SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 4
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उस शासक के नौकर चाकर हैं। भगवान महावीर कहते हैं | में स्वरूप पर दृष्टिपात आप करते हैं समझिये उतनी मात्रा में कि प्रत्येक आत्मा में परमात्मा बनने की शक्ति विद्यमान है। आप आज भी महावीर भगवान के समीप हैं, उनके उपासक परमात्मा की उपासना करके अनंत आत्माएँ स्वयं परमात्मा है। जिस व्यक्ति ने वीतराग पथ का आलंबन लिया है, उस व्यक्ति बन चुकी हैं और आगे भी बनती रहेगी। हमारे अंदर जो | ने ही वास्तव में भगवान महावीर के पास जाने का प्रयास किया शक्ति राग-द्वेष और मोह रूपी विकारी भावों के कारण | है। वही व्यक्ति आत्म-कल्याण के साथ-साथ विश्व कल्याण तिरोहित हो चुकी है। उस शक्ति को उद्घाटित करने के | | कर सकता है। लिए और आत्मानुशासित होने के लिए समता भाव की आप आज ही यह संकल्प कर लें कि हम अनावश्यक अत्यंत आवश्यकता है। पदार्थों को, जो जीवन में किसी प्रकार से सहयोगी नहीं हैं, वर्तमान में समता का अनुसरण न करते हुए हम | त्याग कर देंगे। जो आवश्यक उसको भी कम करते उसका विलोम परिणमन कर रहे हैं। समता का विलोम है | जायेंगे। आवश्यक भी आवश्यकता से अधिक नहीं रखेंगे। तामस। जिस व्यक्ति का जीवन वर्तमान में तामसिक तथा | भगवान महावीर का हमारे लिए यही दिव्य संदेश है कि राजसिक है, सात्त्विक नहीं है, वह व्यक्ति भले ही बुद्धिमान | जितना बने उतना अवश्य करना चाहिए। यथाशक्ति त्याग हो, वेदपाठी हो तो भी तामसिक प्रवृत्ति के कारण कुपथ की | की बात है। जितनी अपनी शक्ति है जितनी ऊर्जा और बल ओर ही बढ़ता रहेगा। यदि हम अपनी आत्मा को जो राग, | उतना तो कम से कम वीतरागता की ओर कदम बढ़ाइये। द्वेष, मोह, मद, मत्सर से कलंकित हो चुकी है। विकृत हो सर्वाधिक श्रेष्ठ यह मनुष्य पर्याय है। जब इसके माध्यम से चुकी है उसका संशोधन करने के लिए महावीर भगवान की आप संसार की ओर बढ़ने का इतना प्रयास कर रहे हैं। तो जयंती मानते हैं, तो यह उपलब्धि होगी। केवल लंबी चौड़ी | यदि आप चाहें तो अध्यात्म की ओर भी बढ़ सकते हैं। भीड़ के समक्ष भाषण आदि के माध्यम से प्रभावना होने | शक्ति नहीं है ऐसा कहना ठीक नहीं है। वाली नहीं है। प्रभावना उसके द्वारा होती है। जो अपने मन 'संसार सकल त्रस्त है पीडित व्याकुल विकल/इसमें के ऊपर नियंत्रण करता है और सम्यग्ज्ञान रूपी रथ पर | है एक कारण/हृदय से नहीं हटाया विषय राग को/हृदय में आरूढ़ होकर मोक्षपथ पर यात्रा करता है। आज इस पथ पर | नहीं बैठाया वीतराग को/जो शरण, तारण-तरण।' दूसरे पर आरूढ़ होने की तैयारी होनी चाहिये। अनुशासन करने के लिए तो बहुत परिश्रम उठाना पड़ता है 'चेहरे पर चेहरे हैं बहत-बहुत गहरे हैं, खेद की बात | पर आत्मा पर शासन करने के लिए किसी परिश्रम की तो यही है, वीतरागता के क्षेत्र में अंधे और बहरे हैं? आज | आवश्यकता नहीं है, एक मात्र संकल्प की आवश्यकता है। मात्र वीतरागता के नारे लगाने की आवश्यकता नहीं है। जो | संकल्प के माध्यम से मैं समझता हूँ आज का यह हमारा परिग्रह का विमोचन करके वीतराग पथ पर आरूढ़ हो चुका जीवन जो कि पतन की ओर है वह उत्थान की ओर, पावन है या होने के लिए उत्सुक है वही भगवान महावीर का | बनने की ओर जा सकता है। स्वयं को सोचना चाहिये कि सच्चा उपासक है। मेरी दृष्टि में राग का अभाव दो प्रकार से | अपनी दिव्य शक्ति का हम कितना दुरुपयोग कर रहे हैं। पाया जाता है। अराग अर्थात् जिसमें रागाभाव संभव ही नहीं आत्मानुशासन से मात्र अपनी आत्मा का ही उत्थान नहीं है ऐसा जड़ पदार्थ और दूसरा वीतराग अर्थात् जिसमें रागभाव | होता अपितु बाहर जो भी चैतन्य है उन सभी का उत्थान भी होता संभव ही नहीं है ऐसा जड़ पदार्थ और दूसरा वीतराग अर्थात | है। आज भगवान का जन्म नहीं हुआ था, बल्कि राजकुमार जिसने राग को जीत लिया है, जो रागद्वेष से ऊपर उठ गया | वर्धमान का जन्म हुआ था। जब उन्होंने वीतरागता धारण कर है। सांसारिक पदार्थों के प्रति मूर्छा रूप परिग्रह को छोड़कर | ली वीतराग-पथ पर आरूढ़ हुए और आत्मा को स्वयं जीता, तब जो अपने आत्म स्वरूप में लीन हो गया है। पहले राग था महावीर भगवान बने । आज मात्र भौतिक शरीर का जन्म हुआ अब उस राग को जिसने समाप्त कर दिया है, जो समता भाव | | था। आत्मा तो अजन्मा है। वह तो जन्म मरण से परे है। आत्मा से आरूढ़ हो गया है, वही वीतराग है। निरंतर परिणमनशील शाश्वत द्रव्य है। भगवान महावीर जो राग की उपासना करना अर्थात् राग की ओर बढ़ना एक | पूर्णता में ढल चुके हैं उन पवित्र दिव्य आत्मा को मैं बार-बार प्रकार से महावीर भगवान के विपरीत जाना है । यदि महावीर | नमस्कार करता हूँ। यही प्रार्थना वीर से, अनुनय से कर जोर। भगवान की ओर, वीतरागता की ओर बढ़ना हो तो धीरे-धीरे राग हरी भरी दिखती रहे, धरती चारों ओर।" कम करना होगा। जितनी मात्रा में राग आप छोड़ते हैं जितनी मात्रा 'समग्र' से साभार 2 फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524294
Book TitleJinabhashita 2005 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy