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जी ने दोनों बच्चों को बुलवाया और कारण पूछा। बच्चों ने यथार्थ । है । इस महान कृति को 'शास्त्रोद्धारशास्त्र सुरक्षा अभियान' की बात बता दी। बाबाजी बच्चों को शिक्षा से वंचित नहीं देख सकते थे, अपने पास रखी हुई घी से भरी हुई कुप्पी देते हुए कहा कि इसे ले जाकर फीस जमाकर दो व पढ़ने को जाओ।
विद्वानों के प्रति वर्णीजी का अत्यधिक स्नेह रहता था । विद्वानों को अपने प्राण कहते हुए उनके सुख-दुःख का पूरा ध्यान रखते थे। एक बार पं. फूलचन्द्र सिद्धांतशास्त्री बहुत ही अस्वस्थ्य हो गये। छह माह पलंग पर पड़े रहे जिस संस्था में नौकरी करते थे वेतन मिलना भी बंद हो गया । खर्च हेतु परेशानी आने लगी, पं. जी अपनी पत्नी के आभूषण बेचकर अपना काम चलाने लगे। यह बात बाबाजी को ज्ञात हुई। उन्होंने तत्काल बाबूरामस्वरूप जी बरुआसागर वालों को संकेत करके 600 रूपये भिजवाये । वर्णी जी द्वारा कराये गये इस सहयोग से पं. जी इतने उपकृत हुए कि सदैव यह कहते रहे कि वर्णी जी से ही मुझे जीवनदान मिला है।
गरीबों के लिए वर्णी जी साक्षात् देवता बनकर सहयोग किया करते थे। एक बार गया पहुँचे रात्रि में तीन बजे माघ की कड़कड़ाती ठंड में स्टेशन से मंदिर की ओर जा रहे थे कि रास्ते में एक वृद्ध ठंड से कांप रहा था, वर्णी जी का हृदय द्रवीभूत हो गया और अपना खेस उतारकर उसको उड़ा दिया। और खुद नग्न बदन हो गये। पं. जगमोहनलाल शास्त्री कटनी वाले साथ में थे बोले, इतनी ठंड में आपने यह क्या किया? बाबा जी सहजभाव से बोले अरे भैया, अपन पर तो कोई भी दया कर देगा किन्तु इस गरीब पर कौन दया करेगा।
इस प्रकार के एक नहीं अनेकों प्रसंग हैं जिनसे वर्णी जी की वात्सल्यता, दया, प्रेम, सहानुभूति की प्रेरणा हमें प्राप्त होती है । वर्णी जी 'वसुधैवकुटुम्बकं' की भावना से ओत-प्रोत थे । उनकी दया मानव मात्र पर न होकर पशुप्राणियों पर भी दिखाई देती थी।
16. मेरे आदर्शगुरु श्रद्धेय वर्णी जी : जिस समय वर्णी जी इस पर्याय से विदा हुए थे, उस समय मैं इस पर्याय में जन्म नहीं ले पाया था । इसलिए वर्णी जी के साक्षात दर्शन करने से वंचित रहा हूँ । मुझे याद है कि जब मैंने होश संभाला है तब से वर्णीपुरुष का नाम सुनता रहा हूँ। मुझे इस बात का गौरव है कि जिनके जीवन का निर्माण वर्णी जी की सुशिक्षाओं से हुआ है उन मनीषियों के मुख से वर्णी जी के बारे में अवश्य सुनने को मिला है । जब कभी पं. पन्नालाल जी साहित्यकार, पं. बंशीधर जी व्याकरणाचार्य, पं. जगन्मोहनलाल जी शास्त्री, डा. पं.दरबारीलाल जी कोठिया, पं. भैयालाल जी शास्त्री आदि मनीषी वर्णी जी के संस्मरण सुनाते, तो सुनाते-सुनाते उनका गला भर आता था और नेत्रों से गंगा-यमुना की धारा फूट पड़ती थी । सहसा ही उनके मुख से निकलता था कि उन जैसा विद्यारसिक, परोपकारी, पारसपत्थर, कामधेनु, कल्पवृक्ष पुरुष इस युग में मिलना दुर्लभ है।
मैं जब मेरी जीवनगाथा पढ़ने बैठता हूँ तो लगता है कि वर्णी जी के काफी करीब पहुँच गया हूँ। एक बार नहीं अनेकों बार पढ़ चुकने के बाद भी पुनः पढ़ने का मन प्यासा बना रहता
22 फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित
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बृहत्यात्रा में पाथेय बनाया है। जीवन के अनेक उतार-चढ़ाव, सफल-असफल क्षणों में यदि मेरे लिये मार्गदर्शिका बनी है, तो वह है - मेरी जीवन गाथा और वर्णी-वाणी ।
आशीर्वाद के साथ दर्शन और उपदेश भी मिला
मुझे इस बात का सदैव खेद रहता था कि वर्णी जी के दर्शन और दो शब्द सुनने को नहीं मिल सके। कभी-कभी अन्तस् से आवाज आती कि चिंता नहीं करो स्वप्न में वर्णी जी के दर्शन अवश्य ही प्राप्त होंगे। इस सुखद अवसर की प्रतीक्षा करते-करते अनेक वर्ष बीतने के बाद 29 जून 1997 का दिन एवं स्वप्न मेरी दैनंदिनी में लिपिबद्ध हो गया। मैं इन दिनों बुंदेलखण्ड के ग्राम-ग्राम-नगर-नगर 'शास्त्रोद्धार शास्त्र सुरक्षा अभियान' के संदर्भ मैं हस्तलिखित ग्रंथों के संकलन, संरक्षण, संवर्द्धन के कार्य में संलग्न था ।
चटाई पर आसीन दुपट्टा गोद में पड़ा हुआ और पोछी बाजु में रखी हुई सामने चौकी पर समयसार ग्रंथराजविराज न था। स्नेहासक्त मंदमुस्कान और जिज्ञासा से भरी हुई दृष्टि ने मुझे दूर से देख लिया। मैं जैसे ही उनके करीब पहुँचकर प्रणाम करता हूँ वे बोले - 'काय भैया, कौन हो।' मैं कहता हूँ कि ब्र. संदीप हूँ । 'अरे भैया, तुम तो बहुत बड़ो जिनवाणी रक्षा का कार्य कर रहे हो मन लगाकर इसी कार्य को करना।' मैंने कहा 'बाबाजी आपका आशीर्वाद एवं मार्गदर्शन लेने के लिए आया हूँ।' बाबाजी ने अपने दोनों हाथ उठाकर मेरे सिर पर रख दिए और कहा 'ले लो भैया खूब आशीर्वाद, भैया ज्ञान के प्रचार-प्रसार में जुटे रहना, इससे अच्छा और दूसरा कोई कार्य नहीं है।' मैंने अपने को परम सौभाग्यशाली माना और अपना समर्पण उनके चरणों में करते हुए स्वीकार कर लिया कि आज से आप मेरे प्रेरक आदर्श गुरु हैं। इसके बाद निद्रा भंग हो जाती है, दृष्टि घड़ी पर आती है तो प्रभातकाल के 4.30 बज रहे थे डायरी उठाई और लिपिबद्ध कर दिया स्वप्न को ।
वर्णी जी आज्ञा को शिरोधार्य करके संकल्पित हूँ इस स्वप्र को मूर्तरूप देने के लिए। मेरा मानना है कि अनेकांत ज्ञान मंदिर शोध संस्थान बीना की स्थापना, शास्त्रोद्धार शास्त्र सुरक्षा अभियान, शोध ग्रंथालय, पाण्डुलिपि संग्रहालय, पाण्डुलिपि संरक्षण केन्द्र, विभिन्न स्थानों पर अनेकांत वाचनालयों की स्थापना, सम्यग्ज्ञानप्रशिक्षण शिविरों का सफल आयोजन एवं ग्रंथ प्रकाशन आदि गतिविधियों के सफल अभियानों में कोई अदृश्य शक्ति प्रेरित करती ही नहीं अपितु सबल सम्बल देकर कार्य को संपन्न कराती हैं, उसमें परम श्रद्धेय वर्णी जी का आशीर्वाद भी एक कारण है। मैं संकल्पित हूँ वर्णी जी के स्वप्न 'अज्ञानतिमिव्याप्तिमपाकृत्ययथायथम्' रूप धर्म प्रभावना को साकार करने के लिए इस पुनीत कार्य हेतु जीवन की हर श्वांस समर्पित है।
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संस्थापक अनेकांत ज्ञान मंदिर शोध संस्थान बीना (सागर) म.प्र.
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