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________________ जिज्ञासा समाधान प्रश्नकर्ता: रमेशचन्द्र जी गोयल, देहली जिज्ञासा : क्या अंतिम समय किसी गृहस्थ को निर्ग्रन्थ बना देने पर उसे मुनि संज्ञा दी जा सकती है या नहीं ? समाधान : यदि कोई व्यक्ति गृहस्थी में रहा हो, जीवन धार्मिक क्रियाओं के साथ बिताया हो और अन्त समय समाधिमरण की भावना भी रखता हो तो उसके शरीर की शिथिलता और मृत्यु की निकटता देखकर उनके परिवारीजनों को किसी योग्य निर्यापकाचार्य के पास ले जाकर, उनकी इच्छानुसार समाधिमरण कराने का प्रयत्न करना चाहिए। ऐसे महानुभाव यदि गुरु चरणों में पहुँचकर दीक्षा लेकरकम से कम दो दिन विधिपूर्वक चर्या करके आहार ग्रहण करते हैं, तो उनका मुनि अवस्था में समाधिमरण पूर्वक देह छोड़ना माना जाता है। यदि उनकी इच्छा से अन्त समय में अत्यन्त अशक्त अवस्था में उनको वस्त्र रहित कर दिया गया हो, कदाचित उनको पीछी कमण्डलु भी लाकर दे दिए गये हों, परन्तु वे चर्या करने में समर्थ न हों, तो उपरोक्त क्रियायें उनकी भावों में विशुद्धि लाने में निमित्तभूत तो हो सकती हैं, परन्तु उनको देह व्याग के बाद 'मुनि का समाधिमरण 'नहीं कहा जा सकता। उपरोक्त समाधान किसी आगम में देखने को नहीं मिलता परन्तु जैसा गुरुमुख से सुना है वैसा लिखा गया है। प्रश्नकर्ता - देवेन्द्र कुमार, अलीगढ़ जिज्ञासा - क्या अन्य देवी-देवताओं का प्रसाद लेना उचित है? समाधान - जन्म-मरण आदि 18 दोषों से रहित वीतराग प्रभु सच्चे देव कहे जाते हैं, इनसे विपरीत उपरोक्त 18 दोषों से सहित देव या देवियों को पूजना, उनकी मान्यता करना, उनकी आरती उतारना आदि क्रियायें सम्यक्त्व की घातक क्रियायें हैं, जिनको देव मूढ़ता में तथा षट् अनायतनों में माना जाता है। किसी अन्य मताबलम्बी या सच्चे देव के अलावा अन्य देवी-देवताओं की आराधना करने वाले व्यक्तियों के घर आनाजाना भी आचार्यों ने धर्म का अनायतन माना है । चारित्र पाहुड़ गाथा - 6 की टीका में प्रभाचन्द्राचार्य लिखते हैं देव गुरुशास्त्राणं, तद्भक्तानांगृहेगतिः । षडनायतन मित्तेवं वदन्ति विदिता गमः ॥ अर्थ - कुदेव, कुगुरु व कुशास्त्र के तथा इन तीनों के उपासकों के घरों में आना जाना। इनको आगमकारों ने षट्अनायतन ऐसा नाम दिया है। अर्थात् कुदेव, कुगुरू, कुशास्त्र के उपासकों के घर आना जाना अनायतन है। इनके प्रसाद आदि को ग्रहण करने से उन कुदेवादि के प्रति विनय प्रदर्शित होती है। जबकि आचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में स्पष्ट लिखा है किभयाशास्नेहलोभाच्च, कुदेवागम लिंगनाम् । प्रणामं विनयं चैव न कुर्यो शुद्ध दृष्टिया ॥ अर्थ- भय आशा स्नेह तथा लोभ से कुदेव, कुगुरु एवं कुशास्त्र को शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव प्रणाम तथा विनय भी नहीं करता है । Jain Education International पं. रतनलाल बैनाड़ा श्री आदिपुराण पर्व - 42, श्लोक नं. 18 से 20 में इसप्रकार कहा है अर्थ- बड़े-बड़े वंशों में उत्पन्न होने से क्षत्रिय लोग स्वयं बड़प्पन में स्थिर हैं। इसलिए उन्हें अन्य मतियों के धर्म में श्रद्धा रखकर उनके शेषाक्षत् आदि ग्रहण नहीं करना चाहिए ॥18 ॥ उनके शेषाक्षत आदि ग्रहण करने में क्या दोष है? कदाचित कोई यह कहे तो उसका उत्तर यह है कि उससे अपने महत्व का नाश होता है और अनेक विघ्न व अनिष्ट आते हैं, इसलिए उनका परित्याग ही कर देना चाहिए। 19 ॥ अन्य मताबलम्बियों को शिरोनति करने से अपने महत्व का नाश हो जाता है, इसलिए उनके शेषाक्षत आदि लेने से अपनी निकृष्टता हो सकती है ॥20॥ इन उपरोक्त प्रकरणों से यह ज्ञात होता है कि अन्य देवीदेवताओं का प्रसाद आदि ग्रहण करना कदापि उचित नहीं है । 'वर्तमान में हम जैन धर्मावलम्बियों का अन्य मताबलम्बियों के साथ सम्पर्क एवं आना-जाना देखा जा रहा है। इन परिस्थितियों में यदि क्वचित् कदाचित किसी अन्य देव आदि का प्रसाद आदि लेना भी पड़ जाये तो उसे कभी खाना नहीं चाहिए, तुरन्त किसी अन्य नौकर आदि को दे देना चाहिए। अपनी धार्मिक विचारों की पवित्रता एवं दृढ़ता अत्यन्त आवश्यक है । प्रश्नकर्ता सौ. प्रतिभा जैन, जयपुर जिज्ञासा - यदि कोई मुनि सामायिक ही न करे और कहे कि हमारे तो सामायिक चारित्र चौबीसों घण्टे विद्यमान है, हमें सामायिक की आवश्यकता नहीं, तो क्या यह उचित है ? समाधान - हमने अपने जीवन में शताधिक मुनिराजों के दर्शन किये हैं परन्तु कोई भी ऐसे मुनिराज नहीं मिले जो सामायिक न करते हों। हमने यह तो देखा है कि किसी प्रदेश का मुख्यमंत्री पूज्य आचार्य विद्यासागर जी महाराज के पास आया हो, उसके आने का समय दोपहर 12:30 बजे हो, समाज के वरिष्ठ लोगों ने पूज्य आचार्य श्री से निवेदन भी किया हो कि मुख्यमंत्री दोपहर को आयेंगे, परन्तु पूज्य आचार्य श्री ने कभी भी सामायिक के काल को छोड़कर उनसे बात नहीं की। मुख्यमंत्री चाहे आकर दर्शन करके चले जायें, परन्तु पूज्य आचार्य श्री ने कभी सामायिक नहीं छोड़ी। यह तो अक्सर सभी जगह देखा जाता है कि यदि पंचकल्याणक आदि में किसी कार्यक्रम के कारण प्रात: देरी हो जाये अर्थात् 11:30 बज जायें तो मुनिराज चर्या को न उठकर पहले सामायिक करते हैं तदुपरांत 1 बजे बाद चर्या को उठते हैं। यदि सामायिक करना आवश्यक न होता तो उपरोक्त प्रसंगों का प्रकरण ही नहीं आता। आचार्यों ने प्रातः दोपहर और सांयकाल के तीनों संधिकालों में, सामायिक के काल होने के कारण, स्वाध्याय करने का भी निषेध किया है। सम्यग्ज्ञान के कालाचार प्रकरण में इसका वर्णन मिलता है । जहाँ तक सामायिक चारित्र के चौबीसों घण्टे रहने का प्रश्न है, वह उचित ही है । समस्त सावद्य योग के त्याग करने को • फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित 35 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524294
Book TitleJinabhashita 2005 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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