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________________ की होना लिखित में स्वीकारा तथा लिखित में दिया, जो कि ट्रस्ट के पास प्रमाण स्वरूप रखी हुई है। अगले पड़ाव मनगवाँ में चौका में उपयोग हेतु, वहाँ एकमात्र रह रहे श्रावक ने गैर चूल्हा तथा रेग्युलेटर दिया, जो कि मुनिश्री ने, बिना अनुमति , स्वीकृति तथा जानकारी के साथ में लदवाया और ले गये, तथा वापिस नहीं किया। आगे हनुमना में संपर्क करने के बाद रीवा समाज के गये सदस्यों को पता चला कि मुनिश्री कभी किसी के साथ साइकिल में, कभी साइकिल-रिक्शा में विहार कर रहे थे। और अधिक जानकारी संग्रहीत करने पर पता चला कि उनके आचार्यश्री ने इन्हें आचरण शिथिलता सहित अन्य कारणों से शिष्य समुदाय से अलग कर दिया है तथा उस समय इनका नाम मुनि सूर्यसागर था, उनके मंदिरसागर नाम के कोई शिष्य नहीं हैं। ऐसा भी सुनने में आया है कि मुनि मंदिरसागर पहले दो बार कपड़े पहिन चुके हैं। साथ में तीन जोड़े कपड़े भी संदेह की परिधि में आते हैं। रीवा जैन समाज की ट्रस्ट का यह दायित्व बनता है कि ऐसी शंकास्पद घटनाओं से जैन समाज को अवगत कराया जाये। चूँकि यह एक निर्ग्रन्थ मुनि से जुड़ा विषय है। अस्तु निर्णय आपको करना है ताकि मुनियों के प्रति आस्था रखने वाली समाज कहीं चूक न जाये। साथ रीवा जैन समाज का भी मार्गदर्शन करें। आपके निर्णय सुझाव हमारा पथ प्रदर्शन ही करेगा। विनयावनत अध्यक्ष/मंत्री श्री दिगम्बर जैन मंदिर ट्रस्ट, जैन भवन कटरा मोहल्ला, रीवा म.प्र. तथाकथित सम्पादकीय टिप्पणी मुनि मंदिरसागर दि.जैन मंदिर ट्रस्ट रीवा (म.प्र.) ने अपने दायित्व को बखूबी निभाया है। ट्रस्ट के पदाधिकारियों का जिनशासन को विकृति से जिनभक्तों को गुरुमूढ़ता से और जिनमंदिर को पापक्रियाओं से बचाने का उपर्युक्त प्रयास सराहनीय एवं अनुकरणीय है। सम्पादक स्वाध्याय प्रो. भागचन्द्र जैन भास्कर 'स्व' का अध्ययन स्वाध्याय है, निज दर्शन तो स्वयं करो। बस तटस्थ हो शान्त भाव से, देखों यही किनारा है। शुद्ध चेतना अन्तर बैठी, उसकी स्वानुभूति कर लो। सही ध्यान हो तो समझोगे, नहिं संसार हमारा है। भीड़भाड़ बहुत है भीतर, भाव वासनाएँ उठतीं। जहाँ शोध है, वहीं साधु है, नहीं दिगम्बर श्वेताम्बर। स्मृतियाँ गतिमान बनी हैं, मेला कुंभ लगा करती ॥ १॥ जागो तो मुनि, मोक्ष मिलेगा, सोओ तो संसाराम्बर ॥ ४॥ उसका अध्ययन अवलोकन हो, जागरूक उसमें होना। सभी कर्म तो विजातीय हैं, नहिं रहते चेतन के साथ। स्वयं को जान न पाया, आगम क्या लेना-देना। वे निर्जीर्ण हुआ करते हैं, सम्यक् तप जब होता साथ ॥ आगम स्वधन भले ही हो पर, उसकी तल पानी होगी। अनन्त शक्ति पहचानी जाती, संयम तप के माध्यम से। भीतर परदे पर तब मन की रेखा नशनी होगी॥ २॥ निराकांक्ष निर्मोही होकर, भेदज्ञान पाओ सुख से ॥ ५॥ निष्पक्ष निरीक्षण मन को हो तो सम्यग्दर्शन होगा ही। मत अटको तुम अर्थ काम में, ताशों का सा खेल रहा। भ्रमित दशा जब विगलित होगी,मन भी तिरहित होगा ही। पर द्रव्यों का संसारी सुख, मात्र कल्पना जाल बना॥ मन की गति जब चंचल होती, तब लगाम रखना होगा। स्वाध्याय निज-पर को जानो, धर्म स्वभाव ही जीवन है। उसको वश में किये बिना क्या रत्नत्रय पालन होगा।। ३ ।। परम सत्य इसको ही मानो, मानों आत्मनमन है॥६॥ तुकाराम चाल, सदर, नागपुर फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित 8 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524294
Book TitleJinabhashita 2005 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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