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________________ दिन नमक का त्याग रखूगा। ' एक स्थान पर लिखते हैं कि - | कठोर परीक्षाएँ हुईं किन्तु वे सदैव खरे ही उतरे। हरिजनमंदिर 'एक समयसार का ही स्वाध्याय करता हूँ, चाहे कुछ आवे या न | प्रवेश को लेकर समाज में वैषम्य का वातावरण निर्मित हो गया आवे। समयसार ही शरण है।' था। उस समय कतिपय लोगों ने वर्णी जी की पीछी कमण्डल समयसार के प्रति तीव्र उत्कंठा का एक संस्मरण श्रद्धेय | छीनने की बात कही, वर्णी जी को ज्ञात होने पर सहजभाव से । के मुख से अनेकों बार सुना था। | बोले कि - "जिन्हें पीछी कमण्डल छीनना है तो छीन लो किन्तु वह इस प्रकार है - इटावा (उ.प्र.) में वर्णी जी का चातुर्मास चल | हमारे आत्मधर्म को थोड़े ही छीन सकते हो।' इस प्रकार के रहा था। स्वास्थ्य खराब हो गया। दिल्ली के भक्तों को ज्ञात हुआ | समयसारमय वचन बोलते हुए शांत हो गये, उनके चेहरे पर क्षोभ तो लालाराजकृष्ण जी, लाला फिरोजालाल, मैं (पं.जी) अन्य | की छोटी सी रेखा भी नहीं उभरी। लोगों के साथ प्रस्थान करते हैं। रात्रि के 3:30 पर वर्णी जी के | वर्णी जी का पुण्य भी अतिप्रशस्त था कि अजैन कुल में प्रवास स्थल पर पहुँचे। चारों ओर अंधेरा छाया हुआ है किन्तु एक | जन्म लेकर चिन्तामणिसम जैनधर्म अपनाकर कर्मणा जैनी बन कमरे में कुछ रोशनी दिखाई दे रही हैं। उस कक्ष में जाकर देखा | गये। प्रशममूर्ति, उदारमना माँ चिरोजाबाई जी का समागम प्राप्त तो एक लालटेन के प्रकाश में बाबा जी समयसार का स्वाध्याय | कर उच्चस्तर का अध्ययन किया एवं सामान्य बालक से बुंदेलखण्ड कर रहे हैं। लाल फिरोजीलाल जी ने थर्मामीटर लगाकर देखा तो के देवता बन गये। इस सब के पीछे माँ जी का बहुत योगदान रहा १०४ १/२ डिग्री टेम्प्रेचर था। सभी ने निवेदन किया कि ऐसी | है। वर्णी जी की वाणी सुनने एवं आशीष प्राप्त करने के लिए अवस्था में शरीर को आराम देना चाहिए। वर्णी जी बोले - भइया | देशभर के सभी धीमंत श्रीमंत सदैव आते रहते थे और वर्णी जी उसे अपना काम करने दो और हमें अपना काम करना है। कोठिया | की आज्ञा को आदेश मानकर शिरोधार्य करते थे। सरसेठ भागचंद्र जी जब भी इस संस्मरण को सुनाते थे तो उनका गला भर आता सोनी अजमेर, सरसेठ रायबहादुर हुकुमचंद जी इंदौर, था और कहते थे कि उन जैसा भेदविज्ञानी और समयसार को श्रावकशिरोमणी साहु शांतिप्रसाद जी दिल्ली, लाला राजकृष्ण, अपना जीवन बनाने वाला साधक कोई दूसरा नहीं मिला। लाला हरिशचंद्र,लाला फिरोजीलाल दिल्ली, सेठ छिदामीलाल 13. यथार्थ आत्मसमीक्षक : व्यक्ति की पहिचान वर्णी | जी फिरोजाबाद, श्रीमंतसेठभगवानदास शोभालाल, सिंघई कुंदनलाल जी बहुत अच्छी तरह से करते थे। व्यक्ति की योग्यता को देखते | जी सागर आदि सैंकड़ों श्रीमंत आपके अनन्य भक्त थे। राष्ट्रपति हुए उसे आगे बढ़ाने में सदैव तत्पर रहते थे। अपनी समीक्षा भी | डॉ. राजेन्द्रप्रसाद जी ने आपको निस्पृही संत कहते हुए आशीर्वाद खुलकर किया करते थे। मेरी जीवन गाथा एवं वर्णीवाणी में अनेक | प्राप्त किया था। संत विनोवा भावे जी ने ललितपुर में प्रथम भेंट स्थल हैं जहाँ पर वर्णी जी ने अपनी कमजोरियों को स्वीकारते हुए होने पर एक सभा के मध्य कहा था- 'वर्णी जी एक निष्परिग्रही लिखा है कि इनको दूर करना है। कुछ प्रसंग द्रष्टव्य हैं - 'उपदेश | संत हैं इनके समक्ष त्याग का क्या उपदेश दूँ। वर्णी जी का सारा देने की बात तो दूर रही, अभी मैं सुनने और वांचने का भी पात्र जीवन ही त्याग का उपदेश दे रहा है।' नहीं हूँ। वचन चतुरता से किसी को मोहित कर लेना पाण्डित्य वर्णी जी श्रावक के उत्कृष्ट दर्जे क्षुल्लक पद पर आसीन नहीं है।' अपनी समीक्षा करने में दक्ष वर्णी जी ने एक पत्र माघ रहकर ही साधना करते रहे किन्तु उनकी निष्काम साधना, सतत शुक्ल त्रयोदशी सं 1999 को साधक वर्णी जी के नाम लिखकर ज्ञानाभ्यास किसी आचार्य एवं मुनि से कम नहीं था। चारित्रचक्रवर्ती कटु आलोचना की है। पत्र की कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं। ........ न आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज, आ.श्री सूर्यसागर जी महाराज, तुमने कभी मनोयोग पूर्वक अध्ययन किया, न स्थिरता से पुस्तकों आ.श्री नेमीसागर जी महाराज आपके कार्यों के प्रशंसक रहे हैं । का अवलोकन किया, न चरित्र का पालन किया और न तुम्हारी | आ.श्री नेमीसागर जी महाराज ने तो आपके सानिध्य में ईसरी में शारीरिक संपदा चारित्र पालन की थी। तुमने केवल आवेग में सल्लेखनापूर्वक मरण किया था। आपके रचनात्मक कृतित्व व्यक्तित्व आकर व्रत ले लिया। ........ इस जीव को मैंने बहुत कुछ ने आपको न सिर्फ बुंदेलखण्ड का साधक अपितु श्रमणसंस्कृति समझाया कि तू पर पदार्थों के साथ जो एकत्व बुद्धि रखता है उसे | का यशस्वी संत बना दिया। छोड़ दे परंतु यह इतना मूढ़ है कि अपनी प्रकृति को नहीं छोड़ता 15. वात्सल्य एवं दया की साक्षात् मूर्ति : निर्मलता, फलतः निरंतर आकुलित रहता है। क्षणमात्र के लिए भी चैन नहीं | भद्रता, सरलता, सहनशीलता, परदुःखकातरता, परोपकार आदि पाता है। गुणों के धाम वर्णी जी वात्सल्य एवं दया की साक्षातमूर्ति थे। 14. श्रमणसंस्कृति के यशस्वी साधक : श्रमण संस्कृति | अनेकों ऐसे संस्मरण हैं जो वात्सल्य, दया एवं परोपकार की गाथा अध्यात्म एवं आत्मप्रधान संस्कृति है। वर्णी जी जीवन भर इस | गाते दिखाई पड़ते हैं। समता की साधना में अनेक बाधायें उपद्रव एवं प्रतिकूल परिस्थितियों | घटना सागर विद्यालय की है। आर्थिक स्थिति से परेशान के आने पर सुमेरु की तरह अचल रहे। कषाय अत्यंत मंद थी।। दो बच्चे स्कूल में फीस जमा न करने के कारण विद्यालय से एक साधारण से असाधारण बने इस महामानव की पग-पग पर | बहिष्कृत कर दिये गये। यह जानकारी बाबाजी को ज्ञात हुई बाबा -फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित 21 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524294
Book TitleJinabhashita 2005 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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