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________________ गिह-वावारं चत्ता, रत्तिं गमिऊण धम्म-चिंताए। । २९ में इस प्रकार कहा है। पच्चूसे उट्टिता, किरिया-कम्मं च कादूण ॥३७४॥ स्ववधूं लक्ष्मणः प्राह मुञ्च मां वनमालिके। अर्थ- गृह का काम एक व्यापार को छोड़कर धर्मध्यान कार्ये त्वां लातुमेष्यामि देवादिशपथोऽस्तु में ॥२८॥ पूर्वक रात्रि बिताए और प्रातःकाल उठकर सामायिक आदि क्रियाकर्मों पुनरूचे तयेतीशः कथमप्यप्रतीतया। को करे। ब्रूहि चेन्नैमि लिप्येऽहं रात्रिभुक्तेरघैस्तदा ॥२९॥ विशेषार्थ - उपरोक्त गाथा के 'व्यापार' शब्द की व्याख्या अर्थ - लक्ष्मण ने अपनी पत्नी वनमाला से कहा, 'मुझे करते हुए आ. शुभचन्द्र ने टीका में इसप्रकार कहा है, 'वस्तूनां क्रय- | छोड़ दो। कार्य हो जाने पर मैं तुम्हें लेने आऊँगा, मुझे देव आदि की विक्रय, स्नान-भोजन, कृषि-मषि, वाणिज्य, पशुपालन, पुत्र-मित्र, शपथ है।' लेकिन वनमाला को उनके आने में संदेह हुआ, तब कलात्रि पालन प्रमुखं सर्वव्यापार गृहस्थ कर्म परित्यज्य' लक्ष्मण ने कहा कि, 'सुनो यदि मैं न आऊँ तो मुझे रात्रिभोजन का अर्थ - वस्तुओं की खरीद विक्री, स्नान-भोजन, खेती | पाप लगे।' नौकरी, व्यापार, पशुपालन, पुत्र-मित्र, स्त्री आदि का पालन-पोषण २ सागारधर्मामृत अध्याय ४ में इसप्रकार कहा है : आदि प्रमुख समस्त व्यापार एवं गृहस्थ कर्मों को छोड़कर। यहाँ त्वां यद्युपैमि न पुनः सुनिवेश्य राम। शुभचन्द्राचार्य ने श्रावकों के लिए खेती एवं पशुपालन कर्म को भी लिप्ये बधादिकृदधैस्तदिति श्रितोऽपि। योग्य माना है। सौमित्रिरन्यशपथन्वनमालयेकं । 3.हरिवंशपुराण नवम् सर्ग में भगवान् ऋषभदेव द्वारा प्रजा दोषाशिदोषपथं किल कारितोऽस्मिन्॥२६॥ को असि, मसि आदि षट्कर्मों का उपदेश दिया गया, इसके साथ अर्थ- ऐसा सुना जाता है कि 'रामचन्द्र जी को अच्छी तरह ही व्यवस्थित करके यदि में तुम्हारे पास न आऊँ तो मुझे गो हत्या, पशुपाल्यं ततः प्रोक्तं गोमहिष्यादिसंग्रहम्। स्त्रीहत्या आदि का पाप लगे।' वर्जनं करसत्त्वानां सिंहादीनां यथायथम्॥३६॥ । इस प्रकार अन्य शपथों के करने पर भी वनमाला ने लक्ष्मण अर्थ- तदनन्तर उन्होंने यह भी बताया कि गाय,भैंस आदि | से एक यही शपथ करायी कि मुझे रात्रि भोजन का पाप लगे॥२६॥ पशुओं का संग्रह तथा उनकी रक्षा करनी चाहिए और सिंह आदिक अत: उपरोक्त प्रमाणों के आधार से वनमाला लक्ष्मण के दुष्ट जीवों का परित्याग करना चाहिए॥३६॥ संवाद को आगम सम्मत मानना चाहिए। 4. श्री आदिपुराण पर्व १६ में इस प्रकार कहा है प्रश्नकर्ता - आ. बाबूजी सा., दूदू (राजस्थान) क्षत्रियाःशस्त्रजीवित्वमनुभूय तदाभवन्। जिज्ञासा- क्या यंत्रों को घर में रखा जा सकता है और यदि वैश्याश्च कृषिवाणिज्यपाशुपाल्योपजीविताः॥१८४॥ रखा जाये तो किन बातों का ध्यान रखना चाहिए? अर्थ- उस समय जो शस्त्र धारणकर आजीविका करते थे | समाधान - वर्तमान श्रावक सांसारिक इच्छाओं का पुतला वे क्षत्रिय हुए, जो खेती व्यापार तथा पशुपालन आदि के द्वारा सा बन गया है इसी कारण आजकल यन्त्र, मन्त्र, तन्त्र का व्यापार जीविका करते थे वे वैश्य कहलाते थे। १८४ ॥ गृहस्थों में तो फैल ही गया है, साधुओं में तो उससे भी ज्यादा फैला 5. वरांगचरित्र सर्ग-8, पृष्ठ 73 पर इसप्रकार कहा है- | हुआ देखा जाता है। जबकि श्रावक को लौकिक आकांक्षाओं से इस जम्बूद्वीप के ही विदेहक्षेत्र के निवासी असि, मसि, | बहुत दूर रहना चाहिए। यन्त्र के संबंध में निम्न बातों पर ध्यान रखना कृषि, वाणिज्य, गोरक्षा और सेवा इन छह कर्मों को करके जीवन | आवश्यक हैयापन करते हैं। १. यन्त्र की शुद्धि के लिए किसी विधान आदि के समय इसके अलावा अन्य भी बहुत से प्रमाण और भी हैं, जिनसे | उसे हवनकुण्ड आदि में रखकर उसकी शुद्धि मान लेने का प्रतिष्ठा पशुपालन करना श्रावकों के लिए उचित बताया गया है। | शास्त्रों में कोई वर्णन नहीं मिलता है। अत: यह क्रिया उचित नहीं जिज्ञासा - ऐसा सुना जाता है कि वनमाला ने लक्ष्मण को | लौटकर न आने पर , रात्रि भोजन ग्रहण का पाप लगे, ऐसी सौगन्ध | २. यन्त्रों को यदि घर में रखा जाये तो उस यंत्र संबंधी जाप दिलाई थी, परन्तु इसका वर्णन पद्मपुराण में कहीं नहीं मिलता तो | तथा अभिषेक शुद्धि आदि करके ही घर में रखा जाना चाहिए। इस कथन को प्रमाणीक माना जाये या नहीं? ३. किसी पुराने कमरे आदि में यदि शान्ति विधान आदि समाधान - आपका लिखना सच है कि पद्मपुराण में यह | कराने के लिए यन्त्र को विराजमान किया जाये तो यह ध्यान रखना कथानक नहीं मिलता परन्तु अन्य ग्रन्थों में यह कथानक प्राप्त होता चाहिए कि वह कमरा अन्य सामानों से भरा न हो, साफ सुथरा हो, है, जैसे उस कमरे के अति निकट शौचालय आदि न हो और वह गृह 1. धर्मसंग्रह श्रावकाचार अधिकार -३, श्लोक नं. २८- | निवासियों का आने जाने का मुख्य मार्ग न हो । ऐसे घर के उचित कक्ष में यन्त्र को सिंहासन आदि पर विराजमान करके पाठ कराया 38 फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524294
Book TitleJinabhashita 2005 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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