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________________ तथा मूर्ति प्रतिष्ठा के अंत में किया जाने वाला पुण्याहवाचन भी | कोटि-गुणित बतलाया है। जैसा कि इस अत्यंत प्रसिद्ध श्लोकों से सिद्ध है वैदिक पद्धति के अनुकरण है और नियत परिणाम में किये जाने वाले मंत्रजापों के दशमांश प्रमाण हवन आदि का किया कराया जाना भी अन्य सम्प्रदाय का अन्धानुसरण है, फिर भले ही उसे जैनाचार में किसी ने भी सम्मिलित क्यों न किया हो? ! जैनधर्म की सारी भित्ति सम्यक्तवरूप मूल नींव पर आश्रित है। सम्यक्त्व के दूसरे नि:कांक्षित अंग के स्वरूप में बतलाया गया है कि धर्म धारण करके उसके फलस्वरूप किसी भी लौकिक लाभ की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए। यदि कोई जैनी इस नि:कांक्षित अंग का पालन नहीं करता है, प्रत्युत धर्मसाधन या अमुक मंत्र जाप से किसी लौकिक लाभ की कामना करता है, तो उसे मिथ्यात्वी जानना चाहिए। स्नपन, पूजन, स्तोत्र, जप, ध्यान और लय सोमदेव ने अपने उपासकाध्ययन में सामायिक शिक्षाव्रत के अंतर्गत देवपूजन का विधान किया है और देवपूजा के समय छह क्रियाओं के करने का उल्लेख कर उनका विस्तृत वर्णन किया है । वे छह क्रियाएँ इस प्रकार हैं स्नपनं पूजनं स्तोत्रं जपो ध्यानं श्रुतस्तवः । षोढा क्रियोदिता सद्भिर्देवसेवासु गेहिनाम् ॥ (भाग १, पृष्ठ २२९, श्लोक ८८०) अर्थात - संत पुरुषों ने गृहस्थों के लिए देवोपासना के समय स्नपन, पूजन, स्तोत्र, जप, ध्यान और श्रुतस्तव (शास्त्रभक्ति और स्वाध्याय) इन छह क्रियाओं का विधान किया है। स्नपन नाम अभिषेक का है। इसका विचार' जलाभिषेक या पञ्चामृताभिषेक' शीर्षक में पहिले किया जा चुका है। स्नपन यतः पूजन का ही अंग है, अतः उसका फल भी पूजन के ही अंतर्गत जानना चाहिए। हालांकि आचार्यों ने एक-एक द्रव्य से पूजन करने का और जल - दुग्ध आदि के अभिषेक करने का फल पृथक्-पृथक् कहा है। पर उन सबका अर्थ स्वर्ग प्राप्ति रूप एक ही है। श्रुतस्तव नाम सबहुमान जिनागम की भक्ति करना और उसका स्वाध्याय करना श्रुतस्तव कहलाता है। स्नपन पूजन और श्रुतस्तव के सिवाय शेष जो तीन कर्त्तव्य और कहे हैं - जप, ध्यान और लय । इनका स्वरूप आगे कहा जा रहा है। सर्व साधारण लोग पूजा, जप आदि को ईश्वर आराधना के समान प्रकार समझकर उनके फलको भी एक सा ही समझते हैं। कोई विचारक पूजा को श्रेष्ठ समझता है तो कोई जप ध्यान आदि को । पर शास्त्रीय दृष्टि से जब हम इन पाँचों के स्वरूप का विचार करते हैं तो हमें उनके स्वरूप में ही नहीं, फल में भी महान् अंतर दृष्टिगोचर होता है। आचार्यों ने इनके फलको उत्तरोत्तर Jain Education International - पूजाकोटिसमं स्तोत्रं स्तोत्र कोटिसमो जपः । जप- कोटिसमं ध्यानं ध्यान - कोटिसमो लयः ॥ अर्थात् - एक कोटिवार पूजा करने का जो फल है, उतना फल एक बार स्तोत्र पाठ करने में है। कोटि बार स्तोत्र पढ़ने से जो फल होता है, उतना फल एक बार जप करने में होता है। इसी प्रकार कोटि जप के समान एक बार के ध्यान का फल और कोटि ध्यान के समान एक वारके लयका फल जानना चाहिए। पाठकगण शायद उक्त फलको बांचकर चौंकेंगे और कहेंगे कि ध्यान और लयका फल तो उत्तरोत्तर कोटिगुणित हो सकता है,पर पूजा, स्तोत्र और जपका उत्तरोत्तर कोटि-गुणित फल कैसे संभव है? उनके समाधानार्थ यहाँ उनके स्वरूप पर कुछ प्रकाश डाला जाता है। - 1. पूजा : पूज्य पुरुषों के सम्मुख जाने पर अथवा उनके अभाव में उनकी प्रतिकृतियों के सम्मुख जाने पर सेवाभक्ति करना, सत्कार करना, उनकी प्रदक्षिणा करना, नमस्कार करना, उनके गुणगान करना और घर से लाई हुई भेंट को उन्हें समर्पण करना पूजा कहलाती है। वर्तमान में विभिन्न सम्प्रदायों के भीतर जो हम पूज्य पुरुषों की उपासना आराधना के विभिन्न प्रकार के रूप देखते हैं, वे सब पूजा के ही अंतर्गत जानना चाहिए। जैनाचार्यों ने पूजा के भेद-प्रभेदों का बहुत ही उत्तम रीति से सांगोपांग वर्णन किया है । प्रकृत में हमें स्थापना पूजा और द्रव्य पूजा से प्रयोजन है। क्योंकि भाव- पूजा में तो स्तोत्र, जप आदि सभी का समावेश हो जाता है। हमें यहाँ वर्तमान में प्रचलित पद्धति वाली पूजा ही विवक्षित है और जन-साधारण भी पूजा-अर्चासे स्थापना पूजा या द्रव्यपूजा का ही अर्थ ग्रहण करते हैं । 2. स्तोत्र : वचनों के द्वारा गुणों की प्रशंसा करने को स्तवन या स्तुति कहते हैं । जैसा अरहंत देव के लिए कहना - तुम वीतराग विज्ञान से भरपूर हो, मोहरूप अंधकार के नाश करने के लिए सूर्य के समान हो आदि। इसी प्रकार की अनेक स्तुतियों के समुदाय को स्तोत्र कहते हैं। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगला, कनड़ी, तमिल आदि भाषाओं स्वया परनिर्मित गद्य या पद्य रचना के द्वारा पूज्य पुरुषों की प्रशंसा में वचन प्रकट किये जाते हैं उन्हें स्तोत्र कहते हैं । 3. जप : देवता वाचक या बीजाक्षररूप मंत्र आदि के अन्तर्जल्परूप से बार-बार उच्चारण करने को तप कहते हैं । परमेष्ठी - वाचक विभिन्न मंत्रों का किसी नियत परिमाण में स्मरण करना जप कहलाता है। 1 For Private & Personal Use Only 'फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित 13 www.jainelibrary.org
SR No.524294
Book TitleJinabhashita 2005 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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