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________________ विद्यमान होते हुए न आह्वानन आदि की आवश्यकता है और न | त् भण्डार में द्रव्य देना। विसर्जन की ही। पाठक स्वयं ही अनुभव करेंगे कि जैन परंपरा में प्रचलित पूर्व काल में चतुर्विंशति-तीर्थंकर-भक्ति, सिद्धभक्ति आदि | अष्ट द्रव्यों में से जो द्रव्य वैदिक-परंपरा की पूजा में नहीं थे. के बाद शांतिभक्ति बोली जाती थी, आज उनका स्थान चौबीस | उनको निकाल करके किस विधि से युक्ति के साथ इक्कीस तीर्थंकर पूजा और सिद्धपूजा ने तथा शांतिभक्ति का स्थान वर्तमान । | प्रकार के पूजन का विधान उमास्वामी ने अपने श्रावकाचार में में बोले जाने वाले शांतिपाठ ने ले लिया है, अतः पूजन के अंत | किया। (देखो-भाग ३, पृ.१६४, श्लोक १३५-१३७) में शांतिपाठ तो अवश्य बोलना चाहिए। किन्तु विसर्जन-पाठ इससे आगे चलकर उमास्वामी ने पंचोपचारवाली पूजा बोलना निरर्थक ही नहीं, प्रत्युत भ्रामक भी है, क्योंकि मुक्तात्माओं | | का भी विधान किया है। वे पाँच उपचार ये हैं - १. आवाहन, का न आगमन ही संभव है और न वापिस गमन ही। | २. संस्थापन, ३. सन्निधीकरण, ४. पूजन और ५. विसर्जन। हिन्द-पूजा पद्धति या वैदिकी पूजा-पद्धति में यज्ञ के | इस पंचोपचारी पूजन का विधान धर्मसंग्रह श्रावकाचार में पं. समय आहूत देवों के विसर्जनार्थ यही 'आहता ये पूरा देवा' | मेधावीने तथा लाटीसंहिता में पं.राजमल्लजी ने भी किया है। श्लोक बोला जाता है। शांतिमंत्र, शांतिधारा, पुण्याहवाचन और हवन वैदिक पूजा-पद्धति यद्यपि जैनधर्म निवृत्ति-प्रधान है और उसमें पापरूप वैदिक धर्म में पूजा के सोलह उपचार बताये गये हैं- 1. | अशुभ और पुण्यरूप शुभ क्रियाओं की निवृत्ति होने तथा आवाहन, 2. आसन, 3. पाद्य, 4. अर्घ्य, 5. आचमनीय, 6.स्नान, आत्मस्वरूप में अवस्थिति होने पर ही मुक्ति की प्राप्ति बतलायी 7. वस्त्र, 8. यज्ञोपवीत, 9. अनुलेपन या गंध, 10. पुष्प, 11. गयी है। पर यह अवस्था वीतरागी साधुओं के ही संभव है, धूप, 12. दीप, 13. नैवेद्य, 14. नमस्कार, 15. प्रदक्षिण और | सरागी श्रावक तो उक्त लक्ष्य को सामने रखकर यथासंभव अशभ 16. विसर्जन और उदासन। विभिन्न ग्रंथों में कछ भेद भी पाया | क्रियाओं की निवृत्ति के साथ शुभक्रियाओं में प्रवृत्ति करता है। जाता है - किसी में यज्ञोपवीत के पश्चात भषण और प्रदक्षिणा | इसी दृष्टि से आचार्यों ने देव-पूजा आदि कर्त्तव्यों का विधान या नैवेद्य के बाद ताम्बल का उल्लेख है, अत: कछ ग्रंथों में | किया है। वर्तमान में निष्काम वीतरागदेव के पूजन का स्थान उपचारों की संख्या अठारह है. किसी में आवाहन नहीं है. | सकाम देवपूजन लेता जा रहा है और जिनपूजन के पूर्व अभिषेक किन्तु आसन के बाद स्वागत और आचमनीय के बाद मधुपर्क | के समय शांतिधारा बोलते हुए तथा पूजन के पश्चात् शांतिपाठ है। किसी में स्तोत्र और प्रणाम भी है। जो वस्त्र और आभषण | के स्थान पर या उसके पश्चात् अनेक प्रकार के छोटे-बडे समर्पण करने में असमर्थ हैं, वह सोलह में से केवल दश शांतिमंत्र बोलने का प्रचार बढ़ता जा रहा है। इन शांतिमंत्रों में उपचारवाली पूजा करता है। जो इसे भी करने में असमर्थ हैं, | बोले जाने वाले पदों एवं वाक्यों पर बोलने वालों का ध्यान जाना वह केवल पुष्पोपचारी पूजा करता है। चाहिए कि क्या हमारे वीतरागी जिनदेव कोई अस्त्र-शस्त्र लेकर प्रतिष्ठित प्रतिमा में आवाहन और विसर्जन नहीं होता, | बैठे हुए हैं। जो कि हमारे द्वारा 'सर्वशत्रु छिन्द छिन्द, भिन्द केवल चौदह ही उपचार होते हैं। अथवा आवाहन और विसर्जन | भिन्द ' बोलने पर हमारे शत्रुओं का विनाश कर देंगे। फिर यह के स्थान में मंत्रोच्चारण पूर्वक पुष्पांजलि दी जाती है। नवीन | भी तो विचारणीय है कि हमारा शत्रु भी तो यही पद या वाक्य प्रतिमा में सोलह उपचारवाली ही पूजा होती है। बोल सकता है ! तब वैसी दशा में जिनदेव आपकी इष्ट प्रार्थना जैन पूजापद्धति को कार्य रूप से परिणत करेंगे या आपके शत्रु की प्रार्थना पर उक्त पजापद्धति को जैन परंपरा में किस प्रकार से | ध्यान देंगे? वास्तविक बात यह है कि क्रियाकाण्डी भट्टारकों ने परिविर्धित करके अपनाया गया है, यह उमास्वामी श्रावकाचार | ब्राह्मणी शांतिपाठ आदि की नकल करके उक्त प्रकार के पाठों के श्लोक १३६ और १३७ में देखिये। यहाँ डक्कीस प्रकार की | को जिनदेवों के नामों के साथ जैन रूप देने का प्रयास किया है बतलायी गयी है। यथा - १. स्नान पूजा, २. विलेपनपूजा, ३. और सम्यक्त्व के स्थान पर मिथ्यात्व का प्रचार किया है। आभूषणपूजा, ४. पुष्पपूजा, ५. सुगंधपूजा, ६. धुप-पूजा. ७. | वास्तविक शांतिपाठ तो 'क्षेमं सर्वप्रजानां' आदि श्लोकोंवाला ही प्रदीपपूजा, ८. फलपूजा, ९. तन्दुलपूजा, १०. पत्रपूजा, ११. पत्रपजा. ११. | है। जिसमें सर्व सौख्यप्रदायी जिन धर्म के प्रचार की भावना की पुंगीफलपूजा, १२. नैवेद्यपूजा, १३. जलपूजा, १४. वसनपजा. | गई है और अन्त में 'कुर्वन्तु जगत: शांति वृषभाद्या जिनेश्वराः' १५. चमरपूजा, १६. छत्रपूजा, १७. वादित्रपूजा, १८. गीतपूजा, | का नि:स्वाथ, निष्काम भावना भाया गया है। १९. नृत्यपूजा, २०. स्वस्तिक पूजा और २१. कोषवृद्धिपूजा | जैन पद्धति से की जानेवाली विवाह-विधि के अंत में 12 फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524294
Book TitleJinabhashita 2005 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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