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________________ गतांक से आगे पूजन-विधि सिद्धांताचार्य पं.हीरालाल शास्त्री 'आहता ये परा देवा' इत्यादि विसर्जन पाठ-गत श्लोक | समय आहूत दिग्पालादि देवों के ही विसर्जन का विधान किया तो मूर्ति-प्रतिष्ठा और यज्ञादि करने के समय आह्वानन किये गये | गया है और उन्हीं को लक्ष्य करके यह बोला जाता हैइन्द्र, सोम, यम, वरुण आदि देवों के विसर्जनार्थ हैं और उन्हीं __ आहूता ये पुरा देवा लब्धभागा यथाक्रमम। को लक्ष्य करके 'लब्धभागा यथाक्रमम्' पद बोला जाता है जैसा ते मयाऽभ्यर्चिता भक्त्या सर्वे यान्तु यथास्थितिम। कि आगे किये गये वर्णन से पाठक जान सकेंगे। अर्थात् - जिन दिग्पालादि देवों का मैंने अभिषेक के आवाहन और विसर्जन पहिले आवाहन किया था, वे अपने यज्ञ-भाग को लेकर यथा सोमदेव ने पूजन के पूर्व अभिषेक के लिए सिंहासन पर | स्थान जावें। जिनबिम्ब के विराजमान करने को स्थापना कहा है और उसके यहाँ यह आशंका की जा सकती है कि जिनाभिषेक के पश्चात् लिखा है कि इस अभिषेक महोत्सव में कशल-क्षेम- समय इन दिग्पाल देवों के आवाहन की क्या आवश्यकता है? दक्ष इन्द्र, अग्नि,यम,नैऋत, वरुण, वायु, कुबेर और ईश तथा शेष इसका समाधान मिलता है श्री रयधुरचित 'वड्ढमाणचरिउ' से। चन्ट आदि आठ प्रमख गह अपने-अपने परिवार के साथ वहाँ बतलाया गया है कि भ.महावीर के जन्माभिषेक के समय आकर और अपनी-अपनी दिशा में स्थित होकर जिनाभिषेक | सौधर्म इन्द्र सोम, यम, वरुण आदि दिग्पालों को बुलाकर और के लिए उत्साही पुरुषों के विघ्नों को शांत करें। (श्रावकाचार पांड्क शिला के सर्व ओर प्रदक्षिणा रूप से खड़े कर कहता हैसं.भाग १ पृष्ठ १८२ श्लोक ५०४) णिय णिय दिस रक्खडु सावहाण, देवसेन ने प्राकृत भावसंग्रह में सिंहासन को ही सुमेरु मा कोवि विसउ सुरु मज्झ ठाण। मानकर उस पर जिनबिम्ब को स्थापित करने के बाद दिग्पालों (ब्यावरभवन प्रति, पत्र ३६ ए) को आवाहन करके अपनी-अपनी दिशा में स्थापित कर और अर्थात् - हे दिग्पालो, तुम लोग सावधान होकर अपनीउन्हें यज्ञ भाग देकर तदनन्तर जिनाभिषेक करने का विधान | अपनी दिशा का संरक्षण करो और अभिषेक करने के इस किया है। (श्रावकाचार सं.भाग ३ पृष्ठ ४४८ गाथा ८८-९२) मध्यवर्ती स्थान में किसी भी देव को प्रवेश मत करने दो। अभिषेक के पश्चात् जिनदेव का अष्ट द्रव्यों से पूजन | यह व्यवस्था ठीक उसी प्रकार की है, जैसी की आज करके, तथा पञ्च परमेष्ठी का ध्यान करके पूर्व-आहूत दिग्पाल किसी महोत्सव या सभा आदि के अधिवेशन के समय कमाण्डर देवों को विसर्जन करने का विधान किया है। यथा - अपने सैनिकों को या स्वयंसेवकनायक अपने स्वयंसेवकों को झाणं झाऊण पुणो मज्झाणिलवंदणस्थ काऊण। रंगमंच या सभा मंडप के सर्व ओर नियुक्त करके उन्हें शांति उवसंहरिय विसज्जउ जे पुव्वावाहिया देवा॥ बनाये रखने और किसी को भी रंगमंच या सभा-मंडप में प्रविष्ट (भाग ३ पृष्ठ ४५२ गाथा १३२) | नहीं होने देने के लिए देता है। जब उक्त कार्य सम्पन्न हो जाता अर्थात - जिनदेव का ध्यान करके और माध्याहिक | है तो इन नियुक्त पुरुषों को धन्यवाद के साथ पारितोषिक देकर वंदन-कार्य करके पूजन का उपसंहार करते हुए पूर्व आहूत देवों | विसर्जित करता है। का विसर्जन करें। तीर्थंकरों के जन्माभिषेक के समय की यह व्यवस्था वामदेव ने संस्कृत भावसंग्रह में भी उक्त-अर्थ को इस | आज भी लोग पञ्चामृताभिषेक के समय करते हैं। यह बताया प्रकार कहा है जा चुका है कि नवीन मूर्ति की प्रतिष्ठा के समय जन्मकल्याणक स्तत्वा जिनं विसापि दिगीशादि मरुद्-गणान्। के दिन बनाये गये सुमेरू पर्वत पर ही यह सब किया जाना अर्चिते मूलपीठे ऽथ स्थापयेजिननायकम्॥ चाहिए। पञ्चकल्याणकों में प्रतिष्ठित मूर्ति का प्रतिदिन (भाग ३ पृष्ठ ४६८ श्लोक ४७) | जन्मकल्याणक की कल्पना करके उक्त विधि-विधान करना अर्थात - अभिषेक के बाद जिनदेव की स्तुति करके | उचित नहीं है, क्योंकि मुक्ति को प्राप्त तीर्थंकरों का न आगमन और दिग्पालादि देवों को विसर्जित करके जिनबिम्ब को जहाँ | ही होता है और न वापिस गमन ही। अतएव ऊपर उद्धृत प्रतिष्ठा से उठाया था, उसी मूलपीठ (सिंहासन) पर स्थापित करे। दीपक के उल्लेखानुसार जिनबिम्ब का केवल जलादि अष्टद्रव्यों उक्त उल्लेखों से यह बात स्पष्ट है कि अभिषेक के | से पूजन ही करना शास्त्र-विहित मार्ग है। प्रतिमा के सम्मुख -फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524294
Book TitleJinabhashita 2005 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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