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________________ उचित दिशा की सोच तक नहीं पाते हैं। जागरूकता का अभाव । यह तो परम्परा सम्मत भी है ! और प्रमाद इत्यादि भी उनकी इस स्थिति का कारण बनता है। | इतिहास में जाकर गहराई से देखें तो हमारी परम्परा कभी जहाँ एक तरफ कुछ विद्यार्थी ऐसे हैं जो गम्भीरता से अध्ययन | ऐसी नहीं रही। हमारे प्राचीन आचार्य दोनों कार्य कर लेते थे, करते हैं किन्तु वहीं दूसरी तरफ ऐसे विद्यार्थी भी बड़ी तादाद में | आत्मकल्याण भी और जिनवाणी या शास्त्र कल्याण भी और मिल जाते हैं जो खुद भी अपने कैरियर और ज्ञान के प्रति कोई | हमारी दशा सच कहें तो यह है कि हम इन दोनों में से कुछ भी खास श्रम करते दिखायी नहीं देते। उसका कारण प्रशिक्षण में कुछ | नहीं कर पा रहे हैं। हमारे अधिकांश आचार्य जितने जैन दर्शन के खामियाँ भी हैं। हम जानते हैं कि अधिकांश संस्थाएँ साम्प्रदायिक | विज्ञ थे उससे कहीं अधिक अन्य धर्म एवं दर्शनों के भी ज्ञाता थे पृष्ठभूमि की मनोवत्ति वाली हैं। शास्त्रीय प्रशिक्षण, धार्मिक अतिवाद, | अन्यथा इतने अधिकार पूर्वक उनका खण्डन करना और स्वपक्ष कुछ उन्माद, साम्प्रदायिक कट्टरता और संकीर्ण विचारधाराओं की का मण्डन करना कोई बच्चों का खेल तो है नहीं। दूसरे मतों या तर्ज पर होने से शास्त्रीय पद्धति से पढ़ने वाला उस किसी विशेष | दर्शनों को पढ़ते-पढ़ाते समय उनका सम्यक्त्व कभी नहीं डिगा मानसिक मनोवृत्ति से ग्रसित हो जाता है, जिसे मनोविज्ञान की लेकिन आज के तथाकथित सम्यकदृष्टियों का सम्यक्त्व जाने कितना भाषा में 'ब्रेनवाश' कहा जाता है। इससे एक तरफ लाभ भी है तो कमजोर है कि परमत (जैनेतरों) की तो छोड़ दें अपने ही धर्म के दूसरी तरफ हानि भी कम नहीं है। लाभ यह कि इसप्रकार के । दिगम्बर, श्वेताम्बर, कहानपंथ, तारनपंथ, बीसपंथ वगैरह वा रह श्रद्धात्मक, कट्टर मानसिक धार्मिक उद्वेग से शरीर की अन्त:स्रावी में एक दूसरों के शास्त्रों को पढ़ने, सुनने मात्र से मिथ्यात्व के पोषण ग्रन्थियों से एक विशेष प्रकार के हार्मोन्स प्रवाहित होने लगते हैं | के साथ सम्यक्त्व के नष्ट होने का खतरा बढ़ जाता है अथवा जिनका प्रभाव मस्तिष्क से लेकर पूरे शरीर पर पड़ता है। इसके सम्यक्त्व के उत्पन्न होने की सम्भावना कम होने लगती है। ऐसी अति-उत्साही परिणाम के कारण ही विद्यार्थी दुरूह प्रतीत होने [ संस्थाओं, स्वाध्याय केन्द्रों के पुस्तकालयों या शास्त्र भण्डारों में भी वाले शास्त्रों का अध्ययन बहुत ही मनोयोग पूर्वक कर डालता है, मात्र अपने समर्थक पक्ष से सम्बन्धित साहित्य का ही अधिक अन्यथा कठिन शास्त्रीय विषयों में ऐसा उत्साह आज के युग में | भण्डार रहता है। विद्यार्थी जिसे सम्यक्त्व-मिथ्यात्व की समस्या दुर्लभ है। खुद खोजकर सुलझाने की शुरुआत करनी थी, सब पहले से ही ___हानि यह है कि इस संकीर्णता और कट्टरता के कारण वह सुलझाये हुए बैठा है। ऐसे वक्त में वह पंथ का प्रबल प्रचारक तो अपने से अतिरिक्त दुनिया भर के अन्य शास्त्रों और ज्ञानों को | बन जाता है, किन्तु एक सुलझा हुआ, अच्छा और उदारवादी मिथ्यात्व समझता है और मानता है कि इनका अध्ययन उसके विचारक बनने से चूक जाता है। जिसका खामियाज़ा उसे अपने आत्मकल्याण में बाधक है। इसलिए वह उनका अध्ययन नहीं कैरियर में चुकाना पड़ता है। करता, जिसके कारण उसका समचित मानसिक और बौद्धिक | हानि क्या होती है? विकास नहीं हो पाता है। __कुछ लोग यहाँ यह भी कह सकते हैं कि हमसे जितना कुछ न कर पा सकने की समस्या बन पड़ता है उतना कर रहे हैं अब सारी बातों का जिम्मा हमने ही उदारवादी चिन्तन और बहुविज्ञता के अभाव में विद्यार्थी | थोड़े ले रखा है। बात सच है, जितना कुछ हो रहा है वह का कैरियर संकट में पड़ जाता है। उसे आत्मकल्याण और शास्त्र | अतिप्रशंसनीय है किन्तु उसी लागत में थोड़ी व्यवस्था और सेवा ये दोनों बातें लगभग एक सी लगती हैं ऐसा लगता है कि ये | मानसिकता सुधार कर यदि कार्य हो और हमें मुनाफा यदि चौगुना एक दूसरे के पूरक तो हैं ही इसलिए दोनों में साध्य-साधन का ही | हो सकता हो तो सुनने और मानने में हर्ज क्या है? मैं ऐसे कई मात्र फर्क है। किन्तु जहाँ एक तरफ आत्मकल्याण में परमत, मित्रों को जानता हूँ जो शास्त्र के गहन विशेषज्ञ हैं, पंक्ति से शास्त्र मिथ्यात्व, निवृत्ति, जीवन की नश्वरता और मनुष्यभव की उत्तरोत्तर | पढ़ने-पढ़ाने की योग्यता रखते हैं, व्याकरण एवं साहित्य का दुर्लभता महत्त्वपूर्ण है वहीं दूसरी तरफ शास्त्र सेवा में, उसके | आधिकारिक ज्ञान है जो कि आज के युग में दुर्लभतम है। किन्तु कल्याण में परमत अध्ययन, छन्द, व्याकरण, अलंकारशास्त्र, संकीर्ण मानसिकता और उचित नियोजन के अभाव में या तो कोई न्यायशास्त्र, साहित्य तथा बहुत सी अन्य साहित्यिक प्रवृत्तियों की व्यापार धंधा कर रहे हैं, या किसी गांव में अध्यापक हैं और इतनी महती आवश्यकता होती है कि जिनके अभाव में हम सही | छोटे-छोटे बच्चों से निपट रहे हैं, या निराश होकर घर बैठ गये हैं। संपादन, शोध, लेखन, व्याख्यान, साक्षात्कार और जीवन तथा | हमने इनका निर्माण किया किन्तु समुचित नियोजन नहीं हो सकने कैरियर निर्माण जैसी आवश्यक जरूरतों में हम पिछड़ जाते हैं। से इनका उपयोग नहीं हो पा रहा है। कोई समाज में प्रवचन करके यदि इस स्थान पर दुर्लभ मनुष्य भव के दुरुपयोग की बात कही | ही अपने कर्तव्य को पूरा माने बैठा है तो कोई पढ़ाई बीच में ही जाये तो वहाँ आत्मकल्याण की भावना कम बल्कि परिश्रम से | छोड़कर बैठा है। अधिकांश छात्र पढ़ाई भी पूरी नहीं करते। पलायनवाद अधिक दिखायी देता है। स्नातकोत्तर, पी-एच.डी. इत्यादि तक भी कम ही जाते हैं। अंग्रेजी 24 फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524294
Book TitleJinabhashita 2005 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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