SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सामयिक चिंतन मूलचन्द लुहाड़िया श्री सूरजमल जी जैन ने एक लेख में जैन तीर्थंकर की | करना उपयुक्त नहीं है। प्रतिमाओं के अभिषेक के औचित्य एवं उपयोगिता पर प्रश्न चिन्ह | यह अवश्य है कि पूजा अभिषेक आदि क्रियाओं में लगाया है। उनका मुख्य तर्क यह है कि तीर्थंकरों के मुनि अवस्था | अहिंसा धर्म की पालना का ध्यान रखा जाना अत्यंत आवश्यक है में स्नान का निषेध होने से अभिषेक नहीं होता और अहँत अन्यथा परिणामों की वांछित विशुद्धि भी प्राप्त नहीं हो पायेगी। अवस्था में भी अभिषेक नहीं होता अत: उन तीर्थंकरों की प्रतिमा | आचार्य समंतभद्र देव द्वारा स्थापित 'सावधलेशो बहु पुण्य राशौ' का भी अभिषेक नहीं किया जाना चाहिए। इस बात पर विचार | के सिद्धांत के अनुसार इन क्रियाओं में न्यूनतन सावध हो और करने के लिए यह समझ लेना आवश्यक है कि जिनेन्द्र भगवान | अधिकतम परिणामों की विशुद्धि प्राप्त हो यह विवेक और सावधानी और जिन प्रतिमा दोनों भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं। यद्यपि जिन प्रतिमा तो आवश्यक है। जिनेन्द्र भगवान की प्रतिकृति है तथापि दोनों की पदार्थ भिन्नता के गंधोदक किसी लौकिक लाभ की मान्यता से नहीं लगाया कारण उनके प्रति हमारे व्यवहार में भी भिन्नता होना स्वाभाविक | जाता है अपितु जिस प्रकार पूज्य जिनेन्द्र देव की चरण रज मस्तक है। जिनेन्द्र भगवान चेतन हैं किंतु प्रतिमा जड़ है। उपासक जड़ पर लगाना व चरण स्पर्श करना उनके प्रति विनय का प्रतीक है प्रतिमा को यद्यपि साक्षात् चेतन भगवान मानते हुए उपासना करता | उसी प्रकार गंधोदक लगाना भी विनय प्रदर्शन का ही अंग है। है। तथापि वह जड़ प्रतिमा के कारण प्राप्त भगवान के प्रति अपनी | जिनेन्द्र भगवान किसी का भला बुरा नहीं करते किंतु उनके गुणों विनयाभिव्यक्ति के अतिरिक्त प्रकारों का लाभ उठाने का लोभ भी | में अनुराग रखते हुए भक्ति करने वाले उपासक के परिणामों की संवरण नहीं कर पाता है। अभिषेक भक्ति एवं विनय की अभिव्यक्ति विशुद्धि के कारण उसका स्वतः भला हो जाता है। आचार्य का एक सशक्त माध्यम है जो साक्षात अर्हत भगवान के प्रसंग में | समंतभद्र कहते हैं: प्राप्त नहीं हो पाता है। अतः अहँत प्रतिमा का अभिषेक सहज 'न पूजयार्थ स्त्वयि वीतरागे। न निदंया नाथ विवांत वैरे। उपलब्ध होने पर उपासक अपने परिणामों की विशुद्धि के इस तथापि ते पुण्य गुण स्मतिर्न । पुनातु चित्तं दुरितांजनेभ्यः॥' निमित्त का लाभ उठाने से वंचित कैसे रह सकता है? अभिषेक पूजा वंदना आदि शुभ क्रियाएँ परिणामों की विशुद्धि की पाठ में कवि ने उपासक की भावना व्यक्त करते हुए लिखा है:- साधक होने से हितकारी है अतः उपादेय हैं। किंतु साधन को 'पापाचरण तजि न्हवन करता चित्त में ऐसे धरूं। साधन समझकर परिणामों की विशुद्धि रूप साध्य को सिद्ध करने साक्षात् श्री अहँत का मानो न्हवन परसन करूँ॥ की दृष्टि रहनी चाहिए। यदि साधन को ही साध्य समझकर साध्य ऐसे विमल परिणाम होते अशुभ नशि शुभ बंधतें। को विस्मृत करते हुए साधन में ही अटक कर रह जायेगा तो साध्य विधि अशुभ नशि शुभ बंध द्वैतै शर्म सब विधि तास तें॥' | प्राप्त नहीं हो पायेगा। जिस प्रकार साध्य निरपेक्ष साधन व्यर्थ है उपासक के द्वारा उपासना के अंग के रूप में जिनेन्द्र | उसी प्रकार साधन निरपेक्ष साध्य की चर्चा कार्यकारी नहीं है। प्रतिमाओं का अभिषेक किए जाने का विधान प्राचीन जैन आगम | 'हतं ज्ञानं क्रिया हीनं हताचाज्ञानिनां क्रिया।' अस्तु अनेकांत दृष्टि में अनेक स्थलों पर प्राप्त है। ही हितकारी है। तिलोय पण्णत्ति भाग 3 गाथा 104 - यह सत्य है कि इन दिनों किन्हीं साधुओं के द्वारा केवल कुव्वंते अभिसेयं महाविभूदीहि ताण देविंप्त। क्रियाकांड पर अत्यधिक जोर दिया जा रहा है। अधिक खेद की कंचण कमल मादेहिं विडल जलेहिं सुगंधेहि॥104॥ | बात तो यह है कि जिनेन्द्र भगवान को छोड़कर रागी द्वेषी देवी देवेन्द्र महान विभूति के साथ उन जिन प्रतिमाओं का स्वर्ण | देवताओं की पूजा आराधना विशेष रूप से की जाने लगी है। कलशों से भरे हुए विपुल सुगंधित जल से अभिषेक करते हैं। आगम ज्ञान शून्य जनसाधारण में लौकिक सिद्धिओं की प्राप्ति एवं आचार्य पूज्यपादकृत नन्दीश्वर भक्ति के श्लोक सं.15 में | संकट दूर होने का लोभ जाग्रत कर योजनाबद्ध रूप से इस भाव भेदेन वर्णना का सौधर्मः स्नपन कर्तृता मापन्नः। | निरपेक्ष क्रिया कांड में उलझाया जा रहा है। अध्यात्म प्रधान परिचारक भाव मिता:शेषेन्द्र रून्द्रचन्द्रनिर्मल यशसः।n5 | वैज्ञानिक जैन धर्म पर आई यह संकट की स्थिति वस्तुत: चिंतनीय उन प्रतिमाओं के अभिषेक कार्य में रत हुआ उस भक्ति | है। काश हमारे साधु विद्वान और नेतागण इस वीतराग जैनधर्म के पूर्ण दृश्य का क्या वर्णन किया जा सकता है। शेष इन्द्र भी उस | इस हो रहे अवर्णवाद को रोक कर धर्म के आध्यात्मिक मूल्यों की अभिषेक कार्य में सहयोगी बनकर पूर्ण चन्द्रमा के समान यश प्राप्त | पुनर्स्थापना करने की दिशा में प्रयत्नशील हों। करते हैं। अतः एकांत भावातिरेक वश प्रतिमाभिषेक का निषेध । मदनगंज -किशनगढ़ (राजस्थान ) 18 फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524294
Book TitleJinabhashita 2005 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy