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जैन संस्कृत महाविद्यालयों, छात्रों की दशा और दिशा
डॉ. अनेकांत कुमार जैन पूज्य गणेश प्रसाद जी वर्णी ने सन् १९०५ में श्रुतपंचमी | मुझे भी है। आज इस वर्ग के सामने एक निश्चित दिशा का अभाव के दिन काशी में श्री स्याद्वाद महाविद्यालय की स्थापना करके | होने से व्यर्थ की भटकन और आधे अधूरे ज्ञान के कारण वास्तविक
और स्वयं इस विद्यालय के प्रथम छात्र बनकर जिस अनुपम कार्य के प्रति उपेक्षा देखी जा रही है। इतिहास की रचना की आज उसके सौ वर्ष पूरे हो रहे हैं। श्री | विद्यार्थियों का अन्तर्द्वन्द्व स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसी के शताब्दी वर्ष का शुभारम्भ भी प्राच्य विद्याओं तथा धार्मिक शिक्षाओं को ग्रहण करने आये यहाँ श्रुतपंचमी के दिन हो चुका है। जैन संस्कृत शिक्षा के क्षेत्र में | नये सुकुमार किशोर सर्वप्रथम तो इस बात का निर्णय ही नहीं कर एक अभूतपूर्व क्रान्ति का शंखनाद करने वाला यह महाविद्यालय पाते हैं कि वास्तव में वे जो अध्ययन कर रहे हैं, किस लिए कर जिन कीर्तिमानों की सृष्टि करता रहा है, उसकी बराबरी कर पाना रहे हैं? आत्मकल्याण के लिए अथवा अच्छे कैरियर अर्थात् हर एक के बस की बात नहीं है। यहीं के स्नातकों ने अपने अपने | जीविकोपार्जन के लिए? यह अन्तर्द्वन्द्व उन्हें बहुत उलझाता है। क्षेत्रों में जाकर ऐसे ही अनेक विद्यालयों की स्थापनाएँ कर अथवा | किशोरवय का भावुक हृदय उन्हें धर्माराधना अर्थात् श्रद्धालु व इनके संचालन की जिम्मेदारी संभालकर इस श्रृंखला को द्विगुणित | भक्त बनने की ओर भी उकसाता है और पूरे जीवन के कैरियर चौगुणित भी किया।
| निर्माण की चिन्ता भी उन्हें खाये जाती है। यदि कोई कहे कि वह आज की स्थिति
दोनों के लिए शास्त्रीय क्षेत्र की पढ़ाई कर रहा है तो यह बात वर्तमान में धार्मिक शिक्षा को लेकर कई बड़े-बड़े सुविधा | कहने में जितनी आसान है यथार्थ की भूमि पर उतनी सच नहीं है सम्पन्न महाविद्यालय संस्थान स्थापित हुए हैं, जो कई वर्षों के | क्योंकि कैरियर निर्माण के जितने मापदण्ड हैं उन पर उनकी यह अथक श्रम का प्रतिफल हैं। देश में कई महाविद्यालय ऐसे हैं जहाँ | पढ़ाई खरी नहीं उतरती है। जैन विद्यार्थी पूर्वमध्यमा, उत्तरमध्यमा, वरिष्ठ उपाध्याय, शास्त्री, | गलत दिशा में नियोजन आचार्य इत्यादि कक्षाओं में अध्ययन कर रहे हैं। इन जैन संस्कृत सही प्रबन्धन, व्यापक सोच, दूरदर्शी दृष्टि, उपयोगी विद्यालयों, महाविद्यालयों में कुछ तो ऐसे हैं जहाँ आधुनिक | पाठ्यक्रम और स्थायी दीर्घकालीन योजनाओं का वास्तव में हमारे सुख-सुविधा, उत्तम भोजन, अच्छे अध्यापक हैं। किन्तु कुछ ऐसे पास बहुत अभाव है। यहाँ अगर यह कहा जाय कि यह हमेशा से भी विद्यालय हैं जो चल नहीं रहे, बल्कि खिसक रहे हैं। वहाँन | रहा है तो यह गलत न होगा। जैन संस्कृत महाविद्यालयों के तो अध्ययन-अध्यापन हेतु उच्चस्तरीय अध्यापक हैं और न ही विद्यार्थियों के समुचित नियोजन का प्रश्न आया तो स्वर उठा कि रहने-खाने की अच्छी व्यवस्था। जैसे-तैसे विद्यार्थी परीक्षा पास | समाज के खर्चे पर महाविद्यालय चला, भोजनादि व्यवस्था चली करते हैं और अधकचरे ज्ञान, अपरिपक्व व्यक्तित्व को लेकर | तो उसका फल समाज को मिले अर्थात् ऐसे विद्यार्थियों का कर्तव्य रोजगार खोजते हैं। यहाँ के शिक्षक और विद्यार्थी दोनों ही संस्था | है- 'समाज सेवा'। और इसी सेवा को उनका कैरियर बना देना के लिए आर्थिक सहयोग इकट्ठा करने में ही अपनी शक्ति और | हमारी आम राय है। जैन समाज के कुछ धार्मिक पृष्ठ भूमि के अपना समय व्यतीत करते हैं। उसके लिए विधान, पूजापाठ कराने स्वाध्यायी श्रेष्ठी विद्वानों ने यहाँ तक राय बनायी कि चूँकि विद्यार्थियों वे समाज में जाते हैं और फिर बाद में यही उनका कैरियर भी बन | को इतना वेतन दे पाना संभव नहीं कि उनका परिवार चल सके। जाता है। बहुत मुश्किल से और कई महान् विभूतियों के समर्पित | इसलिए विद्यार्थी मात्र शास्त्री कक्षा तक पढ़ायी करे, ब्रह्मचर्य व्रत जीवन के फल स्वरूप कुछ संस्थाओं से प्रतिभाशाली युवा विद्वत् | ले और समाज में जाये, प्रवचन करे, कक्षा ले, प्रतिष्ठा-विधान वर्ग भी यत्किञ्चित् उभर कर सामने आ रहा है, जिसने जैन धर्म | कराये, संस्था का धन भी लाये, सेवा करता रहे बस। बहुत दर्शन, साहित्य और संस्कृति का गहराई से अध्ययन कर उच्च श्रेणी इन्तजार के बाद शास्त्रीय पद्धति से शिक्षित युवा वर्ग यदि मात्र में उच्चकक्षाएँ उत्तीर्ण की हैं और जिन्हें मूल जैन शास्त्रों का भी | प्रवचन, विधि-विधान, प्रतिष्ठा करने में ही अपने कर्त्तव्य की अच्छा ज्ञान है। साथ ही वे इतने श्रद्धालु हैं कि इन विद्याओं के | इतिश्री समझता है और समाज भी इससे संतुष्ट है तो हम बहुत लिए जीवन भी समर्पित करने को तैयार हैं। किन्तु ऐसी प्रतिभाओं | बड़ी भूल कर रहे हैं। का सही उपयोग न होने से अन्ततः भटककर वे छोटी-बड़ी | प्रशिक्षण में खामियाँ सामाजिक नौकरी पाकर ही अपनी प्रतिभा होम कर रहे हैं।
जो छात्र से विद्वान बने इस वर्ग का नियोजन नहीं कर पा पिछले एक दशक से भी अधिक समय से ऐसे वर्ग के रहे हैं वे तो जैसे हैं सो हैं इस विधा में प्रशिक्षित युवा वर्ग की साथ रहने का तथा उन समस्याओं से स्वयं रूबरू होने का अनुभव | बौद्धिक और मानसिक स्थिति भी ऐसी हो चुकी होती है कि वे
-फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित 23
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