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________________ स्याद्वादमहाविद्यालय के अमूर्तशिल्पी, सोलहवानी के सुवर्ण: श्रद्धेय वर्णी जी किसी भी सामाजिक संस्था को अपने शताब्दी वर्ष की महायात्रा सम्पन्न करना अपने आप में एक अद्वितीय उपलब्धि हुआ करती है । अत्यंत हर्ष की बात है कि विपरीत परिस्थितियों में पुनीत भावना से स्थापित किया गया जैन समाज का प्रथम स्याद्वादमहाविद्यालय अपना शतक पूर्ण करते हुए शताब्दी वर्ष समारोह के साथ अपने संस्थापक, युगपुरुष, परमश्रद्धेय क्षु. १०५ गणेश प्रसादवर्णी जी की यशोगाथा गा रहा है। काल की तीव्रगति के साथ व्यक्ति की इहलीला समाप्त होते ही समाज उसको भुला देती है। किन्तु श्रद्धेय वर्णी जी इसके अपवाद हैं। जो काल पर भी विजय प्राप्त कर चिरस्मरणीय हो गये हैं। जिस प्रकार खदान से निकला हुआ सुवर्ण सोलह बार अग्नि का ताप प्राप्त कर पूर्ण शुद्धता को प्राप्त होता हुआ सोलहवानी का सुवर्ण कहलाता है । उसी प्रकार बुंदेलखण्ड की रत्नगर्भा पावनभूमि में जन्म लेकर अज्ञान के गहनवातावरण में जिन्हें ज्ञान का द्वीप प्रज्जवलित करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ अनेकों शिक्षा संस्थाओं को जन्म देकर बुंदेलखण्ड को विद्वानों की खान बनाने वाले, लोकोत्तर साधक के महानगुणों के प्रति बढ़ते हुए तीव्र गुणानुराग से प्रेरित होकर नन्हीं सी मेधा एवं लड़खड़ाती लेखनी से निस्रत सोलह विशेषताओं के साथ अपनी श्रद्धा का एक जिनवाणी शिशु ने समर्पण किया है। आशा है पाठकगण इस महापुरुष के जीवन चरित्र से अपने चरित्र को निर्मल बनायेंगे । 1. अटूट आस्था के मेरु शिखर : वैष्णव कुल में जन्म लिया, शिक्षा का प्रारंभ भी ब्राह्मण गुरु के द्वारा वैष्णव पाठशाला में हुआ । माता, पत्र एवं अन्य संबंधी सभी वैष्णव धर्म के कट्टर अनुयायी थे। सभी के द्वारा उपेक्षित एवं जाति से बहिष्कृत होने पर भी पूर्वभव के प्रबल संस्कार तथा अपने पिता श्री हीरालाल जी से प्राप्त णमोकार मंत्र के प्रति अत्यधिक श्रद्धा ने आपको न केवल जैन धर्म के प्रति आकर्षित किया अपितु अजैन से सच्चा जैनी बना दिया। आपकी जिनेन्द्रदेव एवं माँ जिनवाणी के प्रति अटूट भक्ति थी। परिणामतः अनेक विस्मयकारी कार्य हुए। शाश्वत् तीर्थ क्षेत्र सम्मेदशिखर जी की परिक्रमा करते हुए भीषणगर्मी में मार्ग भटक गए, जल के अभाव में प्राण कंठ में आ गए। सच्चे हृदय से पार्श्वप्रभु को स्मरण करते ही शीतल जल से भरा हुआ झरना मिल गया । पेटभर पानी पिया और श्रद्धा को भी बल मिल गया। आपके जीवन में अनेक प्रतिकूल परिस्थितियाँ आईं लेकिन बड़ी से बड़ी प्रतिकूलता आपकी आस्था को नहीं डिगा सकी। आप सच्चे अर्थों में एक सम्यग्दृष्टि पुरुष थे, आपके जीवन में Jain Education International ब्र. संदीप 'सरल' सम्यग्दर्शन के आठों अंग परिलक्षित होते थे । 2. अचल साहसिक संकल्प के धनी : मेरी जीवन गाथा पढ़ने पर ज्ञात होता है कि रुग्णावस्था, विपन्नावस्था, शास्त्रज्ञान से शून्यावस्था, समाज द्वारा उपेक्षित एवं एक विद्वान द्वारा अपमानित होने पर इन सभी अवस्थाओं को कर्मोदय जन्य मानते हुए पैदल यात्राएँ भी की, सड़क पर मिट्टी डालने के कार्य से भी पीछे नहीं हटे, अपने सामान की चोरी होने पर दो पैसे के चने चबाकर उदरपूर्ति जैसी परिस्थितियों में भी संकल्प से विचलित नहीं हुए । जैन दर्शन के अध्ययन की पिपासा लेकर एक पण्डित जी के पास पहुँचे, किन्तु तुम जैन हो, हम नहीं पढ़ा सकते। इस अपमान के घूँट को नहीं पी सके और संकल्प कर लिया कि इसी काशी में विद्यालय की स्थापना करने के पहले चैन से नहीं बैठूंगा और उन्होंने कठिनाईयों से जूझते हुए अपने संकल्प का परिचायक स्याद्वादमहाविद्यालय खड़ा कर दिया। 3. विनम्रता सरलता के धनी : आपका जीवन अत्यधिक विनम्र था। सरलता तो कूट-कूट कर भरी हुई थी। आपके संपर्क में आने वाले धीमान्-श्रीमान् सभी सरलता का पाठ पढ़कर नतमस्तक हो जाया करते थे। आपने अपने अध्ययनकाल में जिनजिन गुरुओं से ज्ञानार्जन किया, उनके हृदय में भी आपकी सरलताविनयसम्पन्नता ने अमिटस्थान बनाया था। न्यायग्रंथ अष्टसहस्री के अध्ययन पूर्ण होने पर आपने अपने गुरु अम्बादास शास्त्री को हीरे की अंगूठी समर्पित करते हुए कहा कि आज मैं इतना प्रसन्न हूँ कि यदि मेरे पास राज्य होता तो पूरा राज्य ही समर्पित कर देता । ज्ञान और ज्ञानवानों के प्रति इतनी प्रगाढ़ विनम्रता वर्णी जी के जीवन में थी । 4. अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी : आपका पूरा समय ज्ञानदेवी की उपासना में ही लगा रहता था । निरंतर ज्ञानाभ्यास में संलग्न रहने वाले इन महामनीषी ने अपने जीवन की सारी श्वांसें ज्ञान के प्रचार-प्रसार के साथ स्व को पाने में ही लगाई। वर्णी वाणी के 4 खण्ड, समयसार ग्रंथ की टीका एवं मेरी जीवन गाथा के दोनों खण्ड एवं हजारों पत्र जो कि आध्यात्मिकता से भरे हुए हैं आपके अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग के ही परिचायक हैं। 5. ज्ञानरथ के प्रवर्तक : कुरीतियों एवं अज्ञानता की राजधानी इस बुंदेलखण्ड में वर्णी जी ने अनुभव किया कि ज्ञान के अभाव में धर्मप्रभावना के नाम पर कोरे क्रियाकाण्ड में जनता उलझी हुई है। आपने धार्मिक शिक्षा महत्व को समझाते हुए । बुंदेलखण्ड में परिभ्रमण करते हुए अपनी सरल भाषा में ज्ञान की For Private & Personal Use Only फरवरी मार्च 2005 जिनभाषित 19 www.jainelibrary.org
SR No.524294
Book TitleJinabhashita 2005 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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