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________________ 4. ध्यान : किसी ध्येय वस्तु का मन ही मन चिन्तन | करना ध्यान कहलाता है। ध्यान शब्द का यह यौगिक अर्थ है । सर्व प्रकार के संकल्प विकल्पों का अभाव होना चिन्ता का निरोध होना यह ध्यान शब्द का रूढ अर्थ है, जो वस्तुतः लय या समाधि के अर्थ को प्रकट करता है । 5. लय - एकरूपता, तल्लीनता या साम्य अवस्था का नाम लय है। साधक किसी ध्येय विशेष का चिन्तवन करता हुआ जब उसमें तन्मय हो जाता है उसके भीतर सर्वप्रकार के संकल्प विकल्पों और चिंताओं का अभाव हो जाता है और जब परम समाधिरूप निर्विकल्प दशा प्रकट होती है, तब उसे लय कहते हैं । पूजा, स्तोत्र आदि के उक्त स्वरूप का सूक्ष्म दृष्टि से अवलोकन करने और गंभीरता से विचारने पर यह अनुभव हुए बिना न रहेगा कि ऊपर जो इनका उत्तरोत्तर कोटि गुणित फल बतलाया गया है, वह वस्तुतः ठीक ही है। इसका कारण यह है कि पूजा में बाह्य वस्तुओं का आलंबन और पूजा करने वाले व्यक्ति के हस्तादि अंगों का संचालन प्रधान रहता है। और यह प्रत्येक शास्त्राभ्यासी जानता है कि बाहरी द्रव्य क्रियाओं से भीतरी भावरूप क्रियाओं का महत्व बहुत अधिक होता है। असैनी पंचेन्द्रिय तिर्यंच यदि अत्यधिक संक्लेश युक्त होकर भी मोह कर्म का बंध करे, तो एक हजार सागर से अधिक का नहीं कर सकेगा, जब कि संज्ञी पंचेन्द्रिय साधारण मनुष्य की तो बात रहने दें, अत्यंत मंदकषायी और विशुद्ध परिणामवाला अप्रमत्तसंयत साधु भी अन्तः कोटाकोटी सागरोपम की स्थिति वाले कर्मों का बंध करेगा, जो कई करोड़ सागर प्रमाण होता है। इन दोनों के बंधने वाले कर्मों की स्थिति में इतना महान् अंतर केवल मनके सद्भाव और अभाव के कारण ही होता है । प्रकृत में इसके कहने का अभिप्राय यह है कि किसी भी व्यक्ति विशेष का भले ही वह देव जैसा प्रतिष्ठित और महान् क्यों न हो-स्वागत और सत्कारादि तो अन्यमनस्क होकर भी संभव है पर उसके गुणों का सुंदर, सरल और मधुर शब्दों में वर्णन अनन्य मनस्क या भक्ति-भरित हुए बिना संभव नहीं है। यहाँ यह एक बात ध्यान में रखना आवश्यक है दूसरे के द्वारा निर्मित पूजा-पाठ या स्तोत्र उच्चारण का उक्त फल नहीं बतलाया गया है । किन्तु भक्त द्वारा स्वयं निर्मित पूजा, स्तोत्र पाठ आदि का यह फल बतलाया गया है। पुराणों के कथानकों से भी इसी बात की पुष्टि होती है। दो एक अपवादों को छोड़कर किसी भी कथानक में एक बार पूजा करने का वैसा चमत्कारी फल दृष्टिगोचर नहीं होता, जैसा कि भक्तामर, कल्याण मंदिर, एकीभाव, विषापहार, स्वयम्भू स्तोत्र आदि के रचयिताओं 14 फरवरी - मार्च 2005 जिनभाषित Jain Education International को प्राप्त हुआ है । स्तोत्र काव्यों की रचना करते हुए भक्त - स्तोता के हृदयरूप मानसरोवर से जो भक्ति - सरिता प्रवाहित होती है, वह अक्षत पुष्पादि के गुण बखानकर उन्हें चढ़ाने वाले पूजक के संभव नहीं है। पूजन का ध्यान पूजन की बाह्य सामग्री की स्वच्छता आदि पर ही रहता है, जबकि स्तुति करने वाले भक्त का ध्यान एकमात्र स्तुत्य व्यक्ति के विशिष्ट गुणों की ओर ही रहता है। वह एकाग्रचित होकर अपने स्तुत्य के एक-एक गुण का वर्णन मनोहर शब्दों के द्वारा व्यक्त करने में निमग्न रहता है। इस प्रकार पूजा और स्तोत्र का अंतर स्पष्ट लक्षित हो जाता है। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि पूजा पाठों में अष्टक के अनन्तर जो जयमाल पढ़ी जाती है, वह स्तोत्र का ही कुछ अंशों में रूपान्तर है । स्तोत्र पाठ से भी जपका माहात्म्य कोटि गुणित अधिक बतलाया जाता है। इसका कारण यह है कि स्तोत्र पाठ में तो बाहरी इंद्रियों और वचनों का व्यापार बना रहता है, परंतु जप में उस सबको रोककर और परिमित क्षेत्र में एक आसन से अवस्थित होकर मौन - पूर्वक अन्तर्जल्प के साथ आराध्य के नाम का उसके गुण वाचक मंत्रों का उच्चारण किया जाता है। अपने द्वारा उच्चारण किया हुआ शब्द स्वयं ही सुन सके और समीपस्थ व्यक्ति भी न सुन सके, जिसके उच्चारण करते हुए ओंठ कुछ फड़कते रहें, पर अक्षर बाहिर न निकलें, ऐसे भीतरी मंद एवं अव्यक्त या अस्फुट उच्चारण को अन्तर्जल्प कहते हैं । व्यवहार में देखा जाता है कि जो व्यक्ति सिद्धचक्रादिकी पूजा-पाठ में ६-६ घंटे लगातार खड़े रहते हैं, वे ही उसी सिद्धचक्र मंत्र का जप करते हुए आधे घंटे में ही घबड़ा जाते हैं, आसन डांवाडोल हो जाता है, और शरीर से पसीना झरने लगता है। इससे सिद्ध होता है कि पूजा-पाठ और स्तोत्रादि के उच्चारणसे भी अधिक इंद्रिय निग्रह जप करते समय करना पड़ता है और इसी इंद्रियनिग्रह के कारण जप का फल स्तोत्र से कोटि गुणित अधिक बतलाया गया है। क्रमशः श्रावकाचार संग्रह, भाग-४ से साभार जरूर सुनें सन्त शिरोमणि आचार्यरत्न श्री 108 विद्यासागर जी महाराज के आध्यात्मिक एवं सारगर्भित प्रवचनों का प्रसारण 'साधना चैनल पर प्रतिदिन रात्रि 9.30 से 10.00 बजे तक किया जा रहा है, अवश्य सुनें । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524294
Book TitleJinabhashita 2005 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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