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________________ क्योंकि दान के बिना उनका गृहस्थपना निष्फल ही है। उपरोक्त अन्तर्मुहूर्त में समस्त कर्मों का नाश कर मोक्ष कैसे प्राप्त कर मुझे आशा है कि आप अपने जीवन में बदलाव लाने का | सकेगा। इससे स्पष्ट होता है कि उदयावली को छोड़कर शेष कर्मों कष्ट करेंगे। इसके अलावा स्वाध्यायी जीव को अपने खान-पान, | की उदीरणा तप के द्वारा संभव है। आहार-विहार तथा व्यापार आदि में भी शास्त्रानुसार परिवर्तन प्रश्नकर्ता - पं. मनोजकुमार शास्त्री, सागर अवश्य कर लेना चाहिए, यही स्वाध्याय की सफलता है। जिज्ञासा- अवधिज्ञान के देशावधि आदि तीन भेदों में प्रश्नकर्ता - मोनिका पाटोदी, नन्दुरवार अनुगामी आदि छह भेद घटाकर बताईये? । जिज्ञासा - १४ वें गुणस्थान में अयोग केवली भगवान के सर्वार्थसिद्धिकार ने अध्याय १ के २२ वें सूत्र, शरीर होने पर भी संहनन क्यों नहीं होता ? क्षयोमशमनिमित्तः ..... की टीका करते हुए अवधिज्ञान के अनुगामी, समाधान - १४ वें गुणस्थान में अयोग केवली भगवान के अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, अवस्थित तथा अनवस्थित ये छह शरीर का सत्त्व मात्र है, लेकिन आत्मा का उससे कोई संबंध नहीं भेद कहे हैं, जबकि राजवार्तिककार ने प्रतिपाती एवं अप्रतिपाती ये रह जाता है। उस औदारिक शरीर के द्वारा आत्मप्रदेशों में परिस्पन्दन दो भेद और बढ़ाते हुए 8 भेद कहे हैं। अर्थात् योग भी नहीं होता। तेरहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में प्रतिपाती का अर्थ- विनाशशील अर्थात् बीच में ही छुटने शरीर नाम कर्म का उदय भी समाप्त हो जाता है। अत: जब शरीर वाला कहा है और अप्रतिपाती का अर्थ केवलज्ञान होने तक नहीं नाम कर्म का उदय ही नहीं है, तो फिर संहनन कैसे संभव है? श्री छूटने वाला कहा है। इन आठ भेदों में से देशावधि आदि तीन भेदों सिद्धान्तसार दीपक के ११वें अधिकार में इस प्रकार कहा गया है में कौन-कौन से भेद पाये जाते है, वे इसप्रकार हैं: अयोगिजिननाथानां देवानां नारकात्मनाम्। ..1. देशावधि अवधिज्ञान में उपरोक्त आठों ही भेद पाये जाते आहारकमहर्षीणामेकाक्षाणां वपूंषि च ॥१२९॥ यानि कार्मणकायानि व्रजतां परजन्मनि। 2. परमावधि अवधिज्ञान में हीयमान और प्रतिपाती इन दो तेषां सर्वशरीराणां नास्ति संहननं क्वचित्॥१३०॥ भेदों को छोड़कर शेष ६ भेद पाये जाते हैं। अर्थ-अयोगी जिनों के, देवों के, नारकियों के, आहारक 3. सर्वावधि अवधिज्ञान में केवल अवस्थित, अनुगामी, शरीरी महाऋषियों के, एकेन्द्रिय जीवों के और आगामी पर्याय में अननुगामी तथा अप्रतिपाती ये चार भेद ही पाये जाते हैं शेष अन्य जन्म लेने के लिए विग्रह गति में जाने वाले कार्मणकाय युक्त जीवों चार भेद नहीं पाये जाते हैं। के संहनन नहीं होता। अर्थात् इन जीवों का शरीर छहों संहननों से रहित होता है ।। १२९-१३० ।। प्रश्नकर्ता - जैनेन्द्र कुमार, दमोह प्रश्नकर्ता - सतेन्द्र कुमार जी, रेवाड़ी जिज्ञासा - क्या गाय-भैंस आदि पालना जैन गृहस्थों को जिज्ञासा- क्या आवाधा काल समाप्त होने से पूर्व भी कर्मों उचित है? की उदीरणा हो जाती है? समाधान - विभिन्न श्रावकाचारों में श्रावकों को जीवन समाधान- धवला पुस्तक १५, पृष्ठ ४३ के अनुसार | निर्वाह के लिए तिर्यंचों के पालन करने का भी कथन प्राप्त होता है। 'अपक्वपाचणमुदीरणा' अर्थ- अपक्व अर्थात् नहीं पके हुए कर्मों 1. धर्मसंग्रह श्रावकाचार (लेखक पं. मेधावी) में इस को पकाने का नाम उदीरणा है। इसमें उदयावली के बाहर जो भी प्रकार कहा हैकर्म हैं उनकी उदीरणा संभव है, परन्तु उदयावली में स्थित निषेकों असिर्मसिः कृषिस्तिर्यक्पोषं वाणिज्यविद्यके। की उदीरणा संभव नहीं होती। इतना अवश्य है कि मरणावली के एभिरर्थार्जनं नीत्या वार्तेति गदिता बुधैः ।।१55।। शेष रहने पर आयुकर्म की उदीरणा नहीं होती है तथा बध्यमान आयु एभिः स्वजीवनं कुर्युर्गृहिणः क्षत्रियादयः। का बंध हो जाने पर, उसके आवाधाकाल पूर्ण होने से पूर्व उसकी स्वस्वजात्यानुसारेण नीतिज्ञैरुदितं यथा॥१56।। उदीरणा नहीं होती। अर्थ- असि (खड्ग धारण), मसि (लिखना), कृषि इसका उदाहरण इसप्रकार है - किसी जीव ने अपनी पूरी (खेतीकरना), तिर्यञ्चों का पालन करना, व्यापार करना तथा विद्या मनुष्य पर्याय मिथ्यात्व गुणस्थान में बिताई। आयु के अन्तिम इन छह बातों से नीतिपूर्वक धन के कमाने को बुद्धिमान लोग वार्ता अन्तर्मुहूर्त में पंच समवाय मिलने पर, उसने अन्तर्मुहूर्त में सम्यक्त्व कहते हैं ॥ १५५ ॥ इन छह कर्मों से क्षत्रियादि वर्गों को अपनीप्राप्त कर तथा सभी आवश्यक क्रियाओं को करते हुए एवं गुणस्थानों अपनी जाति के अनुसार जीवन निर्वाह करना चाहिए। जैसा नीति को प्राप्त करते हुए समस्त कर्मों को नष्ट करके मोक्ष प्राप्त कर लिया। के जानने वाले पुरुषों ने बताया है ॥ १५६ ॥ यह जीव आयु के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त से पूर्व मिथ्यात्व अवस्था में 2. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा में प्रोषध प्रतिमा का वर्णन करते यदि एक कोड़ाकोड़ी सागर की स्थिति का दर्शन मोहनीय का बंध हुए कहा हैकर रहा हो, तो उसकी उदीरणा पूर्वक नाश करने में समर्थ न हो तो -फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित 37 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524294
Book TitleJinabhashita 2005 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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