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________________ आनंद का स्रोत : आत्मानुशासन ० आचार्य श्री विद्यासागर जी आज हम एक सुनने, समझने के लिए ये कर्ण पर्याप्त नहीं है। ज्ञानचक्षु के माध्यम पवित्र आत्मा की स्मृति से ही हम महावीर भगवान की दिव्य छवि का दर्शन कर सकते हैं। के उपलक्ष्य में एकत्रित हुये हैं। भिन्न-भिन्न लोगों ने इस उनकी वाणी को समझ सकते हैं। भगवान महावीर का शासन महान् आत्मा का मूल्यांकन भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से किया रागमय शासन नहीं रहा, वह वीतरागमय शासन है। वीतरागता है। लेकिन सभी अतीत में झांक रहे हैं। महावीर भगवान बाहर से नहीं आती, उसे तो अपने अंदर जागृत किया जा सकता अतीत की स्मृति मात्र से हमारे हृदय में नहीं आयेंगे। वास्तव है। यह वीतरागता ही आत्म-धर्म है। यदि हम अपने ऊपर शासन में देखा जाये तो महावीर भगवान एक चैतन्य पिंड हैं वे कहीं करना सीख जायें, आत्मानुशासित हो जाएँ तो यही वीतराग आत्म गये नहीं है वे प्रतिक्षण विद्यमान हैं किन्तु सामान्य आँखे उन्हें धर्म, विश्वधर्म बन सकता है। देख नहीं पाती। भगवान पार्श्वनाथ के समय ब्रह्मचर्य की अपेक्षा अपरिग्रह देश के उत्थान के लिए, सामाजिक विकास के लिए को मुख्य रखा था। सारी भोग-सामग्री परिग्रह में आ ही जाती है। और जितनी भी समस्याएँ हैं उन सभी के समाधान के लिए इसलिए अपरिग्रह पर अधिक जोर दिया गया। वह अपरिग्रह आज अनुशासन को परम आवश्यक माना जा रहा है। लेकिन आज भी प्रासंगिक है। भगवान महावीर ने उसे अपने जीवन के भगवान महावीर ने अनुशासन की अपेक्षा आत्मानुशासन को विकास में बाधक माना है। आत्मा के दुख का मूलस्रोत माना है। श्रेष्ठ माना है। अनुशासन चलाने के भाव में मैं बड़ा और दूसरा किन्तु आप लोग परिग्रह के प्रति बहुत आस्था रखते हैं। परिग्रह छोटा इस प्रकार का कषाय भाव विद्यमान है लेकिन छोडने को कोई तैयार नहीं है। उसे कोर्ट बरा नहीं मानता। जब आत्मानुशासन में अपनी ही कषायों पर नियंत्रण की । व्यक्ति बुराई को अच्छाई के रूप में और अच्छाई को बुराई के रूप आवश्यकता है। आत्मानुशासन में छोटे-बड़े की कल्पना में स्वीकार कर लेता है, तब उस व्यक्ति का सुधार, उस व्यक्ति का नहीं है। सभी के प्रति समता भाव है। विकास असंभव हो जाता है। आज दिशाबोध परमावश्यक है। अनादिकाल से इस जीवन ने कर्तृत्व-बुद्धि के परिग्रह के प्रति आसक्ति कम किये बिना वस्तुस्थिति ठीक माध्यम से विश्व के ऊपर अनुशासन चलाने का दम्भ किया प्रतिबिंबित नहीं हो सकती। है। उसी के परिणामस्वरूप यह जीव चारों गतियों में भटक 'सम्यदर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' की घोषणा रहा है । चारों गतियों में सुख नहीं है, शांति नहीं है, आनंद सैद्धांतिक भले ही हो किन्तु प्रत्येक कार्य के लिए यह तीनों बातें नहीं है, फिर भी यह इन्हीं गतियों में सुख-शांति और आनंद प्रकारांतर से अन्य शब्दों के माध्यम से हमारे जीवन में सहायक की गवेषणा कर रहा है। वह भूल गया है कि दिव्य घोषणा है सिद्ध होती हैं। आप देखते हैं कि कोई भी, सहज ही किसी को कह संतों की, कि सुख शांति का मूल स्रोत आत्मा है। वहीं इसे देता है या माँ अपने बेटे को कह देती है कि बेटा, देखभाल कर खोजा और पाया जा सकता है। यदि दुख का, अशांति और चलना, 'देख' यह दर्शन का प्रतीक है, भाल' विवेक का प्रतीक आकुलता का कोई केन्द्र बिंदु है, तो वह भी स्वयं की विकृत है, सम्यग्ज्ञान का प्रतीक है और चलना' यह सम्यक्चारित्र का दशा को प्राप्त आत्मा ही है। विकृत-आत्मा स्वयं अपने ऊपर प्रतीक है। इस तरह यह तीनों बातें सहज ही प्रत्येक कार्य के लिए अनुशासन चलाना नहीं चाहता, इसी कारण विश्व में सब आवश्यक हैं। ओर अशांति फैली हुई है। आप संसार के विकास के लिए चलते हैं तो उसी भगवान महावीर की छवि का दर्शन करने के लिए ओर देखते हैं, उसी को जानते हैं। महावीर भगवान आत्म भौतिक आँखें काम नहीं कर सकेंगी, उनकी दिव्यध्वनि विकास की बात करते हैं। उसी ओर देखते, उसी को जानते Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.524294
Book TitleJinabhashita 2005 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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