक लालटेन के प्रकाश में बाबा जी समयसार का स्वाध्याय | कर उच्चस्तर का अध्ययन किया एवं सामान्य बालक से बुंदेलखण्ड कर रहे हैं। लाल फिरोजीलाल जी ने थर्मामीटर लगाकर देखा तो के देवता बन गये। इस सब के पीछे माँ जी का बहुत योगदान रहा १०४ १/२ डिग्री टेम्प्रेचर था। सभी ने निवेदन किया कि ऐसी | है। वर्णी जी की वाणी सुनने एवं आशीष प्राप्त करने के लिए अवस्था में शरीर को आराम देना चाहिए। वर्णी जी बोले - भइया | देशभर के सभी धीमंत श्रीमंत सदैव आते रहते थे और वर्णी जी उसे अपना काम करने दो और हमें अपना काम करना है। कोठिया | की आज्ञा को आदेश मानकर शिरोधार्य करते थे। सरसेठ भागचंद्र जी जब भी इस संस्मरण को सुनाते थे तो उनका गला भर आता सोनी अजमेर, सरसेठ रायबहादुर हुकुमचंद जी इंदौर, था और कहते थे कि उन जैसा भेदविज्ञानी और समयसार को श्रावकशिरोमणी साहु शांतिप्रसाद जी दिल्ली, लाला राजकृष्ण, अपना जीवन बनाने वाला साधक कोई दूसरा नहीं मिला। लाला हरिशचंद्र,लाला फिरोजीलाल दिल्ली, सेठ छिदामीलाल 13. यथार्थ आत्मसमीक्षक : व्यक्ति की पहिचान वर्णी | जी फिरोजाबाद, श्रीमंतसेठभगवानदास शोभालाल, सिंघई कुंदनलाल जी बहुत अच्छी तरह से करते थे। व्यक्ति की योग्यता को देखते | जी सागर आदि सैंकड़ों श्रीमंत आपके अनन्य भक्त थे। राष्ट्रपति हुए उसे आगे बढ़ाने में सदैव तत्पर रहते थे। अपनी समीक्षा भी | डॉ. राजेन्द्रप्रसाद जी ने आपको निस्पृही संत कहते हुए आशीर्वाद खुलकर किया करते थे। मेरी जीवन गाथा एवं वर्णीवाणी में अनेक | प्राप्त किया था। संत विनोवा भावे जी ने ललितपुर में प्रथम भेंट स्थल हैं जहाँ पर वर्णी जी ने अपनी कमजोरियों को स्वीकारते हुए होने पर एक सभा के मध्य कहा था- 'वर्णी जी एक निष्परिग्रही लिखा है कि इनको दूर करना है। कुछ प्रसंग द्रष्टव्य हैं - 'उपदेश | संत हैं इनके समक्ष त्याग का क्या उपदेश दूँ। वर्णी जी का सारा देने की बात तो दूर रही, अभी मैं सुनने और वांचने का भी पात्र जीवन ही त्याग का उपदेश दे रहा है।' नहीं हूँ। वचन चतुरता से किसी को मोहित कर लेना पाण्डित्य वर्णी जी श्रावक के उत्कृष्ट दर्जे क्षुल्लक पद पर आसीन नहीं है।' अपनी समीक्षा करने में दक्ष वर्णी जी ने एक पत्र माघ रहकर ही साधना करते रहे किन्तु उनकी निष्काम साधना, सतत शुक्ल त्रयोदशी सं 1999 को साधक वर्णी जी के नाम लिखकर ज्ञानाभ्यास किसी आचार्य एवं मुनि से कम नहीं था। चारित्रचक्रवर्ती कटु आलोचना की है। पत्र की कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं। ........ न आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज, आ.श्री सूर्यसागर जी महाराज, तुमने कभी मनोयोग पूर्वक अध्ययन किया, न स्थिरता से पुस्तकों आ.श्री नेमीसागर जी महाराज आपके कार्यों के प्रशंसक रहे हैं । का अवलोकन किया, न चरित्र का पालन किया और न तुम्हारी | आ.श्री नेमीसागर जी महाराज ने तो आपके सानिध्य में ईसरी में शारीरिक संपदा चारित्र पालन की थी। तुमने केवल आवेग में सल्लेखनापूर्वक मरण किया था। आपके रचनात्मक कृतित्व व्यक्तित्व आकर व्रत ले लिया। ........ इस जीव को मैंने बहुत कुछ ने आपको न सिर्फ बुंदेलखण्ड का साधक अपितु श्रमणसंस्कृति समझाया कि तू पर पदार्थों के साथ जो एकत्व बुद्धि रखता है उसे | का यशस्वी संत बना दिया। छोड़ दे परंतु यह इतना मूढ़ है कि अपनी प्रकृति को नहीं छोड़ता 15. वात्सल्य एवं दया की साक्षात् मूर्ति : निर्मलता, फलतः निरंतर आकुलित रहता है। क्षणमात्र के लिए भी चैन नहीं | भद्रता, सरलता, सहनशीलता, परदुःखकातरता, परोपकार आदि पाता है। गुणों के धाम वर्णी जी वात्सल्य एवं दया की साक्षातमूर्ति थे। 14. श्रमणसंस्कृति के यशस्वी साधक : श्रमण संस्कृति | अनेकों ऐसे संस्मरण हैं जो वात्सल्य, दया एवं परोपकार की गाथा अध्यात्म एवं आत्मप्रधान संस्कृति है। वर्णी जी जीवन भर इस | गाते दिखाई पड़ते हैं। समता की साधना में अनेक बाधायें उपद्रव एवं प्रतिकूल परिस्थितियों | घटना सागर विद्यालय की है। आर्थिक स्थिति से परेशान के आने पर सुमेरु की तरह अचल रहे। कषाय अत्यंत मंद थी।। दो बच्चे स्कूल में फीस जमा न करने के कारण विद्यालय से एक साधारण से असाधारण बने इस महामानव की पग-पग पर | बहिष्कृत कर दिये गये। यह जानकारी बाबाजी को ज्ञात हुई बाबा -फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित 21 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जी ने दोनों बच्चों को बुलवाया और कारण पूछा। बच्चों ने यथार्थ । है । इस महान कृति को 'शास्त्रोद्धारशास्त्र सुरक्षा अभियान' की बात बता दी। बाबाजी बच्चों को शिक्षा से वंचित नहीं देख सकते थे, अपने पास रखी हुई घी से भरी हुई कुप्पी देते हुए कहा कि इसे ले जाकर फीस जमाकर दो व पढ़ने को जाओ। विद्वानों के प्रति वर्णीजी का अत्यधिक स्नेह रहता था । विद्वानों को अपने प्राण कहते हुए उनके सुख-दुःख का पूरा ध्यान रखते थे। एक बार पं. फूलचन्द्र सिद्धांतशास्त्री बहुत ही अस्वस्थ्य हो गये। छह माह पलंग पर पड़े रहे जिस संस्था में नौकरी करते थे वेतन मिलना भी बंद हो गया । खर्च हेतु परेशानी आने लगी, पं. जी अपनी पत्नी के आभूषण बेचकर अपना काम चलाने लगे। यह बात बाबाजी को ज्ञात हुई। उन्होंने तत्काल बाबूरामस्वरूप जी बरुआसागर वालों को संकेत करके 600 रूपये भिजवाये । वर्णी जी द्वारा कराये गये इस सहयोग से पं. जी इतने उपकृत हुए कि सदैव यह कहते रहे कि वर्णी जी से ही मुझे जीवनदान मिला है। गरीबों के लिए वर्णी जी साक्षात् देवता बनकर सहयोग किया करते थे। एक बार गया पहुँचे रात्रि में तीन बजे माघ की कड़कड़ाती ठंड में स्टेशन से मंदिर की ओर जा रहे थे कि रास्ते में एक वृद्ध ठंड से कांप रहा था, वर्णी जी का हृदय द्रवीभूत हो गया और अपना खेस उतारकर उसको उड़ा दिया। और खुद नग्न बदन हो गये। पं. जगमोहनलाल शास्त्री कटनी वाले साथ में थे बोले, इतनी ठंड में आपने यह क्या किया? बाबा जी सहजभाव से बोले अरे भैया, अपन पर तो कोई भी दया कर देगा किन्तु इस गरीब पर कौन दया करेगा। इस प्रकार के एक नहीं अनेकों प्रसंग हैं जिनसे वर्णी जी की वात्सल्यता, दया, प्रेम, सहानुभूति की प्रेरणा हमें प्राप्त होती है । वर्णी जी 'वसुधैवकुटुम्बकं' की भावना से ओत-प्रोत थे । उनकी दया मानव मात्र पर न होकर पशुप्राणियों पर भी दिखाई देती थी। 16. मेरे आदर्शगुरु श्रद्धेय वर्णी जी : जिस समय वर्णी जी इस पर्याय से विदा हुए थे, उस समय मैं इस पर्याय में जन्म नहीं ले पाया था । इसलिए वर्णी जी के साक्षात दर्शन करने से वंचित रहा हूँ । मुझे याद है कि जब मैंने होश संभाला है तब से वर्णीपुरुष का नाम सुनता रहा हूँ। मुझे इस बात का गौरव है कि जिनके जीवन का निर्माण वर्णी जी की सुशिक्षाओं से हुआ है उन मनीषियों के मुख से वर्णी जी के बारे में अवश्य सुनने को मिला है । जब कभी पं. पन्नालाल जी साहित्यकार, पं. बंशीधर जी व्याकरणाचार्य, पं. जगन्मोहनलाल जी शास्त्री, डा. पं.दरबारीलाल जी कोठिया, पं. भैयालाल जी शास्त्री आदि मनीषी वर्णी जी के संस्मरण सुनाते, तो सुनाते-सुनाते उनका गला भर आता था और नेत्रों से गंगा-यमुना की धारा फूट पड़ती थी । सहसा ही उनके मुख से निकलता था कि उन जैसा विद्यारसिक, परोपकारी, पारसपत्थर, कामधेनु, कल्पवृक्ष पुरुष इस युग में मिलना दुर्लभ है। मैं जब मेरी जीवनगाथा पढ़ने बैठता हूँ तो लगता है कि वर्णी जी के काफी करीब पहुँच गया हूँ। एक बार नहीं अनेकों बार पढ़ चुकने के बाद भी पुनः पढ़ने का मन प्यासा बना रहता 22 फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित बृहत्यात्रा में पाथेय बनाया है। जीवन के अनेक उतार-चढ़ाव, सफल-असफल क्षणों में यदि मेरे लिये मार्गदर्शिका बनी है, तो वह है - मेरी जीवन गाथा और वर्णी-वाणी । आशीर्वाद के साथ दर्शन और उपदेश भी मिला मुझे इस बात का सदैव खेद रहता था कि वर्णी जी के दर्शन और दो शब्द सुनने को नहीं मिल सके। कभी-कभी अन्तस् से आवाज आती कि चिंता नहीं करो स्वप्न में वर्णी जी के दर्शन अवश्य ही प्राप्त होंगे। इस सुखद अवसर की प्रतीक्षा करते-करते अनेक वर्ष बीतने के बाद 29 जून 1997 का दिन एवं स्वप्न मेरी दैनंदिनी में लिपिबद्ध हो गया। मैं इन दिनों बुंदेलखण्ड के ग्राम-ग्राम-नगर-नगर 'शास्त्रोद्धार शास्त्र सुरक्षा अभियान' के संदर्भ मैं हस्तलिखित ग्रंथों के संकलन, संरक्षण, संवर्द्धन के कार्य में संलग्न था । चटाई पर आसीन दुपट्टा गोद में पड़ा हुआ और पोछी बाजु में रखी हुई सामने चौकी पर समयसार ग्रंथराजविराज न था। स्नेहासक्त मंदमुस्कान और जिज्ञासा से भरी हुई दृष्टि ने मुझे दूर से देख लिया। मैं जैसे ही उनके करीब पहुँचकर प्रणाम करता हूँ वे बोले - 'काय भैया, कौन हो।' मैं कहता हूँ कि ब्र. संदीप हूँ । 'अरे भैया, तुम तो बहुत बड़ो जिनवाणी रक्षा का कार्य कर रहे हो मन लगाकर इसी कार्य को करना।' मैंने कहा 'बाबाजी आपका आशीर्वाद एवं मार्गदर्शन लेने के लिए आया हूँ।' बाबाजी ने अपने दोनों हाथ उठाकर मेरे सिर पर रख दिए और कहा 'ले लो भैया खूब आशीर्वाद, भैया ज्ञान के प्रचार-प्रसार में जुटे रहना, इससे अच्छा और दूसरा कोई कार्य नहीं है।' मैंने अपने को परम सौभाग्यशाली माना और अपना समर्पण उनके चरणों में करते हुए स्वीकार कर लिया कि आज से आप मेरे प्रेरक आदर्श गुरु हैं। इसके बाद निद्रा भंग हो जाती है, दृष्टि घड़ी पर आती है तो प्रभातकाल के 4.30 बज रहे थे डायरी उठाई और लिपिबद्ध कर दिया स्वप्न को । वर्णी जी आज्ञा को शिरोधार्य करके संकल्पित हूँ इस स्वप्र को मूर्तरूप देने के लिए। मेरा मानना है कि अनेकांत ज्ञान मंदिर शोध संस्थान बीना की स्थापना, शास्त्रोद्धार शास्त्र सुरक्षा अभियान, शोध ग्रंथालय, पाण्डुलिपि संग्रहालय, पाण्डुलिपि संरक्षण केन्द्र, विभिन्न स्थानों पर अनेकांत वाचनालयों की स्थापना, सम्यग्ज्ञानप्रशिक्षण शिविरों का सफल आयोजन एवं ग्रंथ प्रकाशन आदि गतिविधियों के सफल अभियानों में कोई अदृश्य शक्ति प्रेरित करती ही नहीं अपितु सबल सम्बल देकर कार्य को संपन्न कराती हैं, उसमें परम श्रद्धेय वर्णी जी का आशीर्वाद भी एक कारण है। मैं संकल्पित हूँ वर्णी जी के स्वप्न 'अज्ञानतिमिव्याप्तिमपाकृत्ययथायथम्' रूप धर्म प्रभावना को साकार करने के लिए इस पुनीत कार्य हेतु जीवन की हर श्वांस समर्पित है। संस्थापक अनेकांत ज्ञान मंदिर शोध संस्थान बीना (सागर) म.प्र. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन संस्कृत महाविद्यालयों, छात्रों की दशा और दिशा डॉ. अनेकांत कुमार जैन पूज्य गणेश प्रसाद जी वर्णी ने सन् १९०५ में श्रुतपंचमी | मुझे भी है। आज इस वर्ग के सामने एक निश्चित दिशा का अभाव के दिन काशी में श्री स्याद्वाद महाविद्यालय की स्थापना करके | होने से व्यर्थ की भटकन और आधे अधूरे ज्ञान के कारण वास्तविक और स्वयं इस विद्यालय के प्रथम छात्र बनकर जिस अनुपम कार्य के प्रति उपेक्षा देखी जा रही है। इतिहास की रचना की आज उसके सौ वर्ष पूरे हो रहे हैं। श्री | विद्यार्थियों का अन्तर्द्वन्द्व स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसी के शताब्दी वर्ष का शुभारम्भ भी प्राच्य विद्याओं तथा धार्मिक शिक्षाओं को ग्रहण करने आये यहाँ श्रुतपंचमी के दिन हो चुका है। जैन संस्कृत शिक्षा के क्षेत्र में | नये सुकुमार किशोर सर्वप्रथम तो इस बात का निर्णय ही नहीं कर एक अभूतपूर्व क्रान्ति का शंखनाद करने वाला यह महाविद्यालय पाते हैं कि वास्तव में वे जो अध्ययन कर रहे हैं, किस लिए कर जिन कीर्तिमानों की सृष्टि करता रहा है, उसकी बराबरी कर पाना रहे हैं? आत्मकल्याण के लिए अथवा अच्छे कैरियर अर्थात् हर एक के बस की बात नहीं है। यहीं के स्नातकों ने अपने अपने | जीविकोपार्जन के लिए? यह अन्तर्द्वन्द्व उन्हें बहुत उलझाता है। क्षेत्रों में जाकर ऐसे ही अनेक विद्यालयों की स्थापनाएँ कर अथवा | किशोरवय का भावुक हृदय उन्हें धर्माराधना अर्थात् श्रद्धालु व इनके संचालन की जिम्मेदारी संभालकर इस श्रृंखला को द्विगुणित | भक्त बनने की ओर भी उकसाता है और पूरे जीवन के कैरियर चौगुणित भी किया। | निर्माण की चिन्ता भी उन्हें खाये जाती है। यदि कोई कहे कि वह आज की स्थिति दोनों के लिए शास्त्रीय क्षेत्र की पढ़ाई कर रहा है तो यह बात वर्तमान में धार्मिक शिक्षा को लेकर कई बड़े-बड़े सुविधा | कहने में जितनी आसान है यथार्थ की भूमि पर उतनी सच नहीं है सम्पन्न महाविद्यालय संस्थान स्थापित हुए हैं, जो कई वर्षों के | क्योंकि कैरियर निर्माण के जितने मापदण्ड हैं उन पर उनकी यह अथक श्रम का प्रतिफल हैं। देश में कई महाविद्यालय ऐसे हैं जहाँ | पढ़ाई खरी नहीं उतरती है। जैन विद्यार्थी पूर्वमध्यमा, उत्तरमध्यमा, वरिष्ठ उपाध्याय, शास्त्री, | गलत दिशा में नियोजन आचार्य इत्यादि कक्षाओं में अध्ययन कर रहे हैं। इन जैन संस्कृत सही प्रबन्धन, व्यापक सोच, दूरदर्शी दृष्टि, उपयोगी विद्यालयों, महाविद्यालयों में कुछ तो ऐसे हैं जहाँ आधुनिक | पाठ्यक्रम और स्थायी दीर्घकालीन योजनाओं का वास्तव में हमारे सुख-सुविधा, उत्तम भोजन, अच्छे अध्यापक हैं। किन्तु कुछ ऐसे पास बहुत अभाव है। यहाँ अगर यह कहा जाय कि यह हमेशा से भी विद्यालय हैं जो चल नहीं रहे, बल्कि खिसक रहे हैं। वहाँन | रहा है तो यह गलत न होगा। जैन संस्कृत महाविद्यालयों के तो अध्ययन-अध्यापन हेतु उच्चस्तरीय अध्यापक हैं और न ही विद्यार्थियों के समुचित नियोजन का प्रश्न आया तो स्वर उठा कि रहने-खाने की अच्छी व्यवस्था। जैसे-तैसे विद्यार्थी परीक्षा पास | समाज के खर्चे पर महाविद्यालय चला, भोजनादि व्यवस्था चली करते हैं और अधकचरे ज्ञान, अपरिपक्व व्यक्तित्व को लेकर | तो उसका फल समाज को मिले अर्थात् ऐसे विद्यार्थियों का कर्तव्य रोजगार खोजते हैं। यहाँ के शिक्षक और विद्यार्थी दोनों ही संस्था | है- 'समाज सेवा'। और इसी सेवा को उनका कैरियर बना देना के लिए आर्थिक सहयोग इकट्ठा करने में ही अपनी शक्ति और | हमारी आम राय है। जैन समाज के कुछ धार्मिक पृष्ठ भूमि के अपना समय व्यतीत करते हैं। उसके लिए विधान, पूजापाठ कराने स्वाध्यायी श्रेष्ठी विद्वानों ने यहाँ तक राय बनायी कि चूँकि विद्यार्थियों वे समाज में जाते हैं और फिर बाद में यही उनका कैरियर भी बन | को इतना वेतन दे पाना संभव नहीं कि उनका परिवार चल सके। जाता है। बहुत मुश्किल से और कई महान् विभूतियों के समर्पित | इसलिए विद्यार्थी मात्र शास्त्री कक्षा तक पढ़ायी करे, ब्रह्मचर्य व्रत जीवन के फल स्वरूप कुछ संस्थाओं से प्रतिभाशाली युवा विद्वत् | ले और समाज में जाये, प्रवचन करे, कक्षा ले, प्रतिष्ठा-विधान वर्ग भी यत्किञ्चित् उभर कर सामने आ रहा है, जिसने जैन धर्म | कराये, संस्था का धन भी लाये, सेवा करता रहे बस। बहुत दर्शन, साहित्य और संस्कृति का गहराई से अध्ययन कर उच्च श्रेणी इन्तजार के बाद शास्त्रीय पद्धति से शिक्षित युवा वर्ग यदि मात्र में उच्चकक्षाएँ उत्तीर्ण की हैं और जिन्हें मूल जैन शास्त्रों का भी | प्रवचन, विधि-विधान, प्रतिष्ठा करने में ही अपने कर्त्तव्य की अच्छा ज्ञान है। साथ ही वे इतने श्रद्धालु हैं कि इन विद्याओं के | इतिश्री समझता है और समाज भी इससे संतुष्ट है तो हम बहुत लिए जीवन भी समर्पित करने को तैयार हैं। किन्तु ऐसी प्रतिभाओं | बड़ी भूल कर रहे हैं। का सही उपयोग न होने से अन्ततः भटककर वे छोटी-बड़ी | प्रशिक्षण में खामियाँ सामाजिक नौकरी पाकर ही अपनी प्रतिभा होम कर रहे हैं। जो छात्र से विद्वान बने इस वर्ग का नियोजन नहीं कर पा पिछले एक दशक से भी अधिक समय से ऐसे वर्ग के रहे हैं वे तो जैसे हैं सो हैं इस विधा में प्रशिक्षित युवा वर्ग की साथ रहने का तथा उन समस्याओं से स्वयं रूबरू होने का अनुभव | बौद्धिक और मानसिक स्थिति भी ऐसी हो चुकी होती है कि वे -फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित 23 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचित दिशा की सोच तक नहीं पाते हैं। जागरूकता का अभाव । यह तो परम्परा सम्मत भी है ! और प्रमाद इत्यादि भी उनकी इस स्थिति का कारण बनता है। | इतिहास में जाकर गहराई से देखें तो हमारी परम्परा कभी जहाँ एक तरफ कुछ विद्यार्थी ऐसे हैं जो गम्भीरता से अध्ययन | ऐसी नहीं रही। हमारे प्राचीन आचार्य दोनों कार्य कर लेते थे, करते हैं किन्तु वहीं दूसरी तरफ ऐसे विद्यार्थी भी बड़ी तादाद में | आत्मकल्याण भी और जिनवाणी या शास्त्र कल्याण भी और मिल जाते हैं जो खुद भी अपने कैरियर और ज्ञान के प्रति कोई | हमारी दशा सच कहें तो यह है कि हम इन दोनों में से कुछ भी खास श्रम करते दिखायी नहीं देते। उसका कारण प्रशिक्षण में कुछ | नहीं कर पा रहे हैं। हमारे अधिकांश आचार्य जितने जैन दर्शन के खामियाँ भी हैं। हम जानते हैं कि अधिकांश संस्थाएँ साम्प्रदायिक | विज्ञ थे उससे कहीं अधिक अन्य धर्म एवं दर्शनों के भी ज्ञाता थे पृष्ठभूमि की मनोवत्ति वाली हैं। शास्त्रीय प्रशिक्षण, धार्मिक अतिवाद, | अन्यथा इतने अधिकार पूर्वक उनका खण्डन करना और स्वपक्ष कुछ उन्माद, साम्प्रदायिक कट्टरता और संकीर्ण विचारधाराओं की का मण्डन करना कोई बच्चों का खेल तो है नहीं। दूसरे मतों या तर्ज पर होने से शास्त्रीय पद्धति से पढ़ने वाला उस किसी विशेष | दर्शनों को पढ़ते-पढ़ाते समय उनका सम्यक्त्व कभी नहीं डिगा मानसिक मनोवृत्ति से ग्रसित हो जाता है, जिसे मनोविज्ञान की लेकिन आज के तथाकथित सम्यकदृष्टियों का सम्यक्त्व जाने कितना भाषा में 'ब्रेनवाश' कहा जाता है। इससे एक तरफ लाभ भी है तो कमजोर है कि परमत (जैनेतरों) की तो छोड़ दें अपने ही धर्म के दूसरी तरफ हानि भी कम नहीं है। लाभ यह कि इसप्रकार के । दिगम्बर, श्वेताम्बर, कहानपंथ, तारनपंथ, बीसपंथ वगैरह वा रह श्रद्धात्मक, कट्टर मानसिक धार्मिक उद्वेग से शरीर की अन्त:स्रावी में एक दूसरों के शास्त्रों को पढ़ने, सुनने मात्र से मिथ्यात्व के पोषण ग्रन्थियों से एक विशेष प्रकार के हार्मोन्स प्रवाहित होने लगते हैं | के साथ सम्यक्त्व के नष्ट होने का खतरा बढ़ जाता है अथवा जिनका प्रभाव मस्तिष्क से लेकर पूरे शरीर पर पड़ता है। इसके सम्यक्त्व के उत्पन्न होने की सम्भावना कम होने लगती है। ऐसी अति-उत्साही परिणाम के कारण ही विद्यार्थी दुरूह प्रतीत होने [ संस्थाओं, स्वाध्याय केन्द्रों के पुस्तकालयों या शास्त्र भण्डारों में भी वाले शास्त्रों का अध्ययन बहुत ही मनोयोग पूर्वक कर डालता है, मात्र अपने समर्थक पक्ष से सम्बन्धित साहित्य का ही अधिक अन्यथा कठिन शास्त्रीय विषयों में ऐसा उत्साह आज के युग में | भण्डार रहता है। विद्यार्थी जिसे सम्यक्त्व-मिथ्यात्व की समस्या दुर्लभ है। खुद खोजकर सुलझाने की शुरुआत करनी थी, सब पहले से ही ___हानि यह है कि इस संकीर्णता और कट्टरता के कारण वह सुलझाये हुए बैठा है। ऐसे वक्त में वह पंथ का प्रबल प्रचारक तो अपने से अतिरिक्त दुनिया भर के अन्य शास्त्रों और ज्ञानों को | बन जाता है, किन्तु एक सुलझा हुआ, अच्छा और उदारवादी मिथ्यात्व समझता है और मानता है कि इनका अध्ययन उसके विचारक बनने से चूक जाता है। जिसका खामियाज़ा उसे अपने आत्मकल्याण में बाधक है। इसलिए वह उनका अध्ययन नहीं कैरियर में चुकाना पड़ता है। करता, जिसके कारण उसका समचित मानसिक और बौद्धिक | हानि क्या होती है? विकास नहीं हो पाता है। __कुछ लोग यहाँ यह भी कह सकते हैं कि हमसे जितना कुछ न कर पा सकने की समस्या बन पड़ता है उतना कर रहे हैं अब सारी बातों का जिम्मा हमने ही उदारवादी चिन्तन और बहुविज्ञता के अभाव में विद्यार्थी | थोड़े ले रखा है। बात सच है, जितना कुछ हो रहा है वह का कैरियर संकट में पड़ जाता है। उसे आत्मकल्याण और शास्त्र | अतिप्रशंसनीय है किन्तु उसी लागत में थोड़ी व्यवस्था और सेवा ये दोनों बातें लगभग एक सी लगती हैं ऐसा लगता है कि ये | मानसिकता सुधार कर यदि कार्य हो और हमें मुनाफा यदि चौगुना एक दूसरे के पूरक तो हैं ही इसलिए दोनों में साध्य-साधन का ही | हो सकता हो तो सुनने और मानने में हर्ज क्या है? मैं ऐसे कई मात्र फर्क है। किन्तु जहाँ एक तरफ आत्मकल्याण में परमत, मित्रों को जानता हूँ जो शास्त्र के गहन विशेषज्ञ हैं, पंक्ति से शास्त्र मिथ्यात्व, निवृत्ति, जीवन की नश्वरता और मनुष्यभव की उत्तरोत्तर | पढ़ने-पढ़ाने की योग्यता रखते हैं, व्याकरण एवं साहित्य का दुर्लभता महत्त्वपूर्ण है वहीं दूसरी तरफ शास्त्र सेवा में, उसके | आधिकारिक ज्ञान है जो कि आज के युग में दुर्लभतम है। किन्तु कल्याण में परमत अध्ययन, छन्द, व्याकरण, अलंकारशास्त्र, संकीर्ण मानसिकता और उचित नियोजन के अभाव में या तो कोई न्यायशास्त्र, साहित्य तथा बहुत सी अन्य साहित्यिक प्रवृत्तियों की व्यापार धंधा कर रहे हैं, या किसी गांव में अध्यापक हैं और इतनी महती आवश्यकता होती है कि जिनके अभाव में हम सही | छोटे-छोटे बच्चों से निपट रहे हैं, या निराश होकर घर बैठ गये हैं। संपादन, शोध, लेखन, व्याख्यान, साक्षात्कार और जीवन तथा | हमने इनका निर्माण किया किन्तु समुचित नियोजन नहीं हो सकने कैरियर निर्माण जैसी आवश्यक जरूरतों में हम पिछड़ जाते हैं। से इनका उपयोग नहीं हो पा रहा है। कोई समाज में प्रवचन करके यदि इस स्थान पर दुर्लभ मनुष्य भव के दुरुपयोग की बात कही | ही अपने कर्तव्य को पूरा माने बैठा है तो कोई पढ़ाई बीच में ही जाये तो वहाँ आत्मकल्याण की भावना कम बल्कि परिश्रम से | छोड़कर बैठा है। अधिकांश छात्र पढ़ाई भी पूरी नहीं करते। पलायनवाद अधिक दिखायी देता है। स्नातकोत्तर, पी-एच.डी. इत्यादि तक भी कम ही जाते हैं। अंग्रेजी 24 फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा आधुनिक विज्ञान आदि के ज्ञान का अभाव, बहुविज्ञता का | मनमोहक और रमणीय आकाश में वह खो जाता है और अपने अभाव भी उन्हें दकियानूसी और पिछड़ा जैसा बना देता है। लक्ष्यों तथा उसके प्रति किये जाने वाले कार्यों के लिए अथक सारांश यह है कि एक होनहार प्रशिक्षित शास्त्री युवा वर्ग यह तय | कठिन परिश्रम हेतु आधारभूमि ही तैयार नहीं कर पाता है। नहीं कर पा रहा है कि वह किस तलाश में है और हम हैं कि | आज हम धीरे धीरे ही सही पर युवा पीढ़ी के बहुप्रतीक्षित उसे दिशा नहीं दे पा रहे हैं और उनका और उनके ज्ञान का सही | उस उभार को देख रहे हैं जिस पर सभी की आशा भरी नज़रें उपयोग नहीं कर पा रहे है। यह सब कुछ विगत कई वर्षों से | टिकी हैं। दुःख सिर्फ इस बात का हो रहा है कि हम जिन्हें बहुत विद्यार्थी विद्वानों से हुयी बातचीत तथा उनके द्वारा पूछे जाने वाले | मुश्किल से पा रहे हैं, मगर उनका सही उपयोग न कर सक पाने प्रश्नों के आधार पर ही लिख पा रहा हूँ। . की वजह से उनके होते हुए भी उन्हें खो रहे हैं। वे आखिर जायें कहाँ? एक निवेदन वास्तव में यह बहुत बड़ी समस्या है। मात्र शास्त्र ज्ञान आज जरूरत है कि हम राष्ट्रीय तथा अन्तराष्ट्रीय स्तर के प्राप्तकर वे जायें कहाँ? शुक्र है समाज में भी कुछ छोटी-छोटी | कुछ ऐसे बड़े संस्थानों की स्थापना करें जिनमें हम शास्त्रीय पद्धति नौकरियाँ हैं जो इन्हें दो तीन या अधिक से अधिक चार-पाँच से तैयार हुए इन प्रतिभाशाली युवा विद्वानों का सही नियोजन कर हजार रू. महीने का काम दे देते हैं। मगर क्या काम देते हैं? | उनकी प्रतिभा का सदुपयोग कर सकें। एक ऐसी संस्था जो संस्थाएँ सम्भालना, व्यवस्थापक बना देना और विद्वान् होने के | साम्प्रदायिकता से ऊपर उठकर सोचे। जहाँ उच्च स्तर की मानसिकता नाते ज्यादा से ज्यादा एक समय पूजा और प्रवचन करवा देना। मेरे | वाले लोग ट्रस्टी हों न कि मात्र पैसे वाले। इन युवाओं को जहाँ मन में प्रश्न उठता है कि यह उनका सहयोग है या उस प्रतिभा | व्यवस्थित ट्रेनिंग दी जा सके। जिस क्षेत्र में उनकी प्रतिभा है का दुरूपयोग? दिनरात छोटी-छोटी व्यवस्थाओं को सम्भालते हुए उसका स्वतंत्र विकास करने का उसे जहाँ अवसर मिल सके। हम वह कितना अध्ययन, चिन्तन-मनन, लेखन, सम्पादन, शोध कर | तो समाज से नहीं वरन् भारत सरकार से यह अपेक्षा रखेंगे कि पायेगा? वह भी मजबूर है, अपनी आजीविका के लिए वह सब | जिस प्रकार वो वैदिक ज्ञान विज्ञान और संस्कृत, उर्दू भाषा के कुछ करने को तैयार है? एक उच्च शिक्षा से शिक्षित, शास्त्र ज्ञान में | लिए करोड़ों-अरबों रूपये भारतीय संस्कृति की सुरक्षा के आधार पारंगत युवा महज आजीविका के लिए उस काम में खप जाता है पर खर्च करती है। उसी प्रकार भारत की सर्वाधिक अति जो काम दसवीं बारहवीं फेल युवा भी बखूबी कर सकते हैं और अल्पसंख्यक किन्तु सर्वाधिक प्राचीन तथा वास्तव में भारतवर्ष की कई स्थलों पर कहीं अधिक सफलतापूर्वक कर भी रहे हैं। हमारे | मूल जैन समाज, जैन धर्म, दर्शन, संस्कृति, कला तथा प्राकृतभाषा पास ऐसे प्रशिक्षित तथा समर्पित युवाओं को नियोजित करने के | वैभव के संरक्षण, संवर्धन के लिए भी कुछ स्थायी बजट बनायें लिए चिरकालिक बृहद् योजनाओं का नितान्त अभाव है। कामचलाऊ । तभी सच्चे लोकतंत्र का सम्मान भी रह सकेगा। इस आलेख के और अल्पकालिक योजनाओं से जिनका खुद का कोई भविष्य माध्यम से मेरा निवेदन है सभी आदरणीय विद्वानों, जिनवाणी के नहीं है, कुछ नहीं होता। सेवक विद्यार्थियों, सभी सामाजिक विचारकों तथा मुनिराज एवं विचार बिन्दु आर्यिका माताओं से कि वे इस विचार श्रृंखला को यहीं विराम न बात साफ है ऊँचे-ऊँचे आदर्शों को लेकर अपनी शिक्षा | दें, बल्कि खुले रूप से इन विचारों में परिष्कार, बहस, सहमति, की शुरुआत करने वाली ये पीढ़ी, शिक्षा पूरी करने के उपरान्त जब असहमति को अभिव्यक्त करें और उन्हें मुझे लिखें अथव पत्रखुद को जीवन के वास्तविक धरातल पर पाती है तब उसे एक पत्रिकाओं में प्रकाशित करवायें। ताकि इस विषय पर सार्वजनिक ऐसे ही विरोधी जीवन से गुजरना पड़ता है। उसे पहली बार | रूप से गहन विचार-विमर्श चले। उससे हो सकता है कि हम महसूस होता है कि बहुत अल्पावस्था और अल्पज्ञान में मिल | किसी स्थायी निष्कर्ष पर पहुँच जायें। चुके मंचीय मायावी फूलमालाओं का सम्मान और प्रतिष्ठा ने उसे | रही बात स्याद्वाद महाविद्यालय के शताब्दी समारोह की, वास्तविक जीवन और ठोस बुनियादी सरोकारों से कितना दूर कर मैंने कहीं एक पंक्ति पढ़ी थी- 'देश हमें देता है सब कुछ, हम भी दिया था। जिसके छद्म दायरे में रहकर वह अपनी ज्ञानाराधना को तो कुछ देना सीखें'। इसी तर्ज पर बस इतना हीविद्यातप की उस भट्टी में तपाकर निखार नहीं पाया जिससे 'स्याद्वाद' ने दिया बहुत कुछ निखरकर वास्तविक अर्थों में शास्त्रीय सैद्धान्तिक गहनता आती है हम भी तो कुछ देना सीखें। और व्यक्तित्व तेज होता है तथा वाणी में गम्भीर वाक्चातुर्य सामने बनें कृतज्ञ कृतघ्न नहीं। आता है। रूढ़िग्रस्त और अर्ध शिक्षित समाज द्वारा प्रवचनादि के अर्जन के साथ विसर्जन सीखें। लिए अल्पावस्था में मिले सम्मानित सामाजिक उपाधियों के अध्यक्ष - जैन दर्शन विभाग अलंकार, मन को बहकाने वाले अभिनन्दन और सम्मानपत्रों के श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ (मानित विश्वविद्यालय) नई दिल्ली - ११००१६ -फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित 25 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव की विकृत सोच : ईर्ष्या डॉ.नरेन्द्र जैन 'भारती' परमात्मा की सर्वोच्च रचना (कृति) है मानव। सम्यक् | पत्रकार अच्छा लेखक तथा संवाददाता हो सकता है, परंतु वह भी श्रद्धा, सम्यक ज्ञान और सम्यक् आचरण रूप तीन रत्नों की शक्ति | आगे बढ़ने के लिए दूसरे को पीछे धकेलना चाहता है। अपने इस स्वाभाविक रूप से उसे मिली है। परंतु कर्माधीन होने के कारण | अहं की पूर्ति के लिए वह अपने समान कार्य करने वाले लेखकों, व्यक्ति को कभी इनका लाभ मिल पाता है, कभी नहीं। मनुष्य | विद्वानों और समाचार प्रेषकों के समाचार इसलिए नहीं छापता यदि सत्कर्म करता है तो उसे श्रेष्ठ फल मिलता है। परंतु यदि क्योंकि उसके अंदर ईर्ष्या की भावना कार्य कर रही है। विद्वान विपरीत (बुरे) कार्य करता है, तो उसे अच्छा फल भी नहीं | तथा साधु भी आज एक दूसरे के अच्छे कार्यों की प्रशंसा नहीं मिलता और दुःखी भी रहता है । व्यक्ति अच्छी सोच के साथ | करते। ये सब ईर्ष्या के ही कारण हैं। ईर्ष्या का कर्म सभी जगह कार्य करें तो उसके विकृत विचार समाप्त होते हैं। इन विकृत दुखदायी है। आचार्य ज्ञान सागर जी महाराज ने लिखा है-- विचारों में एक प्रमुख सोच है - ईर्ष्या। द्वेष, बैर, विरोध, हिंसा जो जैसा करता है वैसा दुःख और सुख भ ता है। की उत्पत्ति का कारण ईर्ष्या है। किसी ने कहा है - मिश्री खाने से मुँह मीठा, जहर से तो नर मरता है। आदमियों से भरी ये भली दुनिया मगर। अर्थात जो व्यक्ति जैसा करता है उसी के अनुसार दुःख आदमी को आदमी से ही है खतरा बहुत॥ और सुख को प्राप्त करता है। यदि व्यक्ति मिश्री को खायेगा तो उसका सम्पूर्ण सृष्टि में अनंतानंत जीवराशि भरी पड़ी है। जिन्हें | मुँह मीठा होगा लेकिन जहर खायेगा तो मनुष्य मरता ही है। ईर्ष्यालु नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति के जीवों में विभक्त किया गया | व्यक्ति की कुछ विशेषताएँ होती हैं। ईर्ष्यालु व्यक्ति निरंतर दूसरे के कार्यों है। इन सभी गतियों में मनुष्य गति को श्रेष्ठ बताया गया है, को देखकर जलता है, घमंड करता है, कपट की भावना उसमें भरी क्योंकि मानव त्याग और तपस्या के माध्यम से शांति, समता, | रहती है। कपट की स्थिति ठीक इसतरह होती हैसद्भावना, सहिष्णुता का अनुकरण कर स्वर्ग त ! मोक्ष प्राप्त कर तन गोरा मन सांवला, बगुले जैसा भेष। लेता है। इस दुनिया में असंख्य मानव हैं जो किसी न किसी तो सो तो कागा भला, भीतर बाहर एक। आध्यात्मिक शक्ति या धर्म से जुड़े हुए हैं, परंतु आज भी मनुष्य ईर्ष्यालु व्यक्ति का मन काला (विकृत) होता है और शरीर को मनुष्य से ही बहुत खतरा है। इसका कारण है - ईर्ष्या । पूज्य गोरा होता है। जैसा बगुला बाहर से सफेद होता है परंतु मन मैला मुनि श्री तरुणसागर जी महाराज ने एक प्रवचन में कहा था कि होता है क्योंकि उसके विचार निरंतर मछली पकड़ने के ही होते हैं। आदमी इसलिए दुःखी नहीं है कि उसके पास भौतिक साधनों | मछली खाने पर ही उसका ध्यान केन्द्रित रहता है। जबकि कौवा की कमी है, वरन् इसलिए दुःखी है, कि उसका पड़ौसी सुखी जैसा बाहर से होता है वैसा ही अंदर (मन) से भी होता है। ईर्ष्यालु क्यों है। साम्राज्यवादी देश अमेरिका शक्ति संपन्न है, परंतु चिंतित | मानव भी बड़े स्नेह और प्रेम से मिलता है, परंतु उसका स्नेह दिखावा इसलिए है कि दूसरे देश उन साधनों की प्राप्ति हेतु क्यों प्रयास कर | ही होता है। एक स्थान पर मैं और मेरा एक साथी जिसे मैं अपना रहे हैं, जो उनके पास हैं। देश, समाज तथा व्यक्ति आज सकारात्मक अभिन्न मित्र समझता था, एक साथ गये। मेरे मित्र को मेरा परिचय सोच के साथ आगे न बढ़कर नकारात्मक सोच से आगे बढ़ रहे | देना था। उन्होंने मेरे परिचय में वह सब कुछ कहा, जो वह मेरी हैं। समाज का हर व्यक्ति चाहे वह राजनैतिक हो या सामाजिक | | प्रशंसा में कह सकता था। परंतु बाद में पता चला कि उसी व्यक्ति वह कार्य तो करना चाहता है परंतु साथ ही यह भावना भी कार्य | की विकृत सोच (ईर्ष्या) के कारण मेरा शाल और प्रशस्ति पत्र से करती है कि दूसरा व्यक्ति वह कार्य न करे। धनाढ्य ही नहीं | सम्मान न हो सका। इतना ही नहीं हमारे पूरे प्रवचन को अपने निर्धन लोगों में भी ईर्ष्या देखी जाती है। समाजसेवी, विद्वान, | विचारों में समाहित कर पेपरों में छपवा दिया। आज सभी जगह पंडित, क्रियाकाण्डी, साधु, साध्वियाँ तथा आम आदमी सभी में | कमोवेश यही स्थिति देखने को मिल रही है। ऐसे व्यक्तियों को ईर्ष्या देखी जा रही है। समाजसेवी प्रतिस्पर्धी बनकर समाजसेवा समझना चाहिए। कर रहा है , वह चाहता है कि मेरा मंच हो, मेरे साथी हों, मेरे दीप निष्ठा का जले तो आँधियाँ बाधक न होंगी। साथी ही मंच पर बैठें, मेरे ही साथी कार्यक्रमों की अध्यक्षता करें, आदमी में लगन हो तो, मजबूरियाँ बाधक नहोंगी। मेरे ही संचालक हों परंतु चंदा के लिए कार्यक्रम सामाजिक । एक आज की स्थिति यह है कि व्यक्ति की कार्य के प्रति 26 फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लगन और निष्ठा नहीं है वह तो सिर्फ नाम के लिए ही कार्य करना | निकालने के लिए हम सभी को ऐसा सोचना चाहिए - चाहते हैं । यदि कार्य सच्चे मन से किया जाये तो कोई मजबूरी कोई किसी से क्या ले जाता है। बाधक नहीं बन सकती। ईर्ष्या को समाप्त करने के लिए हमें सिर्फ कोई किसी को क्या देजाता है। यही ध्यान रखना चाहिए। आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज के दो पल धीरज के बोल दो। शब्दों में तुम्हारी जेब से क्या जाता है। स्वार्थ प्रतिसभी कोई किसी का नहीं। इसीलिए हम सभी का यह कर्त्तव्य है कि जितना भी समय मैं हूँ तुम्हा:। और मेरे तुम यहाँ हैं क्यों नहीं॥ हमें मिला है इसका उपयोग समाज कल्याण, लोगों की भलाई, दया तुम सोचकर खो कि दुनिया सहज दुःखों से है भरी। धर्म के पालन तथा धैर्य धारण करने में लगायें। जब हम किसी को जाता नहीं है साथ में यह देह भी इस जीव का। कुछ भी नहीं दे सकते, तो फिर तुम्हारी, ईर्ष्या की सोच से भी आत्मा इस संसार में सभी व्यक्ति स्वार्थी हैं कोई किसी का नहीं का कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। संसार में आप किसी का कुछ है। यह दुनियाँ तो दुःखों से ही भरी हुई है, यहाँ कोई किसी के नुकसान भी कर सकते हैं परंतु आपका अशुभ कर्म आपको दुःख ही साथ नहीं जाता है , यहाँ तक कि यह शरीर भी जीव के साथ पहुँचायेगा। आप किसी से ईर्ष्या करें और आपको सुख भी मिलता नहीं जाता है। अतः विचार करो कि ईर्ष्या के भाव से हमें सुख | रहेगा, ऐसा किसी भी स्थिति में संभव नहीं है। इसलिए ईर्ष्या के कहाँ मिल सकता है? ईर्ष्या तो दुःखों की जननी है द्वेष, बैर, विकृत विचार को मन से निकालने का निरंतर प्रयास करते रहना विरोध, डाह आदि सब ईर्ष्या के परिणाम मानना चाहिए। शांति, चाहिए। यह विचार निरंतर रखना चाहिए कि ईर्ष्या दु:ख का.मूल, सदाचार और सदभावना को ईर्ष्या नष्ट कर देती है। जबकि इनके | पतन का कारण तथा लक्ष्य प्राप्ति में बाधक है। बिना सच्चे सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती। ईर्ष्या को मन से सनावद (मध्य प्रदेश) कृपया ध्यान से पढ़िए कृपया ध्यान से पढ़िए नींबू का सत ( टांटरी) मांसाहारी है नींबू का सत-फूल - CITRIC ACID नींबू सत, नींबू से नहीं बनता। यूँ कहो तो चलेगा कि नींबू और खट्टे फल से भी इसका दूर-दूर तक वास्ता नहीं। बल्कि कई रासायनिक प्रक्रियाओं द्वारा प्राप्त होने वाला यह पदार्थ असंख्य जीवों की हिंसा से बनता है। शक्कर बनाते समय शीरा अर्थात् एक प्रकार का मीठा प्रवाही बचता है। उस मीठे प्रवाही को एक बड़े धातु के बर्तन में लिया जाता है, फिर २५० ग्राम (पाव किलो) जितने, विशेष प्रकार के जीवाणु उसमें डाले जाते हैं। जिनका हलन-चलन माइक्रोस्कोप से देखा जा सकता है। पलक झपकते ही इन जीवाणुओं की संख्या बढ़ती चली जाती है। ये जीवाणु आहार (भोजन) में मीठा प्रवाही लेते हैं और निहार द्वारा खट्टा प्रवाही बाहर निकालते हैं। यह प्रक्रिया निरंतर सात दिन तक चलती रहती है। सात दिनों के बाद प्रवाही खट्टा हो जाने पर उसे गर्म भाप से निकाला जाता है, जिससे उसमें रहे हुए सभी जीवाणुओं का नाश हो जाता है। फिर उस प्रवाही को बारीक छलनी (फिल्टर) से छाना जाता है। छलनी में मरे हुए जीवाणुओं का आठ से दस किलो लोंदा निकलता है, जिसे थोड़े ही समय में जमीन में गाड़ दिया जाता है। फिर से उबाला जाता है, जिससे प्रवाही मोटा बन जाता है। जिसमें से मशीन से छोटे-छोटे पारदर्शी क्रीस्टल बनाये जाते हैं। ये क्रिस्टल अर्थात् नींबू सत या नींबू के फूल के नाम से पहचाना जाता है। इसका उपयोग शीतल पेय. पीपरमेंट, चॉकलेट, शरबत, दवाई, नमकीन एवं रसोई में किया जाता है। इतनी हिंसक प्रक्रिया को जानने के बाद अहिंसा प्रेमी एवं साधु-संत, समाज इसका प्रचार कर इसके उपयोग को बंद करने का निश्चय करें और इसके विकल्प से काम करने की आदत डालें। संभावित विकल्प नींबू का ताजा रस, टमाटर का सिरका, इमली का पानी, आँवले का रस, खट्टे फलों का रस, खट्टे शाक-सब्जी जड़ी बूटी आदि....... संकलन : सौ. सरिता जैन, नंदुरवार -फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित 27 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जानिए कि हम क्या खा रहे हैं डॉ. अनिल कुमार जैन कुछ दिनों पहले हम ट्रेन में सफर कर रहे थे। हमारे निकट , वास्तव में कुछ बड़े होटल दो-तीन फ्लेवर मिलाकर अपना नया एक सहयात्री बैठे थे। बातचीत के दौरान पता चला कि वे भी जैन | फ्लेवर बना लेते हैं। इसीलिए आपको कई बार एक ही होटल का हैं। हमने उनसे पूछा कि आप क्या काम करते हैं? तो उन्होंने बताया | खाना पसन्द आता है। कि उनके एडीबिलं (खाद्य) कलर्स,फ्लेवर्स तथा प्रिजर्वेटिव्स का जैन - फ्लेवर कितने तरह के हैं तथा ये किनसे बनते हैं? व्यवसाय है। मेरी उनमें दिलचस्पी बढ़ने लगी। मैंने उनसे पूछा कि शाह- मेरे पास सौ प्रकार के फ्लेवर हैं- सभी मसालों, आपका नाम क्या है, तो उन्होंने बताया जसु भाई शाह। फिर तो हम ड्राइ-फ्रूट्स, कोल्ड ड्रिंग आदि सभी के हैं। हींग का फ्लेवर तो दोनों के बीच लम्बी बातचीत चली उसके कुछ संक्षिप्त अंश निम्न | बहुत अच्छे वाला है। मेरे पास अभी एक लेटैस्ट फ्लेवर आया है, प्रकार हैं। बासमती चावल का अभी, यह महँगा है, बारह सौ रूपये किलो। जैन - तो क्या आप आइसक्रीम के फ्लेवर भी रखते हैं। । १ किलो चावल में एक ग्राम पड़ता है। ये सभी फ्लेवर प्रायः शाह-हाँ। सिंथेटिक कैमीकल्स ही होते हैं। कुछ का अव निकाल कर भी जैन - तो एक बात यह बताईये में कि क्या आइसक्रीम में | बनाया जाता है, लेकिन वह मँहगा पड़ता है। कुछ मांसाहारी पदार्थ भी पड़ता है? जैन- जब ये फ्लेवर सिंथेटिक कैमीकल्स हैं तो क्या शाह - कलर और फ्लेवर में तो नहीं होता, स्टेबिलाइजर | नुकसान नहीं करते? में जिलेटिन से बनता है। जिलेटिन पशु जन्य पदार्थ है। लेकिन सभी । शाह- कुछ देशों में तो इनके प्रयोग पर पाबन्दी लगा दी है। आइसक्रीम निर्माता इसका उपयोग नहीं करते। प्रायःकर जो लोकल | लेकिन भारत में चलता है। यदि फ्लेवर्स न हो तो यहाँ की आबादी आइसक्रीम बनाते हैं वे तो इस्तेमाल करते ही हैं। के लिए खाद्य पदार्थों की आपूर्ति ही मुश्किल हो जाय। हाँ, लेकिन जैन - वाड़ीलाल आइसक्रीम वाला तो विज्ञापन में देता है जो अच्छी कम्पनियाँ हैं उन्होंने अपने पैक्ड आइटम्स पर कैमिकल कि प्योर वेजीटेरियन। फ्लेवर एवं कलर' लिखना प्रारम्भ कर दिया है। यह उपभोक्ता के शाह - हाँ, हो सकता है कि वह न करता हो। ऊपर है कि उसे खरीदें या नहीं। वैसे भारत में तो इनकी डिमाण्ड जैन - अच्छा तो फ्लेवर्स के बारे में कुछ बताईये। बढ़ ही रही है। शाह- आज हर चीज का फ्लेवर आता है-- सारे मसाले, जैन- तो क्या कलर भी सिंथेटिक होते हैं। फल और मेवाओं का। आप नाम लीजिए तो सही। शाह - हाँ, वे भी सिंथेटिक कैमीकल्स ही होते हैं। पहले जैन - घी, दूध और क्रीम आदि का तो नहीं आता होगा | पैक्ड आइटमों में प्राकृतिक खाद्य कलर पड़ते थे। अब तो सिंथेटिक शाह- क्या बात करते हो, इन सब का फ्लेवर आता है। घी ही चलते हैं। तो ये थे श्री जसुभाई शाह से हुई बातचीत का सारांश। के फ्लेवर की तो अच्छी डिमाण्ड है। वास्तव में कलर्स एवं फ्लेवर्स वस्तु को इतना आकर्षक लुभावना एवं जैन - और दूध का फ्लेवर? इसकी क्या जरूरत है? दूध | सुगंधित बना देते हैं कि ग्राहक इन्हें देखते ही खरीद ले। उनमें वह तो आसानी से उपलब्ध हो जाता है। गुण है कि नकली वस्तु को भी असली से ज्यादा असली बना दें। शाह- नहीं, दूध का फ्लेवर भी खूब चलता है। इसे बेकरी | इन कलर्स और फ्लेवर्स युक्त खाद्य पदार्थों के आगे घर के बने शुद्ध वाले स्तेमाल करते हैं। जितने भी मिल्क बिस्कुट आते हैं उन सब | पदार्थ अच्छे भी नहीं लगते। इन सबके कारण उपभोक्तावाद के युग में दूध का फ्लेवर स्तेमाल होता है। यदि प्योर दूध बिस्कुट बनाया | में इनका प्रयोग दिन पर दिन बढ़ रहा है। जाय तो उसमें वह स्वाद ही नहीं आयेगा। इसी प्रकार क्रीम बिस्कुट | तो हमने जाना कि हम होटलों में जो लज़ीज़ और लिज्जतदार में क्रीम का फ्लेवर पड़ता है। दूध और क्रीम को छोड़िए खोवे खाना खाकर आते हैं, या फिर देशी घी से निर्मित मिठाई, स्वादिष्ट (मावा) का भी फ्लेवर आता है। आप जो काजू कतली खरीदते हैं | काजू कतली, बादाम व पिस्ता की मिठाई तथा ड्राइ-फ्रूट्स युक्त उसमें प्रायः कर सींगदाना होता है, लेकिन फ्लेवर काजू का डाला आइसक्रीम खाते हैं या कोल-ड्रिंग्स आदि पीते हैं उन सबके जाता है। आइसक्रीम में भी ड्राइ-फ्रूट्स के फ्लेवर स्तेमाल होते हैं। | स्वादिष्ट होने का राज है- सिंथेटिक कलर्स एवं फ्लेवर्स, जो कि जैन-आईसक्रीम, बेकरी, आईटम, तथा काजू कतली में फ्लेवर | हानिकारक होते हैं तथा जिनके प्रयोग पर कई विकासशील देशों ने तो समझ में आया, लेकिन मसालों के फ्लेवर की क्या जरूरत है? | पाबन्दी लगा दी है। शाह - प्रायः सभी होटलों में बिना मसालों के फ्लेवर के | इतना सब जान लेने के बाद अब बाजार की निर्मित वस्तुएँ काम ही नहीं चलता है। यदि सिर्फ असली मसाले डाले जायें तो | खायें या नहीं, यह मर्जी है आपकी। आपको वह स्वाद नहीं आयेगा जो फ्लेवर के साथ आता है। कई बी-२६, सूर्यनारायण सोसायटी, बार लोग कहते हैं कि अमुक होटल का खाना बहुत लजीज है, साबरमती,अहमदाबाद 28 फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पॉलीथिन प्रदषण स्वास्थ्य के लिए खतरा डॉ. उमेशचन्द्र अग्रवाल आजकल हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में प्लास्टिक की हमारे यहाँ हाल के कुछ वर्षों में प्लास्टिक के प्रयोग में थैलियों, डिब्बों और बोतलों के बढ़ते प्रयोग ने जहाँ अभी तक शहरी | बढ़ोतरी हुई है। भारत में प्लास्टिक उद्योग वर्तमान में 15 प्रतिशत क्षेत्रों में सीवर लाइनों को अवरुद्ध कर वातावरण को दुर्गंधपूर्ण | की दर से वृद्धि कर रहा है। देश में पिछले एक दशक में प्लास्टिक बनाने, अनेक पशुओं को मौत के मुँह में धकेलने और मानव स्वास्थ्य के उत्पादन और प्रयोग में लगभग पाँच गुना वृद्धि होकर वर्तमान में पर गंभीर बीमारियों के रूप में घातक प्रभाव छोड़ने में अहम भूमिका ! इसकी खपत 15 करोड़ टन से भी अधिक हो गई है। पूरे देश में निभाई है वहीं अब हमारे गाँव भी तेजी से इसकी चपेट में आने लगे | प्लास्टिक निर्माण से संबंधित कई लाख प्लांट स्थापित हैं। हाल ही हैं। गाँवों में यदि इसी प्रकार इनका प्रयोग बढ़ता रहा तो वह दिन | में किए गए एक अध्ययन के अनुसार प्लास्टिक ही कुल खपत में दूर नहीं जब गाँवों में पॉलिथिन के कहर से हमारी बहुत सारी | 40 प्रतिशत का प्रयोग पॉलिथिन की थैलियों के रूप में होता है। कृषियोग्य भूमि अनुपजाऊ भूमि में तब्दील होने लगेगी, अनेक | केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा हाल ही में जारी आँकड़ों के पालतू पशु इसके कारण मौत के मुँह में समाएंगे और गाँव के लोग | अनुसार भारत में पाँच वर्ष पूर्व प्रति व्यक्ति प्लास्टिक की खपत 1.4 इससे होने वाली अनेक गंभीर बीमारियों से अपने को बचाने में | किलोग्राम थी जो आज 4 किलोग्राम से भी अधिक हो गई है। असमर्थ और असहाय ही पाएंगे। आज जीवन के हर क्षेत्र में प्लास्टिक का बोलबाला है। हम उल्लेखनीय है कि पॉलिथिन और प्लास्टिक केवल उपयोग | रोज सुबह उठकर प्लास्टिक से बना हुआ टूथब्रश प्रयोग करते हैं करने या उसके बाद ही प्रदूषण नहीं फैलाते बल्कि इनकी फैक्ट्रियों | हमारे घरों में लोहे की बाल्टियों की जगह अब प्लास्टिक की में काम करने वाले लोग तथा आसपास का वातावरण भी इसके | बाल्टियों ने ले ली है। लकड़ी के फर्नीचर की जगह अब प्लास्टिक घातक प्रभाव से ग्रसित हो जाते हैं। प्लास्टिक फैक्ट्रियों में काम | का दिखने में खूबसूरत फर्नीचर बहुतायत से प्रयोग हो रहा है। खाने करने वाले मजदूरों को चर्म रोगों, श्वसन तंत्र संबंधी रोगों, यकृत, के लिए प्लास्टिक से निर्मित मेलेमाइन की क्राकरी का प्रयोग बढ़ता फेफड़े तथा त्वचा कैंसर जैसे भयानक रोगों से ग्रसित करने के साथ- | जा रहा है। प्लास्टिक की बोतलों में मिनरल वाटर बहुतायत से साथ यह संपूर्ण पर्यावरण के लिए घातक सिद्ध हो रहा है। प्रचलन में आ रहा है। दवाओं की पैकिंग, मशीनों तथा अन्य प्रयोग प्लास्टिक बनाने और नष्ट करने के लिए, जलाने से भी में आने वाले अनेक कलपुर्जे आज प्लास्टिक के बने इस्तेमाल हो अनेक विषैले तत्व जैसे फिनाल, फासजीन, हाइड्रोजन-सायनाइड, | रहे हैं। राशन, फल, सब्जी, अचार, जूस, दूध, दही, आटा, तेल हाइड्रोजन-फ्लोराइड तथा नाइट्रोजन के अनेक तत्व निकलते हैं। ये | और घी जैसी रोजमर्रा के प्रयोग की सभी खाद्य सामग्री आज सभी मानव के श्वसन तंत्र के लिए अति हानिकारक हैं। इनसे | प्लास्टिक की थैलियों में आने लगी है। इसके इस अंधाधुंध प्रयोग खाँसी,सांस लेने में दिक्कत, आँखों में जलन, चक्कर आना, | ने मानव स्वास्थ्य के खतरे तथा निष्प्रयोज्य थैलियों आदि को नष्ट माँसपेशियाँ शिथिल होना तथा हृदय गति बढ़ने जैसी बीमारियाँ पैदा | करने हेतु अपनाए जा रहे तरीकों ने पर्यावरण प्रदूषण संबंधी कुछ होती हैं और इनका गंभीर दुष्प्रभाव मनुष्य के स्वास्थ्य व पर्यावरण | जटिलताएँ पैदा की हैं जिनके निराकरण हेतु तुरंत उपाय ढूंढकर दोनों पर बहुत अधिक पड़ता है। ऐसे दुष्प्रभावी तत्वों के बावजूद | प्रभावी कदम उठाने होंगे। आजकल उपभोक्ताओं में रोजमर्रा की जरूरतों में प्लास्टिक इतनी प्लास्टिक जिससे पॉलिथिन बैग बनाए जाते हैं , एक गहरी जड़ें जमा चुका है कि इसके प्रयोग को पूर्णतया रोकना । | जटिल पालीमर है, जिसमें फास्फेट, कंपोराइड, सल्फेट, पराबैंगनी मुश्किल है और कुछ क्षेत्र जैसे बिजली, इलेक्ट्रानिक्स, दूरसंचार, | तत्व, प्लास्टिसाइजर, सटैबीलाइजर रंग, मोनोमर तथा ए.डी.टी. आटोमोबाइल आदि तो ऐसे हैं जहाँ इसका प्रयोग कोई अन्य विकल्प बस आदि का सम्मिश्रण रहता है। प्लास्टिक मुख्य रूप से दो प्रकार नहीं होने के कारण अपरिहार्य लगने लगा है। के होते हैं- एक थरमोस्टेटिंग तथा दूसरे थर्मोप्लास्टिक/थर्मोस्टेटिंग। अपनी कुछ खास खूबियों जैसे हल्के, सस्ते, टिकाऊ और | प्लास्टिक गर्म होने पर विघटित होता है, जबकि थर्मोप्लास्टिक गर्म आकर्षक होने के कारण पिछले कुछ वर्षों में ही प्लास्टिक का प्रयोग | होने पर विघटित नहीं होता, वैज्ञानिकों के अनुसार प्लास्टिक को विभिन्न क्षेत्रों में इतनी तेजी से बढ़ा है कि आज दैनिक कार्यों में | जमीन में दबा देने पर इसके नष्ट होने में लगभग 250 वर्ष तक लग प्रयोग आने वाली छोटी-छोटी चीजों से लेकर बड़ी-बड़ी और | जाते हैं और इसके जलाने से नष्ट करने पर इससे अति विध्वंसकारी कीमती मशीनों के कलपुर्जे तक प्लास्टिक से बनाए जाने लगे हैं। गैसें निकलती हैं जो मानव स्वास्थ्य के साथ-साथ पेड़-पौधे और तभी विश्वभर में 100 मिलियन टन के करीब प्लास्टिक का उत्पादन | पशु-पक्षियों पर भी दूषित प्रभाव छोड़ती हैं। प्लास्टिक निर्माण में प्रतिवर्ष हो रहा है और भारत एशिया में प्लास्टिक का चौथा सबसे प्रयुक्त होने वाले अवयवों व उनमें प्रयुक्त होने वाले कार्बनिक एवं बड़ा आयातक देश है। फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित 29 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकार्बनिक रसायनों और उनमें प्रयोग होने वाले विषाक्त रंगों के | स्थित नेशनल एन्वायरमेंट ट्रस्ट द्वारा किए गए शोध निष्कर्षों के कारण ये हर प्रकार से हानिकारक होते हैं। प्लास्टिक के इन | अनुसार खाद्य पदार्थों को पॉलिथिन की थैलियों में रखे जाने पर अवयवों का उनके उपभोक्ताओं के स्वास्थ्य पर भी काफी दुष्प्रभाव | पॉलिथिन से एक विषैला रसायन (विस फिनाइल) निकलता है जो पड़ता है। यदि प्लास्टिक निर्माण में सही रसायनों का प्रयोग उचित | खाद्य पदार्थों को विषैला कर देता है। मात्रा और निर्धारित सीमा में नहीं किया गया तो अधिक तापमान, 6. विशेष रूप से सड़कों और कूड़ों के ढेरों से एकत्रित की अम्लीय एवं क्षारीय अवस्था में उसके रासायनिक तत्व बाहर गई पॉलीथिन की थैलियों की प्रोसेसिंग के बाद दोबारा तैयार की निकलकर उसमें रखी सामग्री में मिलकर उसे विषाक्त बना देते हैं। | गई थैलियों में लाई गई खाद्य सामग्री अधिक प्रदूषित हो जाती है। पॉलिथिन/प्लास्टिक के प्रयोग से खतरे : प्लास्टिक, | जिससे मानव स्वास्थ्य पर घातक प्रभाव पड़ता है। यद्यपि ऐसी पॉलिथिन बैग या डिब्बों अथवा बोतलों में विभिन्न खाद्य पदार्थों की | थैलियों का निर्माण, क्रय-विक्रय और प्रयोग को प्रतिबंधित कर पैकिंग करने और लाने-ले जाने के लिए इनका इस्तेमाल करने से | दिया गया है। लेकिन प्रतिबंधित का कहीं भी कोई खास प्रभाव खाद्य पदार्थों के प्रदूषित हो जाने से स्वास्थ्य को तो खतरा होता ही | नजर नहीं आ रहा है। है, साथ ही प्रयोग के उपरांत इनको फेंक देने या नष्ट करने से भी 7. नवीनतम शोध परिणामों से प्राप्त नि कर्ष बताते हैं कि पर्यावरण, मानव, भूमि, जलस्त्रोत तथा पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, | पॉलिथिन की थैलियों का इस्तेमाल लोगों को नपुंसक बना सकता वनस्पति आदि सभी पर इनका अति हानिकारक प्रभाव होता है। | है और साथ ही सेक्स संबंधी अन्य विकृतियाँ पैदा कर सकता है। सामान्य तौर पर इसके निम्नांकित दृष्प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देते | 8. नदी और तालाबों में पॉलीथिन के थैले में रखकर फेंके गए पदार्थों के कारण पॉलीथिन के पानी के नीचे बैठ जाने पर जल 1. कूड़े-करकट, शाक-सब्जी के छिलकों और बेकार | में उगने वाली लिचिन, मांस आदि वनस्पतियाँ नष्ट भी हो जाती है खाद्य पदार्थों को पॉलीथिन की थैलियों के साथ फेंके जाने से इन्हें | तथा वहाँ पर और भी उग नहीं पाती जिससे वहाँ इन वनस्पतियों गायों, सूअर, बंदर, कुत्ते आदि पशुओं द्वारा खा लिए जाने पर उनकी | पर निर्भर करने वाले जीव-जंतु नष्ट हो जाते हैं। जान तक का खतरा रहता है। क्योंकि ये उनकी आंतों में फंस जाती | 9. बहुतायत से प्रयोग में लाई जा रही पॉलीथिन की हैं और इससे पाचन संबंधी विकार होने के साथ-साथ पशुओं की | थैलियाँ नाले-नालियों तथा शहरी क्षेत्रों में सीवर लाइनों में पहुँचकर मौत तक हो जाती है। पिछले 5-7 वर्षों में इनके कारण पशुओं की | उनको अवरूद्ध कर देती है। जिससे आजकल विशेष रूप से सभी मौतों में बड़ी तेजी से वृद्धि हुई है। बड़े नगरों में नालों और सीवर जाम की समस्याएँ आम रूप से उत्पन्न 2. पॉलीथिन बैग्स, प्लास्टिक की बोतल या डिब्बों को नष्ट | हो रही हैं और वहाँ वातावरण प्रदूषण बढ़ रहा है। करने के उद्देश्य से इसे जमीन में दबा देने से अथवा इनके किसी भी | 10. पॉलिथिन में पाए जाने वाले कुछ घातक तत्व जैसे तरह खेतों में पहुँचकर मिट्टी में दब जाने से भूमि प्रदूषण होता है। पॉलिविनायल क्लोराइड, कैडमियम, जस्ता, लैड, मिथाइल, भूमि के पोषक तत्व नष्ट हो जाते हैं। ऐसे स्थान पर कोई पौधा भी | एक्रिलेमाइड, आक्टाइल, थैलेट कैंसर के अतिरिक्त गुर्दे और फेफड़े नहीं उग पाता और अन्तत: ये कृषियोग्य भूमि को बेकार बना देते | संबंधी बीमारियों के लिए विशेष रूप से उत्तरदायी होते हैं। हैं क्योंकि जमीन में इनके गलने में अनेक वर्ष लग जाते हैं। मिट्टी 11. पॉलीथिन को जलाने पर हाइड्रोजन क्लोराइड, क्लोरीन में इनके दबे होने के स्थान पर कोई भी पेड़-पौधे उग नहीं पाते हैं | और सल्फर-डाइआक्साइड नामक खतरनाक गैसें निकलती हैं और उपजाऊ भूमि धीरे-धीरे बंजर होने लगती है। जिनमें दम घुटने का खतरा रहता है। 3. जमीन में प्लास्टिक या पॉलिथिन दबा देने से उसके | 12. प्लास्टिक के जूते और इसी के अवयवों से बनने वाले आसपास का सतही जल भी प्रदूषित हो जाता है क्योंकि इससे पॉलिस्टर कपड़े पहनने से भी स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव होता है। जमीन के अंदर जल में विषैले तत्व पहुँच जाते हैं और उसे प्रदूषित इनके प्रयोग से अनेक प्रकार के चर्म रोग हो सकते हैं। जिनका कर देते हैं। उपचार भी बहुत कठिन होता है। 4. इसे नष्ट करने के लिए पॉलिस्ट्रीन प्लास्टिक जलाने से । नियंत्रण हेतुप्रभावी कदम : यद्यपि प्लास्टिक का नियंत्रित क्लोरोफ्लोरो कार्बन बाहर आते हैं जो जीवनरक्षक ओजोन परत को | उत्पादन तथा उपयोग ही पर्यावरण सुरक्षा का एकमात्र उपाय है। नष्ट करते हैं। इससे पराबैंगनी किरणों के पृथ्वी तक पहुँचने के कारण | इसके लिए सरकारी नीतियों के निर्माण के साथ व्यापक जनकैंसर जैसी भयानक बीमारियाँ उत्पन्न हो सकती है। सहभागिता भी जरूरी है। प्लास्टिक के उपयोग के खतरे और इसके 5. रंगीन पॉलिथिन में हानिकारक रंगों का प्रयोग किया | सुरक्षात्मक उपयोग के संबंध में जन सामान जाता है। इनमें तरल खाद्य पदार्थों जैसे दूध, दही, घी, पानी, जूस | देने के लिए वृहद स्तर पर प्रचार-प्रसार की भी महती आवश्यकता आदि में इनका रंग छूटकर मिल जाने से मानव स्वास्थ्य को गंभीर | है। इसे जनांदोलन के रूप में चलाने के लिए सरकारी प्रचार-प्रसार खतरा है और अनेक बीमारियों का कारण बन सकता है। वाशिंगटन | माध्यमों का भरपूर उपयोग, पंचायतों और स्थानीय संस्थाओं की 30 फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागीदारी, स्वैच्छिक और गैर सरकारी संगठनों का सहयोग तथा बायोफ्रेंडली/बायो डिग्रेडेबिलप्लास्टिक निर्माण के विभिन्न स्तरों के शैक्षिक पाठ्यक्रमों में इससे संबंधित जानकारी का | प्रयास : पिछले कुछ सालों से प्लास्टिक के बढ़ते कहर से छुटकारा समावेश काफी मददगार हो सकता है। समय रहते ही यदि इस ओर | पाने के लिए वैज्ञानिकों द्वारा नए-नए रास्ते तलाशे जा रहे हैं। इस ध्यान नहीं दिया गया तो इससे गंभीर परिणाम भुगतने पड़ेंगे। | दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है बायोफ्रेंडली अथवा बायोडिग्रेडेबल वास्तव में प्लास्टिक/पॉलिथिन के दुष्प्रभावों से मुक्ति पाने के दो | प्लास्टिक का विकास। इस प्रकार के प्लास्टिक के निर्माण में प्रमुख रास्ते हैं- पहला यह कि इसके उत्पादन और प्रयोग पर पूर्ण पेट्रोलियम पदार्थों का प्रयोग नहीं किया जाता। दिखने में और रूप से प्रतिबंध लगाकर अनुपालन किया जाए तथा दूसरे कदम के इस्तेमाल में यह आम प्लास्टिक के समान ही होता है। इसकी रूप में बायोफ्रेंडली अर्थात बायोडिग्रेडेविल प्लास्टिक को परंपरागत | | सबसे बड़ी खासियत है धरती में सहज ही घुल-मिल जाना। प्लास्टिक का प्रभावकारी विकल्प बनाकर उसके उपयोग को मूलत: बायोप्लास्टिक कृषि उत्पादों जैसे मक्का और आलू के स्टार्च बढ़ावा दिया जाए। से तैयार किए जाते हैं। पानी और ऊर्जा के संपर्क में आने पर ये ___ प्लास्टिक और पॉलीथिन पर प्रतिबंध के लिए समय-समय | आसानी से कार्बनिक पदार्थों में टूटकर मिट्टी में घुल जाते हैं। अभी पर विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा भी सभी देशों को इनके दुष्प्रभावों तक स्टार्च से तैयार बायोप्लास्टिक की तीन किस्मों का निर्माण हुआ से आगाह करते हुए इसके प्रयोग पर तुरंत प्रतिबंध लगाने को कहा | है। पॉलीइथाइलीन और पालीप्रोपीन से तैयार उसकी पहली किस्म जाता रहा है। हमारे देश में भी सरकार ने इस दिशा में पहल करते | में स्टार्च मात्र 5 से 20 प्रतिशत ही मौजूद था। कुछ खास हुए पॉलीथिन के प्रयोग को कानून बनाकर प्रतिबंधित और नियंत्रित | परिस्थितियों में इस प्लास्टिक का स्टार्च पानी में घुल जाता था करने का प्रयास किया है। विशेष रूप से पॉलीथिन की रिसाइकिलिंग | लेकिन पेट्रोलियम पदार्थों की बड़ी मात्रा यों ही रह जाती थी। से बनी थैलियों के उपयोग पर पाबंदी लगाई गई है तथा इन थैलियों | पहली पीढ़ी के बायोप्लास्टिक में सुधार करके वैज्ञानिकों के निर्माण हेतु मानक निर्धारित किए गए हैं ताकि इनके उपयोग से | द्वारा पहले से बेहतर नया प्लॉस्टिक तैयार किया गया। दूसरी पीढ़ी मानव स्वास्थ्य पर कम से कम प्रतिकूल प्रभाव हो। केंद्र सरकार के के इस बायोप्लास्टिक में स्टार्च के पालीमर गुणों को उपयोग में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा वर्ष 1999 में ही 'रिसाइकिल । लाया गया। इस प्लास्टिक में स्टार्च की मात्रा 50 से 70 प्रतिशत प्लास्टिक मैनुफैक्चर एंड यूसेज अधिनियम' पास किया गया | तक ही रही। यानी अभी भी ऐसे प्लास्टिक का एक बड़ा भाग जिसमें रिसाइकिल्ड प्लास्टिक से बनी थैली में खाने के लिए खाद्य | टूटकर नष्ट नहीं हो सकता था। विज्ञान की देन इस प्लास्टिक का पदार्थों का उपयोग निषिद्ध किया गया है। भारतीय मानक ब्यूरो ने सड़-गल कर नष्ट न होना पर्यावरण के साथ-साथ वैज्ञानिकों के इसी क्रम में अन्य मामलों के अतिरिक्त रिसाइकिल प्लास्टिक से बैग | लिए भी सिरदर्द बन गया। लगातार शोध के बाद फिर आया तीसरी बनाने के लिए पॉलीथिन की कम से कम मोटाई 20 माइक्रोन | पीढ़ी का बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक। इसे सही मायने में जैव निर्धारित की है। अपघटन कहा जा सकता है क्योंकि इसमें सिंथेटिक पॉलीमर्स का केंद्र सरकार द्वारा 4 जून 2000 को जारी राज्यों को दिए गए | जरा भी उपयोग नहीं किया गया है। यह न सिर्फ पर्यावरण की दृष्टि निर्देशों के अनुरुप अधिकांश राज्य सरकारों तथा स्थानीय निकायों | से सुरक्षित है बल्कि सेहत पर भी दुष्प्रभाव नहीं डालता क्योंकि यह द्वारा अपने-अपने स्थानीय प्रशासित क्षेत्रों में पॉलीथिन बैग्स के | प्रकृति में सड़-गलकर पूरी तरह नष्ट हो सकता है। ऐसा प्लास्टिक उपयोग को प्रतिबंधित किया गया है लेकिन इन प्रतिबंधों पर | अभी काफी महंगा है। पर्यावरण और स्वास्थ्य के प्रति सचेत होने समुचित रूप से अमल नहीं हो पा रहा है जो अत्यधिक दुर्भाग्यपूर्ण | के बावजूद जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा अधिक कीमत देकर इसे स्थिति है। इसलिए केंद्र और राज्य सरकारों, शहरी स्थानीय निकायों | अपनाने को तैयार नहीं होगा। तथा त्रिस्तरीय पंचायतों द्वारा इस समस्या के निराकरण हेतु बिना देर | प्लास्टिक टेक्नोलॉजीज नामक आस्ट्रेलियाई कंपनी ने इस किए इस संबंध में उपलब्ध काननू को प्रभावी रूप से क्रियान्वित | समस्या का भी निदान किया है। पिछले दिनों कंपनी ने एक ऐसा करने के लिए समुचित कार्यवाही कर इसका कड़ाई से अनुपालन | बायोप्लास्टिक तैयार किया है जो प्रचलित प्लास्टिक के समान ही सुनिश्चित कराना अति आवश्यक है। बायोफ्रेंडली प्लास्टिक का | सस्ता है। मक्का के स्टार्च से तैयार इस प्लास्टिक ने आम प्लास्टिक निर्माण और उपयोग इस समस्या के समाधान का दूसरा विकल्प है | से छुटकारा पाने के द्वारा खोले हैं। यह बायोप्लास्टिक इस्तेमाल की जिसमें स्टार्च एवं कम घनत्व वाली पॉली-इथीलिन को मिलाकर | दृष्टि से काफी टिकाऊ और सुरक्षित हैं। इसे उपयोग में लाने के बाद पानी और मिट्टी में घुलनशील योग्य प्लास्टिक बनाकर उपयोग में | इससे निपटने का झंझट भी नहीं है। वजह, यह पानी में पूरी तरह लाया जाये। इस प्लास्टिक से बनी पॉलीथिन की विशेषता है कि घुलनशील है। बायोप्लास्टिक 33 डिग्री फारेनहाइट पर और मिट्टी यह मिट्टी में दबा देने से उससे नमी पाकर मिट्टी के अंदर ही गलने | की नमी के संपर्क में आते ही गलने लगता है। हल्की-फुल्की लगती है और मजबूती में भी यह खास कम नहीं है। हालांकि यह | बारिश में मात्र एक घंटे में ही यह घुलकर मिट्टी में मिल जाता है। कीमत में कुछ अधिक है। -फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित 31 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिर अगले कुछ हफ्तों के दौरान कार्बनडाईआक्साइड और पानी में । फैले विशेष रूप से इसे ऐसे स्थान पर डाला जाए जहाँ यह पशुओं टूटकर पूरी तरह से गायब हो जाता है। प्लास्टिक कंपनी का दावा | की पहुँच से भी बाहर रहे और वे इसे खा नहीं पाएँ। तो यहाँ तक है कि आप चाहें तो इस प्लास्टिक को खा भी सकते 7. पॉलीथिन की थैली आदि को कुंओं, तालाबों, नदियों हैं। बायोप्लास्टिक का पानी में घुलनशील होना जहाँ इसे पर्यावरण आदि जल क्षेत्रों में नहीं फेंकना चाहिए। इससे इनका पानी प्रदूषित के अनुकूल बनाता है, वहीं इसका यही गुण इसकी सफलता पर | हो जाएगा और इसके उपयोग से अनेकानेक बीमारियाँ भी पनपेंगी। प्रश्नचिन्ह भी लगाता है। बायोप्लास्टिक की थैली में बाजार से | इससे पानी में रहने वाली मछलियाँ तथा अन्य मानवोपयोगी जीव सामान लिए आ रहा कोई व्यक्ति बारिश में फंस जाए तो थैली के | भी बुरी तरह प्रभावित होते हैं। साथ-साथ सारा का सारा सामान मिट्टी में मिल जाएगा। प्लास्टिक 8. प्लास्टिक के जूते भी यथासंभव प्रयोग नहीं करने कंपनी पानी में आसानी से न घुलने वाले बायोप्लास्टिक का निर्माण | चाहिए। यदि प्रयोग करने भी पढ़ें तो अच्छी क्वालिटी के ही तथा भी कर रही है लेकिन बायोप्लास्टिक थैली की कीमत उसकी जल | कम समय के लिए ही उपयोग में लाने चाहिए क्योंकि ये हमें त्वचा प्रतिरोधी क्षमता के हिसाब से बढ़ती जाएगी। ऐसे में लोग इसे | संबंधी जटिल रोगों से ग्रसित कर सकते हैं। कितना सुविधाजनक महसूस करेंगे, यह आने वाला समय ही 9. अधिक गहरे रंग और दिखने में भद्दी पॉलीथिन के बताएगा। उपयोग से यथासंभव बचने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि ये पुराने सुरक्षित उपयोग हेतु सावधानियाँ : पॉलीथिन एवं | प्लास्टिक से रिसाइकिल करके अधिक हानिकारक रंगों का इस्तेमाल प्लास्टिक के प्रयोग को कानूनी तौर पर पूर्ण रूप से प्रतिबंधित किए | करके बनाई जाती हैं और अधिक हानिकारक होती हैं। जाने अथवा इसके कारगर विकल्प को व्यावहारिक स्वरूप प्राप्त होने | 10. घरों में प्रयुक्त होने वाली प्लास्टिक की क्राकरी भले में निश्चित रूप से अभी कुछ समय लगेगा। अत: तब तक के लिए ही सुंदर, सस्ती और खूबसूरत लगे लेकिन उसको प्रयोग में नहीं इसके उपयोग में यदि कुछ सावधानियाँ बरती जा सकें तो इससे होने | लाना चाहिए क्योंकि इसके हानिकारक तत्व खाद्यपदार्थ के साथ वाले घातक प्रभावों को कुछ कम अवश्य किया जा सकता है, इस । हमारे शरीर में पहुँच जाते हैं और कई बीमारियों को जन्म देते हैं। हेतु निम्नांकित सावधानियाँ बरती जानी चाहिए : अन्यत्र स्थानों पर भी इसके इस्तेमाल से बचना चाहिए। 1. बाजार से पॉलीथिन की थैलियों में दही, अचार जैसे । 11. पशुओं के गोबर आदि के साथ खाद के गड्ढों में कोई अम्लीय पदार्थ नहीं लाने चाहिए। इससे ये पदार्थ दूषित हो | प्लास्टिक/पॉलीथिन को नहीं डालना चाहिए। इससे यह खेतों में जाते हैं और इनके उपयोग से विभिन्न प्रकार की बीमारियाँ उत्पन्न | पहुँच जाएगी और खेत की उर्वराशक्ति को नष्ट कर उसे बंजर बना हो सकती हैं। सकती है। 2. दही, अचार आदि पदार्थों को घरों में भी प्लास्टिक के 12. प्लास्टिक या पॉलीथिन बैग्स के कचरे को किसी भी जारों में नहीं रखना चाहिए क्योंकि इनके विषैले तत्व इन खाने के | दशा में जलाया नहीं जाना चाहिए। इसको जलाने से अति हानिकारक पदार्थों में मिलकर हमारे स्वास्थ्य को हानि पहुँचाते हैं। गैसें निकलती हैं जो मानव स्वास्थ्य पर अति प्रतिकूल प्रभाव 3. बाजार से समान लाने हेतु पॉलीथिन की जगह कागज | छोड़ती हैं जिससे कई प्रकार के रोग हो सकते हैं। के लिफाफे अथवा जूट या कपड़े के थैले, प्लास्टिक के कप और | 13. किसी भी पदार्थ को पॉलीथिन में लाने पर यदि उसमें प्लेटों की जगह मिट्टी या पत्ते के दोने आदि ही उपयोग में लाने | पॉलीथिन का थोड़ा भी रंग आ गया है तो उस पदार्थ को कदापि चाहिए। यथासंभव पॉलीथिन का उपयोग कम से कम किया जाना | भी उपयोग में नहीं लाना चाहिए। इसका उपयोग स्वास्थ्य के लिए चाहिए। गंभीर खतरा उत्पन्न कर सकता है और कई प्रकार की भयानक 4. पीने के पानी की बोतलों का उपयोग केवल पीने के लिए बीमारियाँ हो सकती हैं। किया जाना चाहिए और इन बोतलों में तेल, सिरका, दूध, घी, जूस | पॉलीथिन और प्लास्टिक के उपयोग में उपर्युक्त सावधानियों जैसे तरल पदार्थ नहीं रखने चाहिए क्योंकि इससे ये खाद्य पदार्थ | को बरतने में इसके कुप्रभावों को यद्यपि पूर्णरूप से समाप्त नहीं किया प्रदूषित हो जाते हैं और कई प्रकार के रोग उत्पन्न कर सकते हैं। | जा सकता और इन्हें केवल शीघ्रगामी उपायों के रूप में सरकार द्वारा 5. पानी के लिए उपयोग की जाने वाली बोतलें विशेष रूप | इसके निर्माण, स्टोर और उपयोग को पूर्णतया प्रतिबंधित कर मानव से बच्चों को दी जाने वाली प्लास्टिक की पानी की बोतलें अच्छे | | पशु, जल, भूमि, वायु अर्थात संपूर्ण पर्यावरण को इसके घातक, किस्म की ही ली जानी चाहिए। सस्ती और घटिया बोतलें स्वास्थ्य | विध्वंसकारी कलुषित कुप्रभावों से बचाना ही श्रेयस्कर होगा। के लिए अधिक खतरनाक होती हैं। 'कुरुक्षेत्र' (ग्रामीण विकास मंत्रालय की प्रमुख मासिक पत्रिका) 6. प्लास्टिक/पॉलीथिन के कचरे को एक निर्धारित और प्रभारी संपादक - ललिता खुराना सुरक्षित स्थान पर ही फेंका जाना चाहिए जिससे यह दूर तक नहीं वर्ष : 50, अंक : 9, जुलाई : 2004 से साभार 32 फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतिक चिकित्सा माँ का स्वास्थ्य एवं शरीर संतुलन चिकित्सा (बेलेन्स थेरिपि) डॉ. वन्दना जैन आपने कभी ख्याल किया कि आपके उठने, बैठने व सोने | उसके सामने ऊँची आवाज में बात नहीं करेंगी तो बच्चा कभी भी के तरीकों में भी आपके अच्छे स्वास्थ्य का राज दिया हुआ है उसे | नहीं बिगड़ेगा। ही बेलेन्स थेरिपि कहा जाता है। गर्भावस्था के दौरान एवं उसके | बच्चों को गलत तरीके से उठाने से अक्सर वे बीमार पड़ बाद छोटे बच्चों को माँ उठने - बैठने व सोने के सही तरीकों का | जाते हैं उन्हें हमेशा दोनों हाथों से संभालकर उठायें। ज्ञान कराकर उसे जीवन भर के अच्छे स्वास्थ्य की सौगात दे | बालक को सही तरीके से लेटना सिखायें सही करवट सकती है। गर्भावस्था में ही माँ निम्न बातों का ध्यान रखे- लेना सिखायें तथा उसे उल्टा कभी भी न लेटने दें, इसका सीधा शयन : तीसरा महिना प्रारंभ हो और ध्यान रखें कि सीधे | असर उसके हृदय पर पड़ता है, उसका हृदय का बाल्व खराव हो न सोयें, हमेशा करवट से ही सोयें क्योंकि इससे पेट ढीला रहता | जायेगा। सिकुड़ जायेगा या फैल जायेगा। है और पेट पर कोई दवाव नहीं होता है तथा बच्चे को परेशानी बालक यदि सिर के नीचे हाथ रखे तो उसे रोकना है। नहीं होती। सीधा सोने से पेट का हिस्सा थोड़ा सा दबता है | इससे हिस्सीटिया, फेफड़ों में सूजन, पागलपन, आँखों में लालिमा जिससे सही पोषण नहीं हो पाता। आँतों ब मुँह में छाले हो सकते हैं हाथों में बाँध देने से उसकी बैठना : सातवें मास तक पालथी या सुखासन से बैठना | आदत छूट जायेगी। है। तथा सातवें मास के बाद पैर लम्बे करके बैठना है। दीवाल के | दोनों हाथ सिर के ऊपर रखने की आदत जिन्हें होती है वे सहारे से बैठना है, इससे सूजन नहीं होती तथा खून की कमी भी | मोटे हो जाते हैं, खून की कमी, गले में सूजन, फेफड़ों में सूजन नहीं रहती है गर्भवती होने पर पति - पत्नी को दूर रहना चाहिये | हो जाती है, किडनी तक फेल हो सकती है तथा आवाज बंद हो अन्यथा वमन, वमनोद्वेग और श्वेत प्रदर की वृद्धि होती है। इस | सकती है। तरह की उत्तेजना से प्रथम और अंतिम तीन महिनों में गर्भस्राव जिन्हें बाया हाथ सिर के ऊपर रखने की आदत है उन्हें होने की संभावना अधिक रहती है। तथा प्रसव के बाद सत्तिका | खून की कमी, सूजन, श्वांस की बीमारी, हिस्टीटिया पागलपन ज्वर होने की संभावना बढ़ जाती है तथा बच्चे की भी नुकसान | तथा बाल्व सिकुड़ सकता है पैर बांधकर इसे निजात पा सकते हैं। पहुँच सकता है। उसमें विकलांगता आ सकती है। इसी कारण | दाया हाथ सिर के ऊपर रखने की आदत से ब्रेन हैमरेज, इस समय अक्सर उसे मायके ले जाते हैं। फेफड़ों में सूजन, खून की कमी, लीवर, किडनी खराब हो सकती बच्चे के जन्म के बाद दो दिन तक सिर्फ सीधा ही सोना | है। है। करवट से नहीं सोना है, इससे ब्लीडिंग कम होगी, खून की | जिन्हें पैर की अंटी लगाने की आदत है, दाहिने पैर पर कमी रूक जायेगी तथा सिर दर्द नहीं होगा। सीधी सोते-सोते | बायां पैर रखने की आदत है उन्हें पेशाव में रूकावट, घुटनों में थकजाओ तो बैठे जाना है पर करवट न लें। उसके बाद अधिकांश | दर्द, कमर व एडी में दर्द हो सकता है तथा किड़नी व शुगर की समय सीधा सोयें पर १५ दिन बाद करवट भी ले सकते हैं, सीधा | बीमारी हो सकती है। भी सो सकते हैं, पर सही तरीके से। बैठें तो सुखासन से पालथी जिन्हें सिकुड़ कर सोने की आदत है उन्हें रीढ की हड्डी लगाकर और हाथ को टेककर नहीं बैठना है।। व कमर में दर्द हो सकता है। उनके हाथ बांधकर इस आदत को माँ जब बच्चे को दूध पिलाये तो उसके चेहरे पर पल्लू | छुड़वाया जाता है। होना जरूरी है। माँ का भी चेहरा ढ़का होना चाहिये । इससे माँ जिन्हें बार-बार पेशाव जाना पड़ता है उन्हें १० मिनिट एवं बच्चों दोनों का स्वास्थ्य उत्तम रहेगा। तथा उसमें लज्जा के सिर पर हाथ रखकर कुर्सी पर बैठाते हैं इससे काफी आराम भाव आयेंगे उसके संस्कार ठीक रहेंगे, उसे बाहरी वातावरण से मिलता है। उन्हें सिकुड़ कर सोने से बचना है तथा पैरों की अंटी दूर रखना जरूरी है। आप घर पर या घर से बाहर पर पल्लू हमेशा | लगाने से बचना है। ढककर दूध पिलायें। जिन्हें दायीं करवट सोने की आदत है अथवा दाया पैर यदि आपको जीवन भर शांति चाहिये है तो आप ध्यान | आगे डालने की आदत है उन्हें घुटना, कमर दर्द, शुगर, फेफड़े रखें आप ११ दिन गुस्सा न करें तो बच्चा एक साल तक के लिए | तथा पेशाव व दिमागी बीमारी होती है। गुस्सा नहीं करेगा अगर आप ११ साल तक बच्चे को संभाल लेंगी जिन्हें एक हाथ आगे करने की आदत है उनके हार्ट का -फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित 33 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाल्व चौड़ा हो जाता है तथा उसमें पानी आ जाता है। थाइराइड तथा दिमागी परेशानी होती है। सोने का सर्वोत्तम तरीका बायीं करवट सोने से रीढ की हड्डी में तनाव नहीं होता, खून का दवाव सही रहता है, कोई बीमारी नहीं होती । 90% लोग बायीं करवट सोते है पर गलत तरीके से 2% उलटे सोते है, 5% सीधे सोते हैं, तथा 3% लोग दायीं करवट से सोते हैं। बायीं करवट सोना चाहिए पैर थोड़े से झुकाव लिए शरीर की आकृति धनुषाकार हो तथा दाहिना हाथ कमर व पैरों के ऊपर तथा बाया हाथ सिर के समानान्तर ऊपर की तरफ मुड़ा हुआ होना चाहिए। सिर के नीचे हाथ नहीं रखना चाहिए। सिर के नीचे बाया हाथ रखने से तथा बायां पैर आगे करने से लकवा, दिमागी परेशानी, श्वांस संगंधी रोग तथा हाई वी.पी. हो सकता है। कुर्सी पर बैठकर पैर पर पैर रखने तथा एक पैर पर खड़े रहने की आदत यदि है तो उसे कमजोरी व थकावट होती है । हमेशा दोनों पैरों पर खड़े होना चाहिए। यदि ऐसे में थक जाओ तो पहले दाहिने पैर पर, फिर बायें पैर पर खड़े रहना चाहिए। दिगम्बर जैन समाज के अग्रणी दानदाता मुनिभक्त सेठ श्री रतनलाल जी कंवरलाल जी पाटनी के सुपौत्र श्री अशोक कुमार जी पाटनी के सुपुत्र चि. विनीत ( मै. आर. के. मार्बल, मदनगंज किशनगढ़) तथा आगरा के सुप्रसिद्ध मुनिभक्त, दानदाता, बैनाड़ा परिवार के श्री हीरालाल जी बैनाड़ा की सुपुत्री सौ. शुचि का मंगल परिणय दिनांक ३ फरवरी २००५ की मंगलमय बेला में आगरा में संपन्न हुआ । विवाह में भारत के उपराष्ट्रपति महामहिम श्री भैंरोसिंह जी शेखावत दिल्ली, श्री दि. जैन महासभा के अध्यक्ष श्री निर्मल कुमार जी सेठी, पटनी कम्प्यूटर्स लिमिटेड के चेयरमैन श्री गजेन्द्र पाटनी, सुभाष प्रोजेक्ट लिमिटेड के श्री पूनमचंद जी 34 फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित चलना : स्वभाविक चाल से चलना चाहिये । प्रत्येक मनुष्य को कम से कम आधा घंटा अवश्य चलना चाहिए, इससे कमजोरी नहीं होती है । जिन्हें सिकुड़ कर सोने की आदत है उन्हें आँखों में खुजली, जलन, कम दिखाई देना तथा हार्निया आदि शिकायतें हो सकती हैं। सीने पर हाथ पर कर सोने से बुरे सपने आते हैं। हाथ सिर के नीचे या ऊपर रखकर सोने की आदत से बच्चेदानी का मुँह ऊँचा हो जाता है, हिप तथा पेडू का हिस्सा भी ऊँचा हो जाता है, जिससे बांझपन की शिकायत तक हो सकती है। गैस्ट्रिकट्रवल भी हो सकता है। हार्ट सम्बंधी प्रावलम्ब में या बाइपास सर्जरी वालों को दाहिने हाथ में डंडा लेकर तथा बायाँ पैर टिकाकर रखने से काफी फायदा होता है। सिर के ऊपर तथा नीचे हाथ रखकर सोने की आदत होने से गैस की शिकायत हो जाती है | शुभ-विवाह सम्पन्न इस तरह हम अपनी छोटी-छोटी बुरी आदतों में परिर्वतन करके तथा कुछ अच्छी आदतों को अपनाकर बिना किसी दवा व खर्च के अपने स्वास्थ्य को उन्नत बनाये रख सकते हैं। कार्ड पैलेस, सागर (म.प्र.) सेठी, कटारिया ट्रांसपोर्ट लिमिटेड के श्री रूपचंद जी कटारिया व उनके भाई, सुप्रसिद्ध कोठारी परिवार के श्री सी.पी. कोठारी, मुनिभक्त श्री शिखरचंद जी पहाड़िया, मुनिभक्त श्री गजराज जी गंगवाल आदि प्रतिष्ठित महानुभावों ने आगरा पधारकर वर-वधू को अपना स्नेहाशीष प्रदान किया एवं उनके मंगलमय वैवाहिक जीवन की कामना की। U सुलैना के अवसर पर आर. के. मार्बल परिवार की ओर से विपुल धनराशि विभिन्न मंदिरों को प्रदान की गई। जिसमें से २१००० रूपये की राशि 'सर्वोदय जैन विद्यापीठ' को प्राप्त हुई। 'सर्वोदय जैन विद्यापीठ' परिवार, वर-वधू के मंगलमय धार्मिक जीवन की कामना करता है । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिज्ञासा समाधान प्रश्नकर्ता: रमेशचन्द्र जी गोयल, देहली जिज्ञासा : क्या अंतिम समय किसी गृहस्थ को निर्ग्रन्थ बना देने पर उसे मुनि संज्ञा दी जा सकती है या नहीं ? समाधान : यदि कोई व्यक्ति गृहस्थी में रहा हो, जीवन धार्मिक क्रियाओं के साथ बिताया हो और अन्त समय समाधिमरण की भावना भी रखता हो तो उसके शरीर की शिथिलता और मृत्यु की निकटता देखकर उनके परिवारीजनों को किसी योग्य निर्यापकाचार्य के पास ले जाकर, उनकी इच्छानुसार समाधिमरण कराने का प्रयत्न करना चाहिए। ऐसे महानुभाव यदि गुरु चरणों में पहुँचकर दीक्षा लेकरकम से कम दो दिन विधिपूर्वक चर्या करके आहार ग्रहण करते हैं, तो उनका मुनि अवस्था में समाधिमरण पूर्वक देह छोड़ना माना जाता है। यदि उनकी इच्छा से अन्त समय में अत्यन्त अशक्त अवस्था में उनको वस्त्र रहित कर दिया गया हो, कदाचित उनको पीछी कमण्डलु भी लाकर दे दिए गये हों, परन्तु वे चर्या करने में समर्थ न हों, तो उपरोक्त क्रियायें उनकी भावों में विशुद्धि लाने में निमित्तभूत तो हो सकती हैं, परन्तु उनको देह व्याग के बाद 'मुनि का समाधिमरण 'नहीं कहा जा सकता। उपरोक्त समाधान किसी आगम में देखने को नहीं मिलता परन्तु जैसा गुरुमुख से सुना है वैसा लिखा गया है। प्रश्नकर्ता - देवेन्द्र कुमार, अलीगढ़ जिज्ञासा - क्या अन्य देवी-देवताओं का प्रसाद लेना उचित है? समाधान - जन्म-मरण आदि 18 दोषों से रहित वीतराग प्रभु सच्चे देव कहे जाते हैं, इनसे विपरीत उपरोक्त 18 दोषों से सहित देव या देवियों को पूजना, उनकी मान्यता करना, उनकी आरती उतारना आदि क्रियायें सम्यक्त्व की घातक क्रियायें हैं, जिनको देव मूढ़ता में तथा षट् अनायतनों में माना जाता है। किसी अन्य मताबलम्बी या सच्चे देव के अलावा अन्य देवी-देवताओं की आराधना करने वाले व्यक्तियों के घर आनाजाना भी आचार्यों ने धर्म का अनायतन माना है । चारित्र पाहुड़ गाथा - 6 की टीका में प्रभाचन्द्राचार्य लिखते हैं देव गुरुशास्त्राणं, तद्भक्तानांगृहेगतिः । षडनायतन मित्तेवं वदन्ति विदिता गमः ॥ अर्थ - कुदेव, कुगुरु व कुशास्त्र के तथा इन तीनों के उपासकों के घरों में आना जाना। इनको आगमकारों ने षट्अनायतन ऐसा नाम दिया है। अर्थात् कुदेव, कुगुरू, कुशास्त्र के उपासकों के घर आना जाना अनायतन है। इनके प्रसाद आदि को ग्रहण करने से उन कुदेवादि के प्रति विनय प्रदर्शित होती है। जबकि आचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में स्पष्ट लिखा है किभयाशास्नेहलोभाच्च, कुदेवागम लिंगनाम् । प्रणामं विनयं चैव न कुर्यो शुद्ध दृष्टिया ॥ अर्थ- भय आशा स्नेह तथा लोभ से कुदेव, कुगुरु एवं कुशास्त्र को शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव प्रणाम तथा विनय भी नहीं करता है । पं. रतनलाल बैनाड़ा श्री आदिपुराण पर्व - 42, श्लोक नं. 18 से 20 में इसप्रकार कहा है अर्थ- बड़े-बड़े वंशों में उत्पन्न होने से क्षत्रिय लोग स्वयं बड़प्पन में स्थिर हैं। इसलिए उन्हें अन्य मतियों के धर्म में श्रद्धा रखकर उनके शेषाक्षत् आदि ग्रहण नहीं करना चाहिए ॥18 ॥ उनके शेषाक्षत आदि ग्रहण करने में क्या दोष है? कदाचित कोई यह कहे तो उसका उत्तर यह है कि उससे अपने महत्व का नाश होता है और अनेक विघ्न व अनिष्ट आते हैं, इसलिए उनका परित्याग ही कर देना चाहिए। 19 ॥ अन्य मताबलम्बियों को शिरोनति करने से अपने महत्व का नाश हो जाता है, इसलिए उनके शेषाक्षत आदि लेने से अपनी निकृष्टता हो सकती है ॥20॥ इन उपरोक्त प्रकरणों से यह ज्ञात होता है कि अन्य देवीदेवताओं का प्रसाद आदि ग्रहण करना कदापि उचित नहीं है । 'वर्तमान में हम जैन धर्मावलम्बियों का अन्य मताबलम्बियों के साथ सम्पर्क एवं आना-जाना देखा जा रहा है। इन परिस्थितियों में यदि क्वचित् कदाचित किसी अन्य देव आदि का प्रसाद आदि लेना भी पड़ जाये तो उसे कभी खाना नहीं चाहिए, तुरन्त किसी अन्य नौकर आदि को दे देना चाहिए। अपनी धार्मिक विचारों की पवित्रता एवं दृढ़ता अत्यन्त आवश्यक है । प्रश्नकर्ता सौ. प्रतिभा जैन, जयपुर जिज्ञासा - यदि कोई मुनि सामायिक ही न करे और कहे कि हमारे तो सामायिक चारित्र चौबीसों घण्टे विद्यमान है, हमें सामायिक की आवश्यकता नहीं, तो क्या यह उचित है ? समाधान - हमने अपने जीवन में शताधिक मुनिराजों के दर्शन किये हैं परन्तु कोई भी ऐसे मुनिराज नहीं मिले जो सामायिक न करते हों। हमने यह तो देखा है कि किसी प्रदेश का मुख्यमंत्री पूज्य आचार्य विद्यासागर जी महाराज के पास आया हो, उसके आने का समय दोपहर 12:30 बजे हो, समाज के वरिष्ठ लोगों ने पूज्य आचार्य श्री से निवेदन भी किया हो कि मुख्यमंत्री दोपहर को आयेंगे, परन्तु पूज्य आचार्य श्री ने कभी भी सामायिक के काल को छोड़कर उनसे बात नहीं की। मुख्यमंत्री चाहे आकर दर्शन करके चले जायें, परन्तु पूज्य आचार्य श्री ने कभी सामायिक नहीं छोड़ी। यह तो अक्सर सभी जगह देखा जाता है कि यदि पंचकल्याणक आदि में किसी कार्यक्रम के कारण प्रात: देरी हो जाये अर्थात् 11:30 बज जायें तो मुनिराज चर्या को न उठकर पहले सामायिक करते हैं तदुपरांत 1 बजे बाद चर्या को उठते हैं। यदि सामायिक करना आवश्यक न होता तो उपरोक्त प्रसंगों का प्रकरण ही नहीं आता। आचार्यों ने प्रातः दोपहर और सांयकाल के तीनों संधिकालों में, सामायिक के काल होने के कारण, स्वाध्याय करने का भी निषेध किया है। सम्यग्ज्ञान के कालाचार प्रकरण में इसका वर्णन मिलता है । जहाँ तक सामायिक चारित्र के चौबीसों घण्टे रहने का प्रश्न है, वह उचित ही है । समस्त सावद्य योग के त्याग करने को • फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित 35 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | कीतिरक्षण सामायिक चारित्र कहते हैं। सभी मुनिराज जीवन पर्यंत सावध योग त्वरितं किं कर्त्तव्यं विदुषा संसार सन्ततिच्छेदः। के त्यागी होने से, आहार करते या सोते समय भी सामायिक चारित्र किं मोक्ष तरोर्बीजं सम्यग्ज्ञानं क्रिया सहितम्॥4॥ से विभूषित रहते हैं, परन्तु प्रात:- दोपहर एवं सांयकाल आदि में अर्थ- विद्वानों को शीघ्र क्या करना चाहिए? संसार परम्परा सामायिक करना तो सामायिक आवश्यक कहलाता है, जिसको | का नाश । मोक्ष रूपी वृक्ष का बीज क्या है?समीचीन ज्ञान के साथ छोड़ना तो अपने आवश्यक को ही छोड़ना है। अतः प्रत्येक मुनिराज | आचरण। को सन्धिकालों में सामायिक करना अत्यन्त आवश्यक है। उपरोक्त पंक्तियों में यह स्पष्ट कहा है कि यदि स्वाध्याय जिज्ञासा- क्या आयुबन्ध होने के बाद अकालमरण नहीं | करके सच्चा ज्ञान तो प्राप्त कर लिया जाये, परन्तु यदि आचरण नहीं होता है? है तो ऐसा ज्ञान मोक्ष रूपी वृक्ष का बीज नहीं कहा जा सकता। समाधान- जिस जीव ने आगामी आयु का बंध कर लिया । आचार्यों ने श्रावक के लिए परमावश्यक कार्य इसप्रकार कहे हो, उसका अकालमरण नहीं होता है। आगामी आयु का बंध हो | हैंजाने पर, जितनी वर्तमान भुज्यमान आयु बाकी रह गई है, जब तक १. सबसे प्राचीन ग्रन्थ श्री कषायपाहुड़ में इसप्रकार कहा उसकी स्थिति पूर्ण नहीं हो जायेगी, तब तक उस जीव का मरण | है- दाणं पूजा सीलमुववासो चेदि चउव्विहो सावयधम्मो - नहीं हो सकता है। श्री धवल पुस्तक 10 पृष्ठ 237 पर इस प्रकार अर्थ-दान, पूजा, शील और उपवास ये चार श्रावक के धर्म हैं। लिखा है २. श्री रयणसागर में श्रावक के कर्त्तव्यों का वर्णन इसप्रकार 'परभवि आउए बद्धे पच्छा भुंजमाणाउअस्स कदलीघादो | है, 'दाणं पूजा मुक्खं सावयधम्मेण सावया तेण विणा।' णत्थि जहासरूवेण चेव वेदेदित्ति।' अर्थ-चार प्रकार का दान देना और देवशास्त्र गुरु की अर्थ- परभव सम्बन्धी आयु के बन्धने के पश्चात् भुज्यमान पूजा करना श्रावक का मुख्य कर्त्तव्य है, इनके बिना वह श्रावक आयु का कदलीघात नहीं होता, किन्तु वह जितनी थी उतनी का ही नहीं है। वेदन करता है। ३. कुरलकाव्य में इसप्रकार कहा है, 'गृहिण : पञ्च कोई ऐसा कहते हैं कि आयुबन्ध हो जाने के बाद भी राजा | कर्माणि स्वोन्नतिर्देव पूजनम्। बन्धु साहाय्यमातिथ्यं पूर्वेषां श्रेणिक का अकालमरण हुआ था अथवा श्रीकृष्ण नारायण का आयुबन्ध हो जाने के बाद भी अकालमरण हुआ था परन्तु श्री धवला अर्थ- पूर्वजों की कीर्ति की रक्षा, देवपूजन, अतिथिसत्कार, पु. 10 पृष्ठ 237 के उपरोक्त प्रमाण के अनुसार त । धवला पुस्तक बन्धु - बान्धवों की सहायता और आत्मोन्नति ये गृहस्थ के पाँच 10 के 256 एवं 335 पर लिखे प्रमाणों के अनुसार राजा श्रेणिक एवं | कर्त्तव्य हैं। नारायण श्रीकृष्ण के मरण को अकालमरण नहीं कहा जा सकता है उपरोक्त प्रमाणों में विशेष बात यह देखनी है कि किसी ने क्योंकि उनका आयुबन्ध पहले हो चुका था। एक बार आयुबन्ध हो भी स्वाध्याय को श्रावक का मुख्य कर्तव्य नहीं बताया है, परन्तु जाने के बाद उसका आबाधाकाल कम नहीं होता अत: आयुबन्ध सभी प्रमाणों में देवपूजन एवं दान देने को श्रावक का मुख्य कर्त्तव्य होने के बाद अकालमरण होना नहीं मानना चाहिए। कहा है। यद्यपि १० वीं शताब्दी के बाद के आचार्यों ने श्रावक के प्रश्नकर्ता - राजीव जैन, जयपुर मुख्य कर्तव्यों में स्वाध्याय को भी शामिल किया है, परन्तु प्राचीन जिज्ञासा- मेरा मन स्वाध्याय में तो बहुत लगता है, परन्तु आचार्यों की परम्परा में तो स्वाध्याय को अत्यन्त आवश्यक न मुझे पूजा तथा मुनिदान रूचिकर नहीं लगते क्या यह उचित है? | मानकर देवपूजन करना एवं दान देने को श्रावक का मुख्य कर्तव्य समाधान-सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका की प्रस्तावना में पं. टोडरमल कहा गया है। अत: यदि आप स्वाध्याय में तो रूचि लेते हैं परन्तु जी ने कहा है कि 'शास्त्राभ्यासी दोय प्रकार हैं, एक लोभीर्थी, एक | आचार्यों द्वारा लिखित उपरोक्त मुख्य कर्तव्यों को, मात्र पठन पाठन धर्मार्थी। तहाँ जो अंतरंग अनुराग बिना, ख्याति पूजा लाभादिक के तक ही सीमित रखते हैं, तो आपका स्वाध्याय करना फलदायिक अर्थी शास्त्राभ्यास करें सो लोभार्थी हैं, सो विषयादिक का त्याग | नहीं है। उपरोक्त आचार्यों के प्रमाण से तो ऐसा ध्वनित होता है कि नाहिं करें हैं। अथवा ख्याति लाभ पूजादि के अर्थी विषयादिक का श्रावक चाहे स्वाध्याय में कम समय दे पाये, परन्तु उसे दान एवं पूजा त्याग भी करैं हैं तो भी ताका शास्त्राभ्यास कार्यकारी नांहीं। बहुरि को अपना मुख्य कर्त्तव्य समझकर नित्य भक्ति भाव पूर्वक अवश्य जो अंतरंग अनुराग तें आत्महित के अर्थी शास्त्राभ्यास करै है, सो | सम्पन्न करना चाहिए। सत्पात्रों को दान देने के संबंध में सर्वोपयोगी धर्मार्थी है, सो प्रथम तो जैन शास्त्र ऐसे हैं, जिनका धर्मार्थी होय | श्लोक संग्रह में ऐसा कहा हैअभ्यास करें, सो विषयादिक का त्याग करै ही करै।' दानयेन प्रयच्छंति, निर्ग्रन्थेषुचतुविधम्। यहाँ स्पष्ट लिखा है कि आत्मकल्याण के लिए शास्त्राभ्यास पाशा एवं गृहास्तेषां, वंधनायैव निर्मिताः॥ करने वाले जीव विषयादिक का त्याग करते ही हैं अर्थात् अपना अर्थ-जो मुनियों के लिये चार प्रकार का दान नहीं देते हैं, . आचरण भी शास्त्रानुसार बना लेते हैं। सच तो यह है कि यदि | उनके बंधन के लिए, घर मानो जाल की तरह ही बनाये गये हैं। ज्ञानाभ्यास किया जाये और तद्नुसार आचरण न किया जाये तो सत्पात्रेषु यथाशक्ति, दानं देयं गृहस्थितैः। ज्ञानाभ्यास करना कार्यकारी नहीं होता राजर्षि अमोघवर्ष ने प्रश्नोत्तर दानहीनाभवेत्तेषां, निष्फलैवगृहस्थता। रत्न मालिका' श्लोक नं. 4 में इसप्रकार कहा है अर्थ- गृहस्थों को सत्पात्रों में यथाशक्ति दान देना चाहिए। 36 फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्योंकि दान के बिना उनका गृहस्थपना निष्फल ही है। उपरोक्त अन्तर्मुहूर्त में समस्त कर्मों का नाश कर मोक्ष कैसे प्राप्त कर मुझे आशा है कि आप अपने जीवन में बदलाव लाने का | सकेगा। इससे स्पष्ट होता है कि उदयावली को छोड़कर शेष कर्मों कष्ट करेंगे। इसके अलावा स्वाध्यायी जीव को अपने खान-पान, | की उदीरणा तप के द्वारा संभव है। आहार-विहार तथा व्यापार आदि में भी शास्त्रानुसार परिवर्तन प्रश्नकर्ता - पं. मनोजकुमार शास्त्री, सागर अवश्य कर लेना चाहिए, यही स्वाध्याय की सफलता है। जिज्ञासा- अवधिज्ञान के देशावधि आदि तीन भेदों में प्रश्नकर्ता - मोनिका पाटोदी, नन्दुरवार अनुगामी आदि छह भेद घटाकर बताईये? । जिज्ञासा - १४ वें गुणस्थान में अयोग केवली भगवान के सर्वार्थसिद्धिकार ने अध्याय १ के २२ वें सूत्र, शरीर होने पर भी संहनन क्यों नहीं होता ? क्षयोमशमनिमित्तः ..... की टीका करते हुए अवधिज्ञान के अनुगामी, समाधान - १४ वें गुणस्थान में अयोग केवली भगवान के अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, अवस्थित तथा अनवस्थित ये छह शरीर का सत्त्व मात्र है, लेकिन आत्मा का उससे कोई संबंध नहीं भेद कहे हैं, जबकि राजवार्तिककार ने प्रतिपाती एवं अप्रतिपाती ये रह जाता है। उस औदारिक शरीर के द्वारा आत्मप्रदेशों में परिस्पन्दन दो भेद और बढ़ाते हुए 8 भेद कहे हैं। अर्थात् योग भी नहीं होता। तेरहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में प्रतिपाती का अर्थ- विनाशशील अर्थात् बीच में ही छुटने शरीर नाम कर्म का उदय भी समाप्त हो जाता है। अत: जब शरीर वाला कहा है और अप्रतिपाती का अर्थ केवलज्ञान होने तक नहीं नाम कर्म का उदय ही नहीं है, तो फिर संहनन कैसे संभव है? श्री छूटने वाला कहा है। इन आठ भेदों में से देशावधि आदि तीन भेदों सिद्धान्तसार दीपक के ११वें अधिकार में इस प्रकार कहा गया है में कौन-कौन से भेद पाये जाते है, वे इसप्रकार हैं: अयोगिजिननाथानां देवानां नारकात्मनाम्। ..1. देशावधि अवधिज्ञान में उपरोक्त आठों ही भेद पाये जाते आहारकमहर्षीणामेकाक्षाणां वपूंषि च ॥१२९॥ यानि कार्मणकायानि व्रजतां परजन्मनि। 2. परमावधि अवधिज्ञान में हीयमान और प्रतिपाती इन दो तेषां सर्वशरीराणां नास्ति संहननं क्वचित्॥१३०॥ भेदों को छोड़कर शेष ६ भेद पाये जाते हैं। अर्थ-अयोगी जिनों के, देवों के, नारकियों के, आहारक 3. सर्वावधि अवधिज्ञान में केवल अवस्थित, अनुगामी, शरीरी महाऋषियों के, एकेन्द्रिय जीवों के और आगामी पर्याय में अननुगामी तथा अप्रतिपाती ये चार भेद ही पाये जाते हैं शेष अन्य जन्म लेने के लिए विग्रह गति में जाने वाले कार्मणकाय युक्त जीवों चार भेद नहीं पाये जाते हैं। के संहनन नहीं होता। अर्थात् इन जीवों का शरीर छहों संहननों से रहित होता है ।। १२९-१३० ।। प्रश्नकर्ता - जैनेन्द्र कुमार, दमोह प्रश्नकर्ता - सतेन्द्र कुमार जी, रेवाड़ी जिज्ञासा - क्या गाय-भैंस आदि पालना जैन गृहस्थों को जिज्ञासा- क्या आवाधा काल समाप्त होने से पूर्व भी कर्मों उचित है? की उदीरणा हो जाती है? समाधान - विभिन्न श्रावकाचारों में श्रावकों को जीवन समाधान- धवला पुस्तक १५, पृष्ठ ४३ के अनुसार | निर्वाह के लिए तिर्यंचों के पालन करने का भी कथन प्राप्त होता है। 'अपक्वपाचणमुदीरणा' अर्थ- अपक्व अर्थात् नहीं पके हुए कर्मों 1. धर्मसंग्रह श्रावकाचार (लेखक पं. मेधावी) में इस को पकाने का नाम उदीरणा है। इसमें उदयावली के बाहर जो भी प्रकार कहा हैकर्म हैं उनकी उदीरणा संभव है, परन्तु उदयावली में स्थित निषेकों असिर्मसिः कृषिस्तिर्यक्पोषं वाणिज्यविद्यके। की उदीरणा संभव नहीं होती। इतना अवश्य है कि मरणावली के एभिरर्थार्जनं नीत्या वार्तेति गदिता बुधैः ।।१55।। शेष रहने पर आयुकर्म की उदीरणा नहीं होती है तथा बध्यमान आयु एभिः स्वजीवनं कुर्युर्गृहिणः क्षत्रियादयः। का बंध हो जाने पर, उसके आवाधाकाल पूर्ण होने से पूर्व उसकी स्वस्वजात्यानुसारेण नीतिज्ञैरुदितं यथा॥१56।। उदीरणा नहीं होती। अर्थ- असि (खड्ग धारण), मसि (लिखना), कृषि इसका उदाहरण इसप्रकार है - किसी जीव ने अपनी पूरी (खेतीकरना), तिर्यञ्चों का पालन करना, व्यापार करना तथा विद्या मनुष्य पर्याय मिथ्यात्व गुणस्थान में बिताई। आयु के अन्तिम इन छह बातों से नीतिपूर्वक धन के कमाने को बुद्धिमान लोग वार्ता अन्तर्मुहूर्त में पंच समवाय मिलने पर, उसने अन्तर्मुहूर्त में सम्यक्त्व कहते हैं ॥ १५५ ॥ इन छह कर्मों से क्षत्रियादि वर्गों को अपनीप्राप्त कर तथा सभी आवश्यक क्रियाओं को करते हुए एवं गुणस्थानों अपनी जाति के अनुसार जीवन निर्वाह करना चाहिए। जैसा नीति को प्राप्त करते हुए समस्त कर्मों को नष्ट करके मोक्ष प्राप्त कर लिया। के जानने वाले पुरुषों ने बताया है ॥ १५६ ॥ यह जीव आयु के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त से पूर्व मिथ्यात्व अवस्था में 2. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा में प्रोषध प्रतिमा का वर्णन करते यदि एक कोड़ाकोड़ी सागर की स्थिति का दर्शन मोहनीय का बंध हुए कहा हैकर रहा हो, तो उसकी उदीरणा पूर्वक नाश करने में समर्थ न हो तो -फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित 37 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गिह-वावारं चत्ता, रत्तिं गमिऊण धम्म-चिंताए। । २९ में इस प्रकार कहा है। पच्चूसे उट्टिता, किरिया-कम्मं च कादूण ॥३७४॥ स्ववधूं लक्ष्मणः प्राह मुञ्च मां वनमालिके। अर्थ- गृह का काम एक व्यापार को छोड़कर धर्मध्यान कार्ये त्वां लातुमेष्यामि देवादिशपथोऽस्तु में ॥२८॥ पूर्वक रात्रि बिताए और प्रातःकाल उठकर सामायिक आदि क्रियाकर्मों पुनरूचे तयेतीशः कथमप्यप्रतीतया। को करे। ब्रूहि चेन्नैमि लिप्येऽहं रात्रिभुक्तेरघैस्तदा ॥२९॥ विशेषार्थ - उपरोक्त गाथा के 'व्यापार' शब्द की व्याख्या अर्थ - लक्ष्मण ने अपनी पत्नी वनमाला से कहा, 'मुझे करते हुए आ. शुभचन्द्र ने टीका में इसप्रकार कहा है, 'वस्तूनां क्रय- | छोड़ दो। कार्य हो जाने पर मैं तुम्हें लेने आऊँगा, मुझे देव आदि की विक्रय, स्नान-भोजन, कृषि-मषि, वाणिज्य, पशुपालन, पुत्र-मित्र, शपथ है।' लेकिन वनमाला को उनके आने में संदेह हुआ, तब कलात्रि पालन प्रमुखं सर्वव्यापार गृहस्थ कर्म परित्यज्य' लक्ष्मण ने कहा कि, 'सुनो यदि मैं न आऊँ तो मुझे रात्रिभोजन का अर्थ - वस्तुओं की खरीद विक्री, स्नान-भोजन, खेती | पाप लगे।' नौकरी, व्यापार, पशुपालन, पुत्र-मित्र, स्त्री आदि का पालन-पोषण २ सागारधर्मामृत अध्याय ४ में इसप्रकार कहा है : आदि प्रमुख समस्त व्यापार एवं गृहस्थ कर्मों को छोड़कर। यहाँ त्वां यद्युपैमि न पुनः सुनिवेश्य राम। शुभचन्द्राचार्य ने श्रावकों के लिए खेती एवं पशुपालन कर्म को भी लिप्ये बधादिकृदधैस्तदिति श्रितोऽपि। योग्य माना है। सौमित्रिरन्यशपथन्वनमालयेकं । 3.हरिवंशपुराण नवम् सर्ग में भगवान् ऋषभदेव द्वारा प्रजा दोषाशिदोषपथं किल कारितोऽस्मिन्॥२६॥ को असि, मसि आदि षट्कर्मों का उपदेश दिया गया, इसके साथ अर्थ- ऐसा सुना जाता है कि 'रामचन्द्र जी को अच्छी तरह ही व्यवस्थित करके यदि में तुम्हारे पास न आऊँ तो मुझे गो हत्या, पशुपाल्यं ततः प्रोक्तं गोमहिष्यादिसंग्रहम्। स्त्रीहत्या आदि का पाप लगे।' वर्जनं करसत्त्वानां सिंहादीनां यथायथम्॥३६॥ । इस प्रकार अन्य शपथों के करने पर भी वनमाला ने लक्ष्मण अर्थ- तदनन्तर उन्होंने यह भी बताया कि गाय,भैंस आदि | से एक यही शपथ करायी कि मुझे रात्रि भोजन का पाप लगे॥२६॥ पशुओं का संग्रह तथा उनकी रक्षा करनी चाहिए और सिंह आदिक अत: उपरोक्त प्रमाणों के आधार से वनमाला लक्ष्मण के दुष्ट जीवों का परित्याग करना चाहिए॥३६॥ संवाद को आगम सम्मत मानना चाहिए। 4. श्री आदिपुराण पर्व १६ में इस प्रकार कहा है प्रश्नकर्ता - आ. बाबूजी सा., दूदू (राजस्थान) क्षत्रियाःशस्त्रजीवित्वमनुभूय तदाभवन्। जिज्ञासा- क्या यंत्रों को घर में रखा जा सकता है और यदि वैश्याश्च कृषिवाणिज्यपाशुपाल्योपजीविताः॥१८४॥ रखा जाये तो किन बातों का ध्यान रखना चाहिए? अर्थ- उस समय जो शस्त्र धारणकर आजीविका करते थे | समाधान - वर्तमान श्रावक सांसारिक इच्छाओं का पुतला वे क्षत्रिय हुए, जो खेती व्यापार तथा पशुपालन आदि के द्वारा सा बन गया है इसी कारण आजकल यन्त्र, मन्त्र, तन्त्र का व्यापार जीविका करते थे वे वैश्य कहलाते थे। १८४ ॥ गृहस्थों में तो फैल ही गया है, साधुओं में तो उससे भी ज्यादा फैला 5. वरांगचरित्र सर्ग-8, पृष्ठ 73 पर इसप्रकार कहा है- | हुआ देखा जाता है। जबकि श्रावक को लौकिक आकांक्षाओं से इस जम्बूद्वीप के ही विदेहक्षेत्र के निवासी असि, मसि, | बहुत दूर रहना चाहिए। यन्त्र के संबंध में निम्न बातों पर ध्यान रखना कृषि, वाणिज्य, गोरक्षा और सेवा इन छह कर्मों को करके जीवन | आवश्यक हैयापन करते हैं। १. यन्त्र की शुद्धि के लिए किसी विधान आदि के समय इसके अलावा अन्य भी बहुत से प्रमाण और भी हैं, जिनसे | उसे हवनकुण्ड आदि में रखकर उसकी शुद्धि मान लेने का प्रतिष्ठा पशुपालन करना श्रावकों के लिए उचित बताया गया है। | शास्त्रों में कोई वर्णन नहीं मिलता है। अत: यह क्रिया उचित नहीं जिज्ञासा - ऐसा सुना जाता है कि वनमाला ने लक्ष्मण को | लौटकर न आने पर , रात्रि भोजन ग्रहण का पाप लगे, ऐसी सौगन्ध | २. यन्त्रों को यदि घर में रखा जाये तो उस यंत्र संबंधी जाप दिलाई थी, परन्तु इसका वर्णन पद्मपुराण में कहीं नहीं मिलता तो | तथा अभिषेक शुद्धि आदि करके ही घर में रखा जाना चाहिए। इस कथन को प्रमाणीक माना जाये या नहीं? ३. किसी पुराने कमरे आदि में यदि शान्ति विधान आदि समाधान - आपका लिखना सच है कि पद्मपुराण में यह | कराने के लिए यन्त्र को विराजमान किया जाये तो यह ध्यान रखना कथानक नहीं मिलता परन्तु अन्य ग्रन्थों में यह कथानक प्राप्त होता चाहिए कि वह कमरा अन्य सामानों से भरा न हो, साफ सुथरा हो, है, जैसे उस कमरे के अति निकट शौचालय आदि न हो और वह गृह 1. धर्मसंग्रह श्रावकाचार अधिकार -३, श्लोक नं. २८- | निवासियों का आने जाने का मुख्य मार्ग न हो । ऐसे घर के उचित कक्ष में यन्त्र को सिंहासन आदि पर विराजमान करके पाठ कराया 38 फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा सकता है। से जिनदत्ता को मारने के लिए विद्या भिजवाई गई। जिनदत्ता धार्मिक ४. यन्त्रों की विधि पूर्वक प्रतिष्ठा होनी चाहिए। इसके लिए | सेठानी थी अत: उस विद्या ने बजाय जिनदत्ता को मारने के बन्धुश्री प्रतिष्ठाचार्यों से चर्चा करना आवश्यक है। जिस यन्त्र की प्रतिष्ठा की लड़की कनकधी को तलवार से मार डाला। जब वाद में बन्धुश्री नहीं हुई है वह यन्त्र कार्यकारी नहीं होता। वर्तमान में बहुत से यन्त्रों | का अभिप्राय सभी नगर के लोगों को मालूम पड़ा तब वहाँ की के चित्र बाजार में बिकते हैं उनको फोटो में जड़कर कमरे में उच्च | शासन देवी ने जिनदत्ता का सम्मान करते हुए नगर के मध्य पञ्चाश्चर्य स्थान पर लगा लेना उचित कैसे माना जाये यह विचारणीय है।। प्रकट किए। ५. अपने घर में किसी यन्त्र का रखना वर्तमान में उचित ३. पृष्ठ १२६ पर कहा है 'बसुमित्रा वेश्या ने सोमासती को प्रतीत नहीं होता। आजकल स्त्रियों में मासिक धर्म संबंधी शुद्धि | मारने के लिए एक विषधर सर्प घड़े में रखकर भेजा। सोमासती ने लगभग समाप्त सी देखी जा रही है, पुरुषों में भी शौचादि के वस्त्र | जब उसे निकाला तो वह पुष्पमाला बन गया और जब उसे वसुमित्रा संबंधी शुद्धि के प्रकरण लुप्त हो गये हैं, सौन्दर्य प्रशाधन की की लड़की कामलता के कण्ठ में डाला तो वह माला सर्प बन गई सामग्रियों में चर्बी आदि अशुद्ध पदार्थों का इस्तेमाल प्रचुर मात्रा में | और उसने वेश्या की लड़की को डस लिया। जब राजा ने सोमा को हो रहा है, रेशम चमड़ा तथा ऊनी वस्त्रों का प्रयोग लगभग सभी पकड़कर बुलवाया तब सोमा के स्पर्श से कामलता विष रहित हो ग्रहस्थ करते हैं। अत: घरों में शुद्धि समाप्त हो चली है। फिर भी । गई। सोमा के शील की प्रशंसा हुई और देवों ने पञ्चाश्चर्य प्रकट यदि किसी को यन्त्र घर में रखना ही हो तो किसी उच्च एवं पवित्र | किए। स्थान पर अथवा अपने गृह के धर्मसाधन कक्ष में उच्च स्थान पर ४. पृष्ठ १५० पर कहा है - 'मंत्री के द्वारा प्रभुस्मरण पूर्वक, सिंहासन आदि में उचित सम्मान पूर्वक यन्त्र रखा जाना चाहिए।। अपने नियम के पालन के लिए जब लोहे की तलवार को लकड़ी ६. यन्त्र आदि को अपने गले में पहन लेना या अपने कुर्ते की तलवार बनाया गया तब पूरे नगर में मंत्री की प्रतिज्ञा पालन की या पेन्ट की या कुर्ते की जेब में रखे पर्स में रखे रहना बिल्कुल उचित | प्रशंसा हुई और देवों ने पञ्चाश्चर्य प्रकट किए। नहीं है। ५. पृष्ठ २०० पर कहा है- 'उमय नामक व्यक्ति के अज्ञात ७. हवनकुण्ड में जो छल्ले, अंगूठी आदि डाले जाते हैं वे | फल न खाने का नियम था प्रसंग वश उसकी धर्म की दृढ़ता देखकर मन्त्रित तो हो जाते हैं, परन्तु उनका प्रयोग लघुशंका आदि के समय | देवों ने उसको सिंहासन पर बिठाया और पञ्चाश्चर्य प्रकट किए। अथवा अशुद्ध स्थानों में किए जाने से मंत्र की अवमानना का दोष इस प्रकार के और भी कई प्रकरण इस ग्रन्थ में दृष्टिगोचर लगता है, अत: विवेकशील गृहस्थों को ऐसा नहीं करना चाहिए। | . जिज्ञासा- क्या देव, तीर्थंकर व ऋषियों के आहार एवं प्रश्नकर्ता - पं.आलोकशास्त्री, ललितपुर समवशरण आदि केवली भगवान के प्रसंगों के अलावा किन्हीं जिज्ञासा - औदयिक भावों में लिंग को तो लिया है परंतु अन्य प्रसंगों में भी पञ्चाश्चर्य प्रकट करते हैं या नहीं? हास्यादिक नो कषायों को क्यों नहीं लिया? समाधान- शास्त्रों में तीर्थंकरों एवं महामुनियों के आहार समाधान - तत्वार्थसूत्र अध्याय-2, सूत्र-6 'गतिकषाय दान के अवसर पर पञ्चाश्चर्य के प्रसंग बहुत पढ़ने में आते हैं। | ........' की टीका करते हुये आ. विद्यानंद महाराज ने श्लोकवार्तिक समवशरण या गन्ध कुटी के बनने पर भी देव पञ्चाश्चर्य करते हैं। में इस प्रकार कहा है, 'मिथ्यादर्शनमेकभेदमदर्शनस्य तत्रैवांतर्भावात्, इसके अलावा अन्य प्रसंगों पर प्रथमानुयोग के ग्रन्थों में देवों द्वारा अज्ञानमेकभेदं असंयतत्वमेकभेदं लिंगे हास्यरदत्याद्यंतर्भाव: पञ्चाश्चर्य करने के प्रकरण मेरे पढ़ने में नहीं आए हैं। परन्तु सहचारित्वात्। गतिग्रहणमघात्युपलक्षणमिति न कस्यचिदौदयिक सम्यक्त्व कौमुदी नामक ग्रन्थ में विभिन्न अवसरों पर पञ्चाश्चर्य | भेदस्यासंग्रहः। करने के प्रकरण अवश्य प्राप्त होते हैं। सम्यक्त्व कौमुदी के | विशेषार्थ - (पं. माणिकचंद जी कौन्देय) मिथ्यादर्शन (भारतवर्षीय अनेकान्त विद्त परिषद द्वारा प्रकाशित) अनुवादक एक प्रकार का है, अदर्शन भाव का उस मिथ्यादर्शन में ही पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य, प्रकाशन - १९९४,के कुछ प्रसंग | अन्तर्भाव हो जाता है। अज्ञान एक प्रकार का है, असंयतपना एक इस प्रकार हैं- जिनदत्त सेठ द्वारा चोर को णमोकार मंत्र दिया गया। | भेद वाला है, लिंग तीन प्रकार है। हास्य आदि नो कषायों का वह चोर मरकर सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ। कुछ लोगों ने राजा से | अन्तर्भाव लिंग में कर लेना सूत्रकार को सहचारीपना होने से चुगली की कि सेठ ने दण्ड प्राप्त चोर के साथ वार्तालाप किया है। | विवक्षित है। जीवविपाकी जातिकर्म के उदय से होने वाले या तब राजा ने सेठ को पकड़ने के लिए योद्धा भेजे।देव ने अवधिज्ञान | त्रस-स्थावर, उच्चगोत्र, मनुष्यायु, साता- असाता, तीर्थकरत्व आदि से जब इस संकट को जाना तब संकट दूर कर पञ्चाश्चर्य के द्वारा | अघातिया कर्मों की प्रकृतियों के उदय से होने वाले औदयिक सेठ का अत्यंत सम्मान और प्रशंसा की। भावों का गतिग्रहण से उपलक्षण हो जाता है। इस कारण जीवविपाकी २. पृष्ठ १०७ पर कहा है- 'बन्धु श्री के द्वारा कापालिक | घाति या अघाति किसी भी कर्म के उदय से होने वाले औदयिक -फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित 39 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेद का असंग्रह नहीं हुआ। इन 21 भेदों में सभी औदयिक भावों | इसकी टीका करते हुये, 'अन्य वेलाकृतं शीतलान्नम्' का अन्तर्भाव हो जाता है। अर्थात् अन्य बेला में बनाया हुआ अर्थात् जो तुरंत का बनाया हुआ उपरोक्त प्रमाण से स्पष्ट होता है कि हास्य, रति, अरति, | गर्मागर्म न हो अर्थात् शीतल हो गया हो, इसतरह का आहार साधु शोक, भय, जुगुप्सा इन नो कषायों का लिंग में अन्तर्भाव मानना | के लिए करने योग्य है। चाहिए। । उपरोक्त प्रमाणों से स्पष्ट है मुनिराज के आ जाने पर उनके जिज्ञासा - क्या मुनिराज को आहार में गर्म रोटी आदि समक्ष गर्मागर्म भोजन बनाकर देना शास्त्र विरुद्ध क्रिया है। विवेकी तुरंत बनाकर देना उचित है? दाता को कभी भी ऐसा गलत कार्य नहीं करना चाहिए। मुनि को समाधान - 'श्रीवामदेव रचित संस्कृत-भाव संग्रह' में | आहार देते समय, ऐसा देखा जाता है कि मुनिराज द्वारा उनकी इसप्रकार कहा है - अंजुलि में दिए गए जल को, कम गर्म बताने पर कुछ लोग अंदर उद्दिष्टं विक्रयानीतमुद्दारस्वीकृतं तथा। चौके में जाकर चुपचाप अग्नि जलाकर पानी गर्म करके ले आते परिवत्यं समानीतं देशान्तरात्समागतम ॥८१॥ हैं। ऐसा करना नितांत अनुचित है। उस दाता को चाहिए कि वह अप्रासुकेन सम्मिश्रं मुक्तिभाजनमिश्रता। मुनिराज से निवेदन करे कि इससे अधिक गर्म पानी उसके पास अधिका पाकसंवृद्धिर्मुनिवृन्दे समागते ॥८२॥ नहीं है। आजकल कुछ ब्रह्मचारी भैया लोग या बहिनें मुनिराज अर्थ - साधु के उद्देश्य से बनाया गया, खरीदकर या कुछ को आहार देते समय चौके में आ जाते हैं कि 'महाराज गर्म रोटी वस्तु बेचकर लाया गया, किसी पात्र में से निकाला गया, दूसरे का | लेते हैं, इन्हें गर्म-गर्म सेककर दो' परंतु उनका इस प्रकार कहना दिया हुआ स्वीकृत आहार, परिवर्तन करके लाया गया, देशांतर से | एकदम आगमविरुद्ध है। उनको ऐसा कहकर गलत क्रिया को आया हुआ, अप्रासुक वस्तु से मिश्रित आहार, खाने के पात्र से प्रोत्साहन कभी नहीं देना चाहिए। सुधी श्रावक को भी उनकी मिश्रित तथा मुनिजनों के आने पर पकाई जाने वाली वस्तु को दोषों | बातों में आकर या उनसे डरकर कभी भी मुनिराज के पड़गाहन हो के समुदाय रूप होने के कारण प्रयत्न पूर्वक त्याग कर देना | जाने पर, तुरंत बनाई हुई गर्म रोटी आदि या अन्य कोई वस्तु कभी चाहिए। नहीं देना चाहिए। 2. श्री कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा ४४६ की टीका में भी शुभचन्द्राचार्य ने इस प्रकार कहा है - 1/205, प्रोफेसर कॉलोनी, अरसंच अण्णवेलाकदंच सुद्धोदणंच लुक्खंच। आगरा = 282 002 आयंविलमायामोदणं च विगडोदण चेव ॥ सूरज के तथाकथित पुत्र सुरेश जैन 'सरल' सूरज को 'बाप' बनाकर /तुम सभी पर इतराते हो अनेक दुर्गुणों के बाद भी सब पर छा जाते हो अभी तुम्हारे इतराने का समय है, अत: पाँव जमीन पर कैसे धर पाओगे? कल जब समय-सम्राट करवट लेगा तब तुम एक भ्रष्टाचारी मात्र रह जाओगे, सुनो, दबिश, दबदबा और तुम्हारे महल/तब एक साथ ढह जायेंगे, और गलियों में तुम्हारे यशः पुतले धूलधूसरित पड़े रह जायेंगे, नगर में केवल 'आदमी' दिखायेंगे आदमी, जो ट्रस्टी हैं किन्तु ईमानदार, जिनके आभूषण हैं, सेवा और सदाचार।। तुम्हारा भविष्य स्पष्ट है, सूरज का सानिध्य छूट जाने के बाद/तुम अपनी काबलियत समझ जाओगे तब अपनी ही दृष्टि में एक भिखारी दिखलाओगे सच, औकात समझ जाओगे अतः अपने कारनामों से, खुद को और सूरज को बदनाम न करो, 'बबूल' के घर जन्म लेकर नामकरण'आम' न करो। 293, गढ़ाफाटक, जबलपुर 40 फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचार आर्यिका श्री मृदुमति जी कृत पुस्तकों का विमोचन | विभाग, हवाई विश्वविद्यालय, एवं राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त डॉ. दिनांक १८ फरवरी २००५ को तिलवारा घाट, दयोदय | अनुपम जैन, इन्दौर 26 जनवरी, 2005 को भोपाल पधारे। तीर्थ पर संत शिरोमणि १०८ आचार्य श्री विद्यासागर जी | डॉ. सुलेख जैन भी पुनः भोपाल पधारे। उन्होंने विद्यासागर महाराज ससंघ के सानिध्य में प्रतिभा स्थली' के शिलान्यास | इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेन्ट के प्रबंध निदेशक श्री सुरेश जैन के शुभ अवसर पर निम्न पुस्तकों का विमोचन हुआ:- एवं प्राध्यापकों से विस्तृत चर्चा की। 1. 'निरंजनादि पंच शतकावली एवं स्तुति सरोज संग्रह' प्रो. क्रोफर्ड के नेतृत्व में पधारे अंतर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय का विमोचन श्रीमान् अशोक जी पाटनी (आर.के.मार्बल, | जगत के वरिष्ठ विद्वानों ने इंस्टीट्यूट के कार्यकलापों, किशनगढ़) ने किया। गतिविधियों एवं आधारभूत सुविधाओं की सराहना की। 2. 'सर्वोदयादि सप्त शतकावली' का विमोचन श्रीमान | इस दल ने बताया कि विद्यासागर इंस्टीट्यूट अंतरराष्ट्रीय पन्नालाल जी बैनाड़ा, आगरा द्वारा सम्पन्न हुआ। सहयोग एवं होनोलुलु विश्वविद्यालय के सहयोग से शाश्वत 3. 'भक्ति पाठावली' का विमोचन श्रीमान प्रमोदकुमार | नैतिक मूल्यों के आधुनिक ढंग से प्रशिक्षण हेतु पूर्णतया जी सिंघई बिलासपुर एवं श्री संतोषकुमार जी सिंघई अध्यक्ष उपयुक्त संस्थान है। डॉ. क्रोफर्ड एवं डॉ. अनुपम जैन ने कुण्डलपुर सिद्ध क्षेत्र ने संयुक्त रूप से किया। विश्व में जैन धर्म की भूमिका एवं व्यापार एवं प्रबंधन के निर्देशन : प.पू. आर्यिकारत्न श्री १०५ मृदुमति माताजी | क्षेत्र में जैन जीवन मूल्यों के अवदान पर अपने विचार मार्गदर्शन : ब्र.पुष्पादीदी रहली व्यक्त किए। इसके पूर्व श्री सुरेश जैन ने उनका आत्मीय संपादन : अनिल जैन (विजय प्रेस), ललितपुर स्वागत किया एवं संस्थान के सलाहकार श्री एम.के. जैन, महाप्रबंधक, भारत संचार निगम लिमिटेड ने धन्यवाद ज्ञापन अमेरिकन प्रोफेसरों और छात्रों को जैन धर्म का किया। . प्रशिक्षण प्रो. क्रोफर्ड ने अपने भाषण में बताया कि जैन धर्म भारतीय पंरपरा के धर्मों में जैन धर्म प्राचीन धर्म है। आधुनिक, वैज्ञानिक एवं व्यावहारिक धर्म के रूप में दार्शनिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक अध्ययन की दृष्टि से | अंतरराष्ट्रीय जगत में अपना महत्वपूर्ण स्थान बना रहा है। जैनधर्म, जैनदर्शन , जैन संस्कृति एवं जैनजीवन शैली का | व्यक्तित्व विकास, स्वास्थ्य संरक्षण एवं संबंर्द्धन की दृष्टि से अत्यधिक महत्व है, किंतु अमेरिका एवं कनाडा आदि देशों | शिक्षित व्यक्तियों द्वारा जैन जीवन मूल्य एवं जैन जीवन में स्थित विश्वविद्यालयों के एकेडमिक क्षेत्रों में अध्ययन | पद्धति अपनायी जा रही है। जैन धर्म द्वारा उद्घोषित अहिंसा एवं अध्यापन की दृष्टि से जैनधर्म, जैनदर्शन, जैन संस्कृति | | की आज महती आवश्यकता को आज विश्व में व्यावहारिक एवं जैनजीवन शैली को अन्य धर्मों के संबद्ध विषयों की | वित्तीय एवं मानवीय दृष्टि से स्वीकार किया जा रहा है। प्रो. तुलना में आवश्यक महत्व नहीं दिया जाता है। परिणामतः | अनुपम जैन ने जैन आचार्यों द्वारा गणित एवं प्रबंधन के क्षेत्र आधुनिक ढंग से शिक्षित जैन युवक एवं युवतियाँ तथा जैन | में स्थापित कीर्तिमानों की विस्तृत जानकारी दी। धर्म के अध्ययन-अध्यापन में रूचि रखने वाले छात्र एवं | कार्यक्रम के प्रारंभ में श्रीमती सरोज ललवानी, प्राध्यापक जैन संस्कृति के उच्चस्तरीय बौद्धिक स्त्रोतों का | अध्यक्ष, महावीर इण्टरनेशनल ने प्रो. क्रोफर्ड, डॉ. अनुपम लाभ प्राप्त नहीं कर पाते हैं। अत: यह आवश्यक है कि जैन | जैन एवं डॉ. पाण्डे का परिचय दिया। भोपाल विकास संस्कृति का अध्ययन, प्रचार और प्रसार विश्व के योग्यतम, | प्राधिकरण के पूर्व अध्यक्ष एवं कांग्रेस के वरिष्ठ नेता श्री कुशलतम, अनुभवी एवं वरिष्ठ प्राध्यापकों द्वारा कराया जाये। अशोक जैन भाभा ने अतिथि प्राध्यपकों को पुस्तकें भेंट इस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए विद्यासागर इंस्टीट्यूट | की। ऑफ मैनेजमेंट, भोपाल ने गत वर्ष एम.आई.टी. के वरिष्ठ डॉ. संगीता जैन प्रो. डॉ. सुलेख जैन को अमेरिका से आमंत्रित कर उनसे डी-19/102, माचना कॉलोनी, भोपाल विस्तृत विचार विमर्श कर विचार-पत्र तैयार किया था। इसी नाश के कारण अनुक्रम में इस वर्ष प्रो. क्रोमवैल क्रोफर्ड, अध्यक्ष, धार्मिक | भ्रष्ट मंत्रियों से राज्य की शासन व्यवस्था का नाश -फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित 41 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता है। शासकीय कर्मचारी लोभी हों तो प्रजा का नाश होता | या आपके बच्चे का मन पढ़ाई में नहीं लग रहा हो, मन शांत है। रईशों की संगति में रहने से नियम-संयम का नाश होता | न हो, शरीर में आलस्य हो, कुछ भी करने में मन नहीं कर है। पुत्र कपूत हो तो कुल की प्रतिष्ठा का नाश होता है। शराब | रहा हो तो उपर्युक्त विधि का दो मिनट अभ्यास करें। आप पीने से मर्यादा और शील का नाश होता है। स्वयं देखभाल न महसूस करेंगे कि आपका मन एकाग्र हो गया है, साथ ही करने से खेती और व्यापार का नाश होता है। क्रोध से विवेक | स्फूर्ति का अनुभव भी करेंगे। नष्ट होता है। ईर्ष्या से प्रेम नष्ट होता है। झूठ से विश्वास नष्ट | जोडों का दर्द, गठिया या संधिवात ऐसे रोग हैं जो होता है। सत्य से भ्रम नष्ट होता है। हिसाब-किताब के बिना लगभग हर घर में होते हैं। इनके लिए ताली बजाने की खर्च करने से पूँजी नष्ट होती है। मेल जोल (संपर्क) न | विधि बहुत आसान है। दोनों हाथों को आपस में मिलाते रखने से संबंध नष्ट होता है। अहंकार से यश नष्ट होता है।। हुए जोर-जोर से बजाएँ। हथेली-हथेली पर पडे, उंगलियाँबुढ़ापे से रूप नष्ट होता है। अभिमान से सम्मान नष्ट होता है।। उगलियों पर। इसके निरंतर अभ्यास से जोड़ों पर बहुत चिंता से शरीर नष्ट होता है। अधिक भोग विलास से यौवन | अच्छा प्रभाव पड़ता है। उनकी जकड़न खत्म हो जाती है। नष्ट होता है। पुरुषार्थ के बिना प्रारब्ध नष्ट होता है। और अनिद्रा के रोगी को भी रात को सोते समय यही विधि धर्माचरण न करने से जीवन ही नष्ट हो जाता है। अपनानी चाहिए। इससे सामान्य नींद आनी शुरू हो जाएगी। शांतीलाल जैन, बैनाड़ा हृदय रोग, श्वांस संबंधी रोग, सरवाइकल स्पॉण्डिलाइटिस, कमर दर्द, फ्रोजन शोल्डर आदि रोगो में ताली बजाने के ताली बजाएँ, जीवन पाएँ लिए दोनों हाथों को सामने लाकर पूरा फैलाएँ और वापस एक्यूप्रेशर एवं सुजोक चिकित्सा पद्धति के अनुसार लाकर हाथ से हाथ मिलाकर जोर से ताली बजाए। इसे खड़े हमारे हाथों में सभी बीमारियों को ठीक करने के बिंद होते होकर करना चाहिए। इस ताली को बजाते समय ध्यान रखें हैं, जिन्हें दबाकर रोग में बहुत जल्दी आराम मिल जाता है। कि इसमें खुली हवा का होना बहुत आवश्यक है। इसके ताली चिकित्सा इसका एक आयाम है। नियमित सुबह-शाम अभ्यास से सांस फूलना, श्वास नलियों ताली चिकित्सा पद्धति और पूजा अर्चना का गहरा की रुकावट, खर्राटे भरना आदि व्याधियों से भी मुक्ति तालमेल है। जब मन को कोई बात अच्छी लगती है तो मिलती है । निम्न रक्तचाप (लो ब्लड प्रेशर) में ताली बजाकर । अपने अंदर की खुशी व्यक्त करने के लिए हम ताली बजाकर तुरंत ही शरीर को ऊर्जावान बनाया जा सकता है। लो ब्लड उसे प्रकट करते हैं। ताली जहाँ खुशी व्यक्त करती है. वहाँ | प्रेशर को बढ़ाने के लिए सीधे खड़े होकर दोनों हाथों को आपको स्वस्थ रखने में भी सक्षम है। सामने, ताली बजाते हुए नीचे से ऊपर की ओर जाकर ताली बजाने के लिए हमें अपनी दोनों हथेलियो को गोलाकर घुमाएं, ध्यान यह रखना है दिशा नीचे से ऊपर जोर से एक-दूसरे पर मारना होता है। ऐसा करने पर हाथों के गोलाकर होनी चाहिए। उच्च रक्तचाप या हाईब्लड प्रेशर को कम करने के सारे सक्रिय बिंदु दब जाते हैं और रोग में सुधार होना शुरू हो लिए उपर्युक्त विधि को उल्टी दिशा में करें। इसमें हाथों को जाता है। यही ताली चिकित्सा का मूल आधार है। इसी पीछे से ऊपर गोलाकार में ले जाते हुए सामने लाकर, ताली चिकित्सा में ताली बजाने का एक तरीका होता है। रोगियों बजाएँ। हाथों को नीचे लाकर वापस पीछे से ऊपर ले जाते पर किए गए प्रयोगों के आधार पर तालियों के भिन्न-भिन्न हुए ताली बजाने का क्रम रखना चाहिए। प्रकार होते हैं। उदर रोग के लिए दाएँ हाथ की चार उंगलियों ताली चिकित्सा की प्रमाणिकता मंदिरों में महसूस को बाएँ हाथ की हथेली पर जोर-जोर से मारकर तेजी से की जा सकती है। यहाँ पहुँचकर मन को अद्भुत शांति ताली बजाएँ। इसे १० मिनट सुबह और १० मिनट शाम को मिलती है, कुछ देर के लिए रोग, कष्ट, समस्याएँ जैसे दूर बजाना चाहिए। १० मिनट तक एक जैसी ही आवाज आनी चली जाती हैं। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि वहाँ भक्तगण चाहिए। इस ताली के प्रयोग से पेट संबंधी समस्त रोग जैसे तालियाँ बजाते हुए भजन-पूजा करते हैं जिससे विशेष प्रकार - कब्ज, गैस, एसिडिटी, मंदाग्नि, अपच, भूख न लगना, की सूक्ष्म तरंगें निकलकर पूरे वातावरण को रोमांचक व खाली पेट गैस बनने के साथ ही मानसिक तनाव, एकाग्रता आनंददायक बना देती हैं। की कमी आदि ठीक हो जाते हैं। ताली चिकित्सा की विधियाँ शारीरिक रोग को तो एक छोटा सा प्रयोग आप भी कर सकते हैं। आपका | ठीक करती ही हैं. इसके साथ-साथ घर के माहौल को भी 42 फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवर्तित करती हैं। अनिल पाटोदी 'अनुपम डॉ.विकास मोहन, प्राकृतिक चिकित्सक | श्री कपूर चन्द जी पाटनी जयपुर का धर्मध्यान पूर्वक इसरी में सप्तम आत्म साधना शिक्षण शिविर सानंद स्वर्गवास सम्पन्न श्री कपूरचंद जी पाटनी (कालाडेरा वाले) निवासी तीर्थराज सम्मेद् शिखर के पादमूल इसरी बाजार में | इन्द्रपुरी कॉलोनी, लालकोठी, जयपुर का दिनाँक १९ नवम्बर पं. श्री मूलचंद जी लुहाड़िया (मदनगंज-किशनगढ़) के | २००४ को धर्मध्यान पूर्वक स्वर्गवास हो गया है। आपकी निर्देशन एवं श्री सम्पतलाल जी छाबड़ा (कोलकाता) के आयु ८२ वर्ष की थी। आप अत्यंत मिलनसार एवं मृदुभाषी संयोजन में सप्तम आत्म साधना शिक्षण शिविर का आयोजन | थे, किसी को भी दु:खी देखकर तुरंत सहयोग करते थे। हुआ जिसका शुभारंभ दिनाँक २४ दिसम्बर २००४ (शुक्रवार) आप नियमित रूप से पूजन आदि कार्य भक्ति भाव सहित को हुआ। परमपूज्य आचार्य १०८ श्री ज्ञानसागरजी महाराज, करते थे। विधान कराने में, साधुओं को आहार देने में, परमपूज्य आचार्य १०८ श्री विद्यासागर जी महाराज एवं पूज्य पंचकल्याणक प्रतिष्ठाओं में इन्द्र आदि बनने में आपकी क्षुल्लक १०५ श्री गणेश प्रसाद जी वर्णी के चित्रों का अनावरण अत्यंत रूचि रहती थी। करीब २ वर्ष पूर्व आपकी दोनों क्रमश: धर्मनिष्ठ श्रीमान शिखरीलालजी बगड़ा (कोलकाता), आँखों की रोशनी चली गई थी फिर भी आप १२-१३ घंटे श्रीमान रतनलाल जी जैन, सी.ए. (कोलकाता) एवं श्रीमान नित्य धार्मिक क्रियाओं में लगाते थे तथा पर्व के दिनों में मोहनलाल जी अजमेरा (धुलियान-मुर्शिदाबाद, पं.बंगाल) आप अपने पुत्र शांतिलाल जी पाटनी के साथ अंत तक द्वारा किया गया। मंदिर जाते रहे। आपने अपने अंतिम दिनों में दो लाख श्रावकाचार (उत्तरार्ध) के वर्ग क्रमशः बा.ब्र. श्री रूपये की राशि दान में निकालने की भावना की थी। पवन भैय्या, बा.ब्र.श्री कमल भैय्या एवं प. श्री मूलचन्द जी जिसमें से ५१००० रुपये की राशि श्री दि.जैन श्रमण संस्कृति लुहाड़िया द्वारा लिये गये जबकि स्थानीय बच्चों को बालबोध संस्थान सांगानेर को प्राप्त हुई है। शेष राशि अन्य स्थानों पर एवं छहढाला का अध्ययन ब्र.श्री ज्योति दीदी (इसरी) द्वारा भेजी जा रही है। अंतिम समय तक वे धर्मसाधना में लगे कराया गया। दिन में 2 बार चारों विषयों के अलग-अलग रहे। प्रभु से प्रार्थना है कि उनकी आत्मा को शांति प्रदान वर्ग लगते थे। कार्यक्रम संचालन श्री सुरेश कुमार जैन करें। (इसरी), श्री रतनलाल जैन नृपत्या (जयपुर), श्री नरेश कुमार जैन (पटना) ने किया। श्री पुरुषोत्तम दास जी जैन सहायता प्राप्त (जगाधारी) ने प्रतिमाव्रत ग्रहण किया। चि.नितिनकुमार सुपुत्र श्री अजयकुमार कासलीवाल, नरेश कुमार जैन, ट्रस्टी संयोजक | साकेतनगर, कानपुर का शुभ विवाह आ.विप्रा सुपुत्री श्री श्री पार्श्वनाथ दि. जैन शांति निकेतन, उदासीन आश्रम भूषण कुमार जी लुहाड़िया कोटा निवासी के साथ दिनांक ६ दिसंबर २००४ को संपन्न हुआ है, जिसमें 'सर्वोदय जैन नावाँ में सहस्त्रनाम मण्डल विधान, चन्द्रप्रभु विद्यापीठ' के लिए ११०० रुपये प्राप्त हुए हैं। हम सभी कामना करते हैं कि वर-वध का गृहस्थ जीवन धार्मिक पार्श्वनाथ जन्म व तप कल्याणक नावाँ सिटी (राजस्थान) में परमपूज्य गणिनी आर्यिका एवं मंगलमय हो। श्री १०५ श्याद्वादमति माताजी के ससंघ सानिध्य में श्री १००८ जिन सहस्त्रनाम मंडल विधान, देवाधिदेव १००८ श्री जैन समाज द्वारा सामूहिक उपवास एवं जुलूस चन्द्रप्रभु-पार्श्वनाथ भगवान का जन्म व तप कल्याणक एवं निकाला आचार्य श्री विमलसागर जी महाराज का १० वाँ समाधि अजमेर ६ जनवरी, ०५ सकल जैन समाज, अजमेर दिवस महोत्सव दि. ३ जनवरी से १३ जनवरी २००५ तक | की ओर से तीर्थंकर नेमीनाथ भगवान की निर्वाणस्थली संघस्थ बा.ब्र.प्रभा दीदी (इंदौर म.प्र.) के निर्देशन में आयोजित गिरनार सिद्धक्षेत्र पर जैनियों के पूजा अभिषेक, वंदना के किया गया। अधिकारों की रक्षा और असामाजिक तत्त्वों की ओर से | किये जा रहे अतिक्रमण के विरोध में लामबंद होकर आज -फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित 43 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'गिरनार बचाओ जैन समिति' ने एक 'विशाल अहिंसक | पूर्व उच्चायुक्त, भारतीय उच्चायोग ब्रिटेन को श्रमण संस्कृति रैली' नया बाजार, चौपड से जुलूस के रूप में नारे लगाते | के प्रचार-प्रसार एवं अध्ययन अनुसंधान में प्रदत्त सहयोग हुये जिलाधीश कार्यालय पहुंचे। और वहाँ जिलाधीश महोदय के लिए प्रदान किया जाता है।' को महामहिम राष्ट्रपति के नाम दिये गये ज्ञापन में इस तीर्थक्षेत्र | पुरस्कार समर्पण समारोह के स्थान एवं समय की के जैन समाज के होने बावत् प्रमाण देते हुए न्यायालय के | घोषणा बाद में की जायेगी। ज्ञातव्य है कि संस्थान द्वारा गत आदेश का हवाला भी दिया और गुजरात सरकार द्वारा जैन | वर्षों में यह पुरस्कार भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली व सम्प्रदाय की अनदेखी करने व उनकी धार्मिक भावना को | धर्माधिकारी डॉ. डी. वीरेन्द्र हेगड़े, धर्मस्थल को समर्पित ठेस पहुँचाने का आरोप लगाते हुए उन्हें अजमेर के जैन | किया जा चुका है। समाज की ओर से लोकतांत्रिक व्यवस्था व आस्था कायम डॉ. अनुपम जैन रखने की राय दी। इस संबंध में समिति की ओर से अजमेर संयोजक पुरस्कार योजना जैन समाज द्वारा ग्यारह हजार पोस्टकार्ड राष्ट्रपति को लिखकर ज्ञान छाया, डी. १४, सुदामा नगर, इन्दौर जैन समाज की भावनाओं से अवगत कराने का निर्णय लिया, जिसमें सभी स्त्री-पुरूष, बच्चे अपने - अपने नाम से गिरनार सतना के जैन मंदिर पर डाक विभाग द्वारा विशेष धार्मिक क्षेत्र के संबंध में अपनी भावना सीधे राष्ट्रपति को कव्हर जारी सतना, भारतीय डाक विभाग द्वारा सतना में आयोजित व्यक्त करेंगे और गुजरात सरकार के प्रति अपनी खुली दो दिवसीय डाक टिकट प्रदर्शनी सतनापेक्स २००५ के नाराजगी जाहिर करेंगे। जुलूस में सैकड़ों धर्मप्रेमी बन्धुओं ने जिनमें से दौरान २८ जनवरी २००५ को जैन धर्म संबंधी एक विशेष कव्हर तथा विशेष केन्सिलेशन जारी किया गया है। अधिकांश ने आज उपवास रखा तथा जुलूस के मार्ग में सतना में स्थित दिगम्बर जैन मंदिर की स्थापना के 'गिरनार तीर्थक्षेत्र हमारा है' 'नरेन्द्र मोदी तेरी तानाशाही नहीं १२५ वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में जारी इस विशेष कव्हर चलेगी।' 'गुजरात सरकार हाय-हाय' जैसे गगनभेदी नारे लगाकर रोष प्रकट किया। पर सतना नगर के सबसे प्राचीन मंदिर दिगम्बर जैन मंदिर हीराचन्द्र जैन का सुंदर चित्र तथा इस मंदिर के मूल नायक श्री १००८ प्रचार प्रसार संयोजक नेमीनाथ भगवान की मूर्ति के चित्र मुद्रित हैं। इस मंदिर की ३-च-१८, कंचन सदन, वैशालीनगर, अजमेर स्थापना माघ सुदी ५ विक्रम संवत् १९३७ (सन १८८०) को हई थी। लगभग उसी वर्ष सतना शहर अस्तित्व में आया उपाध्याय ज्ञानसागर श्रत संवर्द्धन पुरस्कार की घोषणा | था। यह दिगम्बर जैन मंदिर सतना नगर का प्रथम पूर्ण ___ श्रुत संवर्द्धन संस्थान द्वारा प्रवर्तित उपाध्याय ज्ञानसागर | विकसित शिखरबद्ध मंदिर है। जैन धर्म के २२ वें तीर्थंकर श्रुत संवर्द्धन वार्षिक पुरस्कार के अंतर्गत साहित्य, संस्कृति | श्री नेमीनाथ भगवान की लगभग साढ़े तीन फुट उंची अथवा समाज के संरक्षण/विकास में उत्कृष्ट योगदान देने | पद्मासन प्रतिमा मूल नायक के रूप में इस मंदिर में वाले विशिष्ट व्यक्ति/संस्था को रू. १,००,०००/- की नगद | विराजमान है। धनराशि, शाल, श्रीफल, रजत प्रशस्ति, प्रतीक चिन्ह से | इस अवसर पर लगाई गई विशेष मोहर केन्सिलेशन सम्मानित किया जाता है। संस्थान के अध्यक्ष, प्रो. नलिन के. | में सतना जिले के ऐतिहासिक पतियानदाई जैन मंदिर का शास्त्री द्वारा गठित त्रिसदस्यीय निर्णायक मण्डल की सर्वसम्मत | तीन तीर्थंकर प्रतिमाओं से युक्त एक पुराशिल्प अंकित है। अनुशंसा के आधार पर उपाध्याय ज्ञानसागर श्रुत संवर्द्धन | कल्चुरी कालीन मूर्तिकला का यह मंदिर स्थापत्य एवं कला पुरस्कार २००२ की घोषणा निम्न प्रकार की गई। की दृष्टि से महत्वपूर्ण रहा है। कैन्सिलेशन में दर्शाया गया 'वर्ष २००२ का उपाध्याय ज्ञानसागर श्रुत संवर्द्धन | पुराशिल्प दसवीं शताब्दी का है और इस समय सतना जिले पुरस्कार प्रख्यात विधिवेत्ता माननीय डॉ. एल.एम. सिंघवी | के रामवन में स्थित शासकीय संग्रहालय में संग्रहीत है। 44 फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदर्शनी स्थल मारवाड़ी सेवा सदन सतना में उक्त | इस संस्थान की कार्य योजना में जैन धर्म द्वारा स्थापित विशेष कव्हर तथा विशेष केन्सिलेशन का विमोचन २८ | जीवन मूल्यों का विकास और प्रसार, साहित्य दर्शन, कलाओं जनवरी २००४ को आयोजित उद्घाटन समारोह में हुआ। | का अध्ययन, अनुसंधान, श्रमण संस्कृति आधारित प्राचीन भारतीय डाक विभाग के छत्तीसगढ़ परिमण्डल के चीफ भाषा साहित्य भाषा, व्याकरण का अद्यतन संदर्भो में उनकी पी.एम.जी. कल पृथ्वीराज कुमार इस समारोह के मुख्य | प्रासंगिकता पर सर्वेक्षण, शोध संग्रह का प्रकाशन आदि अतिथि थे। प्रस्तावक श्री जिनेन्द्र जैन ने अतिथियों को | शामिल हैं। इसी तरह राष्ट्रीय शोध संगोष्ठियों, शोध कार्यशालाओं विशेष कव्हर भेंट किये बड़ी संख्या में गणमान्य अतिथि, के माध्यम से श्रमण संस्कृति के साहित्य कलाओं को संरक्षण जैन समाज के प्रमुख नागरिक एवं संग्रहकर्ता इस अवसर प्रदान किया जाएगा, श्रमण संस्कृति की बिखरी संप्रदा का पर उपस्थित थे। सेंट्रल इण्डिया फिलाटेलिक सोसायटी के संग्रह कर संरक्षण किया जाएगा। जैन धर्म एवं दर्शन में परा सचिव तथा इस प्रदर्शनी के निर्णायक सुधीर जैन ने इस | स्नातक कक्षाओं एवं शोध कार्य संचालित किए जायेंगे। कव्हर व केन्सिलेशन की डिजाइन बनाई थी तथा उनका | इसके साथ-साथ व्याख्यान मालाओं का आयोजन किया जैन धर्म संबंधी टिकटों का संग्रह इस प्रदर्शनी के आमंत्रित | जाएगा तथा जैन धर्म के २४ तीर्थकरों के प्रतीक चिन्हों का वर्ग में विशेष रूप से प्रदर्शित किया गया। पर्यावरणीय महत्व, जैन मुनियों की दैनंदनी का आज के सुधीर जैन | वातावरण पर प्रभाव तथा वास्तु एवं स्थापत्य कला की दृष्टि युनिवर्सल केबिल्स लिमिटेड, सतना, (म.प्र.) से जैन मंदिर एवं मूर्तियों पर शोध परियोजनाएँ अधिग्रहीत की जाएंगी। प्रो. वाजपेयी ने बताया कि इस संस्थान का चार करोड़ में बनेगा जैन विद्या शोध संस्थान निर्माण लगभग पांच वर्ष में पूर्ण किये जाने का प्रस्ताव है। (संस्थान में जैन मुनियों के साधना कक्ष बनेंगे ) भवन के निर्माण में लगभग एक करोड़, कम्प्यूटर कक्ष पर अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय में चार करोड़ २५ लाख, ग्रंथालय पर ५० लाख, अतिथि कक्ष पर २५ की लागत से ज्ञान विद्या जैन शोध संस्थान की स्थापना की लाख, शोधार्थी कक्ष पर २५ लाख, जैन मुनियों के लिए जाएगी । इस संस्थान के लिए एक भव्य एवं दिव्य भवन उपयुक्त साधना कक्ष के निर्माण पर ५० लाख, कर्मचारियों का निर्माण पुस्तकालय एवं वाचनालय, कम्प्यूटर इत्यादि से एवं अकादमिकों के वेतन सुविधाओं पर खर्च एक करोड सुसज्जित प्रयोगशाला शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक प्रभावों को तथा अन्य आकस्मिक प्रशासनिक व्यय पर लगभग २५ ग्रहण करने हेतु प्रयोगशाला, शोधार्थियों, अतिथियों के लिए लाख का व्यय होने का अनुमान है। उन्होंने बताया कि इस आवास, जैन सन्यासियों के लिए उपयुक्त साधना कक्ष, महत्वाकांक्षी योजना को मूर्त रूप देने के लिए मध्यप्रदेश विद्वानों के व्याख्यानों, भाषण मालाओं, अनुसंधान की पर्याप्त शासन, केन्द्र सरकार, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, सुविधाएँ उपलब्ध कराई जायेंगी। ज्ञान विद्या जैन शोध विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, भारतीय दर्शन परिषद, संस्थान का निर्माण अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय के विदेशी संस्थाओं तथा दानदाताओं एवं अन्य उपयुक्त साधनों कुलपति प्रो. ए.डी.एन. वाजपेयी की एक अत्यंत से धनराशि जुटाई जाएगी। विश्वविद्यालय द्वारा संस्थान प्रारंभ महत्वाकांक्षी योजना है, जिसके निर्माण में लगभग चार करने के पूर्व भी दर्जन भर शोधार्थियों को जैन धर्म एवं करोड़ खर्च का अनुमान है। दर्शन विषय पर शोध कार्य की स्वीकृति दी गई थी, जिस कुलपति प्रो. वाजपेयी ने बताया कि ज्ञान विद्या जैन पर उन्होंने सफलतापूर्वक शोध कार्य पूर्ण किया है। शोध संस्थान की स्थापना जैन धर्म को केन्द्र में रखकर की विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें शोध उपाधि प्रदान की गई। गई है। सर्वप्रथम जैन धर्म के सिद्धांतों पर अध्ययन-अध्यापन, 'नव भारत' (रीवा पत्रिका) अनुसंधान एवं उसके प्रचार-प्रसार को प्रोत्साहित किया जाएगा। इसके बाद जैन धर्म का अन्य धर्मों के सिद्धांतों के वह 20 सालों से सोया ही नहीं फिर भी है तंदुरुस्त साथ तुलनात्मक अध्ययन किया जाएगा। उन्होंने बताया कि यहाँ एक 63 वर्षीय व्यक्ति ऐसा है, जो दो दशकों से -फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित 45 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी ज्यादा समय से सोया नहीं है और डाक्टरों के मुताबिक | शाल प्रशस्ति पत्र व प्रतीक चिन्ह भेंट किया जाएगा। वह बिल्कुल तंदुरुस्त है। कैमेकेशिस्र्की के फ्योडोर नेस्टरचक अजमेर में शान्तिनाथ जिनालय का भव्य शिला के अनुसार वह लगभग बीस साल पहले आखिरी बार स्थापना समारोह सोया था। उसका कहना है कि उसे तो वह तारीख भी ठीक श्री 1008 शान्तिनाथ दिगम्बर जैन धर्मार्थ प्रन्यास के से याद नहीं है, कि वह कब आखिरी बार सोया था। फ्योडोर | अंतर्गत आज दिनांक 4 फरवरी, 05 को सिविललाइन्स, ने बताया कि यह अपने आप ही शुरू हुआ। एक रात उसे अजमेर में आध्यात्मिक योगी प.पू. संत शिरोमणि आचार्य नींद नहीं आ रही थी, उसने सोने की बहुत कोशिश की, | 108 श्री विद्यासागर जी महाराज के शुभाशीर्वाद से उनकी लेकिन वह सो न सका और तब से आज तक नहीं सो सुशिष्या प.पू. आर्यिका श्री 105 पूर्णमति माताजी ससंघ के पाया। उसे खद भी नींद न आने का कारण अब तक समझ पावन सानिध्य में सिवनी के दस प्रतिमाधारी ब्र. अशोक में नहीं आया। उसने उबाऊ किताबें पढ़कर भी सोने की भैया के प्रतिष्ठाचार्यत्व में सर्व श्री अजीत शास्त्री, कुमुदचंद कोशिश की, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। फ्योडोर के सोनी, जयचंद राजाखेडा के सहयोग से श्री शान्तिनाथ जिनालय अनुसार अब वह जागने का अभ्यस्त हो चुका है। वह कहता है कि रात में जब सभी लोग सो रहे होते हैं, तब वह का शिला स्थापना समारोह का भव्य आयोजन सम्पन्न हुआ। अच्छी किताबें पढ़ता है। उसे सुलाने के डॉक्टरों द्वारा किए भोपाल के चन्द्रसेन जैन के काव्यमय मंच संचालन में अ.भा. गए सारे प्रयास असफल रहे। उसके डॉक्टर फ्योडोर कोशेल | दि. जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी, श्री अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी व ने बताया कि उसके अनिद्रा का कोई कारण समझ नहीं | बाहबली महामस्तकाभिषेक समिति के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री आता। शायद यह किसी पुरानी बीमारी के कारण हो, लेकिन नरेश कुमार सेठी द्वारा ध्वजारोहण, कुमारी श्रद्धा अजय वह चिकित्सकीय रूप से सामान्य है। दनगसिया द्वारा सुन्दर मंगलाचरण एवं श्री मूलचन्द लुहाडिया, दैनिक भास्कर गुरूवार, 20 जनवरी मदनगंज द्वारा अन्य सहयोगीयों के साथ प.पू. आचार्य 108 श्री विद्यासागर जी महाराज के चित्र के समक्ष दीप प्रज्जवलन 19 बच्चों को राष्ट्रीय वीरता पुरस्कार के बाद उन्होंने ही जिनालय के प्रशस्ति पत्र का वाचन किया। नई दिल्ली, 18 जनवरी, अदम्य साहस का परिचय हीराचंद जैन देते हुए दूसरों की रक्षा करने वाले 19 बच्चों को राष्ट्रीय वीरता पुरस्कार-2004 के लिए चुना गया है। भारतीय तीर्थकर ऋषभदेव विद्वत महासंघ द्वारा पुरस्कार बाल कल्याण परिषद द्वारा चयनित पाँच लड़कियों और 14 परम पूज्य आर्यिका ज्ञानमती माता जी के सानिध्य में लड़कों को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 25 जनवरी को | भगवान पार्श्वनाथ त्रिसहस्त्राब्दि महोत्सव का उद्घाटन राष्ट्रीय समारोह पूर्वक सम्मानित किया। पुरस्कार समिति की अध्यक्ष | स्तर पर 6 जनवरी 2005 को बनारस में हुआ। इसी अवसर विद्या वेन शाह ने मंगलवार के यहाँ इन पुरस्कारों की घोषणा | पर शताधिक विद्वानों के मध्य तीर्थंकर ऋषभदेव विद्वत की। इन चयनित बच्चों में कर्नाटक से विनोद आर.जैन का महासंघ का अधिवेशन आयोजित किया गया। जिसमें महासंघ भी चयन हुआ है। के अध्यक्ष डॉ. शेखर जैन अहमदाबाद महामंत्री डॉ. अनुपम जैन समाज के लिए गौरव बालक विनोद आर. जैन के | जैन इन्दौर मंत्री अभय प्रकाश जैन ग्वालियर ने श्री सुरेश जैन इस राष्ट्रीय चयन पर उसके मंगल भविष्य की कामना की मारौरा शिवपुरी एवं रामजीत जैन एडव्होकेट ग्वालियर को जाती है। वर्ष 2004 में जैन धर्म की शिक्षा, संस्कृति, अहिंसा पर किये गये कार्यों हेतु पुरस्कार की घोषणा की। यह पुरस्कार पूज्य नेमिचन्द्र जैन को शलाका सम्मान माताजी के सान्निध्य में आयोजित कार्यक्रम के अवसर पर नई दिल्ली, प्रख्यात कवि, आलोचक व रंगकर्मी शाल, श्रीफल 11000 रू. राशि के साथ प्रदान किया जावेगा। पद्यश्री नेमिचन्द्र जैन को हिन्दी भाषा और साहित्य में उत्कृष्ट योगदान के लिए हिन्दी अकादमी का वर्ष 2004-05 का | भाग्योदय तीर्थ में विश्वशान्ति हेतु सोलह दिवसीय सर्वोच्च, शलाका-सम्मान प्रदान किया जाएगा। सम्मान स्वरूप शांति विधान उन्हें एक लाख ग्यारह हजार एक सौ ग्यारह रूपये नगद, संतशिरोमणि आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज 46 फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के शिष्य ब्र. डॉ. रोहित भैया के निर्देशन में भाग्योदय तीर्थ स्थित 1008 चन्द्रप्रभु जिनालय में विश्वशान्ति के उद्देश्य को लेकर 8 फरवरी से 16 दिवसीय शांति विधान शुरू हो गया है। इन पुण्य दिनों में ही दिनांक 13 फरवरी से 20 फरवरी 2005 तक भाग्योदय तीर्थ में एक विशाल शिविर का आयोजन भी किया जा रहा है । विधान का समापन 24 फरवरी 2005 पूर्णिमा को पूर्णाहुति के साथ होगा । सगोत्रीय विवाह का वैज्ञानिक सच पुरातन काल से यह मान्यता रही है कि एक गोत्रीय परिवार में विवाह संपन्न न हो तो बेहतर है। इसका आधार वह खून ही होता है जो इसान की धमनियों में प्रवाहित होता है । यह वैज्ञानिक सच भी है कि आनुवंशिकता व्यक्ति के खून में शामिल रहती है। समान गोत्र वालों को भाई-बहन के रिश्ते में बांधा जाता है। इसलिए एक ही गोत्र में विवाह नहीं होते। समाज ने विवाह के कुछ नियम-संयम तय किए हैं। जैसे कि एक ही जाति में विवाह ज्यादा अच्छे माने जाते हैं, इससे लड़की और लड़के में अपनी जाति का गौरव बना रहता है। आपस में टकराहट नहीं होती । प्रेम विवाहों की असफलता की वजह से इस विचार को और बल मिला है। इसी तरह समानगोत्रीय विवाहों के सामने भी सामाजिक समस्याएँ उठ खड़ी होती हैं। एक ही जीन और खून की समानता की वजह से कभी-कभी संतान सुख से भी वंचित रह जाना पड़ता है या फिर उनमें शरीरिक रोग पनपने लगते हैं, जो एक ही बल्ड ग्रुप या एक ही जीन होने की वजह से होते हैं। दूध में दूध मिलाने से उसके परिमाण में तो वृद्धि हो सकती है, लेकिन उसके परिणाम में कुछ हासिल नहीं होता। जब उसमें दही मिला दिया जाता है तो उसके बिलोने से मक्खन की प्राप्ति होती है। वैज्ञानिक उदाहरण भी इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। जैसे- आक्सीजन और हाइड्रोजन की यौगिक क्रिया से ही जल मिलता है। जीव हो या पेड़-पौधे, उनके विकास की प्रक्रिया आपस की मिश्रण क्रिया से ही संभव है। मिट्टी, जल, आकाश, वायु और अग्नि यानी पंचतत्त्व इस विकास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । समानगोत्रीय विवाह से बचने की सलाह इसलिए दी जाती है, ताकि एक ही जीन और खून की तासीर के परिणामों से दूल्हा और दुल्हन को बचाया जा सके। आचार्य प्रभाकर मिश्र व प्रेरणा से संचालित 'भा. दि. जैन प्रशा. प्रशि. संस्थान' के ४० प्रशिक्षणार्थियों में से, प्री में उत्तीर्ण २२ प्रशिक्षणार्थी मुख्य परिक्षा में प्रविष्ठ होकर, १० प्रशिक्षणार्थियों ने साक्षात्कार हेतु चयन सूची में स्थान प्राप्त कर प्रशंसनीय सफलता अर्जित की है। इन उत्तीर्ण प्रशिक्षणार्थियों में से क्रमशः जिनेन्द्र, अनुराग, सतीश, सतेन्द्र, मनीष, नीलेश, आलोक, मनीष, हेमंत एवं कु. सरिता जैन हैं। संस्थान डायरेक्टर अजित जैन एवं अधीक्षक मुकेश सिंघई द्वारा बताया गया है कि संस्थान की नियमित प्रशिक्षण व्यवस्था, प्रबंध समिति का सक्रिय सहयोग, प्रशिक्षण की लगन तथा गुरु आशीष का परिणाम ही है कि संस्थान प्रगति के पथ पर है। इस संदर्भ में संस्थान के प्रशिक्षण की सृजनात्मकता एवं सक्रियता का प्रमाण है कि संस्थान के प्रशिक्षणार्थियों की लगातार पहल करने पर, कोटा एक्सप्रेस का नाम 'दयोदय एक्सप्रेस' करना स्वीकृत किया गया है। संस्थान प्रधानमंत्री श्री नरेश चंद्र गढ़वाल ने प्रशिक्षण के विकास हेतु, हर संभव सहयोग देने का प्रबल आश्वासन दिया है। अजीत जैन (एडवोकेट) अद्भुत जानकारियाँ • दक्षिण भारतीय राग शंकराभरण सुनने से पागलपन ठीक हो जाता है । • • छत्तीसगढ मुख्य परीक्षा में १० उत्तीर्ण जैनाचार्य १०८ श्री विद्यासागर जी महाराज के आशीष • • • हँसाने वाला विद्यार्थी मूर्ख नहीं होता । मुस्कान के वक्त चेहरे की १४ माँस पेशियाँ खिंचती हैं। चेहरा उदास हो तब ७४-२-७२ माँस पेशियाँ खिंचाव में आ जाती हैं ' राग दरबारी के श्रवण से सिरदर्द में आराम होता है। गिलहरी शुद्ध शाकाहारी नहीं होती । ध्यान के लिये श्रेष्ठ समय रात्रि २ बजे से प्रातः ८ बजे तक है। सामान्यतः महापुरुषों की जन्म कुण्डली में ४,८,९ एवं १२ लग्नें होती हैं । भारतीय समयानुसार पूर्णाहार का श्रेष्ठ काल दिन १० बजे से २ बजे तक है। फोन पर सबसे अधिक बोला जाने वाला शब्द 'मैं' है । हृदय रोगी मैं शब्द का सर्वाधिक प्रयोग करते हैं। -फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित 47 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • पेप्सी में डाला गया दाँत १० दिन में पूर्णतः गल जाता | • एक चींटी पानी में २ दिन जी सकती है। आधा चम्मच त्रिफला को छाछ के साथ प्रतिदिन लेने से • बिल्ली के एक कान में ३२ माँस-पेशियाँ होती हैं। मोटापा ठीक हो जाता है। • आँख खोलकर छींकना असंभव है और हँसते हुए सीटी • जीरे वाला दूध पीने से कर्ण-रोग ठीक होते हैं। श्रवणबजाना। शक्ति बढ़ती है। कुछ भी गुटकते समय श्वांस रुक जाती है। • एक स्वस्थ मनुष्य ५ सैकण्ड में एक श्वांस पूर्ण करता मानव शरीर की कार्यक्षमता सभी यंत्रों से अधिक ४१ है। १४ सैकण्ड में तीन और ६० सैकण्ड में १२ । यदि प्रतिशत है। श्वासोच्छास से णमोकार की १ माला फेरी जाए तो कुल मानव-मस्तिष्क की मात्र ११ प्रतिशत स्मरण कोशिकाएँ २७ मिनट लगेंगे। सक्रिय होती हैं। २० प्रतिशत मनुष्य क्रोधी ही होते हैं। • एक बार मुँह में गुटखा दबाकर सोने वाले का, गाल सहायता प्राप्त फाड़कर, टूथब्रश बाहर निकल आया था। चि.रितेश सुपुत्र श्री विजयकुमार पहाड़े, हैदराबाद गुटखे में रखी रेज़र पत्ती गल जाती है। एवं सौ.कां. कनिका सुपुत्री श्री रमेश जी पाटनी, इम्फाल का मुंबई की होटलों में बर्तन मांजने वाले लगभग ३००००० | शुभ विवाह दिनांक 3 फरवरी 2005 को सम्पन्न हुआ। इस ऐसे लड़के हैं, जो हीरो बनने घर से भागे थे। अवसर पर 'जिनभाषित' के लिए ६५१/- रू. प्राप्त हुए। संगीतकार के मस्तिष्क का एक भाग विशेष ब्रिटिश | 'जिनभाषित' परिवार, वर-वधू के मंगलमय धार्मिक जीवन शोधों के अनुसार, चौगुना विकसित होता है। की कामना करता है। दाहिने हाथ से लिखने वाले सामान्यत: कुछ वर्ष अधिक जीते हैं। • सिगरेट के धुएँ से रूमाल (गीले वाले) र काले निशान श्रद्धांजली पड़ जाते हैं। प्रथम पुण्य तिथि • एक सिगरेट १८ मिनट आयु फूंक डालती है। • मांसभोजी शाकाहारी से ७ गुना खर्चीला होता है और ६ वर्ष अल्प जीता है। • धूम्रपान से १० वर्ष आयु क्षीण होती है। देहावसान तंबाकू में ४००० तत्व होते हैं,२४ विष होते हैं और ४२ ।। ७.११.१९५५ २३.०१.०४ प्रतिशत ऐसे पदार्थ होते हैं जो कैंसर उत्पन्न करते हैं। कैंसर पीड़ितों में से २० प्रतिशत वे लोग होते हैं, जो स्वयं निकोटीन का सेवन नहीं करते, किन्तु धूम्रपान स्व. तारा देवी करने वालों के साथ रहते हैं। (ध.प. श्री सन्तोष बड़जात्या) कैडबरी कंपनी की चॉकलेटों में सन २००३ में जीवित कीड़े निकले। जिनके सुन्दर व्यवहार, सुधामय बचन और • ८ के आँकड़े की ३ घटनाएँ : परोपकार-भावना की मधुर स्मृति हमेशा हम सब के दिल्ली यूनिवर्सिटी में आयोजित कोकाकोला प्रतियोगिता लिए प्रेरणास्रोत बनी रहती है। विजेता ८ बोतल पीकर सदा के लिये सो गया। - 'रतनदीप' परिवार • खुला मुँह रखकर सोने वाला जीवन भर में ८ मकड़ी 'जे.के. टेक्सटाइल' परिवार का मुँह में प्रवेश करा लेता है। • लगभग सब चॉकलेट बारों में कीड़ों के ८ पैर होते हैं। श्रीमती कवरी देवी सुनहरी मछली की याददाश्त केवल ३ सैकण्ड होती एवं समस्त बड़जात्या परिवार, जयपुर जन्म 48 फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारी-शिक्षा ० क्षुल्लक श्री ध्यानसागर जी यदि नारी रखती नहीं, मर्यादा का ध्यान। भारत में होता नहीं, नारी का सम्मान ॥१॥ सतियों के इस देश में, स्मरण करो वे चित्र। चमत्कार जब थे हुए, पाकर स्पर्श पवित्र ॥२॥ शीलवती के स्पर्श से, नाग बन गया हार । बंद द्वार भी खुल गए, नीर बने अंगार ॥३॥ मेरु धसे पाताल में, सागर जावे सूख। सती नार के शील में, कभी न होवे चूक॥४॥ चंदा सूरज हो सके, सूरज चन्दा होय। शील-धुरंधर नार को, डिगा न पावे कोय॥५॥ सागर सीमा छोड़ दे, शीतल हो अंगार। नारी पतिव्रता नहीं, तजे शील श्रृंगार ॥६॥ रूप-प्रदर्शन शील का, है भारी अपमान। संस्कारित नारी सदा, रखती इसका ध्यान ॥७॥ सेवाभावी नार को , पति-निन्दा न सुहाय। बिन परखे उसकी परख, विपदा में हो जाये॥८॥ अबला का मन हो सबल, मार्यादित हो वेश। लक्ष्मण-रेखा में नहीं, रावण करे प्रवेश॥९॥ शील-धर्म पाले बिना, जीवन में क्या सार ? काया का सौन्दर्य तो, है अत्यंत असार ॥ १० ॥ बुरा देखना पाप है, कहना-सुनना पाप। बुरा सोचना पाप है, रहो सदा निष्पाप ॥११॥ भौतिकता की दौड़ में, पागल हैं सब आज। कल रोयेगी फूट के, संस्कृति और समाज ॥ १२ ॥ आज सभी को चाहिये, रुपया रूप रुआब। नारी भी पीने लगी, धुंआ और शराब ॥ १३॥ अवसर रहते छोड़ दो, कुटिल पश्चिमी होड़। गड्ढे में ले जायेगी, वरना अंधी होड़॥१४॥ ऐसा कुछ भी ना करो, रखना पड़े छुपाय। छुपी-छुपायी बात भी, एक दिवस खुल जाय ॥ १५ ॥ भावुकता में भी कभी, खोना नहीं विवेक। झूठी सहानुभूति से, नारी लुटें अनेक॥१६॥ सपने मत देखो अधिक, मानव बड़े विचित्र । वचन भल जाते यहाँ, अपने ही कछ मित्र ॥ १७॥ आँसू कई प्रकार के, कुछ धोखे के बीज। स्वार्थ भरा संसार है, जाना नहीं पसीज ॥१८॥ सबसे सबकुछ ना मिले, कुछ-कुछ सबके पास। जो मिलना संभव नहीं, छोड़ो उसकी आस ॥ १९॥ सुविधाओं से मत कभी, रखना सुख की आस। सुख-दुख मन का खेल है, रखना कुंजी पास ॥२०॥ तन का तनिक करो अधिक, निज मन का श्रृंगार। अन्दर से सुन्दर बनो, आडम्बर नि:सार ॥ २१॥ निडर बनो बहको नहीं, कभी बनो मत दीन। ईर्ष्या, चुगली, छल-कपट, छोड़ो दुर्गुण तीन ॥ २२ ॥ आदर दो, स्नेही बनो, तोड़ो मत विश्वास। कार्य करो अपना स्वयं, घर हो सुख का वास ॥ २३ ॥ पाक-कला, मीठे-वचन, विनय और वात्सल्य। जिस नारी के पास है, उसको कैसी शल्य ॥ २४ ॥ नारी के व्यवहार से, स्वर्ग धरा पर आय। उसके दुर्व्यवहार से, धरा नरक बन जाय ॥ २५ ॥ - Alp Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजि नं. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC डाक पंजीयन क्र.-म.प्र./भोपाल/588/2003-05 तिलवाराघाट (जबलपुर) में णमोकार मंत्र उच्चारण के साथ प्रतिभास्थली (विद्यापीठ) का भूमिपूजन प्रतिभा स्थली ज्ञानोदय विद्यापीठ के भूमि पूजन और शिलान्यास के बाद आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने श्रद्धालुओं को आशीर्वाद देते हुए यह कहा, 'विज्ञान से तरक्की, प्रगति और समृद्धि तो मिली, पर वीतराग विज्ञान की प्रगति नहीं हुई जिसकी नितांत आवश्यकता है। स्वार्थ से ऊपर उठने पर ही वीतराग विज्ञान की प्राप्ति संभव है। धर्म-ध्वजाओं से लहराते मंडप के तले लगभग 10 फुट भीतर भू-गर्भ में आज णमोकार मंत्र के समवेत उच्चारण के साथ प्रतिभास्थली ज्ञानोदय विद्यापीठ का विधि-विधान पूर्वक भूमि पूजन और शिलान्यास किया गया। दयोदय परिसर स्थित सभा मंडप से कुछ फासले पर हुए इस समारोह में आचार्य श्री के पहुँचते ही गुरुवर की जय-जयकार हुई। अभय भैया और विनय जी ने मंत्रोच्चार के साथ अनुष्ठान प्रारंभ कराए। सबसे पहले पुष्पराज जी, श्रीमती चिंतामणी और सवाईलाल ने ध्वजारोहण किया। प्रतिभा स्थली की ज्ञान शिला प्रमोदकुमार बिलासपुर वालों ने रखी, प्रतिभा स्थली की प्रधान पाँच शिलाओं में पहली शिला श्री अशोक पाटनी, मदनगंजकिशनगढ़ एवं श्री पन्नालाल बैनाड़ा, आगरा ने रखी। शिलान्यास की शिलाओं का स्पर्श करने श्रद्धालुओं में होड़ लगी रही। भूमिपूजन शिलान्यास समारोह के पश्चात, सभा मंडप में आयोजित आचार्यश्री के प्रवचन के पूर्व, प्रतिभामंडल की बहनों द्वारा मंगलाचरण किया गया। भगवान आदिनाथ के चित्र का अनावरण प्रतिभा मंडल की चार बड़ी बहनों ने किया। आचार्य श्री ज्ञानसागर जी के चित्र का अनावरण भी किया गया। विधानसभा अध्यक्ष श्री ईश्वरदास रोहाणी, नगरीय प्रशासन मंत्री श्री जयंत मलैया, विधायक श्री हरेंद्रजीत सिंह बब्बू, शरद जैन, अनूप सिंह मरावी, पार्षद चक्रेश नायक, सुषमा जैन, जविप्रा पूर्व अध्यक्ष राशिद सुहैल सिद्दीकी, पूर्व उपाध्यक्ष रमेश बड़कुल, कलेक्टर रजनीकांत गुप्ता, पुलिस अधीक्षक उपेंद्र जैन, निगमायुक्त शीलेंद्र सिंह ने यहाँ पहुँचकर आचार्यश्री से आशीर्वाद लिया। इस अवसर पर श्री जयंत मलैया ने व्यक्तिगत रूप से विद्यापीठ के लिए 1 लाख रूपए देने की घोषणा की। जैन समाज के दानवीरों में भी विद्यापीठ निर्माण के लिए सहयोग करने की होड़ लगी रही। समारोह का संचालन प्रतिभा स्थली न्यास के संस्थापक सदस्य नरेश गढ़वाल द्वारा किया गया। न्यास के अन्य संस्थापक राजेंद्र कुमार, अमिताभ जैन, अभय कुमार, अशोक आदिनाथ, चक्रेश मोदी एवं आनंद सिंघई ने किशनगढ़, आगरा, इंदौर, भोपाल और मुंगावली आदि स्थानों से इस समारोह में विशेष रूप से पधारे हुए अतिथिदानदाताओं को स्मृति चिन्ह भेंटकर सम्मानित किया। आयोजकों द्वारा सभी को शॉल-श्रीफल एवं स्मृति चिन्ह भेंट किए गए। हेलीकॉप्टर से पहुंचे रोहाणी विस. अध्यक्ष श्री ईश्वरदास रोहाणी प्रतिभा स्थली ज्ञानोदय विद्यापीठ के भूमि पूजन कार्यक्रम में सम्मलित होने हेलीकॉप्टर से पहुंचे। उन्होंने स्वेच्छा निधि से 1 लाख रुपए के अनुदान की घोषणा करते हुए कहा कि यह उनके गृहनगर जबलपुर के लिए गौरव की बात है कि नर्मदा तट पर आचार्यश्री की प्रेरणा और प्रयासों से अस्तित्व में आए 'दयोदय तीर्थ और ज्ञानोदय विद्यापीठ' संपूर्ण भारतवर्ष में प्रसिद्धि अर्जित करेंगे। पश्चिम की हवा न लगने पाए आचार्य श्री ने कहा कि वीतराग विज्ञान की प्राप्ति के लिए हमें सावधानी के साथ चलना होगा। प्रतिभास्थली ज्ञानोदय विद्यापीठ में शिक्षिकाओं द्वारा किए जानेवाले अध्यापन और छात्राओं द्वारा किए जाने वाले अध्ययन को पश्चिम की हवा न लगने पाए, इससे सजग और सतर्क रहना होगा। हम विश्व के कोने-कोने में पहुँचने में सफल हो गए हैं, पर यह सभी कुछ एक व्यक्ति नहीं कर सकता। सामूहिक प्रयासों से ही ऐसा हो सका है। सामूहिक प्रयासों को संघ प्रतिबिंबित करता है। मुनिसंघ और आर्यिकासंघ के गठन के पीछे भी यही भावना रहती है। वटवृक्ष हो गया प्रतिभा मंडल मुनि श्री ने 'प्रतिभा मंडल' और 'ब्राह्मी आश्रम' के इतिहास, प्रगति और उपलब्धियों को रेखांकित करते हुए कहा कि प्रतिभा मंडल की कल्पना सर्वप्रथम उनके नेमावर प्रवास के अवसर पर हुई थी। केवल 27 सदस्यों की मदद और सहयोग से गठित 'प्रतिभा मंडल'ने आज वटवृक्ष का रूप धारण कर लिया है। आपने विश्वास प्रकट किया कि अध्यापन करने वाली ब्रह्मचारिणियाँ अध्ययनरत बालिकाओं को अच्छे ढंग से संस्कारित करेंगीं और अच्छी शिक्षा प्रदान करेंगी। 'नवभारत' जबलपुर, 19 फरवरी 2005 से साभार स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, जोन-1, महाराणा प्रताप नगर, भोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205 प्रोफेसर कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित।