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जैन विचार के साथ-साथ आधुनिक समाज के लिए जरूरी विषयों के अध्ययन, अध्यापन और अनुसंधान पर भी समुचित रूप में बल जरूर दिया गया हो और वह भी इस गुणवत्ता का हो, जो किसी भी राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय मानकवाली संस्था से कम न हो और यदि हम ऐसा नहीं करेंगे तो निश्चित मानिए कि हम कोई धार्मिक संस्थान भले हो जाएँ, पर आज के समाज के काम के शैक्षिक संस्थान तो न हो पाएँगे, जैसा कि हमारे अनेक संस्थानों का हश्र हुआ है। यदि हम ऐसा करेंगे तो निश्चित रूप में जो जैनधर्म आज भारतीय समाज में हासिये पर चला गया है, वह केन्द्र में आ जाएगा। समाज के पैसे का शैक्षिक संस्थानों के नाम पर जो दुरुपयोग हो रहा है, वह बन्द होगा और हम सही मायने में जैनधर्म का ही नहीं. आम भारतीय समाज का भी भला कर सकेंगे, बल्कि ऐसे समाज क निर्माण कर सकेंगे, जिसके केन्द्र में जैन विचार या जैन जीवन-पद्धति होगी।
आज के हमारे समाज का दुर्भाग्य यह भी है कि जो हमारी बीमारियाँ नहीं थीं, वे हमारी हो गई हैं, जो हमारे परिधान नहीं थे, वे हमारे हो गए हैं, जो कार्य त्याज्य थे, वे आज खुले आम किये जाने लगे हैं। जिन भोजन सम्बन्धी वस्तुओं को हम कभी छूना तक नहीं पसन्द करते थे, वे आज हमारी रसोइयों के भीतर बनने लग गए हैं। पहले आप जैनों के घर के सामने से निकल जाएँ, तो रसोई की गन्ध यह बता देती थी कि यह जैन घर है। आज जैन और जैनेतर की रसोई की गन्ध में बहुत अन्तर नहीं रह गया है। इसलिए मैं कहना चाहूँगा कि आप जैन शैक्षिक संस्थान जरूर बनाएँ, लेकिन अपने ढंग से, अपने पाठ्यक्रम से, अपनी जीवन-पद्धति व अपने विचारशास्त्र को सँजोते हुए, तभी ऐसे बनाये गए हमारे शैक्षिक संस्थान सही मायने में हमारे शैक्षिक संस्थान होंगे/हो सकेंगे। केवल ढलाचला में चली आ रही वर्तमान विश्वविद्यालय शिक्षा की नकल से नहीं, और यदि ऐसा हुआ, तो सच ही फिर हम जहाँ के तहाँ रह जाएँगे, बल्कि हम अपना पैसा, अपनी शक्ति व अपनी बहुत कुछ ऊर्जा भी बर्बाद कर चुके होंगे। मेरी इस टिप्पणी का उद्देश्य भी आपको वैचारिक रूप में विचलित करते हुए ऐसे नए सृजन के लिए आन्दोलित करने में ही है, जिससे कि निश्चितरूप से हमारे उत्तराधिकार का भला सम्भावित है।
वृषभ प्रसाद जैन प्रोफेसर एवं निदेशक
भाषा-केन्द्र महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय,
१/१२, सेक्टर - एच, अलीगंज, लखनऊ
सब कुछ देख आँख मत मींचो
मृत्यु खड़ी मुँह बाये देखो, काला नाग खड़ा डसने को। नाकारा बन यहाँ रहोगे. दुनिया है तुम पर हँसने को।। ढोंगी साधु से तो अच्छा, फुटपाथों पर पड़ा भिखारी ।
योगेन्द्र दिवाकर हाथ पसारे भीख माँगता मानवता का नहीं शिकारी ॥ सब कुछ देख आँख मत मींचो, रोनी सी मत सकल बनाओ। आँसू से मरूथल को सींचो, और स्वेद से फसल उगाओ ।
दिवानिकेतन, सतना (म.प्र.)
-फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित 5
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