SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 6
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 4 सम्पादकीय जैन जीवन के बिना जैन शिक्षा संस्थान अधूरे या बेकाम के . प्राचीन भारत के शास्त्र पर दृष्टि डालें तो आपको साफ दिखेगा कि जैनों की उपस्थिति आयुर्वेद, साहित्य, साहित्य शास्त्र व्याकरण, गणित, पुराण आदि सभी क्षेत्रों में रही है। संस्कृत के बारह व्याकरणिक सम्प्रदायों में से अधिकतम जैनों के नेतृत्व के द्वारा प्रख्यापित हुए हैं, लेकिन यदि आप उसके उत्तरार्ध में देखें, तो आपके मन में एक सवाल बराबर उठेगा कि मध्यकाल तक जैनों की वैचारिक उपस्थिति साहित्य एवं विभिन्न ज्ञान-विज्ञान आदि के क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण रही और यही कारण था कि जैन बृहत्तर समाज के हिस्से होते हुए भी अपनी अलग पहचान भी बनाये रहे, पर इधर यदि आप अखिल भारतीय स्तर पर आँकें, तो दस बड़े नाटककारों, दस बड़े वैज्ञानिकों, दस बड़े कवियों, दस बड़े निबंधकारों, दस बड़े चित्रकारों, दस बड़े संगीतकारों आदि-आदि में जैनों की उपस्थिति लगभग नहीं जैसी दिखेगी। उसका प्रमुख कारण यह रहा कि हमने पहले तो बहुत शैक्षिक संस्थान बनाये नहीं और उनमें जो बनाये भी, वे नाम के जैन संस्थान-भर रहे, या फिर वे केवल जैनधर्म, जैन-अध्यात्म या जैनदर्शन-भर को पढ़ाने वाले शिक्षा संस्थान के रूप में रहे। वास्तव में सम्पूर्णता के साथ जुड़ने वाला या जुड़ा रहने वाला जैन विचार शास्त्र, जैन साहित्य, जैन जीवन-पद्धति आदि उनसे कोशों दूर रही। इसीलिए किसी भी जैन महाविद्यालय से बी.ए., बी.एस.सी. या बी. काम करने वाले छात्रों ने ऐसा कुछ अलग न पढ़ा और न सीखा ही, जो एक जैनेतर महाविद्यालय से बी.ए., बी.एस.सी., बी. काम करने वाल छात्र ने सीखा होता। इधर जो हमारे विद्वान् हुए भी वे जैनेतर विद्वानों की तुलना में अपने को उस रूप में समाज में बौद्धिक स्तर पर स्थापित भी न कर पाये अर्थात् यदि उसे गलत अर्थों में न लिया जाए, तो उनकी पहचान दोयम स्तर की रही, जिसका नुकसान यह हुआ कि हम जब मध्यकालीन साहित्य पढ़ते हैं, तो उससे जैन रचनाकार लगभग गायब हैं, कुछ एक जैन रचनाकार एवं जैन वैज्ञानिक जरूर उभरे, पर उनकी उपस्थिति भी जैनत्व के साथ लगभग नहीं है। जैन महाविद्यालयों, विद्यालयों आदि की स्थापना पर हमने जैन समाज के लाखों-करोड़ों, बल्कि कहा जाये, तो हमने अरबों रुपये लगा दिये, पर उससे जैनत्व को कोई बहुत बड़ा लाभ हुआ हो, ऐसा तथ्य नहीं है, नाम के लिए कुछ जैनों की उपस्थिति-भर समाज में उनसे दिख रही है। चूँकि पाठ्यक्रम निर्धारण में जैनों की प्रमुख भूमिका नहीं रही, इसलिए हमारे चाहने पर भी हमारी रचनाएँ वर्तमान में पढ़ाये जाने वाले विश्वविद्यालयों, विद्यालयों के पाठ्यक्रम में न जा पायीं और जब वे पाठ्यक्रमों में गईं नहीं तो उनमें अध्ययन-अनुसंधान करने वाले विद्वानों की रुचि भी क्रमशः घटती गई और अब धीरे-धीरे स्थिति ऐसी होती जा रही है कि ऐसे विद्वानों का मिलना लगभग मुश्किल सा होता जा रहा है, जो हमारी परम्परा की मूल रचना को बिना किसी टीका के सीधे समझ पाएँ और यह गति यदि अगले 20-25 साल और चल गयी, तो निश्चय मानिए कि हमारी परम्परा के, हमारे ग्रन्थों के जानकार, हमारी रचनाओं के विचार - बिन्दुओं के जानकार ढूंढे नहीं मिलेंगे। इसलिए बच्चों के/ शिक्षार्थियों के पाठ्यक्रमों को निर्धारण करने वाली शक्ति हमारे हाथ में होनी चाहिए और वैसा करते समय हमें तटस्थ रूप में पाठ्यक्रम निर्धारित करने चाहिए। यह हमें तब हासिल होगी, जब हम ऐसी किसी संस्था के नियंत्रक बनें, ऐसी संस्था स्थापित करें, चूँकि अब प्राइवेटाइजेशन का जमाना आ गया है या आ रहा है, इसलिए इधर यह होना अब पहले की तुलना में आसान भी है, पर इस सबके लिए जरूरी है कि हम जो जैन संस्थाएँ बनाएँ, उनमें परम्परा में उपलब्ध फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524294
Book TitleJinabhashita 2005 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy