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बारी-शिक्षा
० क्षुल्लक श्री ध्यानसागर जी
यदि नारी रखती नहीं, मर्यादा का ध्यान। भारत में होता नहीं, नारी का सम्मान ॥१॥
सतियों के इस देश में, स्मरण करो वे चित्र।
चमत्कार जब थे हुए, पाकर स्पर्श पवित्र ॥२॥ शीलवती के स्पर्श से, नाग बन गया हार । बंद द्वार भी खुल गए, नीर बने अंगार ॥३॥
मेरु धसे पाताल में, सागर जावे सूख।
सती नार के शील में, कभी न होवे चूक॥४॥ चंदा सूरज हो सके, सूरज चन्दा होय। शील-धुरंधर नार को, डिगा न पावे कोय॥५॥
सागर सीमा छोड़ दे, शीतल हो अंगार। नारी पतिव्रता नहीं, तजे शील श्रृंगार ॥६॥ रूप-प्रदर्शन शील का, है भारी अपमान। संस्कारित नारी सदा, रखती इसका ध्यान ॥७॥
सेवाभावी नार को , पति-निन्दा न सुहाय। बिन परखे उसकी परख, विपदा में हो जाये॥८॥ अबला का मन हो सबल, मार्यादित हो वेश। लक्ष्मण-रेखा में नहीं, रावण करे प्रवेश॥९॥
शील-धर्म पाले बिना, जीवन में क्या सार ?
काया का सौन्दर्य तो, है अत्यंत असार ॥ १० ॥ बुरा देखना पाप है, कहना-सुनना पाप। बुरा सोचना पाप है, रहो सदा निष्पाप ॥११॥
भौतिकता की दौड़ में, पागल हैं सब आज। कल रोयेगी फूट के, संस्कृति और समाज ॥ १२ ॥
आज सभी को चाहिये, रुपया रूप रुआब। नारी भी पीने लगी, धुंआ और शराब ॥ १३॥
अवसर रहते छोड़ दो, कुटिल पश्चिमी होड़।
गड्ढे में ले जायेगी, वरना अंधी होड़॥१४॥ ऐसा कुछ भी ना करो, रखना पड़े छुपाय। छुपी-छुपायी बात भी, एक दिवस खुल जाय ॥ १५ ॥
भावुकता में भी कभी, खोना नहीं विवेक।
झूठी सहानुभूति से, नारी लुटें अनेक॥१६॥ सपने मत देखो अधिक, मानव बड़े विचित्र । वचन भल जाते यहाँ, अपने ही कछ मित्र ॥ १७॥
आँसू कई प्रकार के, कुछ धोखे के बीज।
स्वार्थ भरा संसार है, जाना नहीं पसीज ॥१८॥ सबसे सबकुछ ना मिले, कुछ-कुछ सबके पास। जो मिलना संभव नहीं, छोड़ो उसकी आस ॥ १९॥
सुविधाओं से मत कभी, रखना सुख की आस।
सुख-दुख मन का खेल है, रखना कुंजी पास ॥२०॥ तन का तनिक करो अधिक, निज मन का श्रृंगार। अन्दर से सुन्दर बनो, आडम्बर नि:सार ॥ २१॥
निडर बनो बहको नहीं, कभी बनो मत दीन। ईर्ष्या, चुगली, छल-कपट, छोड़ो दुर्गुण तीन ॥ २२ ॥ आदर दो, स्नेही बनो, तोड़ो मत विश्वास। कार्य करो अपना स्वयं, घर हो सुख का वास ॥ २३ ॥
पाक-कला, मीठे-वचन, विनय और वात्सल्य। जिस नारी के पास है, उसको कैसी शल्य ॥ २४ ॥
नारी के व्यवहार से, स्वर्ग धरा पर आय। उसके दुर्व्यवहार से, धरा नरक बन जाय ॥ २५ ॥
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Alp
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