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________________ | कीतिरक्षण सामायिक चारित्र कहते हैं। सभी मुनिराज जीवन पर्यंत सावध योग त्वरितं किं कर्त्तव्यं विदुषा संसार सन्ततिच्छेदः। के त्यागी होने से, आहार करते या सोते समय भी सामायिक चारित्र किं मोक्ष तरोर्बीजं सम्यग्ज्ञानं क्रिया सहितम्॥4॥ से विभूषित रहते हैं, परन्तु प्रात:- दोपहर एवं सांयकाल आदि में अर्थ- विद्वानों को शीघ्र क्या करना चाहिए? संसार परम्परा सामायिक करना तो सामायिक आवश्यक कहलाता है, जिसको | का नाश । मोक्ष रूपी वृक्ष का बीज क्या है?समीचीन ज्ञान के साथ छोड़ना तो अपने आवश्यक को ही छोड़ना है। अतः प्रत्येक मुनिराज | आचरण। को सन्धिकालों में सामायिक करना अत्यन्त आवश्यक है। उपरोक्त पंक्तियों में यह स्पष्ट कहा है कि यदि स्वाध्याय जिज्ञासा- क्या आयुबन्ध होने के बाद अकालमरण नहीं | करके सच्चा ज्ञान तो प्राप्त कर लिया जाये, परन्तु यदि आचरण नहीं होता है? है तो ऐसा ज्ञान मोक्ष रूपी वृक्ष का बीज नहीं कहा जा सकता। समाधान- जिस जीव ने आगामी आयु का बंध कर लिया । आचार्यों ने श्रावक के लिए परमावश्यक कार्य इसप्रकार कहे हो, उसका अकालमरण नहीं होता है। आगामी आयु का बंध हो | हैंजाने पर, जितनी वर्तमान भुज्यमान आयु बाकी रह गई है, जब तक १. सबसे प्राचीन ग्रन्थ श्री कषायपाहुड़ में इसप्रकार कहा उसकी स्थिति पूर्ण नहीं हो जायेगी, तब तक उस जीव का मरण | है- दाणं पूजा सीलमुववासो चेदि चउव्विहो सावयधम्मो - नहीं हो सकता है। श्री धवल पुस्तक 10 पृष्ठ 237 पर इस प्रकार अर्थ-दान, पूजा, शील और उपवास ये चार श्रावक के धर्म हैं। लिखा है २. श्री रयणसागर में श्रावक के कर्त्तव्यों का वर्णन इसप्रकार 'परभवि आउए बद्धे पच्छा भुंजमाणाउअस्स कदलीघादो | है, 'दाणं पूजा मुक्खं सावयधम्मेण सावया तेण विणा।' णत्थि जहासरूवेण चेव वेदेदित्ति।' अर्थ-चार प्रकार का दान देना और देवशास्त्र गुरु की अर्थ- परभव सम्बन्धी आयु के बन्धने के पश्चात् भुज्यमान पूजा करना श्रावक का मुख्य कर्त्तव्य है, इनके बिना वह श्रावक आयु का कदलीघात नहीं होता, किन्तु वह जितनी थी उतनी का ही नहीं है। वेदन करता है। ३. कुरलकाव्य में इसप्रकार कहा है, 'गृहिण : पञ्च कोई ऐसा कहते हैं कि आयुबन्ध हो जाने के बाद भी राजा | कर्माणि स्वोन्नतिर्देव पूजनम्। बन्धु साहाय्यमातिथ्यं पूर्वेषां श्रेणिक का अकालमरण हुआ था अथवा श्रीकृष्ण नारायण का आयुबन्ध हो जाने के बाद भी अकालमरण हुआ था परन्तु श्री धवला अर्थ- पूर्वजों की कीर्ति की रक्षा, देवपूजन, अतिथिसत्कार, पु. 10 पृष्ठ 237 के उपरोक्त प्रमाण के अनुसार त । धवला पुस्तक बन्धु - बान्धवों की सहायता और आत्मोन्नति ये गृहस्थ के पाँच 10 के 256 एवं 335 पर लिखे प्रमाणों के अनुसार राजा श्रेणिक एवं | कर्त्तव्य हैं। नारायण श्रीकृष्ण के मरण को अकालमरण नहीं कहा जा सकता है उपरोक्त प्रमाणों में विशेष बात यह देखनी है कि किसी ने क्योंकि उनका आयुबन्ध पहले हो चुका था। एक बार आयुबन्ध हो भी स्वाध्याय को श्रावक का मुख्य कर्तव्य नहीं बताया है, परन्तु जाने के बाद उसका आबाधाकाल कम नहीं होता अत: आयुबन्ध सभी प्रमाणों में देवपूजन एवं दान देने को श्रावक का मुख्य कर्त्तव्य होने के बाद अकालमरण होना नहीं मानना चाहिए। कहा है। यद्यपि १० वीं शताब्दी के बाद के आचार्यों ने श्रावक के प्रश्नकर्ता - राजीव जैन, जयपुर मुख्य कर्तव्यों में स्वाध्याय को भी शामिल किया है, परन्तु प्राचीन जिज्ञासा- मेरा मन स्वाध्याय में तो बहुत लगता है, परन्तु आचार्यों की परम्परा में तो स्वाध्याय को अत्यन्त आवश्यक न मुझे पूजा तथा मुनिदान रूचिकर नहीं लगते क्या यह उचित है? | मानकर देवपूजन करना एवं दान देने को श्रावक का मुख्य कर्तव्य समाधान-सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका की प्रस्तावना में पं. टोडरमल कहा गया है। अत: यदि आप स्वाध्याय में तो रूचि लेते हैं परन्तु जी ने कहा है कि 'शास्त्राभ्यासी दोय प्रकार हैं, एक लोभीर्थी, एक | आचार्यों द्वारा लिखित उपरोक्त मुख्य कर्तव्यों को, मात्र पठन पाठन धर्मार्थी। तहाँ जो अंतरंग अनुराग बिना, ख्याति पूजा लाभादिक के तक ही सीमित रखते हैं, तो आपका स्वाध्याय करना फलदायिक अर्थी शास्त्राभ्यास करें सो लोभार्थी हैं, सो विषयादिक का त्याग | नहीं है। उपरोक्त आचार्यों के प्रमाण से तो ऐसा ध्वनित होता है कि नाहिं करें हैं। अथवा ख्याति लाभ पूजादि के अर्थी विषयादिक का श्रावक चाहे स्वाध्याय में कम समय दे पाये, परन्तु उसे दान एवं पूजा त्याग भी करैं हैं तो भी ताका शास्त्राभ्यास कार्यकारी नांहीं। बहुरि को अपना मुख्य कर्त्तव्य समझकर नित्य भक्ति भाव पूर्वक अवश्य जो अंतरंग अनुराग तें आत्महित के अर्थी शास्त्राभ्यास करै है, सो | सम्पन्न करना चाहिए। सत्पात्रों को दान देने के संबंध में सर्वोपयोगी धर्मार्थी है, सो प्रथम तो जैन शास्त्र ऐसे हैं, जिनका धर्मार्थी होय | श्लोक संग्रह में ऐसा कहा हैअभ्यास करें, सो विषयादिक का त्याग करै ही करै।' दानयेन प्रयच्छंति, निर्ग्रन्थेषुचतुविधम्। यहाँ स्पष्ट लिखा है कि आत्मकल्याण के लिए शास्त्राभ्यास पाशा एवं गृहास्तेषां, वंधनायैव निर्मिताः॥ करने वाले जीव विषयादिक का त्याग करते ही हैं अर्थात् अपना अर्थ-जो मुनियों के लिये चार प्रकार का दान नहीं देते हैं, . आचरण भी शास्त्रानुसार बना लेते हैं। सच तो यह है कि यदि | उनके बंधन के लिए, घर मानो जाल की तरह ही बनाये गये हैं। ज्ञानाभ्यास किया जाये और तद्नुसार आचरण न किया जाये तो सत्पात्रेषु यथाशक्ति, दानं देयं गृहस्थितैः। ज्ञानाभ्यास करना कार्यकारी नहीं होता राजर्षि अमोघवर्ष ने प्रश्नोत्तर दानहीनाभवेत्तेषां, निष्फलैवगृहस्थता। रत्न मालिका' श्लोक नं. 4 में इसप्रकार कहा है अर्थ- गृहस्थों को सत्पात्रों में यथाशक्ति दान देना चाहिए। 36 फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524294
Book TitleJinabhashita 2005 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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